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कोप-27: पूंजी का निजी लालच बनाम समाज के अस्तित्व की रक्षा

सामाजिक ज़रूरतों पर निजी लालच का हावी होना ही पृथ्वी का ताप बढऩे की समस्या के केंद्र में है। और यह सवाल भी कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण का बोझ कौन उठाएगा--ग़रीब या अमीर? तबाही का असर भूमध्य-रेखीय तथा गर्म इलाक़ों में कहीं ज़्यादा रहने वाला है जहां दुनिया की ज़्यादातर ग़रीब आबादी रहती है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : विकिमीडिया कॉमन्स

शर्म अल शेख में इस समय कोप-27 चल रहा है। हालांकि, यूक्रेन युद्घ और अमेरिका के मध्यावधि चुनावों ने तत्काल हमारा ध्यान इसकी ओर से हटा दिया है कि विश्व ताप वृद्घि के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में हम किस तरह का प्रदर्शन कर रहे हैं, फिर भी यह हमारे युग की चिंता का केंद्रीय मुद्दा बना हुआ है। ख़बरें इसका इशारा करती हैं कि हम न सिर्फ़ अपने पर्यावरण चुनौती का सामना करने संबंधी लक्ष्यों को पूरा करने में विफल हो रहे हैं बल्कि हम इन लक्ष्यों को हासिल करने से बहुत ज़्यादा पिछड़ रहे हैं। इससे भी बदतर यह कि घातक मिथेन गैस ग्रीनहाउस उत्सर्जन अनुमानों से कहीं बहुत तेज़ी से बढ़े हैं और इन उत्सर्जनों से जलवायु परिवर्तन का कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन जितना ही ख़तरा पैदा होता है। यह इसके बावजूद है कि मिथेन गैस, कर्बन डॉईऑक्साइड के मुक़ाबले कहीं कम समय तक वातावरण में बनी रह सकती है।

इसका कुल मिलाकर नतीजा यही है कि वैश्विक ताप वृद्घि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित करने के अपने लक्ष्य में हमारा विफल होना लगभग तय है। और अगर हम तेज़ी से क़दम नहीं उठाते हैं तो, 2 डिग्री ताप वृद्घि तक सीमित करने का लक्ष्य हासिल करना भी मुश्किल हो जाएगा। इस हिसाब से तो हम 2.5 से 3 डिग्री सेंटीग्रेड की ताप वृद्घि और अपनी सभ्यता के विनाश की ओर ही बढ़ रहे होंगे। इससे भी भयानक यह कि इस तबाही का असर भूमध्य-रेखीय तथा गर्म इलाक़ों में कहीं ज़्यादा रहने वाला है जहां दुनिया की ज़्यादातर ग़रीब आबादी रहती है।

इस स्तंभ में मैं दो प्रश्नों को ही लेना चाहूंगा। पहला, संक्रमणकालीन ईंधन के रूप में, कोयले से हटकर प्राकृतिक गैस की ओर बढ़ा जाना। और दूसरा है, बिजली के भंडारण की चुनौती, जिसके बिना नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा की ओर सफलतापूर्वक बदलाव संभव ही नहीं है।

विकसित देशों--अमेरिका तथा यूरोपीय यूनियन--ने, कोयले से संक्रमण के ईंधन के तौर पर, प्राकृतिक गैस या मिथेन पर बहुत ज़्यादा दांव लगा रखा है। ग्लासगो में कोप-26 में तो विकसित देशों ने कोयले को असली मुद्दा ही बना दिया था और इसके ज़रिए चर्चा के केंद्र को अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से हटाकर, कोयले के बड़े उपभोक्ताओं के रूप में चीन तथा भारत की ओर मोड़ दिया था। पूरी तरह से अक्षय या नवीकरणीय ऊर्जा तक जाने से पहले, संक्रमणकालीन ईंधन के रूप में प्राकृतिक गैस के अपनाए जाने के पीछे यही धारणा है कि प्राकृतिक गैस का ग्रीन हाउस प्रभाव, कोयले के उपयोग के मुक़ाबले आधा ही होता है। इसी प्रकार, मिथेन का उत्सर्जन भी वातावरण में अपेक्षाकृत कम समय यानी क़रीब 10 साल तक रहता है और उसके बाद कार्बन डाईऑक्साइड और पानी में तब्दील हो जाता है। लेकिन, सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि मिथेन गैस का ग्रीनहाउस प्रभाव, कार्बन डाईऑक्साइड की तलनीय मात्रा के मुक़ाबले 84 गुना ज़्यादा होता है। इसलिए, मिथेन की कहीं बहुत थोड़ी मात्रा, कार्बन डाईऑक्साइड के मुक़ाबले कहीं बहुत ज़्यादा ग्रीनहाउस प्रभाव डाल सकती है।

मिथेन के मोर्चे पर बुरी ख़बर यह है कि प्राकृतिक गैस संबंधी बुनियादी ढांचे से मिथेन के रिसाव की मात्रा, विकासशील देश जो सारी दुनिया को बताते रहे हैं, उससे कहीं ज़्यादा और स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार तो उससे छ: गुनी ज़्यादा बैठेगी। इसलिए, प्राकृतिक गैस निकालने में मिथेन का कहीं ज़्यादा रिसाव हो जाना न सिर्फ़ एक संक्रमणकालीन ईंधन के रूप में प्राकृतिक गैस का सहारा लेने के सारे कथित लाभ पर पानी फेर देता है बल्कि विश्व ताप बढ़ोतरी की समस्या को बदतर भी बना सकता है।

इस समय मिथेन के मामले में दो प्रकार के आंकड़े उपलब्ध हैं। एक प्रकार के आंकड़े तो वे हैं जो प्राकृतिक गैस के बुनियादी ढांचे से मिथेन गैस के वास्तविक रिसाव के माप को दिखाते हैं और इस वास्तविक रिसाव का माप सैटेलाइटों तथा विमानों का उपयोग कर, इन्फ्रारैड कैमरों के सहारे किया जा सकता है। यह प्रौद्योगिकी आसान भी है और अपेक्षाकृत सस्ती भी। आख़िरकार, हम अपनी सौर्य प्रणाली से बहुत दूर स्थित एक्सोप्लेनेटों पर मिथेन गैस का पता लगाने में समर्थ हैं। बेशक, हमारे इस गृह को ताप वृद्घि से बचाना, कहीं ज़्यादा प्राथमिकता में आता है!

अमेरिका में एनवायर्नमेंट प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) का अनुमान है कि अमेरिका में जितनी भी प्राकृतिक गैस पैदा होती है, उसका 1.4 फ़ीसदी हिस्सा रिसकर वातावरण में चला जाता है। बहरहाल, स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी का हाल के एक अध्ययन में, कैमरों तथा प्राकृतिक गैस की बुनियादी ढांचा सुविधाओं के ऊपर से उड़ान भरने वाले विमानों की मदद से पता चला कि मिथेन के रिसाव का आंकड़ा, ईपीए के अनुमान से छ: गुना यानी क़रीब 9 फ़ीसदी बैठेगा! अगर, प्राकृतिक गैस के उत्पादन के क्रम में कुल 2.5 फ़ीसदी मिथेन का रिसाव हो जाता हो तब भी, इतना रिसाव कोयले से प्राकृतिक गैस के उपयोग में संक्रमण के सभी कल्पित लाभ पर पानी फेरने के लिए काफ़ी होगा। इस तरह ‘स्वच्छ’ बताई जा रही प्राकृतिक गैस, अस्वच्छ बताए जा रहे कोयले से भी अस्वच्छ साबित हो सकती है और कम से कम पूंजी के हाथों में तो ऐसा हो ही सकता है!

ईपीए द्वारा मिथेन के रिसाव का कोई भौतिक माप नहीं किया जाता है। अपने आकलन के लिए वह बस एक फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल करता है, जिसमें गैस कुओं की संख्या, पाइप लाइन की लंबाई आदि के साथ ही अनेक मनोगत कारकों का सहारा लेकर, मिथेन उत्सर्जनों का अनुमान लगाया जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका का विशाल हिस्सा, विश्व ताप वृद्घि को कोई चुनौती मानता ही नहीं है। उनका तो बस चले तो वे ईपीए को ही तोड़ दें और विश्व ताप वृद्घि को रोकने के सभी क़दमों को ख़त्म करा दें।

मिथेन के रिसाव के प्रभाव को एक और प्रकार के आंकड़ों से भी समझा जा सकता है। वर्ल्र्ड मीटियोरोलॉजिकल आर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएमओ) के अनुसार, ‘क़रीब 40 साल पहले व्यवस्थित रूप से माप शुरू होने के बाद से, मिथेन के संकेंद्रण ने 2021 में’ सबसे ऊंची छलांग लगायी थी। हालांकि, डब्ल्यूएमओ ने इस छलांग के कारणों के संबंध में शालीनता से चुप्पी साधे रखी है, प्राकृतिक गैस के उपयोग की ओर बढऩे और मिथेन गैस के उत्सर्जन के तेज़ होने के बीच के संबंध को पहचानने में शायद ही कोई मुश्किल होगी।

मिथेन के इस रिसाव की त्रासदी यह है कि आज की प्रौद्योगिकी के बल पर आसानी से इस तरह के रिसाव का पता लगाया जा सकता है और उसे रोकना ज़्यादा मुश्किल भी नहीं है। लेकिन, पूंजी के लिए तो इन छोटे-छोटे क़दमों को उठाने के लिए भी कोई प्रोत्साहन नहीं है, क्योंकि इस पर ध्यान देने तथा ख़र्च करने से उनके मौजूदा मुनाफ़े घट जाएंगे। यह करने के लिए पूंजी को तो नियमनकारी नियंत्रण तथा सीधे राजकीय नियंत्रण के ज़रिए, इस रिसाव को रोकने के लिए काम करने के लिए मजबूर ही करना होगा।

विश्व ताप वृद्घि की चुनौती का सामना करने के प्रति अमीर देशों--अमेरिका तथा यूरोपीय यूनियन--के सनकीपन को, यूक्रेन युद्घ के मामले में उनके आचरण में देखा जा सकता है। यूरोपीय यूनियन ने कोयले के कुछ बिजली घर तो दोबारा चालू कर दिए हैं और इस तरह अपने ऊर्जा मिश्रण में कोयले का हिस्सा बढ़ा दिया है। पुन:, बड़े सनकीपन से यह दलील दी जा रही है कि अफ़्रीक़ा में तेल तथा गैस का बुनियादी ढांचा विकसित करने में तब तक कोई समस्या नहीं है, जब तक इस बुनियादी ढांचे का विकास सिर्फ़ यूरोप में आपूर्तियों के लिए किया जा रहा हो, न कि ख़ुद अफ़्रीक़ा में उपयोग के लिए। अफ़्रीक़ियों को तो सिर्फ़ स्वच्छ, नवीकरणीय ऊर्जा का ही उपयोग करना चाहिए! और ज़ाहिर है कि इस तरह का ऊर्जा बुनियादी ढांचा तो यूरोपीय कंपनियों के हाथों में ही रहना चाहिए!

ज़ाहिर है कि नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण ही विश्व ताप वृद्घि की चुनौती का एकमात्र दूरगामी समाधान है और इस संक्रमण की कुंजी है, ऊर्जा के भंडारण यानी उसे जमा कर के रखने का रास्ता निकालना। जीवाश्म ईंधनों के विपरीत, नवीकरणीय ऊर्जा साधनों का उपयोग हम अपनी मर्ज़ी से नहीं कर सकते हैं क्योंकि ये प्राकृतिक साधन जैसे वायु, सौर प्रकाश और यहां तक पानी भी, ऊर्जा का अनवरत प्रवाह ही पैदा करते हैं। इनमें से पानी को तो फिर भी विशाल जलाशयों में रोक कर रखा जा सकता है, लेकिन वायु या सौर ऊर्जा को नहीं। उन्हें जमा कर के रखने का एक ही तरीक़ा है--बैटरियों की मदद से रासायनिक ऊर्जा में तब्दील करना। या फिर इन्हें हाइड्रोजन में तब्दील किया जा सकता है और फिर टैंकों में इकट्ठा कर के या भौगोलिक संरचनाओं में प्राकृतिक भंडारण कर के, तहखानों में या नमक की गुफ़ाओं में जमा कर के रखा जा सकता है।

इस सिलसिले में बैटरियों और बिजली से चलने वाली कारों को खूब उछाला गया है। बहरहाल, इस मामले में इस सच्चाई को भुला ही दिया जाता है कि वर्तमान प्रौद्योगिकी के साथ बैटरियों का ऊर्जा सघनता का स्तर, तेल या कोयले की तुलना में बहुत थोड़ा है। तेल या प्राकृतिक गैस से मिलने वाली ऊर्जा, आज की सबसे सक्षम बैटरियों से भी 20 से 40 गुना तक ज़्यादा होती है। बेशक, बिजली से चलने वाले वाहनों के लिए यह इतना बड़ा मुद्दा भी नहीं है। बिजली के वाहनों के मामले में तो यह सिर्फ़ इसी की सीमा तय करता है कि बैटरियां कितने अंतराल पर बदलनी पड़ेंगी और बैटरी को चार्ज होने में कितना समय लगेगा। इसके लिए तो बस बैटरी चार्ज करने का बुनियादी ढ़ांचा विकसित करना पड़ेगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि बैटरी कम से कम समय में चार्ज हो जाए। बहरहाल, इन स्रोतों से ऊर्जा को ग्रिड के स्तर पर जमा कर के रखना कहीं बड़ी चुनौती है।

ग्रिड के स्तर पर ऊर्जा जमा कर के रखने का अर्थ है, जमा कर के रखी गयी ऊर्जा ग्रिड के लिए आपूर्ति करना। इस काम के लिए ग्रिड के स्तर की बैटरियां निर्मित करने की बात कही जा रही है। लेकिन, ग्रिड स्तर की बैटरियों की वकालत करने वाले हमें यह बताना जैसे भूल ही जाते हैं कि इस तरह की बैटरियों की मदद से वे ऊर्जा की मांग में अल्पावधि उतार-चढ़ाव, जैसे रात-दिन, हवा चलने वाले-हवा के शांत रहने वाले दिन, के मामले में तो काम कर सकती हैं, लेकिन ऊर्जा की मांग में दीर्घावधि या मौसमी उतार-चढ़ावों का मुक़ाबला करने के लिए कारगर नहीं हो सकती हैं। यह हमें भंडारण की ऊर्जा सघनता के प्रश्न पर ले आता है। एक किलो तेल/ प्राकृतिक गैस/ कोयला की तुलना में, एक किलो लिथियम की बैटरी कितनी ऊर्जा जमा कर के रख सकती है? इसका जवाब है, मौजूदा प्रौद्योगिकी के स्तर पर, 20 से 40 गुना तक कम! ऊर्जा की मांग के मौसमी उतार-चढ़ावों को संभालने के लिए ऊर्जा के भंडारण की जैसी विराट व्यवस्थाओं की ज़रूरत होगी, उसके लिए हमारा सारा लिथियम या बैटरी में काम आने वाला दूसरा सारा सामान भी कम पड़ जाएगा।

यहां मैं इसकी बहस में नहीं जाऊंगा कि कैसे सार्वजनिक/ आम परिवहन बनाम निजी परिवहन की ऊर्जा लागतों में--वह चाहे बिजली से चलें या जीवाष्म ईंधन से--ज़मीन-आसमान का अंतर होगा। यहां तो मैं खुद को इस वृहत्तर प्रश्न तक ही सीमित रखूंगा कि नवीकरणीय ऊर्जा को हम कैसे जमा कर के रख सकते हैं, जिससे सूरज की रौशनी या हवा के तत्काल उपलब्ध न होने पर भी हम अपनी बिजली की व्यवस्था को चलता हुआ रख सकें।

हो सकता है कि इस समस्या का समाधान किसी नयी प्रौद्योगिकी में मिल सकता हो? ज़रा सस्ती नाभिकीय ऊर्जा के अपने पुराने सपने को याद कीजिए, जो न सिर्फ़ स्वच्छ होनी थी बल्कि इतनी सस्ती भी होनी थी कि उसका ख़र्च नापने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती! क्या हम ऐसी संभावना पर अपनी सभ्यता के भविष्य का दांव लगा सकते हैं?

अगर नहीं, तो हमें वर्तमान समाधानों की ही पड़ताल करनी होगी। ये समाधान हैं तो ज़रूर, लेकिन क्या उनसे नवीकरणीय ऊर्जा के रुक-रुक कर मिलने की जो समस्या है, उसके समाधान के लिए बैटरियों के विकल्प का काम लिया जा सकता है? इसका मतलब होगा हमारी वर्तमान जल विद्युत परियोजनाओं को इस तरह से मोडऩा कि वे ग्रिड स्तर के भंडार के रूप में काम कर सकें और ईंधन के सैलों में उपयोग के लिए हाइड्रोजन के भंडारण का विकास करना। जल-विद्युत परियोजनाओं के विरोधियों को डरने की ज़रूरत नहीं है, इसके लिए कोई नये मांध या झीलें बनाने की ज़रूरत नहीं होगी। और बेशक, निजी परिवहन साधनों की जगह, सार्वजनिक परिवहन को ही बढ़ाना होगा।

यह सब सामाजिक स्तर पर ऐसे बदलावों की मांग करता है, पूंजी जिनके ख़िलाफ़ क्योंकि इसका मतलब होगा, सार्वजनिक निवेश सामाजिक लाभ के लिए होंगे न कि निजी मुनाफ़ों के लिए। पूंजी तो तात्कालिक निजी मुनाफ़ों को ही दीर्घावधि सामाजिक लाभ के ऊपर जगह देती है। याद रहे कि किस तरह तेल कंपनियों के शोध में ही सबसे पहले यह सच सामने आया था कि किस तरह कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन का असर विश्व ताप वृद्घि पर पड़ रहा था। लेकिन, उन्होंने न सिर्फ़ शोध के इन नतीजों को दसियों साल तक बाक़ी दुनिया से छुपाए रखा बल्कि यह प्रचार करने का अभियान भी चलाया था कि विश्व तापवृद्घि का, ग्रीन हाउस गैसों से कोई संबंध ही नहीं है। और जलवायु परिवर्तन की हक़ीक़त को ही नकारने वालों की उनके द्वारा फंडिंग को कैसे भूल सकते हैं?

सामाजिक ज़रूरतों पर निजी लालच का हावी होना ही पृथ्वी का ताप बढऩे की समस्या के केंद्र में है। और यह सवाल भी कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण का बोझ कौन उठाएगा--ग़रीब या अमीर? कोप-27 के केंद्र में यही सवाल हैं, न कि विश्व ताप में बढ़ोतरी को रोकने का सीधा, सरल सा सवाल। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Real Challenge at COP27 is Private Greed Versus Devastation of all

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