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विपक्षी एकता की संभावनाओं को कांग्रेस ही लगा रही है पलीता

कायदे से तो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को बाकी विपक्षी दलों से संपर्क और संवाद करना चाहिए लेकिन ऐसा करने के बजाय उसके नेता विपक्षी एकता की संभावनाओं को पलीता लगाने वाले बयान दे रहे हैं और जो विपक्षी नेता एकता के प्रयासों में लगे हैं उनके प्रति अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं।
jairam ramesh

कांग्रेस की 'भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू हुए को अभी दो सप्ताह भी नहीं हुए हैं और उसके नेता दूसरे विपक्षी दलों को अहंकार भरी भाषा में नसीहत देने लगे हैं कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता आकार नहीं ले सकती। कांग्रेस महासचिव और पार्टी के संचार विभाग के प्रभारी जयराम रमेश ने अन्य विपक्षी दलों के नेताओं को निशाना बनाते हुए कहा है कि जो लोग यह समझते हैं कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी गठबंधन संभव है, वे मूर्खों के स्वर्ग में रहते हैं। रमेश ने यह बात कोलकाता में एक न्यूज़ एजेंसी को दिए साक्षात्कार में कही है। इससे पहले उन्होंने कहा था कि राहुल गांधी की अगुआई में शुरू हुई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कांग्रेस को मजबूत करने के लिए है न कि विपक्ष को जोड़ने के लिए। यह बयान उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा के केरल पहुंचने पर दिया था, जहां वामपंथी मोर्चा की सरकार है। बाद में यही बात उन्होंने एक न्यूज़पोर्टल को दिए साक्षात्कार में विस्तार से कही।

यह बात सब जानते हैं कि तमाम विपक्षी दलों में कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो बेहद कमजोर हो जाने के बावजूद अभी भी अखिल भारतीय आधार रखती है, इसलिए उसके बगैर भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने वाला कोई गठबंधन आकार नहीं ले सकता। ममता बनर्जी और के. चंद्रशेखर राव भले ही गैर कांग्रेसी विपक्षी गठबंधन की बात कर रहे हों, मगर वामपंथी पार्टियों सहित शरद पवार, एमके स्टालिन, नीतीश कुमार, शरद यादव आदि तमाम विपक्षी नेता कई बार कह चुके हैं और लगातार कह रहे हैं कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता की बात बेमानी है। ये नेता सिर्फ बयान ही नहीं दे रहे हैं बल्कि विपक्षी एकता के सिलसिले में कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के नेताओं से मिल भी रहे हैं।

कायदे से तो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को बाकी विपक्षी दलों से संपर्क और संवाद करना चाहिए लेकिन ऐसा करने के बजाय उसके नेता विपक्षी एकता की संभावनाओं को पलीता लगाने वाले बयान दे रहे हैं और जो विपक्षी नेता एकता के प्रयासों में लगे हैं उनके प्रति अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। चूंकि जयराम रमेश के सारे बयान निरंतरता में आए हैं और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ओर से उनके बयानों का कोई प्रतिवाद भी नहीं आया है, लिहाजा यह माना जाना चाहिए कि जयराम रमेश के बयान कांग्रेस पार्टी के आधिकारिक बयान हैं। अगर ऐसा है तो यह भी माना जाना चाहिए कि अपने इतिहास की सबसे दर्दनाक अवस्था से गुजर रही इस पार्टी के नेता अभी भी सुधरने, अपना अहंकार छोड़ने, गठबंधन राजनीति की अनिवार्यता को समझने और देश के सामने मौजूद बहुआयामी गंभीर संकट को समझने के लिए तैयार नहीं हैं।

दरअसल बात सिर्फ जयराम रमेश या उनके जैसे दूसरे कांग्रेस नेताओं की ही नहीं है, बल्कि समूची पार्टी और उसका नेतृत्व भी केंद्र में दस साल तक गठबंधन सरकार चलाने के बाद भी अभी तक इस हकीकत को पचा नहीं पा रहा है कि कांग्रेस के लिए अकेले राज करना अब इतिहास की बात हो गई है। कांग्रेस के नेताओं को लगता है कि जनता जब भी मौजूदा सरकार से पूरी तरह त्रस्त हो जाएगी तो खुद ब खुद कांग्रेस को सत्ता सौंप देगी। उनका यही एहसास उन्हें मौजूदा सरकार की तमाम जनविरोधी नीतियों, भीषण महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदानी संघर्ष करने से रोकता है। अपने अहंकारी रवैये के चलते वे बाकी विपक्षी पार्टियों को हिकारत की नजर से देखते हुए यह भी भूल जाते हैं कि अब देश के सिर्फ दो राज्यों में ही कांग्रेस की सरकार है और दो बड़े राज्यों में वह क्षेत्रीय दलों के साथ छोटे से सहयोगी के दल के रूप में सत्ता में साझेदार हैं।

विपक्षी एकता या अन्य विपक्षी दलों के प्रति हिकारत भरा जयराम रमेश का बयान कोई नया नहीं है। खुद राहुल गांधी भी अक्सर कहते रहते हैं कि सिर्फ कांग्रेस ही भाजपा से ल सकती है और उसकी विभाजनकारी राजनीति का मुकाबला कर सकती है। हालांकि उसकी यह लड़ाई सिर्फ राहुल गांधी के भाषणों में और ट्विटर पर ही दिखती है, जमीन पर कहीं नजर नहीं आती। चार महीने पहले उदयपुर में हुए कांग्रेस के नव संकल्प शिविर में भी राहुल गांधी ने कहा था कि क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को नहीं हरा सकतीं, क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा नहीं है।

राहुल गांधी का यह कहना तथ्यात्मक रूप से गलत और भ्रामक तो है ही, यह उन्हें राजनीतिक रूप से अपरिपक्व भी साबित करता है। मौजूदा समय की हकीकत है कि अपवाद स्वरूप दो-तीन राज्यों को छोड़ कर कांग्रेस कहीं भी अकेले के दम पर भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। कई राज्यों में तो वह खुद ही क्षेत्रीय पार्टियों पर आश्रित है और उन्हीं की ताकत के सहारे चुनाव लड़ती है। दरअसल कांग्रेस इसलिए भाजपा से अकेले मुकाबला नहीं कर पा रही है क्योंकि उसके पास न तो संगठन की ताकत बची है और न विचारधारात्मक स्पष्टता, मैदानी संघर्ष से तो उसका नाता कभी रहा ही नहीं। दूसरी ओर क्षेत्रीय पार्टियां अपने दम पर भाजपा से लड़ सकती है और लड़ रही है।

कांग्रेस के नेता भाजपा की राजनीति को विभाजनकारी तो बताते हैं लेकिन उसकी इस राजनीति को लेकर उस पर सीधे हमला करने या मैदानी संघर्ष करने से कतराते हैं। भाजपा की पूरी राजनीति सावरकर-गोलवलकर प्रणित हिंदुत्व की विचारधारा पर आधारित है, जो कि नफरत में डूबी विचारधारा है। लेकिन कांग्रेस यह कभी नहीं बताती कि हिंदुत्व की विचारधारा के बरअक्स उसकी विचारधारा क्या है। अब तो उसके नेता धर्मनिरपेक्षता का नाम लेने में भी संकोच करते हैं, जो कि हमारे संविधान का मूल तत्व है और जो वर्षों तक कांग्रेस की राजनीति का भी मूल आधार रही है। अलबत्ता राहुल गांधी जरूर अपने भाषणों में आरएसएस का नाम लेकर भाजपा को ललकारते रहते हैं लेकिन उनकी यह ललकार जमीनी स्तर पर कहीं नहीं दिखती और न ही उनकी ललकार में पार्टी के दूसरे नेताओं के सुर शामिल रहते हैं। व्यावहारिक तौर पर तो रक्षात्मक रूख अपनाते हुए कांग्रेस भी भाजपा की तरह हिंदुत्व या 'नरम हिंदुत्व’ के रास्ते पर चल रही है। हालांकि नरम हिंदुत्व जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। कांग्रेस की इस ढुलमुल वैचारिकता के मुकाबले किसी भी क्षेत्रीय पार्टी की वैचारिकता ज्यादा स्पष्ट है। यही कारण है कि क्षेत्रीय पार्टियों में टूट-फूट नहीं हो रही है, जबकि कांग्रेस के नेताओं के पार्टी बदलने की खबरें रोजाना कहीं न कहीं से आती रहती हैं। यह कांग्रेस के वैचारिक तौर पर दिवालिया होने का सबूत है, जो इतनी बड़ी संख्या मे उसके नेता पार्टी छोड़ रहे हैं और सीधे भाजपा में शामिल हो रहे हैं।

जहां तक भाजपा से हारने-जीतने की बात है तो उसकी हकीकत समझने के लिए किसी बडी दिमागी कसरत की जरूरत नहीं है। पिछले आठ साल में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें भाजपा का विजय रथ जहां कहीं भी रूका है तो उसे क्षेत्रीय दलों ने ही रोका है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, झारखंड आदि राज्य अगर आज भाजपा के कब्जे में नहीं हैं तो सिर्फ और सिर्फ क्षेत्रीय दलों की बदौलत ही। यही नहीं, बिहार में भी अगर भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है तो इसका श्रेय वहां की क्षेत्रीय पार्टियों को ही जाता है। इनमें से कई राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस के प्रति सद्भाव रहा है, जो कांग्रेस के अहंकारी नेताओं के बयानों से खो सकता है। इस साल की शुरू आत में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव तो कांग्रेस ने अकेले के बूते ही लड़े थे और उनमें उसकी क्या गत हुई है, यह भी राहुल गांधी और कांग्रेस के बाकी नेताओं को नहीं भूलना चाहिए।

जहां तक भाजपा और उसकी सरकार की विभाजनकारी व जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष की बात है, इस मोर्चे पर भी कांग्रेस का पिछले आठ साल का रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। इस दौरान अनगिनत मौके आए जब कांग्रेस देशव्यापी आंदोलन के जरिए अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतार कर आम जनता से अपने को जोड़ सकती थी, अपने संगठन को मजबूत कर सकती थी और इस सरकार को चुनौती दे सकती थी। लेकिन किसी भी मुद्दे पर वह न तो संसद में और न ही सड़क पर प्रभावी विपक्ष के रूप में अपनी छाप छोड़ पाई।

नोटबंदी और जीएसटी से उपजी दुश्वारियां हो या पेट्रोल-डीजल के दामों में रिकार्ड तो बढ़ोतरी से लोगों में मचा हाहाकार, बेरोजगारी तथा खेती-किसानी का संकट हो या जातीय और सांप्रदायिक टकराव की बढ़ती घटनाएं, रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार हो या सीमा पर चीनी घुसपैठ या फिर किसी राज्य में जनादेश के अपहरण का मामला हो या फिर केंद्रीय जांच एजेंसियों के बेतहाशा दुरुपयोग का मामला, याद नहीं आता कि ऐसे किसी भी मुद्दे पर कांग्रेस ने कोई व्यापक जनांदोलन की पहल की हो। उसके नेताओं और प्रवक्ता की सारी सक्रियता और वाणी शूरता सिर्फ टीवी कैमरों के सामने या ट्वीटर पर ही दिखाई देती है।

अगर जयराम रमेश और कांग्रेस में उनके जैसे अन्य नेताओं को लगता है कि भारत जोड़ो यात्रा के दम पर कांग्रेस बाकी विपक्ष दलों को दबा लेगी और अपनी छतरी के नीचे आने को मजबूर कर देगी या अकेले ही भाजपा को चुनौती दे देगी तो वे निश्चित ही ‘मूर्खों के स्वर्ग में विचरण’ कर रहे हैं। उन्हें इस जमीनी और व्यावहारिक हकीकत को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि किसी भी विपक्षी पार्टी को अपनी जमीन बचाने के लिए कांग्रेस की जरूरत नहीं है, लेकिन कांग्रेस को सबकी जरूरत है। हां, अगर वे कहीं और से निर्देशित होकर कांग्रेस को आगे भी लंबे समय तक विपक्ष में बैठाए रखने की किसी परियोजना का हिस्सा बने हुए हैं तो बात अलग है। भारत जोड़ो यात्रा कर रहे राहुल गांधी को अपनी पार्टी में मौजूद ऐसे आत्मघाती दस्ते से जरूर सतर्क रहना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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