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क्या है भारत के कोरोना राहत पैकेज का गणित

भारत के ग़रीबों की मदद के लिए पैकेज के तहत तुरंत पैसे डालने और सार्वजनिक सामानों की सार्वजनिक उपलब्धता की ज़रूरत है।
 कोरोना राहत पैकेज
Image Courtesy: Deccan Herald

24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा से प्रवासी मज़दूरों में बेचैनी बढ़ गई। इस वर्ग में तक़रीबन पांच करोड़ प्रवासी मज़दूर आते हैं। घोषणा के बाद बड़ी संख्या में लोगों ने पैदल ही अपने गाँवों और शहरों की ओर चलना शुरू कर दिया। लेकिन कर्फ़्यू के उल्लंघन को वजह बताते हुए पुलिस ने इन लोगों पर जमकर लाठियां भांजी। 

मज़दूरों में हुई इस उठापटक की वजह आर्थिक राहत पैकेज में देरी है। पैकेज में देरी के चलते उनमें लॉकडॉउन को लेकर भरोसा पैदा नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना की घोषणा 26 मार्च को की गई। वित्तमंत्री ने दावा किया कि योजना ''प्रवासी मज़दूरों, शहरी और ग्रामीण ग़रीबों के लिए है, जिन्हें फ़ौरी तौर पर राहत की अपेक्षा है।''

1.7 लाख करोड़ के इस पैकेज में किसानों और महिलाओं के लिए वित्त हस्तांतरण से लेकर पैरामेडिक्स के लिए बीमा योजना, स्वसहायता समूहों के लिए लोन और उज्जवला, मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) जैसी पुरानी योजनाओं से कुछ लाभ दिए गए थे।

हमने वित्तमंत्री के दावे की पृष्ठभूमि में पैकेज का विश्लेषण किया और तर्क दिया राज्य की सक्रियता मौजूदा स्थिति में आपात तौर पर बढ़ाए जाने की जरूरत है, साथ ही राहत का लाभ लेने वालों में समाज के ज़्यादा बड़े वर्ग को शामिल करना होगा। राष्ट्र के सामने एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आई इस महामारी में वंचित तबक़ों के लिए और ज्यादा पैसा लगाने की जरूरत है।

किन लोगों को मिलेगा फ़ायदा, फायदे क्या हैं और किन चीजों को छोड़ा गया:

पहली घोषणा में कहा गया कि अप्रैल के पहले हफ़्ते में पीएम किसान सम्मान निधि योजना के तहत 8.69 करोड़ किसानों को दो हजार रुपये दिए जाएंगे। पैसे के इस हस्तांतरण में किसी तरह की नई निधियों को नहीं जोड़ा गया। बल्कि इसका फ़ायदा 70 फ़ीसदी अर्हता प्राप्त किसानों को ही दिया गया। 3.81 करोड़ किसानों को छोड़ दिया गया। जबकि उनके पास इस योजना का फायदा लेने के लिए अर्हताएं थीं। ऊपर इस योजना में भूमिहीन किसानों को नहीं जो़ड़ा गया। यह कुल आबादी का 10 फ़ीसदी हिस्सा (2011 में 14.43 करोड़) है।

दूसरी बात कही गई कि मनरेगा में फायदा लेने वालों को 182 रुपये प्रतिदिन के बजाए 202 रुपये प्रतिदिन की मज़दूरी दी जाएगी। इससे पांच करोड़ लोगों को फायदा देने की मंशा है। आंकड़ों से पता चलता है कि मनरेगा में काम करने वाले कामग़ारों की संख्या बढ़ रही है। 2015-16 में 7.22 करोड़ लोगों से बढ़कर यह आंकड़ा 2019-20 में  7.81 करोड़ हो गया, जिसमें 5.44 करोड़ परिवार शामिल थे।

कृषि कार्यों पर रोक की स्थिति में मनरेगा पर भार बढ़ेगा। लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि निचले तबके की 40 फ़ीसदी आबादी का 65 फ़ीसदी हिस्सा इस योजना का फायदा ही नहीं उठा पाता। ऊपर से मनरेगा में जिस तरीके से फायदा मिलता है, वो लॉ़कडॉउन की योजना के बिलकुल उलट है, जहां लोगों को अंदर रखने की कोशिश की जा रही है। अगर यह योजना लागू की गई तो कामग़ारों पर कोरोना संक्रमण का ख़तरा बढ़ जाएगा।

तीसरी बात, पैकेज में हर व्यक्ति को एक महीने का पांच किलो चावल अतिरिक्त दिया जाएगा। साथ में एक परिवार को एक किलो दाल तीन महीने तक दी जाएगी। दावा किया गया कि इसमें 80 करोड़ लोगों को फायदा होगा। यह काम मौजूदा पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम या TPDP फ़्रेमवर्क से किया जाएगा, जिसमें ज़रूरतमंदों के लिए ग़रीबी रेखा का प्रावधान है।

दिसंबर 2013 के आंकड़ों के मुताबिक, टार्गेटेड पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में लगभग 61 फ़ीसदी ज़रूरतमंदों को बाहर कर दिया जाता है, जबकि 25 फ़ीसदी ऐसे लोग शामिल हो जाते हैं, जो फायदा लेने के लिए योग्य नहीं हैं। मतलब यह 61 फ़ीसदी ग़रीबों को ग़रीब नहीं मानता और 25 फ़ीसदी ग़ैर-ग़रीबों को ग़रीब वर्ग में शामिल कर लेता है। इस पृष्ठभूमि में राहत के लिए उठाए गए कदम ढांचागत समस्याओं के शिकार हो जाएंगे। जबकि एक मानवीय संकट के समय हम इसका वहन नहीं कर सकते। वह भी उस समाज में जिसमें जाति आधारित भेदभाव गहराई तक समाया हो।

विकल्प के तौर पर सरकार को यूनिवर्सल डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम अपनाना था, जैसा तमिलनाडु में किया गया, ताकि मौजूदा स्थितियों में बेहतर नतीज़े हासिल किए जा सकें। आंकड़े बताते हैं कि यूनिवर्सल डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में टीपीडीएस की तुलना में कम समस्याएं हैं।

फ़ायदे, उनकी प्रासंगिकता और फ़ायदों की उपलब्धता

सरकार ने दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत ''कोलेटरल फ्री लोन'' की मात्रा 10 लाख से बढ़ाकर 20 लाख कर दी है। यह घोषणा एक आदर्श घोषणा समझ में आती है। बल्कि कुछ महत्वाकांक्षी भी नज़र आती है। लेकिन कम होती आर्थिक गतिविधियों और बढ़ते एनपीए में इस तरह के कदम पर सवाल उठते हैं।

पैकेज के प्रावधानों के तहत जनधन अकाउंट होल्डर महिला को अगले तीन महीने तक 500 रुपये प्रति महीने के हिसाब से मिलेंगे। सरकार के मुताबिक़ इससे 20 करोड़ महिलाओं को लाभ मिलेगा। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 11.48 करोड़ जनधन अकाउंट काम ही नहीं कर रहे हैं, मतलब या तो वे ज़ीरो बैलेंस अकाउंट हैं या फिर निष्क्रिय हैं।

माइक्रोसेव कंसल्टिंग की महिलाओं के वित्तीय समावेशन पर प्रकाशित रिपोर्ट से पता चलता है कि 23 फ़ीसदी महिलाओं के पास वित्तीय सेवाओं तक पहुंच ही नहीं है। 42 फ़ीसदी का बैंक अकाउंट पिछले साल निष्क्रिय रहा। बल्कि ऐसे समय में डाक सेवाओं से मनी ऑर्डर एक बेहतर विकल्प होता। इसी तरह तीन करोड़ विधवाओं और बुजुर्गों को 1000 रुपये भेजने के लिए भी डाक सेवा का इस्तेमाल किया जा सकता था। इन लोगों को अगले तीन महीनों में दो किश्तों में यह पैसा भेजा जाएगा।

परिवर्तित अकाउंट, नया पैसा और आख़िरी आदमी तक पहुंच के लिए ज़्यादा बड़ा आधार

हाल में प्रकाशित हुए एक पेपर (सिंह और अधिकारी, 2020) ने कोरोना वायरस के प्रभाव को रोकने के लिए भारत में 49 दिन के बंद की बात कही है। इस पृष्ठभूमि में ग्रामीण और शहरी परिवारों को जो आय के हिसाब से निचले 50 फ़ीसदी हिस्से में आते हैं, उन्हें 6 महीने का रिलीफ़ पैकेज दिया जाना चाहिए था, ताकि वे अपना गुज़र-बसर कर सकें।  नाबार्ड द्वारा किया गया ''ऑल इंडिया रूरल फ़ाइनेंशियल इंक्लूज़न सर्वे 2016-17'' बताता है कि ग्रामीण भारत में एक परिवार का औसत मासिक ख़र्च 6,646 रुपये है। इसमें कृषिगत कामों में लगे और उनसे अलग, दोनों तरह के परिवारों को शामिल किया गया था।

अगर हम इस आंकड़े को 6 महीनों के लिए लें, तो सरकार को इन परिवारों को देने के लिए 6 लाख करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। इस पैसे के लिए राज्य सरकारें भी मदद दे सकती हैं। इससे हर परिवार को 6 हजार रुपये मिलेंगे और पीडीएस के ज़रिए सब्ज़ी-भाजी का पैदल दूरी पर पूरे देश के लोगों को वितरण हो सकेगा।

दूसरे शब्दों में कहें तो मौजूदा ढांचा, जो लक्षित समूहों तक चीजें पहुंचाने का काम करता है, सरकार को उसकी मदद लेने के बजाए सार्वजनिक सामानों का सभी नागरिकों को सार्वजनिक वितरण करना चाहिए। इसके तहत उन लोगों को भी फायदा मिल जाएगा, जिन्हें इसकी जरूरत नहीं है, लेकिन स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ऐसा करना ज़रूरी लगता है।

वहीं स्वास्थ्य क्षेत्र की ज़रूरतों को आपात तौर पूरा किया जाना चाहिए। इसके लिए अलग से पैसा इकट्ठा किया जाना चाहिए।

फिलहाल सरकार ने कहा है कि वह कोरोना वायरस से लड़ने में इस्तेमाल होने वाली टेस्टिंग, मेडिकल स्क्रीनिंग और स्वास्थ्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वह डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड के पैसे का इस्तेमाल करेगी। हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, इस फंड का 70 फ़ीसदी हिस्सा लावारिश पड़ा है। केवल 30 फ़ीसदी हिस्से का ही खनन जिलों के लोगों के लिए जल, स्वच्छता, बुजुर्ग कल्याण, महिला और बाल सेवा सुविधाओं में उपयोग किया गया है। इस बेकार ढंग से प्रबंधित लेकिन अहम फंड से पैसा निकालने के बजाए, इसका उपयोग अगर वंचित तबक़ों के लिए ही किया जाता तो अच्छा होता। क्योंकि मौजूदा महामारी का संकट उन्हें ख़तरे के लिए संवेदनशील बना रहा है।

इसके बजाए इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए आवंटित किए गए धन को रिलीफ़ पैकेज की तरफ मोड़ा जा सकता था। वैसे भी तेल की कीमतों में आई गिरावट से पैसा बच रहा है। अगर मौजूदा संकट एक साल तक चलता है, तो विश्लेषकों का मानना है कि इससे भारत को दो लाख करोड़ रुपये की बचत होगी। साथ ही केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को लोगों की अलग-अलग समस्याओं पर ध्यान देने के लिए कहा है। लेकिन मौजूदा जीएसटी फ्रेमवर्क में राज्यों के पास कर लगाने के कम अधिकार हैं और उन्हें पैसे का हस्तांतरण भी कम कर दिया गया है। अब उनके लिए यह स्थिति कठिन हो गई है।

अगर स्थिति लंबे समय तक चलती है तो राज्यों के लिए केंद्र सरकार की मदद के बिना अपनी ज़रूरतों को पूरा कर पाना मुश्किल होगा।

मौजूदा संकट ''मिनिमम गवर्मेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस'' जैसे विचारों से पैदा हुआ है। इसके तहत सरकारी कल्याण कार्यक्रम के बजाए निजी दान पर ज़ोर दिया गया और समाजिक कल्याण की ज़िम्मेदारी आत्म नियमन के ज़रिए समाज पर ही डाल दी गई। दान फिलहाल अपना काम कर रहे हैं, लेकिन वो किसी भी हालत में सरकार के हस्तक्षेप का विकल्प नहीं हो सकते। सरकार की ज़िम्मेदारी काफ़ी ज्यादा होती है। यह बात कहते हुए ध्यान दिलाना होगा कि देश में सप्लाई में कमी न हो, इसके लिए इसे लॉकडॉउन में लगातार जारी रखना होगा।

मोटे तौर पर कहें तो नए धन की व्यवस्था राजस्व घाटे की दर के नियमन को हटाकर खत्म की जा सकती है। बता दें ''फिस्कल रिस्पांसबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट एक्ट'' के तहत राजस्व घाटे को नियमित किया गया है। फिलहाल यह जीडीपी का 3.8 फ़ीसदी है। यह एक्ट द्वारा निर्धारित दर से 0.8 फ़ीसदी ज़्यादा है। वहीं राज्य और सार्वजनिक संगठनों को मिलाकर असली राजकोषीय घाटा 9 फ़ीसदी है। अगर इसमें अगले 6 महीनों में दो फ़ीसदी इज़ाफा किया जाता है, तो 4-5 लाख करोड़ की बढ़त होगी। यह एक ग़रीब देश को ऐसी स्थिति में सहारा देने के लिए अच्छा कदम हो सकता है।

विग्नेश कार्तिक केआर किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट, किंग्स कॉलेज लंदन में पीएचडी के छात्र हैं। 

सौम्या गुप्ता एक बिज़नेस एनालिस्ट हैं, जिन्होंने ''रणनीति'' विशेषज्ञता पाई है। उन्होंने शिकागो यूनिवर्सिटी से सोशल साइंस में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की है।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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