Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

गांधी बिना चश्मा, नेहरू बिना बाल दिवस

हिंदुत्व ब्रिगेड ने एक तरह से उपनिवेशवादी विरोधी या सामाजिक गुलामी विरोधी प्रतीकों का रफ़्ता-रफ़्ता मामूलीकरण किया है या उन्हें बिल्कुल ही गायब कर दिया है।
nehru gandhi and ambedkar

ख़बरों के मुताबिक इस बार 14 नवम्बर–जिसे हम जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन के साथ जोड़ कर देखते आए थे - तमाम स्कूलों में बिल्कुल अलग ढंग से मनाया गया, तरह-तरह के आयोजन हुए, कई स्कूलों में तो सांस्कृतिक  कार्यक्रम के दौरान अध्यापिकाओं ने बच्चों के स्वागत के लिए स्टेज पर नृत्य  भी किए।

अलबत्ता फरक महज इतना ही था कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू–जो बच्चों को बहुत पसंद करते थे, इन सभी में लगभग गायब मिले, जिनके बच्चों के प्रति उनके प्यार को रेखांकित करने के लिए नवस्वाधीन भारत सरकार द्वारा बच्चों के कल्याण के लिए उठाए गए तमाम कदमों को उजागर करने के लिए इसकी शुरूआत की गयी थी। गौरतलब है कि नवस्वाधीन भारत सरकार ने 14 नवंबर को बाल दिवस मनाने के मसले को कानूनी फ्रेमवर्क में भी शामिल किया है (वर्ष 1957)।

 वैसे गनीमत ही समझी जाएगी कि इस बार बाल दिवस के पहले सोशल मीडिया में यह बहस नहीं दिखाई दी कि 14 नवम्बर को बाल दिवस मनाने का क्या औचित्य है?

कुछ साल पहले भाजपा के साठ से अधिक सांसदों ने बाकायदा अपनी सरकार के पास आवेदन भेज कर इसे बदलने की मांग की थी। सांसदों की तरफ से कहा गया था कि 14 नवम्बर को ‘चाचा दिवस’–क्योंकि नेहरू को बच्चे चाचा कहते थे–घोषित किया जाए और बाल दिवस को 26 नवंबर को मनाना शुरू किया जाए। कहा जाता है कि इसी दिन सिखों के गुरु गोविंद सिंह के चार अल्पवयस्क बच्चे और मुगल सम्राट औरंगज़ेब के शासन में मार दिए गए थे।
  
नेहरू बिना बाल दिवस मनाना इसे निश्चित ही महज मानवीय भूल नहीं कहा जा सकता है!

कहा जा सकता है कि 2014 में पहली दफा अपने बलबूते पूर्ण बहुमत से केन्द्र में सत्ता हासिल करने के बाद मौजूदा हुकूमत द्वारा नेहरू की अहमियत को कम करने, उन्हें इतिहास के पन्नों से भी गायब कर देने या उन्हें खलनायक या अय्याश साबित करने की जो सुसंगठित एवं सुनियोजित मुहिम जारी है, इसके अनिवार्य हिस्से के तौर पर ही इसे समझा जा सकता है।

आज़ादी के संघर्ष में दस साल से अधिक वक्त़ जेल में गुजारे और नवस्वाधीन भारत को आकार देने में अहम भूमिका निभाने वाले भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू–जिन्होंने धर्म और राजनीति के संमिश्रण के ख़तरे को बखूबी पहचाना था और स्वाधीन भारत को धर्मनिरपेक्ष आधारों पर खड़ा करने में नेतृत्वकारी रोल अदा किया था, और सबसे बढ़कर जिन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट्र खड़ा करने के फलसफे को चुनौती दी थी। वह हमेशा ही देश के मौजूदा सत्ताधारियों की आंखों की किरकिरी बने रहे हैं।  हमें यह भी नहीं भुलना चाहिए कि भारत को ‘हिन्दू पाकिस्तान’ बनाने की हिन्दू महासभा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इरादों के प्रति जनता को बार-बार आगाह किया था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पहली पाबंदी इन्हीं के प्रधानमंत्राीकाल में लगी थी।
 
‘बाल दिवस’ की चर्चाओं से नेहरू को ही गायब कर देना या उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष के महान नेता महात्मा गांधी को स्वच्छ भारत अभियान के आयकन तक सीमित कर देना, यह सब देश को ‘न्यू इंडिया’ बनाने में लगी ताकतों के व्यापक डिज़ाइन का हिस्सा है।
 
दरअसल उनके लिए वैसे तमाम प्रतीक मंजूर नहीं है जिन्होंने अपने जीते जी उनके संकीर्ण फलसफे का विरोध किया हो तथा जो आज जनता के प्रेरणा स्थल के तौर पर मौजूद हों। उनकी हमेशा कोशिश रहती है कि या तो ऐसे प्रतीकों का विकृतिकरण किया जाए, उनको जनता के आंखों से ओझल कर दिया जाए या संदर्भों से रहित उनकी छवि प्रस्तुत करके उन्हें भी ‘अपने’ ही आयकन के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाए

गांधी के छवि के चश्मे तक न्यूनीकरण या उनके हत्यारे ‘भारत के प्रथम आतंकवादी’ नथुराम गोडसे का बढ़ता महिमामंडन हम एक ही सिक्के के दो पहलू के तौर पर समझ सकते है।
 
याद होगा कि 15 अगस्त को लाल किले से अपनी पहली तकरीर में वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने 2 अक्तूबर को - महात्मा गांधी के जन्मदिन को - स्वच्छ भारत अभियान के आगाज़ करने का ऐलान किया था। जाहिरसी बात है कि व्यापक लोगों को यह स्पष्ट नहीं था कि यह एक ही तीर से दो निशाने साधने की बात है, एक तरफ नयी सत्तासीन सरकार अपनी एक नयी छवि पेश करना चाह रही थी कि और साथ ही साथ ब्रिटिश विरोधी महान जनसंघर्ष के अगुआ रहे तथा सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए अपनी जान तक कुर्बान किए महात्मा गांधी को  एक तरह से उनकी महान विरासत से काट कर स्वच्छ भारत अभियान के आयकन के तौर पर न्यूनीकृत  करना चाह रही थी।
 
स्वच्छ भारत अभियान का प्रतीक गांधी के चश्मे को बनाना इसी का प्रतिबिंबन था। प्रतीकों के विकृतिकरण या उनके मामूलीकरण में सामाजिक मुक्ति संग्राम के अग्रणी भी उनके चपेट में बखूबी आते गए हैं।

वर्ष 2017 का वह प्रसंग निश्चित ही जनता की यादों से ओझल नहीं हुआ होगा। जब महाड क्रांति–जैसा कि उसे दलित विमर्श में कहा जाता है (जब वर्ष 1927 में महाड के चवदार तालाब पर डॉ अम्बेडकर की अगुआई में ऐतिहासिक सत्याग्रह किया गया था और जातिप्रथा को चुनौति दी गयी थी) –की नब्बेवीं सालगिरह मनायी जा रही थी, तब हम सभी एक विचलित करने वाले नज़ारे से रूबरू थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हम वहीं कदमताल कर रहे हैं, और अब तक कहीं आगे नहीं बढ़े हैं।

मिसाल के तौर पर देश की राजधानी के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर प्रायोगिक तौर पर बिलबोर्ड लगाए गए थे, जिन्हें बाद में देश के अन्य रेलवे स्टेशनों पर लगाया जाना था और जिसे स्वच्छ भारत अभियान के हिस्से के तौर पर पेश किया गया था। इन बिलबोर्डस पर डॉ. अम्बेडकर को स्वच्छता के आयकन अर्थात प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत किया गया था, जिसमें अम्बेडकर सदृश्य  एक व्यक्ति को कतार में खड़े लोगों की अगुआई करते दिखाया गया था, जो कूडेदान में कूडा डाल रहे थे और बोर्ड पर लिखा है कि ‘आप के अन्दर के बाबासाहब को आप जागरूक करें। गंदगी के खिलाफ इस महान अभियान में अपना योगदान दें।’

उन अम्बेडकरी संगठनों एवं रैडिकल दलित कार्यकर्ताओं की पहल की तारीफ करनी पड़ेगी जिन्होंने सैकड़ों लोगों के साथ अम्बेडकर के इस अपमान का विरोध किया और ‘जातिवादी आग्रहों’ को प्रदर्शित करने वाले इन बिलबोर्डस को हटाने के लिए भारतीय रेल को मजबूर किया, मगर यह समूचा प्रसंग तमाम सवालों को छोड़ गया।

यह प्रश्न तत्काल उठा कि इन जातिवादी आग्रहों को दिखाने वाले बिलबोर्डस को बिना आपत्ति प्रमाणपत्र किसने दिया और उनके सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति आखिर किसने दी? और अब रेल मंत्रालय या संबंधित विभाग इस मामले में क्या कार्रवाई करनेवाला है? क्या भेदभाव के खिलाफ बने कानूनों के तहत किसी पर कोई कार्रवाई होने वाली है? आखिर इस बिलबोर्ड के संदेश के जरिए क्या सम्प्रेषित की जाने की कोशिश हो रही थी?

यही न कि देश के नीतिनिर्धारकों के लिए तथा उनके मातहत काम करने वालों के लिए डॉ. अम्बेडकर की अहमियत आज भी उत्पीड़ित जातियों के उन सदस्यों से अलग नहीं है जिन्हें वर्णव्यवस्था ने धर्म की मुहर लगा कर अस्वच्छ पेशों तक सीमित कर दिया है, जिनसे मुक्ति का हुंकार महाड सत्याग्रह था ! क्या यह एक तिरछी कोशिश थी ताकि वर्चस्वशाली जातियों में व्याप्त इस समझदारी को पुष्ट किया जाए कि इस मुल्क में समता के लिए चली लड़ाई में डॉ अंबेडकर के योगदान की या नवस्वाधीन भारत का संविधान बनाने में दिए उनकेे योगदान की उन्हें कोई कदर नहीं है? या वह इसी समझदारी को आगे बढ़ाना चाह रहे थे कि यह महान–जिनकी निजी लाइब्रेरी में बीस हजार से अधिक किताबें थीं–और जिन्होंने भारत की उत्पीड़ित-शोषित जनता के हितों के लिए जबरदस्त लेखन किया, उनकी हैसियत उनके लिए कुछ भी नहीं है!

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उसके स्वतंत्रता संग्राम या सामाजिक मुक्ति संग्राम के अग्रणियों की छवियों का यह विकृतिकरण निश्चित ही उस व्यापक पैटर्न का ही हिस्सा है, जिसके तहत हर सत्ताधारी जमात पुरजोर कोशिश करती है कि जनता के प्रेरणास्थलों को मामूली बनाकर पेश किया जाए।
 
क्या इसे महज संयोग कहा जा सकता है कि दुनिया के सबसे ताकतवर जनतंत्र में अश्वेतों के महान नेता मार्टिन ल्यूथर किंग जिन्होंने अश्वेतों को नागरिक अधिकार दिलाने के लिए ऐतिहासिक संघर्ष की अगुआई की और जो श्वेत वर्चस्ववादियों की गोलियों का शिकार बने उनके विचारों का हाशियाकरण तेजी से जारी है। पूंजीवाद के विरोधी मार्टिन ल्यूथर किंग, जिन्होंने अमेरिकी सरकार द्वारा विएतनाम पर आक्रमण का विरोध किया था, उनकी बेहद सैनिटाइज्ड छवि आज अमेरिकी माध्यमों में अधिक प्रचलित कर दी गयी है  कि वह किस तरह शांति के हिमायती थे आदि।

 कहा जाता है कि सत्ताधारी जमातों को Mythologise the Man. Marginalise the Meaning / मनुष्य को मिथक में बदल दो और उसकी सीख का हाशियाकरण कर दो / का तरीका बेहद पसंद आता है ताकि वह अपने आप को जनता के ऐसे तमाम आयकन का वारिस भी घोषित कर दें और उनकी बेहद सैनिटाइज्ड छवि को अधिक प्रचलित कर दें।

वैसे गांधी, नेहरू, अंबेडकर आदि की छवि केे न्यूनीकरण या विकृतिकरण में मुब्तिला जमातों की सक्रियता यहीं तक नहीं रुकती, वह उनके संकीर्ण विचारों के अगुआ तत्वों को भी समानांतर स्थापित करने की कोशिश करती है। नाथुराम गोडसे को  संसद के पटल पर ‘महान राष्ट्रभक्त’ कहलाने में उन्हें संकोच नहीं होता या अपने संगठन को आज़ादी के महान संघर्ष से दूर रखने वाले हेडगेवार, गोलवलकर के महिमामंडन में , यहां तक ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त ब्रिटिश सेना में भरती अभियान चलाने में सक्रिय रहे सावरकर–जिन्होंने अंदमान के जेल से अपनी रिहाई के लिए माफीनामे लिखे थे–को ‘स्वातंत्रयवीर’ कहलाने में उन्हें गुरेज नहीं होता।

यह किस्सा फिर किसी और दिन के लिए छोड़ देते हैं।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest