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शहरों की बसावट पर सोचेंगे तो बुल्डोज़र सरकार की लोककल्याण विरोधी मंशा पर चलाने का मन करेगा!

दिल्ली में 1797 अवैध कॉलोनियां हैं। इसमें सैनिक फार्म, छतरपुर, वसंत कुंज, सैदुलाजब जैसे 69 ऐसे इलाके भी हैं, जो अवैध हैं, जहां अच्छी खासी रसूखदार और अमीर लोगों की आबादी रहती है। क्या सरकार इन पर बुल्डोज़र चलाएगी?
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फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

साल 1990 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि जानवरों के रहने और इंसानो के रहने में अंतर होता है। ऐसा नहीं होता कि इंसानों को जानवरों की तरह रखा जाए। इंसानों की रहने की व्यवस्था गरिमापूर्ण होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की नजर से भारत के शहरों में सोचिए। ज्यादा नहीं जिस शहर में भी आप रह रहे हैं वहां से चार -पांच किलोमीटर के आस पास जाकर देखिए।आपको दिखेगा ढेर सारे लोग अमानवीय हालत में रहने को मजबूर हैं। झुगी-झोपड़ियां और बस्तियां कम होने की बजाए बढ़ती जा रही हैं। कई दुकानें दीवारों और पेड़ों के सहारे चल रही है। यह हमारे शहरों का हाल है। जहां जानवरों की तरह रहने के लिए मजबूर लोगों की हालत सुधारने की बजाए सरकारें बिना नोटिस बुल्डोजर चलवा देती हैं।

जरा बुनयादी तौर पर सोचकर देखिए कि शहर कैसे बसे होंगे? क्या वह अचानक बसे होंगे? वह एक दिन में बस गए होंगे? क्या पहले प्लान बना होगा, उसके बाद शहर बसे होंगे? क्या ऐसा हुआ होगा कि शहरों की बसावट सब नियम, कानून और योजना के तहत हुई होगी? इन सारे सवालों का जवाब न में मिलेगा। शहर अचानक नहीं बसे हैं। इनके बसने की एक लंबी यात्रा रही है। इस लंबी यात्रा में अगर कोई सालों साल का हमसफ़र रहा तो उसे अचनाक उजाड़ देना कैसे जायज हो सकता है। बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों के इलाके में चौकीदार से लेकर रसोई का काम संभालने वाले झुग्गी, झोपड़ियों और बस्तियों से आते हैं। यह बस्तियां इन्होंने बसाई है। यहां पर जीवन की मूलभूत सुविधाएं हासिल करने के लिए घनघोर संघर्ष करना पड़ता है। पानी लेने से लेकर शौच में जाने के लिए लाइन में लगना पड़ता है। रोशनी नहीं मिलती है।

बंटवारे के बाद दिल्ली में शरणार्थी आए। जहां वह रहते थे, उस समय वह अवैध कॉलोनियां थी। उनमें से कुछ वैध हो गयी है लेकिन अब भी बहुत अवैध है। दिल्ली को खूबसूरत बनाने के नाम पर कई इलाकों के घर तोड़े गए हैं। वाजपेयी सरकार ने दिल्ली में झुगी झोडपियों को तोड़ने का अभियान चलाया था। घर की औरतों पर अचनाक पहाड़ टूट पड़ा था। इस दिल्ली में सालों - साल की बसावट ऐसी है कि नंगी आंखों से यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन वैध है या कौन अवैध? कौन कमर्शियल है और कौन रिहायसी? कहां पर दुकान लगाई जा सकती है और कहां पर नहीं? इसके साथ यह भी सोचने वाली बात है कि दिल्ली में जमीन खरीद लेने वाला व्यक्ति क्या इतनी कम आमदनी वाला हो सकता है कि उसे सड़क के किनारे दुकान चलाना पड़े?

इन नजर से देखेंगे तो अतिक्रमण की अवधारण ही जायज नहीं लगेगी। लगेगा जैसे कानून शिकंजा कसने के लिए अतिक्रमण का इस्तेमाल कर रहा है। भारत में बेरोजगरी और कमाई इतनी कम है कि शहरी मामलों के जानकार कहते हैं कि शहरो में जिसे अफोर्डेबल हाउस कहा जाता है उसे तकरीबन 62 प्रतिशत लोग नहीं खरीद सकते हैं। शहरी गरीबी इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि एक अनुमान के मुताबिक़ साल 2030 तक शहरों की 41 प्रतिशत आबादी झुग्गी झोपड़ियों और बस्तियों में रहेगी।

इन्हें ठीक ठाक जिंदगी मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार की है। काम के बदले उचित दाम और गरिमापूर्ण जिंदगी मुहैया करवाने के लिए सरकार बनी है। लेकिन उसने यह काम नहीं किया। शहरो में लोगों के पास घर हैं, लेकिन ऐसे घर नहीं है जिसे घर कहा जा सके। सस्ते और अच्छे घर लेने की हैसियत सबकी नहीं है। यह दिक्कत सबको दिखती है। सरकार को सबसे ज्यादा दिखती है। इसे सुधारती नहीं है। बल्कि उल्टे बिना नोटिस दिए बुलडोजर चलाने का आदेश दे देती है।

लैंड कॉनफ्लिक्ट वाच का विश्लेषण बताता है कि साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने सुदामा सिंह मामले में आदेश दिया कि इसी जगह से निष्कासन यानी बेदखली के मामले में राज्य को पहले सर्वे करना पड़ेगा। उसके बाद यह तय करना पड़ेगा कि किसकी बेदखली की जानी है? किसका पुनर्वास किया जाना है? जब तक पुनर्वास नहीं होगा तब तक बेदखली यानी कि निष्कासन की कार्रवाई नहीं की जाएगी? यह फैसला संयुक्त राष्ट्र संघ के दिशानिर्देशों पर आधारित था। इस दिशानिर्देश में यह भी बताया गया है कि निष्कासन की कार्रवाई तभी की जाएगी जब निष्कासन के सिवाय कोई दूसरा रास्ता न हो। ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि निष्कासन करते समय मानवाधिकारों का उल्लंघन हो।

साल 2017 की सरकार की अधिसूचना बताती है कि दिल्ली में 1797 अवैध कॉलोनियां हैं। इसमें सैनिक फार्म, छतरपुर, वसंत कुंज, सैदुलाजब जैसे 69 ऐसे इलाके भी हैं, जो अवैध हैं, जहां अच्छी खासी रसूखदार और अमीर लोगों की आबादी रहती है। साल 2008-09 के आर्थिक सर्वे के मुताबिक दिल्ली में केवल 23.7 फीसदी आबादी नियोजित कॉलोनियों में रहती है। बाकी 70 प्रतिशत आबादी बस्तियों, झुग्गी- झोपड़ियों, अनियोजित और अवैध कॉलोनियों में रहती है। इनमें से केवल 10 प्रतिशत से कम कॉलोनियों का नियमितिकरण हुआ है। अनियमित कॉलोनियों को नियमित करने को लेकर ढेर सारे चुनावी वायदे हुए हैं। लेकिन अभी तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। चुनावी राजनीति का जैसा हाल है उस हिसाब से देखा जाए तो यह नामुमकिन लगता है।

शहरों की बसावट को लेकर जितने भी विवाद है वह अमीर और गरीब के ईर्द गिर्द घूमती है। अमीर, नगपालिका और सरकारी कर्मचारियों के साथ मिलीभगत कर गैरक़ानूनी ढांचा बनाते रहते हैं और जो गरीब है वह मजबूरी में गैरकानूनी ढांचा बनाते है। शहरों को सही करने के नाम पर गरीबों पर कई बार बुलडोजर चले हैं लेकिन यह अमीरों के साथ नहीं हुआ है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि 11 पूर्व सांसदों और कई अधिकारीयों ने दिल्ली में तकरीबन 576 सरकारी मकानों पर कब्ज़ा कर रखा है। सोचकर देखिए कि क्या यहां बुल्डोजर चलेगा? अब इस पूरे विवाद में मुस्लिम भी शमिल हो चुके हैं। दंगा फसाद हुआ और अगले दिन मुस्लिमों का ढांचा ढाहने के लिए बुलडोजर निकल पड़ता है।

अंत में सबसे जरूरी बात यह समझने वाली है कि हमारे शहरों का निर्माण लोगों ने किया है। बिल्कुल आम लोगों की वजह से हमारे शहर बने हैं। वहीं आम लोग जो कोरोना के समय नंगे पांव किराए के बोझ से बचने के लिए अपने टूटे घरों से निकले तो पूरा भारत शर्मसार हो गया। भारत के शहर नीति निर्माताओं की देन नहीं है। अगर अतिक्रमण हुआ भी है तो उसे मानवीय ढंग से हटाना चाहिए न कि अमानवीय तरीके से।

चलते चलते एक बात। दिल्ली में कई मोहल्ला क्लिनिक अवैध जमीन पर बनाए गए हैं। तो भजापा सरकार इन्हें तोड़ेंगी?

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