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लॉकडाउन नाकाम: ग़रीब तबाह, COVID-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई कमज़ोर

ग़रीबों के लिए कोई भी योजना अबतक हमारे लिए इससे ज़्यादा बुरे नतीजे वाली नहीं रही हैं: यह एक नाकाम लॉकडाउन है और लोगों की भारी दुर्गति हुई है।
COVID-19
Image Courtesy: Scroll.in

सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर जाने वाले प्रवासी परिवारों की दुखद तस्वीरें अब सबके सामने हैं। उनके लिए, विकल्प यही था कि वे या तो रुकें और भूखे रहें, या ख़तरनाक सफ़र तय करते हुए अपने गांवों वापस चले जायें। जैसा कि वे कह रहे हैं कि  कोरोनोवायरस उन्हें मार सकता है, लेकिन अगर उन्हें भोजन के बिना रहना पड़ा, तो बेशक भूख उन्हें मार डालेगी।

क्या यह एक ऐसी तबाही है, जिसका अंदाज़ा पहले से ही होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ? सरकार यह अंदाज़ा क्यों नहीं लगा पायी कि ऐसा भी हो सकता है? ख़ासकर, 23 मार्च को "जनता कर्फ़्यू" से पहले ही अपने-अपने घर जाने के लिए स्टेशन और बस डिपो पर लोगों की भीड़ बढ़ने लगी थी? क्या हम इन सब बातों को देखते हुए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते कि सरकार और उसके अधिकारी, जिनमें प्रधानमंत्री स्वयं भी शामिल हैं, ने लॉकडाउन नीति का मसौदा तैयार करते समय इन ग़रीबों की पूरी तरह अनदेखी कर दी ?

शहरों और क़स्बों से जाने वाले प्रवासियों की लम्बी क़तारें इस बात की साफ़ तौर पर पुष्टि करती हैं कि 21 दिन का लॉकडाउन पहले ही किस तरह नाकाम हो गया है। लॉकडाउन के दौरान बड़े पैमाने पर लोगों का यह प्रवासन ही देश भर में तेज़ी से संक्रमण फैला सकता है। इस बीच, खाद्य और अन्य आपूर्ति कम होती जा रही है, क्योंकि आपूर्ति श्रृंखला धीरे-धीरे दबाव में आ रही है।

प्रधानमंत्री के पास अपनी माफ़ी के अलावा प्रवासियों को देने के लिए कुछ भी नहीं था। उन्होंने भोजन उपलब्ध कराने या भारतीय खाद्य निगम के गोदाम खोले जाने की कोई बात नहीं की। इसके बजाय, प्रवासियों की सभी तरह की आवाजाही को रोकने के लिए आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत ज़िला प्रशासन को निर्देश जारी कर दिये गये हैं।

हां, एक कामयाब लॉकडाउन से संचरण की श्रृंखला को तोड़ने में मदद मिली होती और इस नये कोरोनावायरस या SARS-Cov-2 के फ़ैलने की रफ़्तार पर रोक लगी होती। इससे शायद हमें कुछ समय और मिल जाता। लेकिन, लॉकडाउन की कोई तैयारी ही नहीं की गयी, राज्य के मुख्यमंत्रियों को किसी भी तरह का कोई संकेत नहीं दिया गया, ग़रीब आवाम,जो भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा है, उनके लिए किसी तरह की सहायता की बात नहीं की गयी और इस तरह, लॉकडाउन नाकाम हो गया है। जितना किसी योजना का अच्छा होना ज़रूरी है, उतना ही उसे ज़मीन पर उतारने की कोशिश का अच्छा होना ज़रूरी है। अन्यथा, कोई भी योजना एक तुगलकी जोखिम बन जाती है, जिसमें राज्य का नियंत्रण और अधिकार, दोनों ख़त्म हो जाते हैं।

ऐसे में सवाल यही उठता है कि अब हम करें, तो क्या करें? इस सवाल का साफ़-साफ़ जवाब यही है कि प्रवासी आबादी की तत्काल सहायता की जाये ताकि वे अपने-अपने घर वापस जा सकें; उनके लिए रास्ते में भोजन और ठहरने का इंतज़ाम किया जाये; शहरों और क़स्बों में ही उनके ठहर जाने को लेकर दूसरों से अपील की जाये। इसके साथ ही साथ, अभावग्रस्त इलाक़ों में भोजन, राशन, ईंधन, पानी पहुंचाने का तत्काल इंतज़ाम किया जाये; सबके लिए वितरण सुविधाओं वाले भोजन रसोई का इंतज़ाम किया जाये; लोगों के जन धन और मनरेगा खातों में तत्काल पैसे के हस्तांतरण की व्यवस्था की जाये। न केवल भोजन के लिए, बल्कि चिकित्सा आपूर्ति के लिए भी आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूत किया जाये; मास्क सहित, अस्पताल कर्मचारियों के लिए आवश्यक व्यक्तिगत सुरक्षात्मक उपकरणों; और गंभीर रूप से बीमार लोगों के लिए वेंटिलेटर का इंतज़ाम किया जाय।

केरल पहले ही दिखा चुका है कि सरकार क्या कर सकती है और उसे क्या करना चाहिए। कुछ दूसरे राज्यों ने भी अलग-अलग उपायों को लागू करना शुरू कर दिया है। क्या केंद्र उन राज्य सरकारों की किसी तरह की कोई तत्काल मदद कर सकता है,जो अपने काम को लेकर परेशान हैं ? क्या प्रधानमंत्री, जैसा कि सोशल मीडिया पर कुछ लोग कह रहे हैं, '8 बजे वाले प्रधानमंत्री' होने से कुछ आगे बढ़ सकते हैं?

हमें इस महामारी से लड़ने के लिए ज़मीनी हक़ीक़त को जानने की ज़रूरत है। यही वही बात है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस ने दस दिन पहले ही अपने संवाददाता सम्मेलन में कह दी थी:

उन्होंने हर एक केस के परीक्षण की अहमियत को रेखांकित करते हुए कहा था, “आप एक आंख बंद करके नहीं लड़ सकते। अगर हम यह नहीं जानते कि संक्रमित कौन है, तो हम इस महामारी को रोक नहीं सकते। हमारे पास सभी देशों के लिए एक ही मामूली संदेश है, और वह है: परीक्षण, परीक्षण, और परीक्षण।”

ये वे हालात हैं,जो हमारे मौजूदा हालात में डरावने दिखते हैं। हम अपनी आंखें मूंद कर आग से खेल रहे हैं। यह जानने के बावजूद कि महामारी हमारे सामने है, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने बहुत सीमित संख्या में किट्स की खरीद की थी और इन किट्स की परीक्षण क्षमता भी कम रही। 6 मार्च तक की भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) की प्रेस विज्ञप्ति बताती है कि उसने केवल 3,404 व्यक्तियों का ही परीक्षण किया था। भारत 20 मार्च तक 13,486 या केवल 10.5 प्रति मिलियन लोगों का ही परीक्षण कर पाया था, और दुनिया में सबसे कम परीक्षण दर वाले देशों में से एक था।

यदि हम भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की वेबसाइट पर उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों को ही लें, तो पता चलता है कि 27 मार्च तक 26,798 लोगों का ही परीक्षण किया जा सका था (भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद, परीक्षण को लेकर अधिक संख्या बता रही है, लेकिन यह परीक्षण लोगों की संख्या के बराबर नहीं हैं, क्योंकि परीक्षण के लिए किसी एक व्यक्ति के एक से अधिक सैंपल की आवश्यकता हो सकती है),  हमारी परीक्षण दर अब भी केवल 21 प्रति मिलियन लोग हैं। ज़रा इसकी तुलना दक्षिण कोरिया के 6,148 परीक्षण, ईरान के 957, वियतनाम के 159 परीक्षण प्रति मिलियन (20 मार्च को होने वाले आंकड़े) से करें।

परीक्षण किटों की एक पर्याप्त संख्या के नहीं होने के बाद, अब हम अपनी परीक्षण क्षमता को बढ़ाने को लेकर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से डींगें हांकते सुन सकते हैं। हां, कई परीक्षण किटों की ख़रीद की जा रही है, और कई कंपनियों को परीक्षण किट बनाने और वितरित करने के लिए लाइसेंस दिया जा रहा है। लेकिन, यह सब भविष्य के गर्भ में है। हम पहले ही अपना क़ीमती समय गंवा चुके हैं, पिछले ढाई महीने से हम अपने हाथों पर हाथ धरे बैठे हैं।

परीक्षण के लिए निजी प्रयोगशालाओं की अनुमति दे देने भर से इस तरह की बड़ी महामारी को नियंत्रित करने में मदद नहीं मिलती है। 4,500 रुपये प्रति परीक्षण पर कोई भी ग़रीब परिवार अपना परीक्षण भला कैसे करवा सकता है।

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और स्वास्थ्य मंत्रालय, अस्थायी टेंडर और कंपनियों से क़ीमत बताने जैसे सामान्य तरीक़े अपना रहे हैं। ये यह भी दावा कर रहे हैं कि उन्होंने अमेरिका से परीक्षण किट मंगवाये हैं। हम तो यही उम्मीद कर सकते हैं कि ये सीडीसी परीक्षण किट नहीं हों, जो अमेरिका में दुर्भाग्य से नाकाम रहे हैं।

महामारी कैसे बढ़ रही है, यह जानने के लिए हमें मात्रा के मुताबिक़ अपने परीक्षण में भी तेज़ी लानी होगी। जब तक कि हम बड़ी संख्या में लोगों का परीक्षण नहीं कर लेते, इस तथ्य के कोई मायने नहीं हैं कि कई देशों की तुलना में भारत में संक्रमण की संख्या कम है। कम संक्रमण, उन बहुत कम परीक्षणों का नतीजा हो सकता है, जिसे हमने अबतक किये हैं।

निदान वाले परीक्षण, जो नाक और गले के फाहे को लेने पर निर्भर करते हैं और वायरस जीन सिक्वेंस की मौजूदगी का परीक्षण करते हैं, जल्दी से पता लगाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते हैं। हम एंटीबॉडी परीक्षण जल्दी और कम लागत पर कर सकते हैं, जिससे हमें यह पता चल सकता है कि आबादी में कितने नहीं पता चल पाये संक्रमण मौजूद हैं। ये परीक्षण सस्ते हैं और इन्हें बहुत तेजी से बढ़ाया जा सकता है। इसे जीन सिक्वेंस परीक्षणों के विकल्प के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि एक बड़ी संख्या का परीक्षण करने के त्वरित तरीक़े के रूप में यह देखने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है कि एक बड़े समुदाय में इसका प्रसार तो नहीं हो चुका है।

इस महामारी से निपटने का दूसरा हिस्सा अस्पताल के संकट को हल करना है, जिसका सामना हम जल्द ही करने जा रहे हैं। यदि या तो मात्रा या गुणवत्ता के लिहाज से सुरक्षात्मक साज़-ओ-सामान उपलब्ध नहीं होगा, तो हम अस्पताल के संक्रमण को महामारी के नये केंद्र बनते देखेंगे। इटली में ऐसा ही हुआ है। लॉकडाउन उन साज़-ओ-सामान की आवाजाही को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाला है, जिनकी हमें सख़्त ज़रूरत होगी, क्योंकि महामारी के बढ़ते जाने के साथ अस्पताल के कर्मचारियों की सुरक्षा अहम होती जायेगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि ये अस्पताल संक्रमण का केंद्र न बनें।

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद उन लोगों के अनियमित परीक्षण के नतीजों को लेकर सावधानी या संदेह के कारण जानकारी देने में बहुत अनिच्छुक रहे हैं, जिन्हें गंभीर श्वसन संकट या इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी के साथ अस्पतालों में भर्ती कराया गया था। आख़िर इसका परिणाम क्या रहा? SARS-Cov-2 से संक्रमित एक अहम प्रतिशत सामने आ पाया? संख्याओं के अलावे हमारे पास जानने और बताने का कोई और तरीक़ा नहीं है।

अन्य अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि सरकार द्वारा पैदा की गयी शुरुआती गड़बड़ियों के बावजूद लॉकडाउन पूरी तरह लागू है कि नहीं। यह ग़रीबों की समस्याओं के हल को लेकर सरकार की क्षमता या फिर इच्छा पर निर्भर करेगा। अन्यथा, लोगों का सरकार से भरोसा उठ जायेगा, जिससे राज्य के लिए अपनी इच्छा को लोगों पर थोपना नामुमकिन हो जायेगा। और राज्य को अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए, उसे भोजन उपलब्ध कराना, सभी आवश्यक आपूर्ति को बनाये रखना, तथा ऐसी चिकित्सा प्रणाली को तैयार करना होगा, जिसमें अस्पताल और उसके काम-काज अहम हों। और जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक कहते हैं, परीक्षण, परीक्षण और अधिक परीक्षण।

यह ऐसा समय है, जब पूंजीपतियों को बेल आउट देने के बजाय, मोदी सरकार भारत की आम जनता की ज़रूरतों पर ध्यान दे। सरकार को राजकोषीय ज़िम्मेदारी,राजकोषीय अपरिवर्तनवाद की समझ और अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी को खुश रखने की बात को दिमाग़ से निकाल देना होगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को 1.7 लाख करोड़ रुपये के मामूली प्रोत्साहन पैकेजे देने की तुलना में कहीं बड़ी रक़म के ऐलान का साहस दिखाना होगा। इस रक़म का एक बड़ा हिस्सा तो केवल दिखावा है: नये COVID-19 मद के तहत पहले से चले आ रहे ख़र्च शामिल हैं,या उन ख़र्चों को मिलाकर इसे एक साथ दिखा दिया गया है। मौजूदा संकट से निपटने के लिए हमें अगले तीन महीनों में कम से कम तीन गुना अधिक रक़म की ज़रूरत होगी।

यह मोदी सरकार के लिए कड़ा इम्तिहान है। क्या उनकी नज़र इन ग़रीबों पर भी है? या महज मध्यवर्गीय लोगों पर ही है? दुर्भाग्य से, वायरस-SARS-Covid-2, काफ़ी समतावादी है। यह वर्ग का लिहाज तो बिल्कुल ही नहीं करता है।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Failed Lockdown: Devastating the Poor, Weakening the Fight Against COVID-19

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