Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

कॉरपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी: कॉरपोरेट फायदे के लिए, कॉरपोरेट की, कॉरपोरेट द्वारा बनायी गयी व्यवस्था!

चूँकि सीएसआर के खर्चों पर सरकार की ओर से निगरानी नहीं रखी जा रही है, इसलिये जनता को चाहिये कि वह कॉरपोरेट सेक्टर की कथनी को करनी में तब्दील कराने के काम को अपने हाथों में ले।
CSR

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई को आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत 20,00,000 करोड़ रुपयों की भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की, तो अर्थव्यवस्था टूटन के कगार पर थी और कामगार अपने अंतिम हाशिये पर खड़े थे। इस प्रोत्साहन पैकेज से अर्थव्यवस्था को कितनी मदद मिलती है या इसमें क्या कमियाँ रह गई हैं, यह तो जाँच का विषय है ही, लेकिन इंडिया इंक की बहुप्रचारित कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी या सीएसआर और कोरोना वायरस संकट को कम करने में इसकी भूमिका पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

वर्तमान हालात पर यदि सरसरी निगाह डालें तो इंडिया इंक सीएसआर “बचत” में 3,000 करोड़ रुपये के साथ बिना खर्च किये कोष को लेकर बैठा हुआ है, जिसे नीति आयोग ने घरेलू बाजार में नई जान फूँकने के लिए जारी करने की अपील की है। चीजों को यदि परिप्रेक्ष्य में रखें तो सीएसआर के माध्यम से व्यय के जरिये कारपोरेटिय परोपकारिता को भारत में 2013 में कंपनी अधिनियम की धारा 135 (1) और (5) के लिए एक संशोधन द्वारा अनिवार्य कर दिया गया था। इसके बाद से ही कानून ने उन कॉरपोरेटस के लिए अनिवार्य कर दिया है जो कुछ निश्चित शर्तों को पूरा करते हैं, वे अपने पिछले तीन वर्षों के औसत शुद्ध लाभ का 2% सीएसआर पर खर्च करें।

लेकिन इसके बावजूद कुछ केन्द्रीय सार्वजनिक निगम के उद्यमों और प्रतिष्ठित कंपनियों, कॉर्पोरेट हाउसों द्वारा वर्तमान में जारी कोरोना वायरस संकट पर सीएसआर के माध्यम से ली गई पहलकदमी के अलावा बाकियों की प्रतिक्रिया सीमित ही रही है। वहीँ कुछ कंपनियों ने घोषणा की है कि वे पीएम-केयर्स फंड में ही दान करेंगे, लेकिन इस फंड की कानूनी स्थिति और इसका दायरा पहले से ही जांच के दायरे में हैं, क्योंकि जिन नियमों के तहत इस फण्ड का निपटान किया जाना है उन नियमों को तैयार किया जाना अभी शेष है। पहले से मौजूद प्रधान मंत्री राष्ट्रीय राहत कोष के विकल्प में हाल ही में जो ये नया कोष लॉन्च किया गया है, इसमें जवाबदेही से कहीं न कहीं समझौता किया जा रहा है और भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।

यहीं पर कॉर्पोरेट सेक्टर के सीएसआर फंड की भूमिका सामने आती है। 10 अप्रैल को कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय की ओर से सीएसआर पर एक FAQ जारी की गई है, जिसमें स्पष्ट तौर पर घोषणा की गई है कि पीएम-केयर्स में दिए गए योगदान को सीएसआर के तहत खर्चों के रूप में मान्यता दी जाएगी। जबकि कोविड-19 के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष या राज्य राहत कोष को कंपनी अधिनियम, 2013 की अनुसूची VII में शामिल नहीं किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि कॉर्पोरेट्स (या अन्य) के द्वारा राज्य के कोष में योगदान को सीएसआर के तहत खर्च के रूप में नहीं माना जायेगा।

यह सत्तारूढ़ वितरण के केंद्रीकृत दिशानिर्देशों के प्रति मुग्धता के साथ धोखा है -अगर ऊपर से नीचे की ओर लॉकडाउन के दिशानिर्देशों को जारी करना असंवैधानिक है, तो सवाल यह उठता है कि किसी फण्ड की कानूनी स्थिति क्या हो सकती है जिसका नियंत्रण केवल केंद्र के पास हो? क्या इस फण्ड को केंद्रीकृत करने को स्वीकार कर लेना चाहिये जिसे देश भर से कॉर्पोरेट्स द्वारा राष्ट्रीय संकट से लड़ने के लिए जमा किया जा रहा हो, खासकर तब जब उनके हस्तांतरण में आवश्यक पारदर्शिता का अभाव हो? दान देने और खर्चों की इस भूलभुलैया जैसी संरचना को देखते हुए कोरोना वायरस से लड़ने के नाम पर सीएसआर फण्ड को इसके लिए इस्तेमाल में लाना संदेह खड़े करता है।

सीएसआर के लिए कानून में खुली छूट?

इस सम्बन्ध में सीएसआर के समूचे इतिहास को ही खंगालने की आवश्यकता है। 2013 में यह कानूनी मंजूरी उन कंपनियों पर लागू की गई थी जिनकी नेट वर्थ पिछले तीन वर्षों में 500 करोड़ रुपये या उससे अधिक थी, कारोबार/राजस्व 1,000 करोड़ रुपये या उससे अधिक का था, या उन्होंने 5 करोड़ रुपये या उससे अधिक का शुद्ध लाभ अर्जित किया था। लेकिन क्रिसिल (CRISIL) की रिपोर्ट ने उल्लेख किया है कि 2018 के अंत तक तमाम सूचीबद्ध और गैर-सूचीबद्ध कंपनियों में जनकल्याण हेतु सीएसआर पर कुल संचित खर्च में आश्चर्यजनक तौर पर हमारे कल्याणकारी राज्य में 53,000 करोड़ रुपये मूल्य के निजी कोष उड़ेले गए थे।

इसी प्रकार वित्त संबंधी स्थायी समिति जिसकी ओर से सीएसआर नोट्स के लागू किये जाने की जांच की गई, सीएसआर खर्च पर कंपनी अधिनियम की सातवीं अनुसूची पर लचीला मार्गदर्शन प्रदान करती है। इसके अनुसार सीएसआर फंड को मुख्यतया नौ व्यापक क्षेत्रों में खर्च किया जा सकता है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष शामिल हैं। इस प्रकार का लचीलापन कानून के व्यापक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कॉर्पोरेट क्षेत्र के भीतर सामाजिक कार्यों में खर्च की भावना को स्थापित करने के तहत अपनाया गया था।

अभी तक सीएसआर फण्ड का इस्तेमाल शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पर्यावरण, व्यावसायिक प्रशिक्षण, ग्रामीण विकास, आजीविका, पेयजल, महिला सशक्तीकरण और सामाजिक और सांस्कृतिक संरक्षण के विविध रूपों में किया गया है। कंपनियां अपने सीएसआर के लक्ष्य में संयुक्त राष्ट्र के अनिवार्य 2030 वैश्विक लक्ष्य को समाहित करने के लिए अपने जिम्मेदार व्यावसायिक कार्यों में टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDGs) को शामिल कर रही हैं। हालांकि यह नोट किया जाना दिलचस्प होगा कि न तो कंपनी अधिनियम में संशोधनों के मसौदे को तैयार करने के इतिहास में और ना ही 2014 में तैयार किए गए सीएसआर के नियमों में इस बात का कोई स्पष्टीकरण दिया गया है कि जिन नौ क्षेत्रों को अंतिम सूची में शामिल किया गया था उन तक पहुँचने के लिए किन कारकों को ध्यान में रखा गया था।

इसके अलावा कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय ने भी न तो कोई दिशा-निर्देशों को जारी किया और ना ही सीएसआर व्यय की निगरानी के लिए कंपनियों कोई सलाह ही जारी की। इसके बावजूद सीएसआर अब व्यापक स्वरुप अख्तियार कर चुकी है। नतीजे के और पर कॉरपोरेट खर्च की इस श्रेणी के तहत गैर-वित्तीय खुलासे अस्पष्ट और अनिर्णय वाले हैं और उनमें एक समान रिपोर्टिंग संरचना का अभाव है।

और इसी बीच देश के भीतर परोपकारी बाजार फल-फूल रहा है। हम देख रहे हैं कि साल दर साल  कॉर्पोरेट के बैनर तले तमाम चैरिटी, फाउंडेशन, ट्रस्ट, साझेदारियां, दान, स्पांसरशिप, आरक्षित फण्ड, कर्मचारी स्वैक्षिक गतिविधियाँ, रणनीतिक गठजोड़ और बाजार सहयोग में उछाल देखने को मिल रही हैं। 2016 तक आते-आते इस तरह के निजी परोपकारी खर्च (निगमों से लेकर व्यक्तियों तक में) बढ़कर 70,000 करोड़ रुपये तक पहुँच चुके थे।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जहाँ एक ओर निवेशक और बाजार पर नजर रखने वाले लोग कंपनियों से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग कर रहे हैं, वहीँ सीएसआर कॉरपोरेट्स के लिए नलिका के समान है। यह उनके लिए एक अवसर है अपने मन मुताबिक पब्लिक रिलेशन बनाने का। सीएसआर उनकी ब्रांड इक्विटी और बिजनेस की छवि को गढने और कॉर्पोरेट प्रतिष्ठा को ऊँचे स्तर पर ले जाने के काम आता है।

सीएसआर को एक छतरी के टर्म के तौर पर लिया जाता है जो बिजनेस और समाज के संबंधों के पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, लेकिन हकीकत में देखें तो सीएसआर में "जिम्मेदारी" का पहलू पूरी तरह से निगमों के विवेक पर निर्भर करता है। कानूनी तौर पर कंपनियां एक सीमित दायित्व के दायरे में काम करती हैं: इस वजह से जहाँ सीएसआर पर खर्च तो हो रहा है, लेकिन यहाँ पर "गैर-वित्तीय प्रकटीकरण" को बिना किसी क़ानूनी तौर पर कार्यशील परिभाषा प्रदान किये प्रयोग में लाया जा रहा है, जिसे कंपनियों को निश्चित तौर पर तैयार करना चाहिये। इसके चलते कॉर्पोरेट सेक्टर के पास इस बात की काफी गुंजाईश बन जाती है कि उसे अपनी सीएसआर "बचत" के साथ क्या करना है।

भारत ने सीएसआर पर निगरानी रखने के लिए कोई सरकारी निगरानी एजेंसी स्थापित नहीं की है, इसलिए कंपनियां अपनी पोषित परियोजनाओं पर सीएसआर के पैसे को उदारतापूर्वक आवंटित करने के लिए खुद की कार्यप्रणाली को निर्मित करने के लिए स्वतंत्र हैं। इस ढलान को भरने का काम डूइंग गुड इंडेक्स करता है, जिसे 2018 में सेंटर फॉर एशियन फिलान्थ्रोपी एंड सोसाइटी द्वारा प्रकाशित किया गया था। अपनी तरह के इस पहले सर्वे ने निजी सामाजिक निवेश को सक्षम या बाधित करने वाले कारकों की जांच के बाद भारत को कॉर्पोरेट परोपकार के मामले में "डूइंग ओके" के रूप में रेटिंग दी थी। और ऐसा तब हुआ जब भारत में सीएसआर अनिवार्य है, जबकि अन्य एशियाई देशों में ऐसा नहीं है।

कॉर्पोरेट्स के लिए, के द्वारा, का सीएसआर

एक कंपनी चाहे तो अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अपने कोर संचालन से परे जाकर अपनी "सामाजिक तौर पर अच्छी" गतिविधियों को सूचीबद्ध कर सकती है और इसे "आजाद और पारदर्शी" संचार के तौर पर अपने हितधारकों के समक्ष जारी कर सकती है। लेकिन यदि अंतरराष्ट्रीय या घरेलू सीएसआर नियमावली और इसके प्रबंधन के गठन के बारे में कोई स्पष्ट दिशा या खाका सामने न हो तो इस तरह की पारदर्शिता विवादास्पद साबित हो जाती है। वास्तव में यह एक खामी है और इस कारण से इसके परिचालन की दृष्टि से, सीएसआर ने स्पष्टता की जगह इसकी रिपोर्टिंग के ढाँचे में अस्पष्टता को जन्म दिया है। इन सीएसआर रिपोर्टों में प्रयुक्त शब्दावली में भी विखंडन को बढ़ते देखा जा सकता है, जिसका कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर बुरा असर पड़ता है।

यह एक स्थापित तथ्य है कि कॉर्पोरेट्स मुक्त व्यापार में विश्वास करते हैं, जिसमें उन्हें सरकार से अपेक्षा होती है कि उसका हस्तक्षेप न्यूनतम रहे, और उनकी मंशा बाजारों एवम "प्रतिस्पर्धा" पर काबिज होने की होती है। जबकि कानूनी रूप से अनिवार्य सीएसआर एक तरह से सरकारी तौर-तरीका है जो निगमों को देश की बेहतरी की जरूरतों के प्रति उन्हें जवाबदेह बनाता है। इस दोहरेपन ने कॉर्पोरेट द्वारा अपने खर्चों को दिखाने पर विपरीत असर डाला है: जहाँ कानून औपचारिक टॉप-डाउन रिपोर्टिंग स्ट्रक्चर को अनिवार्य बनाता है जो जनता और हितधारकों को विशिष्ट सामाजिक व्यय के बारे में अवगत कराता है, जबकि वास्तविकता में नीचे से ऊपर का रिवाज काम कर रहा होता है जिसमें कंपनियों को फैसले लेने का एकाधिकार होता है और वे अपने हिसाब से और अपने तौर-तरीकों से 2% मुनाफे को खर्चने के लिए आजाद रहती हैं।

और इन सबसे ऊपर सीएसआर पर पैदा होने वाली बहसें भी इस बात पर आधारित होती हैं कि कॉर्पोरेट खुद से अपने सीएसआर खर्चों के बारे में क्या कहते हैं। और उनके परोपकारी व्यवहार जब भारत में किसी एक ढांचे के भीतर नहीं समाहित हो पाते, तो अंत में हम पाते हैं कि हमारे पास तमाम खुले-बंद सिद्धांत, मानक, कोड और दिशानिर्देशों के सेट मौजूद हैं।

उदाहरण के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के साथ सूचीबद्ध संस्थाओं द्वारा की गई पहल का वर्णन करते हुए एक बिजनेस रिस्पांसिबिलिटी या बीआर रिपोर्ट को आवश्यक बनाया है। इस बीआर के अनुसार सीएसआर खर्चों को अनिवार्य तौर पर पर्यावरणीय, सामाजिक और शासन के दृष्टिकोण से दर्शाना चाहिए और उन्हें वार्षिक रिपोर्ट में पेश करना चाहिए। बीआर रिपोर्ट छह अन्य सिद्धांतों को सम्बोधित करने की उम्मीद करता है जिसमें नैतिकता, कर्मचारियों के बीच सम्बन्ध, मानवाधिकारों के प्रति सम्मान, भ्रष्टाचार-विरोधी और रिश्वत संबंधी मामले शामिल हैं। लेकिन सिर्फ 100 सबसे बड़ी कंपनियों के बीआर रिपोर्ट के आंकड़े ही उपलब्ध हैं। इसी वजह से आज इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि सभी कंपनियों में सीएसआर खर्चों की रिपोर्टिंग का एक सुसंगत स्वरुप को परिभाषित किया जाए।

बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स ने एक सीएसआर इंडेक्स को विकसित करने पर काम किया है, लेकिन इसे अमल में लाना अभी बाकी है। फिर भी इसको लेकर यह समझ बनी है कि यदि सीएसआर का पूरी तरह से अनुपालन किया जा रहा होता तो इस श्रेणी के तहत कॉर्पोरेट्स 22,000 करोड़ रुपये खर्च करता।

बढती कंपनियों के साथ बढ़ता सीएसआर:

वास्तव में यदि सीएसआर पर बहसें, व्यावसायिक घरानों के लिए अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों और दायित्वों को प्रतिबिंबित करने के लिए एक तंत्र के रूप में काम करता है, तो हमें यह पूछना चाहिये कि: यदि ये मॉडल स्व-निर्मित होते तो क्या ये इतने ही परोपकारी हो सकते हैं? और क्या ये खर्चे सिर्फ इसलिए नहीं किए जा रहे हैं क्योंकि इन कंपनियों पर उनके मूल निगमों या समुदायों का दबाव बना हुआ है?

यह दुर्भाग्य है कि सीएसआर अभी भी अधिकांश भारतीय और वैश्विक संगठनों की परिधि में ही बना हुआ है। मुश्किल से ही यह कभी किसी भी देश में बड़े कॉर्पोरेट्स, उच्च दृश्यता वाली ब्रांडेड कंपनियों से आगे निकल पाया हो। जितनी भी सीएसआर इंडेक्सिंग और रैंकिंग, कोड और मानक के साथ-साथ रिपोर्ट और ऑडिट हैं, वे कुछ हजार कंपनियों तक ही केंद्रित हैं।

भारत में फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (FICCI) की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार विभिन्न राज्यों में इसके सदस्यों के रूप में 2,50,000 कंपनियां हैं। वहीँ कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री या CII में निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के लगभग 9,000 सदस्य हैं, जिनमें छोटे एवम मझौले उद्यम और बहुराष्ट्रीय निगम शामिल हैं। इसके साथ ही इसके पास करीब 276 राष्ट्रीय और क्षेत्रीय क्षेत्रीय उद्योग निकायों के 3,00,000 से अधिक उद्यमों की अपरोक्ष सदस्यता भी है।

इसके अलावा एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचैम) 250 से अधिक चैम्बर्स और व्यापार संघों का प्रतिनिधित्व करता है जिनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर 4,50,000 से अधिक सदस्य जुड़े हुए हैं। इस लीग में नवीनतम सदस्य दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (DICCI) है, जो 18 राज्यों और विदेशों में सात शाखाओं के माध्यम से 5,000 सदस्यों को जोड़ता है।

इनकी संयुक्त संख्या (दोहरी सदस्यता लेने के बाद) 10,00,000 से अधिक कंपनियों की है जो भारत भर में फैले हुए हैं। इतने वृहद पैमाने पर कंपनियों द्वारा सीएसआर खर्चों की रिपोर्टिंग के लिए भारत दूर-दूर तक तैयार नजर नहीं आता। इसलिए वर्तमान सीएसआर रैंकिंग की प्रकृति अपने आप में गैर-प्रतिनिधि स्वरुप लिए हुए है, जिसका औचित्य बेहद सीमित है। इस बारे में यहाँ तक कहा जा सकता है कि सीएसआर एक बेहद छोटे कॉर्पोरेट अभिजात वर्ग के लिए संरक्षित है, एक मामूली अल्पसंख्यक बिजनेस समुदाय, जिसे अपने खर्चों के बारे में बातें करने की छूट है।

इसके अलावा सीएसआर खर्चों के प्रामाणिक तौर पर आकलन या तुलना करने के लिए मैक्रो-लेवल इंडिकेटर के लिए कोई विशिष्ट पैमाना न होने के कारण प्रभावी तौर पर निष्कर्ष नहीं निकाल सकता कि उसकी ओर से किये गए सामाजिक निवेश से अमीर और गरीब के बीच का अंतर कम करने में सफलता मिल रही है, या जैसा कि दावा किया जाता है कि वे सुरक्षित और ग्रहणीय पर्यावरण को निर्मित कर रहे हैं।

विकास की चाह रखने वाली पूंजीवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था में सीएसआर प्रबंधन में झलकती अस्पष्टता इसके विशाल जखीरे को देखते हुए पूरी तरह से अस्वीकार्य है। आज की फौरी जरूरत इस बात को लेकर है कि बाजार के संचालन का लोकतान्त्रिकीकरण किया जाए और सीएसआर गतिविधियों और खर्चों की सौदेश्यपूर्ण रिपोर्टिंग पर जोर हो। यह सकारात्मक और गंभीर रूप से सीएसआर बहसों में संलग्न होने के एक जरिये को खोलने में मदद करेगा। यह संवाद विभिन्न संगठनों के लिए सुसंगत, मात्रात्मक और तुलनीय सीएसआर रिपोर्ट बनाने और उसके हितधारकों को कंपनी संचालन पर सवाल उठाने और सचेत निर्णय लेने के मार्ग को प्रशस्त करने में मददगार साबित होगा।

कंपनियों की पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने में सीएसआर से मदद मिल सकती है, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कल्याणकारी नीतियों के माध्यम से कंपनियों को लाभ-वितरण के अंतिम छोर तक वितरण में सक्रिय भागीदार बनाये जाने की आवश्यकता है। वर्ना सीएसआर सार्वजनिक एकजुटता पर एक बोर्डरूम कवायद तक सीमित रहेगी – यहाँ तक कि इस वैश्विक महामारी के दौर में भी।

लेखक बैंगलोर के सेंट जोसेफ कॉलेज ऑफ लॉ में सहायक प्रोफेसर पद पर हैं।

(शोध मार्गदर्शन- आईआईएम इंदौर के प्रोफेसर दिब्यादुती रॉय)

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Corporate Social Responsibility: Of, By and For Corporates?

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest