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मल्लिकार्जुन खड़गे में कांग्रेस को मिला एक 'एक्सीडेंटल प्रेसिडेंट'

'यथास्थिति' पर विश्वास करने वाले नेता खड़गे, जिन्हें कांग्रेस का 'एक्सीडेंटल प्रेसिडेंट' होने का खिताब भी मिल सकता है, वे 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले न तो पार्टी में जरूरी बदलाव ला पाएंगे और न ही वैचारिक चुनौतियों का सामना कर पाएंगे।
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फ़ोटो साभार: पीटीआई

हाल ही में हुई एक बातचीत में, वरिष्ठ राजनीतिक वैज्ञानिक जोया हसन, जिन्होंने कई दशकों तक कांग्रेस पार्टी का अध्ययन किया और उस पर लिखा है, ने कहा कि आज के हालात में पार्टी को तीन तरह की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है: नेतृत्व का संकट, संगठन में अव्यवस्था और पार्टी के वैचारिक रुख पर अस्पष्टता।

पार्टी में चल रही कवायद से कोई भी इस बात से निश्चित नहीं हो पा रहा है कि पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष चुनने जबकि तीन साल से अधिक समय तक सोनिया गांधी पार्टी की प्रोविज़नल प्रमुख रही हैं, लगता नहीं कि नया अध्यक्ष उपरोक्त तीन चुनौतियों में से किसी का भी समाधान निकाल पाएंगे या सामना कर पाएंगे।

यह पूरी की पूरी कवायद किसी भी मोर्चे पर कारगर साबित नहीं होती, क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे का चुनाव - अगर होता है और शशि थरूर को 'स्वेच्छा से पीछे हटने' पर मजबूर नहीं किया जाता है - तो सब कुछ निश्चित है।

खड़गे मिलनसार हैं, लेकिन कोई पर्याप्त राजनीतिक आधार नहीं है, ये कई राजनेताओं की एक सामान्य विशेषता होती है। फिर उनकी दलित पहचान, दशकों से राजनीति में उनकी हाज़िरी और कई सरकारी पदों का अनुभव भी उपरोक्त तीन चुनौतियों का सामना करने में मदद नहीं कर पाएंगे।

पार्टी को एक बदलाव की जरूरत है और खड़गे यथास्थितिवादी हैं - 'चुनाव' के बाद उन्हें  ''एक्सीडेंटल प्रेसिडेंट' के खिताब से नवाज़ा जाने वाला है।

आखिरकार, यदि राहुल गांधी ने पार्टी की मूल प्रतिबद्धता के रूप में एक व्यक्ति-एक-पद के सिद्धांत को उदयपुर के प्रस्ताव ज़रिए लागू नहीं किया होता, तो यह टक्कर अशोक गहलोत और शशि थरूर के बीच होती।

राजस्थान के मुख्यमंत्री सफलतापूर्वक उस दौड़ से बाहर निकल गए, जिसका वे कभी हिस्सा ही नहीं बनना चाहते थे, और उनका मुख्यमंत्री बने रहना कमोबेश एक 'निपटाया' हुआ मामला सा लगता है जो जताता है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व न तो 'ऊंचा’ है और न ही 'कमांड' वाला है। खड़गे का नेतृत्व में आना, इस विश्वास को पक्का कर देगा।

यह इस तथ्य से यह उभरता है कि दशकों तक सत्तारूढ़ मंडली के सदस्य के रूप में रहे  खड़गे, यदि उनके पास पार्टी के नेता के रूप में जरूरी और वास्तविक कौशल होता, तो पार्टी संरचना के पुनर्गठन की जरूरत पर गांधी परिवार को प्रभावित कर पाते।

उन्होंने कभी जल्दी संगठनात्मक चुनाव करने का दबाव नहीं डाला, क्योंकि सोनिया गांधी को उम्मीद थी कि उनका बेटा मान जाएगा और ऐसी स्थिति में, यदि पार्टी का कोई भी नेता जल्द चुनाव कराने की मांग करता तो उसकी स्थिति खतरे में पड़ सकती थी।

राज्यसभा में विपक्ष के नेता होने के नाते, खड़गे के पास भारतीय जनता पार्टी के हिंदू राष्ट्रवादी नेरेटिव के खिलाफ वैचारिक बहस पेश करने का बड़ा अवसर था। जब अध्यक्ष के रूप में कोई भी निर्णय लेंगे तो वे मानसिक मूल्यांकन करेंगे कि उनके निर्णय के बारे में  सोनिया या राहुल गांधी की क्या प्रतिक्रिया होगी, इसके बाद ही कोई कार्रवाई या निर्णय लिया जाएगा, यह सोचकर कि क्या वे खुश होंगे या नाराज होंगे?

2014 से पार्टी जिस दलदल में फंसी हुई है, उससे बाहर निकलने का यह शायद ही कोई नुस्खा है। लेकिन फिर भी, कांग्रेस अभी भी वह पार्टी बनी हुई है, जहां परिवार के हितों को पार्टी के ऊपर रखा जाता है।

तीन राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने में यदि कांग्रेस नाकाम हो जाती है तो कई राज्यों में भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने के प्रयासों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, जिसका प्रयास बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के समर्थन से शुरू किया है।

भारत भर में कांग्रेस की चुनावी उपस्थिति को तीन अलग-अलग श्रेणियों के तहत सूचीबद्ध किया जा सकता है: वे राज्य जहां कांग्रेस है (या 'होती थी' - आम आदमी पार्टी के उदय ने पंजाब में कांग्रेस की ताक़त को कम कर दिया है और अब अरविंद-केजरीवाल के नेतृत्व वाली पार्टी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में एक मजबूत स्थिति मीन लग रही है) भाजपा के साथ आमने-सामने की लड़ाई है, ऐसे राज्य जहां कांग्रेस की उपस्थिति काफी अच्छी है, लेकिन सीटें जीतने के लिए रणनीतिक गठबंधन के लिए सहयोगियों की जरूरत है, और ऐसे राज्य जहां कांग्रेस का बहुत कम प्रभाव है और वह पूरी तरह से अपने सहयोगियों पर निर्भर है।

भाजपा विरोधी मोर्चा में किसी भी संभावित चुनौती बनने के लिए, कांग्रेस को राज्यों में भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बने रहना महत्वपूर्ण है जहां दोनों सीधे मुकाबले में हैं। ये राज्य गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, उत्तराखंड जैसे प्रमुख राज्य हैं।

इन राज्यों में कुल 110 सीटें हैं, और मैंने जानबूझकर पंजाब को इस सूची में शामिल नहीं किया है, क्योंकि इसका कारण भाजपा और शिरोमणि अकाली दल के बीच तीन दशक पुराने गठबंधन के टूटने के साथ-साथ ‘आप’ का उभार, अमरिंदर सिंह का भाजपा में जाना है। और क्योंकि कांग्रेस का राज्य नेतृत्व वर्तमान में पतवारहीन है। फिलहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस 2024 में इस राज्य में आप के सामने एक प्रमुख चुनौती के रूप में उभरने में सफल होगी या नहीं।

इन राज्यों में एक कमजोर कांग्रेस, और इसके साथ आप का बढ़ना, नीतीश कुमार और अन्य क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस को उन राज्यों में साथ लेने के संकल्प को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा जहां वे प्रमुख खिलाड़ी हैं।

उन्हें यह भी विचार करना होगा कि क्या आप पार्टी के साथ गठबंधन अधिक फायदेमंद होगा क्योंकि गुजरात और एचपी में अच्छे प्रदर्शन की स्थिति में, केजरीवाल एक संभावित चुनौती के रूप में उभरेंगे, यदि 2024 में नहीं, लेकिन कम से कम नरेंद्र मोदी के बाद के युग में ऐसा होने की संभावना है।

भारत जोड़ो यात्रा की पार्टी समर्थकों ने सराहाना की है क्योंकि यात्रा पहले की राजनीतिक शब्दावली को फिर से पेश करने में कामयाब हुई है। लेकिन, यह यात्रा लंबे समय तक चलने वाली है, जो फरवरी की शुरुआत तक जारी रहेगी, जब तक देश संसदीय चुनावों का प्रचार अभियान बमुश्किल एक साल दूर ही रह जाएगा।

इस समय यह अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है कि यात्रा कर्नाटक में कांग्रेस के सत्ता में लौटने के लिए पर्याप्त उत्साह पैदा कर पा रही है (क्योंकि यहां त्रिकोणीय मुकाबला होने की उम्मीद है और यह नहीं पता है कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद एचडी देवेगौड़ा और उनके बेटे, एचडी कुमारस्वामी को कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल होने लिए तैयार कर पाएंगे या नहीं)।

राहुल गांधी खुद जानबूझकर हिंदी पट्टी और पश्चिमी भारत में अपने राजनीतिक संघर्ष वाले मुख्य इलाकों में यात्रा करने से बचे हैं जहां कांग्रेस भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है। इस बात की पूरी संभावना है कि यात्रा राहुल गांधी की सार्वजनिक छवि को बेहतर बना दे, लेकिन वह कांग्रेस के लिए चुनावी लाभ में तब्दील हो पाएगा कहना कठिन है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि गहलोत ने पार्टी अध्यक्ष बनने से परहेज किया है क्योंकि वे 2024 में पार्टी के अच्छे प्रदर्शन की कल्पना नहीं करते हैं। राजस्थान में भी, कथित तौर पर तत्कालीन भाजपा प्रवक्ता नुपुर शर्मा की आपत्तिजनक टिप्पणियों के प्रतिशोध में उदयपुर में दर्जी की हत्या से नवंबर-दिसंबर 2023 में कांग्रेस के चुनाव जीतने की  संभावना कम हो गई है।

वैसे भी, राज्य में सत्ताधारी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाने की परंपरा है और इस तर्क से विकल्प भाजपा ही हो सकती है जो सरकार का गठन कर सकती है। इसके अलावा, आप भी राज्य में कम से कम शहरी क्षेत्रों में एक संभावित ताकत बनी हुई है, क्योंकि मतदाता उन दो विकल्पों में से तीसरे विकल्प की तलाश करते हैं जिन्हें उन्होंने वैकल्पिक रूप से समर्थन दिया था।

थरूर को 'सर्वश्रेष्ठ' अध्यक्ष के रूप में देखने का प्रलोभन भी है जो कांग्रेस के पास कभी नहीं होगा। तिरुवनंतपुरम से अपनी विश्वसनीय चुनावी हैट्रिक और जानकार, बेहद मुखर और वैचारिक स्पष्ट होने के बावजूद, थरूर की अपील मध्यम वर्ग तक ही सीमित है।

कांग्रेस के सामने छोटी अवधि के साथ-साथ लंबी अवधि की चुनौतियां भी मौजूद हैं। इस अध्यक्षीय चुनाव से 'उपजे' हालत दोनों चुनौतियों में से किसी को भी संबोधित नहीं कर पाएंगे। इसे अंततः भविष्य के इतिहासकारों द्वारा पार्टी के बाहर के आलोचकों को चुप कराने के उद्देश्य से एक अभ्यास के रूप में देखा जा रहा है।

विशेष रूप से, बहुसंख्यक तथाकथित जी-23 समूह - सोनिया गांधी को पत्र लिखने वाला यह समूह अन्य पहलों के बीच संगठनात्मक सुधार की मांग कर रहा था – लेकिन इसने भी थरूर के मुक़ाबले आधिकारिक उम्मीदवार का पक्ष लिया है।

बदलाव के इस कोलाहल के बावजूद इन नेताओं ने भी पार्टी के भीतर वास्तविक सत्ता के आगे घुटने टेकने का फैसला किया है।

1922 में, असहयोग आंदोलन को वापस लेने के अपने निर्णय के बावजूद, महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आंदोलन का विघटन हुआ था।

स्वतंत्रता से पहले के अवतार में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर हुई बहस में, पार्टी दो समूहों में विभाजित हो गई थी: एक जो कोई बदलाव नहीं चाहता था और दूसरा समूह जो बदलाव के पक्ष में था। आखिरकार, बदलाव न चाहने वालों की जीत हुई और सीआर दास, मोतीलाल नेहरू और हकीम अजमल खान के नेतृत्व में बदलाव चाहने वालों को लेजिस्लेटिव असेंबली के बहिष्कार को समाप्त करने की अपनी मांग छोड़नी पड़ी।

बदलाव न चाहने वालों ने एक बार फिर से कांग्रेस में जीत हासिल की है, जिससे फ्रांसीसी लेखक जीन-बैप्टिस्ट अल्फोंस कार्र द्वारा 1849 में की गई भविष्यवाणी सही साबित होती है।  

उन्होंने प्रसिद्ध रूप से लिखा था – ‘जितनी अधिक चीजें बदलती हैं, उतना ही वे वैसी ही  रहती हैं ...

लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक द डिमोलिशन एंड द वर्डिक्ट: अयोध्या एंड द प्रोजेक्ट टू रीकॉन्फिगर इंडिया है। उन्होंने द आरएसएस: आइकॉन्स ऑफ द इंडियन राइट और नरेंद्र मोदी: द मैन, द टाइम्स भी लिखा है। वे  @NilanjanUdwin  के हैंडल से ट्वीट करते हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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