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अयोध्या फ़ैसले के बाद मुसलमानों में पार्टी और लीडरशिप को लेकर मंथन

राजनीति के जानकर मानते हैं कि ऐसा साफ़ नज़र आ रहा है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने कहीं न कहीं बहुसंख्यकवाद के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। वामपंथी पार्टियों को छोड़कर किसी राजनीतिक दल ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोपियों को सज़ा देने का ज़िक्र तक नहीं किया है।  
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प्रतीकात्मक फाइल फोटो। साभार गूगल

अयोध्या विवाद के फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते समय वामपंथी पार्टियों को छोड़कर किसी राजनीतिक दल ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के आरोपियों को सज़ा देने का ज़िक्र तक नहीं किया। मुस्लिम समाज का मानना है कि इस फ़ैसले का प्रभाव भविष्य की राजनीति पर ज़रूर पड़ेगा। ऐसे में देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समाज इस बात पर विचार कर रहा है कि वह किस दिशा में जाए ताकि वह अपने अधिकारों की लड़ाई मज़बूती से लड़ सके जबकि सांप्रदायिक ताकतें सत्ता के शीर्ष पर हैं।

भारत के कई प्रदेशों में चुनाव में मुस्लिम वोटों की अहम भूमिका होती है। उत्तर प्रदेश में क़रीब 20 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में लगभग 28 प्रतिशत और बिहार की क़रीब 17 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस समेत कई छोटे-बड़े दलों की नज़र मुस्लिम वोटों पर रहती है।

देश की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में कांग्रेस लगभग 29 साल से सत्ता दूर है। कहा जाता है कि जब से मुस्लिम और दलित कांग्रेस से दूर हुए तब से उसके हाथ में सत्ता नहीं आई है। मुस्लिम वोट 2007 में एकजुट होकर बहुजन समाज पार्टी को मिला तो प्रदेश में मायावती की पूर्ण बहुमत से सरकार बनी और 2012 में मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी के पक्ष में गया तो अखिलेश यादव ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया।

सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही नहीं बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की राजनीति चमकने के पीछे भी मुस्लिम वोटों का समर्थन था। बंगाल में मुसलमान वोटर समय समय पर वामपंथी दलों और तृणमूल कांग्रेस के साथ दिखाई दिया। देश के दूसरे प्रदेशों में मुसलमान सांप्रदायिक दलों के ख़िलाफ़ या तो कांग्रेस या किसी दूसरे क्षेत्रीय दल के साथ रहते आए हैं।

इस तरह समय समय पर ख़ुद को सेक्युलर दल कहने वालों ने मुस्लिम वोटों की मदद से सरकार बनाईं है। लेकिन हाल में अयोध्या विवाद के फ़ैसले के बाद, 6 दिसंबर 1992 के अभियुक्तों को सज़ा देने की बात वामपंथी दलों के अलावा किसी ने नहीं उठाई। इसके अलावा केवल एआईएमआइएम के असदुद्दीन ओवैसी अकेले ऐसे नेता हैं, जो आदलत के फैसले के ख़िलाफ़ खुलकर बोल रहे हैं।

कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सभी ने अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत किया है। लेकिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के अभियुक्तों को सज़ा देने की बात तक नहीं की। हर विषय पर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाली तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोला है।

सिर्फ़ वामपंथी दलों ने मुखर हो कर कहा की बाबरी मस्जिद विध्वंस में आरोपी नेताओ जिनमें लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती जैसे बड़े नाम शामिल हैं, को तुरंत सज़ा दी जाए।

इसे पढ़ें :  अयोध्या विवाद : फ़ैसले का सम्मान लेकिन कुछ सवाल पूछना ज़रूरी

सभी का मानना है कि भाजपा अभी इस मामले में भले ही खुद को बहुत संयमित दिखा रही है लेकिन भाजपा ख़ामोशी के साथ भविष्य में इस फ़ैसले का राजनीतिक लाभ ज़रूर लेगी।
किसके साथ जाएं?

अब मुस्लिम समाज इस बात पर विचार कर रहा है कि भविष्य में वह किस पार्टी को समर्थन करे जिससे उनके अधिकार की बात को मज़बूती से रखा जा सके।

लखनऊ यूनिवर्सिटी के ऐन्थ्रपॉलजी के पूर्व विभागाध्यक्ष और विचारक प्रोफ़ेसर नदीम हसनैन कहते हैं कि अब मुसलमानों को ऐसा विकल्प चुनना चाहिए जो उनके अधिकारों की पूरे देश में रक्षा कर सके। वह मानते हैं कि क्षेत्रीय दल ऐसे माहौल में जब साम्प्रदायिक ताक़तें सत्ता में हैं, मुसलमानो के अधिकारों की लड़ाई लड़ने में सक्षम नहीं है।

उनका कहना है कि मुसलमान वामपंथी दलों पर विश्वास कर सकते हैं क्योंकि वह अल्पसंख्यकों के लिए मुखर हैं और अयोध्या विवाद के बाद उनकी प्रतिक्रिया से भी लगता है कि वह अल्पसंख्यक समुदाय के लिए गंभीर हैं।

प्रोफ़ेसर नदीम कहते हैं कि जहाँ वामपंथी कमज़ोर हैं वहाँ दक्षिणपंथी दलों के मुक़ाबले दूसरे बड़े राष्ट्रीय दल को समर्थन करना चाहिए, क्योंकि वहां भी नीतिगत फ़ैसले लेते समय अल्पसंख्यक समाज को नज़र में रखा जाता है।

मुसलमान समुदाय में एक वर्ग मानता है कि सभी मुसलमानों को एक मंच पर आना होगा और धर्मगुरुओं को इस मंच से दूर रखना होगा। अंग्रेजी समाचार पत्र हिंदुस्तान टाइम्स के ब्यूरो चीफ़ रह चुके एम. हसन कहते हैं कि मुसलमान एक साथ होकर अपनी अगली राजनीतिक रणनीति बनाएं और धर्मगुरुओं के बदले अब बुद्धिजीवी वर्ग आगे आए।

एम. हसन कहते हैं कि कांग्रेस ने भी मुसलमानों को नुक़सान पहुँचाया है।उन्होंने कहा विकल्प बहुत से निकलेंगे जिनको हालत और जगह के अनुसार चुना जाएगा, लेकिन सांप्रदायिकता के मुक़ाबले अग़ले भविष्य में सेक्युलर बँटे तो परिणम गंभीर होंगे। वह मानते हैं कि मुसलमानो को जहाँ भी जाना है, सभी मिलकर जाएं ताकि उनकी सियासी ताक़त बटे नहीं, वरना इसका सीधा फ़ायदा सांप्रदायिकता का ज़हर समाज में घोलने वालों को मिलेगा।

मुस्लिम समुदाय ने अयोध्या विवाद का फ़ैसला तो स्वीकार किया है और उसका पूरा सम्मान करने की बात भी कर रहा है। लेकिन कहीं न कहीं मुस्लिम इस पूरे विवाद के लिए भारतीय जनता पार्टी के साथ कांग्रेस को ज़िम्मेदार मानते हैं। सय्यद ज़रग़ाम हुसैन कहते हैं कि इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि कांग्रेस ने मुसलमानों के साथ अच्छा नहीं किया। भारतीय नौ-सेना में रह के संग्राम पदक हासिल कर चुके ज़रग़ाम हुसैन कहते हैं कि जब सभी पार्टियों का झुकाव बहुसंख्यक की तरफ़ है, ऐसे में दलित-मुस्लिम एकता का महत्व बढ़ जाता है। 

भारत की तरफ़ से 1971 के युद्ध में भाग लेने वाले सय्यद ज़रग़ाम हुसैन कहते हैं की एआईएमआईएम ने कम से कम फ़ैसले की कमियों पर लोकतांत्रिक तरीक़े से आवाज़ तो उठाई है। अगर असदुद्दीन ओवैसी समाज के सभी वांचितो को साथ लेकर चले तो वह एक विकल्प के रूप में देश मुसलमानों को स्वीकार हो सकते हैं। क्योंकि असदुद्दीन ओवैसी ने सभी सवाल देश के संविधान के अंदर रहकर किये हैं।

अल्पसंख्यक समाज यह भी मानता है कि अगर मुसलमान अपनी कोई राजनीतिक पार्टी बनता है, तो उसे उससे फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा होगा।क्योंकि अल्पसंख्यकों की अलग पार्टी दिखाकर संघ बहुसंख्यकों के वोटों को अपने पक्ष में जमा करेगा। इंकलाबी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मोहम्मद सलीम कहते हैं कि मौजूदा राजनीतिक मौहल में जिस तरह वामपंथी खुलकर सांप्रदायिक ताक़तों के विरुद्ध बोल रहे हैं, ऐसे में मुस्लिम समाज के लिए वह एक बेहतरीन विकल्प हैं। इस सवाल पर कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रदेश में वामपंथी कमज़ोर हैं, ऐसे में अल्पसंख्यक समाज क्या करे? उन्होंने कहा कि वामपंथी दलों के संगठन सभी प्रदेशों में है। सिर्फ़ मुस्लिमों को उनसे जुड़कर उनको मज़बूत बनाना है ताकि भविष्य में सांप्रदायिक और पूंजीवाद ताक़तों से मज़बूती से मुक़ाबला किया जा सके।

मौलाना आज़ाद उर्दू विश्वविद्यालय में राजनीतिकशास्त्र के प्रोफ़ेसर अफ़रोज़ अलाम कहते हैं की राजनीतिक पार्टियों ने मुसलमानो को सिर्फ़ अपनी जीत का अंतर बढ़ाने और हार का अंतर कम करने के लिए प्रयोग किया है। आज सेक्युलर पार्टीयों ने ख़ामोश रह कर यह सिद्ध कर दिया की उनको देश के “बहुसंख्यक लोकतंत्र” हो जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। राजनीतिक शास्त्र के अध्यापक अफ़रोज़ अलाम कहते हैं अब राजनीतिक पार्टियों के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकार मुद्दा नहीं है। उनको सिर्फ़ सत्ता चाहिए, जिसके लिए उन्होंने सेक्युलर और लोकतांत्रिक मूल्यों, मान्यता को भुला दिया है। अफ़रोज़ अलाम मानते हैं कि राजनीतिक दलों की ख़ामोशी भविष्य में सांप्रदायिकता को और बढ़ावा देगी।

राजनीति के जानकर मानते हैं कि ऐसा साफ़ नज़र आ रहा है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने कहीं न कही बहुसंख्यकवाद के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। ब्लिट्स अख़बार के साथ लम्बे समय तक जुड़े रहने वाले प्रदीप कपूर कहते हैं कि सभी राजनीतिक दल बहुसंख्यकवाद की राजनीति के दबाव में आ गए हैं और सेक्युलर और लोकतांत्रिक-मूल्यों पर समझौता करने को मजबूर हैं। ऐसे में अगर मुसलमान असदुद्दीन ओवैसी की तरफ़ जाता है तो इसका फ़ायदा भी संघ को ही मिलेगा।

लेकिन प्रदीप कपूर मानते हैं कि भविष्य में असदुद्दीन ओवैसी और भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद जैसे चेहरे, मौजूदा सेक्युलर पार्टियों के विकल्प के रूप में उभर के सामने ज़रूर आ सकते हैं। क्योंकि वांचितों (दलित-मुस्लिम और पिछड़े आदि) का भरोसा कहीं न कही मौजूदा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों पर से उठ रहा है।

समाज सेवी संस्था इंसानी बिरादरी के आदी योग जो “सृजन योग” के नाम से प्रसिद्ध हैं कहते हैं, पिछले आम चुनावों से ही अपने को सेक्युलर कहने वालों को भगवा राजनीति रास आने लगी थी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अचानक शिव जी के भक्त हो गए थे और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव विष्णु जी का मंदिर बनवा रहे थे।

सृजन योग कहते हैं कि सांप्रदायिक ताक़तों को बढ़ावा इसलिए भी मिला क्योंकि पिछड़ा वर्ग भी बड़ी तेज़ी से उसके साथ मिल गया है। वह कहते हैं कि अब समय की ज़रूरत है कि मुसलमान और दलित मिलकर एक राजनीतिक मंच बनाए। जहाँ से समाज के सभी वंचित-उत्पीड़ित लोगों की आवाज़ उठाई जा सके, क्योंकि अब सेक्युलरिज़म और लोकतंत्र की आवाज़ उठाने वाला कोई नज़र नहीं आता है। ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले राजनीतिक दल संप्रदायिकता के आगे समर्पण कर चुके हैं।

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