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कन्क्लूसिव लैंड टाईटलिंग की भारत सरकार की बड़ी छलांग

देश में मौजूद ज़मीन के हर एक पीस/प्लॉट का एक आधार नंबर दिया जाना जिसे इस बजट भाषण में यूनिक लैंड पार्सल आइडेंटिफिकेशन नंबर (ULPIN) कहा गया है। इसके लिए बाज़ाब्ता ज़मीन के हर टुकड़े के अक्षांश और देशांत को आधार बनाकर मैपिंग की जाएगी जिसे जियो-रिफरेंस कैडस्टल मानचित्र पर दर्शाया जाएगा।
conclusive land titling act
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

हाल ही में 1 फरवरी 2022-23 का बजट पेश करते हुए देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भूमि-संसाधन के प्रबंधन को लेकर दो योजनाओं को लागू किए जाने के प्रावधान किए हैं। जो प्रस्तावित कन्क्लूसिव लैंड टाईटल एक्ट के मसौदे से मूल रूप से निकली हैं। इस प्रस्तावित कानून का मसौदा नीति आयोग ने अक्तूबर 2020 में सभी राज्यों को भेजा था और जिसे उसी वर्ष संसद में पेश भी किया जाना था। द टेलीग्राफ की एक खबर के अनुसार किसान आंदोलन के उभार की वजह से इसे नीति आयोग में ही रहने दिया गया और संसद में पेश नहीं किया गया।  

बजट 2022-23 में जिन दो योजनाओं की घोषणा हुई है उनमें पहली योजना है - देश में मौजूद ज़मीन के हर एक पीस/प्लॉट का एक आधार नंबर दिया जाना जिसे इस बजट भाषण में यूनिक लैंड पार्सल आइडेंटिफिकेशन नंबर (ULPIN) कहा गया है। इसके लिए बाज़ाब्ता ज़मीन के हर टुकड़े के अक्षांश और देशांत को आधार बनाकर मैपिंग की जाएगी जिसे जियो-रिफरेंस कैडस्टल मानचित्र पर दर्शाया जाएगा। 

दूसरी योजना है कि भारत की भाषायी विविधतता को ध्यान में रखते हुए ‘एक देश एक भू-अभिलेख सॉफ्टवेयर’ के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक राष्ट्रीय जेनरिक डोक्यूमेंट रजिस्ट्रेशन सिस्टम (NGDRS) के तहत संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में मुहैया कराया जाना। 

ये दोनों ही योजनाएँ कंक्लूसिव लैंड टाइटलिंग के लिए अनिवार्य मानी जाने वाली दो परिस्थितियों के निर्माण के लिए ही अमल में लाईं जा रही हैं। कंक्लूसिव लैंड टाइटलिंग के लिए दुनिया के विशेषज्ञ और खुद भारत सरकार यह मानती है कि इसके लिए निम्नलिखित चार कदम अनिवार्य रूप से उठाने होंगे तब जाकर देश में लैंड टाइटलिंग की एक अविवादित और पुख्ता व्यवस्था बनाई जा सकती है। केंद्रीय भू-संसाधन विभाग की सचिव रहीं रीटा सिन्हा ने एक पेपर में इन शर्तों के बारे में विस्तार से बताया है। 

देश की तमाम सम्पत्तियों (मुख्य रूप से ज़मीन) के अभिलेखों के लिए केवल एक ही एजेंसी होना चाहिए। अभी भारत में भू-अभिलेखों के मामले में कम से कम 2 और कई राज्यों में तीन एजेंसियां/विभाग काम करते हैं। उनके बीच समंजस्य नहीं होता है और भू-अभिलेखों का पुख्ता प्रबंधन नहीं हो पाता। 

मिरर यानी दर्पण सिद्धान्त को अमल में लाना होगा ताकि भू-अभिलेख उस संपत्ति की मौजूदा वास्तविक स्थिति के बारे में स्पष्ट रूप से सही तस्वीर दर्शाएँ। 

कर्टेन यानी पर्दा सिद्धान्त का पालन हो। इसका मतलब है कि भू-अभिलेख ऐसे होना चाहिए जो स्वामित्व के बारे में अंतिम निर्णय देते और सूचना देते हों। इसमें अतीत में हुए तमाम क्रय-विक्रय या पंजीयन आदि का अनावश्यक दबाव न बना रहे। यह इसलिए ज़रूरी है ताकि किसी संपत्ति को अविवादित और उस पर किसी कर्ज़ आदि न होना सिद्ध किया जा सके। 

अंतिम शर्त है कि, उपरोक्त तीनों सिद्धांतों को लागू करने के बाद अंतत: जो संपत्ति अभिलेख बनें उनकी गारंटी और बीमा सरकार पूरे भरोसे के साथ दे सके। हालांकि यह एक आदर्श स्थिति होगी और जो कंक्लूसिव लैंड टाइटलिंग का मूल मकसद भी है। 

हालांकि बजट भाषण में इन दोनों पहलकदमियों को लेकर वित्त मंत्री ने ज़्यादा नहीं बोला और बजट भाषण में भी इन योजनायों के बारे में विस्तार से नहीं लिखा गया इसलिए इस मामले पर अपेक्षित चर्चा भी नहीं हुई। 

हाल ही में 18 मार्च 2022 को पहले द प्रिंट और इसके अगले रोज़ यानी 19 मार्च को द इंडियन एक्स्प्रेस में भू-संसाधन विभाग के मुख्य सचिव अजय टिर्की ने एक लेख लिखकर इन दोनों पहलकदमियों पर विस्तार से रोशनी डाली है।  

अजय टिर्की ने बजट में शामिल की गईं इन दोनों योजनाओं को सबसे पहले किसानों की आय से जोड़ा और बतलाया कि जब ज़मीनों की सही-सही मैपिंग हो जाएगी और भू-स्वामित्व का सटीक दस्तावेजीकरण हो जाएगा तो ई-मंडियों के माध्यम से किसान अपनी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य और सही दाम घर बैठे पा सकेंगे। इसके बाद अजय टिर्की ने यह बतलाया कि ‘किसान सम्मान निधि’ का सही वितरण संभव होगा जो योजना प्रधानमंत्री द्वारा बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित की जा रही है। इसी से जुड़ा हुआ एक और लाभ वो बतलाते हैं कि सही भूमि-अभिलेख होने से एक बड़ा फायदा किसी अधोसंरचना के लिए होने वाले भूमि-अधिग्रहण के दौरान किसानों या भू-स्वामियों को होगा। उन्हें राहत व पुनर्वास संबंधी मुआवजा आदि मिलने में सहूलियत होगी।  

इसके बाद अजय टिर्की ने बताया कि बजट भाषण में उल्लेख की गयी इन दोनों योजनाओं को अगर एक साथ देखें तो ये दोनों ही योजनाएँ तकनीकी पर आधारित हैं और चूंकि यह तकनीति आधारित हैं इसलिए इनके प्रामाणिक होने में कोई संदेह नहीं रह जाता। 

नेशनल जेनरिक डोक्युमेंट रजिस्ट्री सिस्टम (NGDRS) के महत्व और इसके फायदों के बारे में अजय टिर्की ने मुख्य रूप से दो बातें अपने लेख में बतलाईं। पहली कि यह योजना ‘एक देश एक रजिस्ट्री सॉफ्टवेयर सिस्टम’ (वन नेशन, वन रजिस्ट्री सॉफ्टवेयर सिस्टम) के लिए ज़रूरी है। और दूसरी कि इससे ज़मीनों की खरीद बिक्री आसान हो जाएगी। उन्होंने उदाहरण देकर बताया है कि महाराष्ट्र की किसी ज़मीन को तमिलनाडु का कोई व्यक्ति एक क्लिक पर खरीद सकेगा।

दिलचस्प है कि अजय टिर्की ने इन दोनों योजनाओं को इनके असल मकसद यानी पूरे देश के भू-अभिलेखों की चली आ रही व्यवस्था को आमूल चूल ढंग से बदलने को लेकर अपने लेख में कुछ नहीं कहा। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि जब सदियों से चली आ रही एक व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन किए जाते हैं तो उससे कौन लोग और कैसे कैसे प्रभावित होते हैं? इस नवाचार को समाज इसकी वजह ये है कि कंक्लूसिव लैंड टाइटलिंग की मंशा को लेकर गंभीर सवाल बने हुए हैं और सैद्धांतिक तौर पर इनका विरोध भी मुखर हुआ है। 

यूनिक लैंड पार्सल आइडेंटिफिकेशन नंबर (ULPIN) या ज़मीनों का आधार कार्ड- हालांकि ये योजना देश के दस राज्यों में 2021 में ही आरंभ हो चुकी है। जब इसकी शुरुआत हुई थी तब भारत सरकार ने यह लक्ष्य रखा था कि फरवरी 2022 तक ये काम सभी राज्यों में शुरू हो जाएगा। हालांकि जब 1 फरवरी को बजट भाषण में इस योजना की घोषणा की गयी तब तक यह योजना अपने लक्ष्य से बहुत पीछे है और दस राज्यों के अलावा यह 12 मार्च 2022 को इसकी शुरुआत केवल असम में ही हो सकी है। अभी यह योजना हरियाणा, बिहार, ओडीशा, झारखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात, सिक्किम, गोवा, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में संचालित हो रही है। 

यह योजना बुनियादी तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर 2008 में शुरू हुई राष्ट्रीय भू-अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (NLRMP) जिसे बाद में डिजिटल इंडिया भू-अभिलेख आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP) का ही एक अहम हिस्सा है। इसमें नया केवल यह है कि ज़मीनों के अभिलेखों को कम्प्यूटरीकृत करने के साथ -साथ उन्हें एक अल्फा नंबर के साथ यूनिक पहचान से जोड़ दिया जाएगा। 

यहाँ तक इस योजना को लेकर कोई अंदेशा नहीं होता। विवाद रहित ज़मीनें हों इसमें किसी को क्या ही आपत्ति हो सकती है लेकिन असल सवाल मंशा का है। इस देश में ज़मीनों से जुड़े विवादों की संख्या इतनी ज़्यादा है कि हर स्तर पर मौजूद न्यायपालिका केवल इन्हीं मामलों के बोझ तले दबी है। प्रॉपर्टी राइट्स रिसर्च कनसोरसियम से जुड़ी नमिता वाही एक रिपोर्ट में ज़मीनों के विवादों की जटिलता के बारे में बताती हैं कि – “इस देश में 7.7 मिलियन यानी 77 लाख लोग 2.5 मिलियन यानी 25 लाख हेक्टेयर ज़मीनों पर चल रहे विवादों से प्रभावित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में ही कुल मामलों के लगभग 25 प्रतिशत मामले ऐसे हैं जो भूमि-विवादों के हैं”। इन व्यक्तिगत स्वामित्व की ज़मीनों के अलावा सामुदायिक या साझा संपत्ति को लेकर तो स्थितियाँ और भी गंभीर हैं। 

सवाल ये है कि महज़ भू-अभिलेखों के अद्यतन हो जाने या डिजिटल स्वरूप में हो जाने से ही संपत्ति विवाद खत्म हो पाएंगे? यह एक शुरूआत हो सकती है। भूमि-विवाद खत्म करने या हमेशा के लिए अंतिम रूप से उनके स्वामित्व के निर्धारण के लिए अनिवार्य रूप से किसी ऐसे कानून की ज़रूरत रहेगी ही जो कंक्लूसिव लैंड टाइटलिंग के मसौदे के रूप में सामने लाया गया था। 

हम जानते हैं कि हिंदुस्तान के संविधान में ज़मीन राज्यों के विषय हैं। ऐसे में भले ही केंद्र सरकार ज़मीनों के अभिलेखों को अद्यतन करने की एक केंद्रीयकृत योजना संचालित करे लेकिन अंतत: राज्यों को ऐसे कानून भी बनाने होंगे जो केंद्रीय कानून के मुताबिक हों। यह कानून महज़ सम्पत्तियों या ज़मीनों के कम्प्यूटरीकृत हो जाने तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें एक तरह से ज़मीनों का नए सिरे से सर्वे और बंदोबस्त ही किया जाएगा। कंक्लूसिव लैंड टाइटलिंग का जो मॉडल एक्ट नीति आयोग ने सामने लाया था उसमें इस सर्वे, बंदोबस्त और संपत्ति के अंतिम मालिकाना ने निर्धारण के लिए बजफ़्ता एक यान्त्रिकी भी प्रस्तावित की गयी है। यह नयी यान्त्रिकी मौजूदा व्यवस्था को दरकिनार करके खड़ी की जा रही है। इस व्यवस्था से ही पूरे देश में लोगों के भीतर ठीक वही असुरक्षा बोध देखा जा रहा है जो नागरिकता संशोधन कानून और उससे जुड़ी राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन (एनआरसी) के जरिये देखा गया है। 

इसे चाहें तो हम नोटबंदी या डिमोनिटाइजेशन के रूप में भी देख सकते हैं जहां आपको अपने पास रखे पाँच सौ और एक हजार के नोटों को बैंकों में बदलने के लिए लाइन में खड़ा होना पड़ा था। यहाँ अब नोटों की जगह पर आपको अपनी ज़मीनों के अभिलेखों को लेकर सक्षम प्राधिकरण के पास जाना होगा। 

(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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