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महामारी से लड़ने के नाम पर पुलिस स्टेट में तब्दील होता देश!

एक आपदा से निबटने के नाम पर पुलिस की ज्यादतियों को यह मंज़र भी किसी आपदा से कम नहीं है। यह पूरा सूरत-ए-हाल हमारी सरकारों, खासकर केंद्र सरकार के नाकारापन और दिमागी दिवालियापन का परिचायक है
 पुलिस
Image courtesy: Free Press Journal

अगर कोई लोकतांत्रिक देश अचानक पुलिस स्टेट में बदल जाए तो क्या-क्या होता है, यह इन दिनों भारत में देखा जा सकता है। भारत में कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से बचाव के लिए लॉकडाउन यानी देशबंदी लागू है। सड़कों पर या तो सिर्फ पुलिस दिख रही है या फिर पुलिस के हाथों बेदर्दी से पिट रहे गरीब लोग। पिटने वाले लोगों में महानगरों और बड़े शहरों से अपने घर-गांव की ओर पलायन कर रहे मज़दूर और उनके परिजन भी हैं और अपने परिवार की ज़रूरत का सामान खरीदने के लिए घरों से निकलने वाले लोग भी। यह सब तब हो रहा है जब देश में किसी तरह का भी आपातकाल लागू नहीं है- न तो आंतरिक या बाहरी और न ही आर्थिक या मेडिकल। फिर भी देश के पुलिस स्टेट बनने जैसे नज़ारे देखने को मिल रहे हैं।

24 मार्च की रात को आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए लॉकडाउन के ऐलान के अगले दिन से ही दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि तमाम राज्यों से जिस तरह के वीडियो आ रहे हैं, वे दिल दहलाने, रोंगटे खडे करने और आंखें नम कर देने वाले हैं। इन वीडियो में बताया जा रहा है कि महानगरों और बड़े शहरों में काम करने वाले प्रवासी मजदूर किस तरह बदहवास होकर अपने परिवार के साथ सुदूर प्रदेशों में अपने घर-गांव लौट रहे हैं। चूंकि लॉकडाउन के चलते नागरिक परिवहन सेवाएं पूरी तरह बंद हैं, लिहाजा वे लोग पैदल ही भूखे-प्यासे चले जा रहे हैं। बच्चे थकान के कारण रो रहे हैं, उनके पैर सूज गए हैं लेकिन मां-बाप उन्हें लगभग घसीटते हुए चले जा रहे हैं।

इन्हीं वीडियो में कई वीडियो ऐसे भी जिनमें शहरों से पलायन करते इन मज़दूरों पर पुलिस बेरहमी से लाठियां बरसा रही हैं। इस मामले में पुलिस बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों, अपाहिजों आदि किसी का लिहाज नहीं कर रही है। सरकार ने लॉकडाउन के दौरान दवाई, फल, दूध, राशन आदि आवश्यक जीवनोपयगी वस्तुओं की दुकानों को खुली रखने की छूट दी है, लेकिन दिल्ली में ही कई इलाकों में ये दुकाने भी पुलिस की मर्जी से ही खुल पा रही हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन दुकानदारों से दुकानें खुली रखने का अघोषित 'अनुमति शुल्क’ ठीक उसी तरह वसूला जा रहा है, जैसे अवैध शराब के कारोबारियों और अन्य गैरकानूनी काम करने वालों से पुलिस वसूली करती है।

इस बात पर कोई बहस नहीं हो सकती कि कोरोना वायरस के संक्रमण फैलने से रोकने के लिए लोगों का घरों में रहना जरूरी है। लोगों के आपस में मेल मुलाकात बंद करने को इससे बचाव का बड़ा तरीका माना जा रहा है, जिसे दुनिया के दूसरे देश पहले से ही अपना रहे हैं। लोग खुद भी डरे हुए हैं। वे कई गुना ज्यादा कीमत पर मास्क और सैनिटाइजर खरीद कर उसका उपयोग कर रहे हैं। अपना काम-धंधा बंद कर खुद को घरों में बंद किए हुए हैं। लाखों लोगों की नौकरियां खतरे में हैं।

जरूरी सामान की किल्लत और अपने तथा परिवार के किसी सदस्य के बीमार हो जाने की आशंका अलग से परेशानी का सबब बनी हुई है। ऊपर से पुलिस की लाठी और गालियां हैं। हालांकि सभी जगह से ऐसी ख़बरें नहीं हैं, कई जगह पुलिस का मानवीय चेहरा देखने को मिला। वो मददगार की भूमिका में दिखाई दी, लेकिन आमतौर पर उसका कड़ा रवैया ख़ासतौर से गरीब वर्ग के प्रति दिखाई दे रहा है।

पुलिस ने जिस तरह से लॉकडाउन को मुकम्मल लागू कराने का जिम्मा अपने हाथ में लिया है, उससे लोग शारीरिक और मानसिक रूप से तो प्रताड़ित हो ही रहे हैं, आर्थिक नुकसान भी बडे पैमाने पर हो रहा है। पुलिस ने अपनी मनमानी करते हुए जगह-जगह पर ज़रूरी सामान से भरी गाडियों को रोक दिया है। पुलिस दुकानदारों को तो परेशान कर रही रही है, रेहडी-पटरी पर फल और सब्जी बेचने वाले तथा घर-घर जाकर दूध-सब्जी आदि की आपूर्ति करने वाले भी उसकी ज्यादती के शिकार हो रहे हैं। मारपीट करके उनका सामान नष्ट किया जा रहा है। लॉकडाउन शुरू होने से अब तक कई जगह से हजारों लीटर दूध और हजारों किलो सब्जियां बर्बाद होने की खबरें आई हैं।

कुल मिलाकर लोग कोरोना वायरस और पुलिस, दोनों से समान रूप से ख़ौफ़ज़दा हैं। लॉकडाउन में पुलिस की ज्यादतियों के बीच ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने सीधी चेतावनी दी है कि अगर किसी ने लॉकडाउन का उल्लंघन किया तो पुलिस को उसे देखते ही गोली मारने के आदेश भी दिए जा सकते हैं। सोचिए कि यह मुख्यमंत्री किस मानसिकता का है। चंद्रशेखर राव संघ परिवार या किसी कांग्रेसी नेता के परिवार से निकले मुख्यमंत्री नहीं हैं। वे एक लंबे जनांदोलन और लोकतांत्रिक संघर्ष से निकले राजनेता हैं, लेकिन उनके लिए लोकतंत्र और नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के लिए कोई मायने नहीं हैं। वे लॉकडाउन की स्थिति में लोगों की बुनियादी जरुरतों को पूरा करने के बजाय पुलिस की गोली से उनकी जान लेने के इरादे का इजहार कर रहे हैं।

कोरोना वायरस से लोगों की जान बचाने के नाम पर किसी की भी जान ले लेने का अपनी सरकार का संकल्प जाहिर करने वाले तेलंगाना के मुख्यमंत्री अकेले नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस तो बहुत पहले से ही अपनी लाठियों और गोलियों का इस्तेमाल सूबे के लोगों पर करने में जुटी हुई हैं। कुछ समय पहले तक वह यह काम नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे लोगों के साथ कर रही थी तो अब वह लॉकडाउन लागू कराने के नाम पर कर रही है। सूबे के बरेली जिला मुख्यालय में तो अपने घरों को लौटते मजदूरों और उनके बच्चों पर पुलिस और प्रशासन के कारिंदों ने कीटनाशक का छिड़काव किया। कीटनाशक आंखों में जाने से कई मजदूर, बच्चे और महिलाएं मारे जलन के बुरी-तरह बिलबिला उठे। जाहिर है कि मुंह, आंख, कान के साथ ही नाक के जरिए कीटनाशक उनके शरीर के अंदर तक गया है।

सवाल है कि जैसा सुलूक पुलिस और प्रशासन के कारिंदों ने इन मजदूरों के साथ किया, वैसा सुलूक क्या वे उन लोगों के साथ करने की हिमाकत कर सकते हैं, जो हवाई जहाजों में बैठकर कोरोना संक्रमण को विदेशों से अपने साथ भारत में लाए हैं?

उत्तर प्रदेश की तरह ही कर्नाटक में भी पहले नागरिकता संशोधन विरोधी कानून को दबाने और अब कोरोना से लोगों की जान बचाने के नाम पर लॉकडाउन लागू होने के पहले से पुलिस लोगों की बेरहमी से पिटाई कर रही है। आवश्यक कार्य से बाहर निकले लोगों से बगैर कोई पूछताछ करे ही लाठियां बरसाई जा रही है। यही हाल गुजरात का है। महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार ने भी कहा है कि पुलिस को पूरी छूट है कि वह हर कीमत पर लोगों को काबू में करे। इसी से मिलती-जुलती बात तमिलनाडु के स्वास्थ्य मंत्री सी. विजय भास्कर ने कही है। देश के बाकी राज्यों में पुलिस राज की कहानी भी लगभग ऐसी ही है।

देश भर में पुलिस के इस जोर-जुल्म की शुरुआत 23 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी के एक ट्विट से हुई। एक दिन पहले यानी 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दौरान शाम को थाली, घंटी, शंख और ढोल बजाते हुए लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर निकल आए थे, इसका ज़िक्र किए बिना प्रधानमंत्री ने ट्विट किया और राज्यों से कहा कि वे लोगों के घरों से बाहर निकलने पर सख्ती से पेश आएं। उनके इस फरमान के बाद तो देश भर की पुलिस को मानो मनमानी करने और लोगों की खाल उधेड़ने का लाइसेंस मिल गया।

एक आपदा से निबटने के नाम पर पुलिस की ज्यादतियों को यह मंजर भी किसी आपदा से कम नहीं है। यह पूरा सूरत-ए-हाल हमारी सरकारों, खासकर केंद्र सरकार के नाकारापन और दिमागी दिवालियापन का परिचायक है, जिसे छुपाने के लिए लॉकडाउन के बहाने देश को पुलिस स्टेट बनाया जा रहा है।

देश के नीति-नियंता बने हुए लोगों की अपनी जिम्मेदारी से बेखबरी और मगरुरी की यह इंतहा है कि जिस वक्त कोरोना वायरस देश में प्रवेश कर चुका था, तब हमारे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के अन्य जिम्मेदार लोग अरबों रुपए खर्च पर एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष की आवभगत में बिछे हुए थे। विदेशी राष्ट्राध्यक्ष के शाही स्वागत-सत्कार से फुर्सत पाने के बाद भी उन्होंने कोरोना वायरस की चुनौती को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया। उसके बाद वे अपने दलीय राजनीतिक एजेंडे को प्राथमिकता में रखकर दलबदल के जरिए विपक्षी दल की एक सरकार को गिराने का तानाबाना बुनने में जुट गए। अपने इस मिशन में पूरी तरह कामयाब होने के बाद ही कोराना वायरस की चुनौती पर उनका ध्यान गया और पहले एक दिन का जनता कर्फ्यू और फिर तीन सप्ताह का लॉकडाउन लागू किया गया।

अगर समय रहते ही ऐहतियात बरत लिया जाता और तमाम आपातकालीन उपाय कर लिए गए होते तो संक्रमित देशों से आने वाले विमानों पर रोक लग गई होती। जो लोग संक्रमित देशों से आ चुके थे, उन्हें हवाई अड्डों पर रोक कर ही उनकी स्क्रीनिंग कर ली जाती और उनमें से संक्रमित पाए जाने वाले लोगों को उनके स्वस्थ होने तक अलग-थलग रखने के लिए हवाई अड्डों के नजदीक हजारों एकड़ खाली पड़ी जमीन पर अस्थायी अस्पताल बना लिए होते। मगर ऐसा नहीं हुआ। हजारों लोग बिना किसी जांच के हवाई अड्डों से निकल कर अपने घरों को पहुंच गए और पता नहीं कितने लोगों को उन्होंने संक्रमण बांटा। आखिर इस स्थिति के लिए कौन है जिम्मेदार- देश के 125 करोड लोग या उनके मसीहा बने हुए वे लोग जो देश को रोजाना 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला देश और विश्वगुरू बनाने की लफ्फाजी करते रहते हैं?

प्रधानमंत्री ने एकाएक लॉकडाउन का ऐलान कर वही गलती दोहराई, जो उन्होंने तीन साल पहले नोटबंदी का ऐलान करते हुए की थी। जनजीवन में जैसी अफरातफरी और घबराहट अचानक किए गए लॉकडाउन से मची है वैसी ही अफरातफरी बगैर तैयारी के नोटबंदी लागू करने से भी मची थी।

भारत गणराज्य राज्यों का संघ है यानी यूनियन ऑफ स्टेट्स। देश के संविधान में भारत सरकार और राज्य सरकारों के अधिकारों का स्पष्ट विभाजन किया गया हैं। लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य ये दो विषय ऐसे हैं, जो केंद्र और राज्य दोनों के ही अधिकार क्षेत्र में हैं। कोरोना वायरस की चुनौती स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है, लेकिन लॉकडाउन का मसला सीधे तौर पर कानून व्यवस्था से ताल्लुक रखता है।

क्या यह नहीं हो सकता था कि लॉकडाउन लागू करने से पहले प्रधानमंत्री देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की आपात बैठक बुलाते। चार-पांच घंटे के नोटिस पर सभी मुख्यमंत्री कुछ घंटों के दिल्ली आ जाते। प्रधानमंत्री के साथ उनकी बैठक होती। लॉकडाउन की स्थिति में पैदा होने वाली चुनौतियों से निबटने की आवश्यक तैयारी के लिए सभी मुख्यमंत्रियों को दो-तीन दिन का वक्त दे दिया जाता और फिर तीन दिन बाद रात में आठ बजे ही देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान किया जाता।

कहने की जरुरत नहीं कि सरकार लगातार गलत फैसले ले रही है, जिसका खामियाजा देश को देश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। सरकार अपने गलत फैसले का औचित्य साबित करने के लिए उस पर राष्ट्रवाद की पॉलिश कर देती है और मीडिया का एक बडा हिस्सा तो सरकार का ढिंढोरची बन जाता है। सवाल है कि आखिर हम कब गंदगी को गलीचे के नीचे छुपाते रहेंगे और गलतियों से न सीखने की आपराधिक गलतियों का सिलसिला कब तक जारी रहेगा?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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