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तो क्या अब पूरा समाज खुली जेलों में बदल डाला जाएगा?

ख़बर है कि छतरपुर डीएम ने कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए ज़रूरी उपाय मसलन, मास्क न पहनने वालों को क़रीब 10 घंटे की खुली जेल में रखे जाने का प्रावधान किया है।
MP Police
फोटो साभार: शिवेंद्र शुक्ला

बीते रोज़ यानी 22 नवंबर 2020 को एक खबर और एक आदेश सोशल मीडिया पर शाया हुआ। यह खबर मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले से आयी। ख़बर ये है कि छतरपुर ज़िले के जिला दंडाधिकारी (District Magistrate) की हैसियत से श्री शीलेन्द्र सिंह ने कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए ज़रूरी उपाय मसलन, मास्क न पहनने वालों को क़रीब 10 घंटे की खुली जेल में रखे जाने का प्रावधान किया है।

जिला मुख्यालय और छतरपुर शहर में स्थित बाबूराम चतुर्वेदी स्टेडियम जो कभी राष्ट्रीय स्तर के फुटबाल टूर्नामेंट के लिए विख्यात रहा है और अन्य महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रमों का गवाह रहा है अब खुली जेल में तब्दील किया जा रहा है।

जिला कलेक्टर ने यह आदेश महामारी अधिनियम, 2005 यथा संशोधित 2020 में निहित शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए जारी किया है। इस आदेश के माध्यम से उन्होंने शहर के बाबूराम चतुर्वेदी स्टेडियम का अधिग्रहण करते हुए कोरोना प्रोटोकाल का इस्तेमाल न करने वाले नागरिकों को विधिसम्मत दंड देने व उनकी गतिविधियों को निरुद्ध करने के उद्देश्य से अस्थायी कारागार में बादल दिया है।

इस अस्थायी कारागार में न्यूनतम आवश्यक सुविधाएं मुहैया कराने के लिए अन्य संबंधित विभागों को भी ज़िम्मेदारी दी गयी है जिसमें, शौचालय, साफ सफाई, बिजली आदि का ज़िक्र है लेकिन जो नागरिक इस अस्थायी कारावास में रहेंगे उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था किए जाने का ज़िक्र नहीं है। इसके अलावा इस अस्थायी कारवास में नागरिकों को कितने समय रखा जाएगा? इसका भी ज़िक्र आदेश में नहीं है। बहरहाल। शहर में इस अस्थायी जेल और अचानक से कोरोना के खिलाफ सक्रिय हो चुकी प्रशासनिक इच्छा शक्ति और सख्ती को लेकर शहर के नागरिकों में दहशत देखी जा रही है।

कल से ही सड़कों पर पुलिस की सक्रियता देखी जा रही है जो राह चलते लोगों पर फाजिल हो रही है। बंसल न्यूज़ से जुड़े पत्रकार शिवेंद्र शुक्ला कहते हैं कि- ‘देर शाम की बैठक में तुगलकी निर्णय लिया जाता है कि कल से बिना मास्क वालों को खुली जेल में 10 घंटे रखा जाएगा। अगले दिन से चौराहों पर पुलिस बल और राजस्व के अधिकारी तैनात हो जाते हैं और फिर नागरिकों को अपराधी बनाए जाने की मुहिम शुरू हो जाती है। इसके साथ ही वैध अवैध जुर्माना वसूली की मुहिम भी शुरू हो जाती है।’

शिवेंद्र आगे जोड़ते हैं - शहर के लोग गिड़गिड़ाने और खुशामद करते हुए देखे जाने लगे। इस मुहिम में पुलिस ने किसी को नहीं छोड़ा- कुछ मामलों में आकस्मिक चिकित्सा के लिए जाते परिजनों को भी पकड़ा। खुली जेल के नाम पर शहर के लोगों में डर बैठाया जा रहा है। जिला प्रशासन के इस कदम पर लोगों का कहना है कि ‘नेताओं पर कोई नियम नहीं चलता सिर्फ जनता ही निशाना बनाई जाती है। राजस्व वसूलने के लिए भी ये अच्छा माध्यम आपदा में अवसर बन गया है।’

यह महज़ एक बानगी है कि कैसे महामारी अधिनियम और आपदा प्रबंधन के बहाने नागरिक अधिकारों व नागरिक स्वतन्त्रता के तमाम सांवैधानिक प्रावधानों का मखौल बनाया जा रहा है। प्रशासन की मुस्तैदी इसलिए भी लोगों को पसंद नहीं आ रही है क्योंकि हाल ही में इसी जिले की बड़ामलहरा निर्वाचन क्षेत्र में विधानसभा के उपचुनाव के दौरान खुद मध्य प्रदेश सरकार व जिला प्रशासन ने कोरोना को लेकर गंभीर लापरवाहियाँ दिखलायीं। हजारों की संख्या में लोग चुनावी सभाओं में शामिल हुए और यही जिला दंडाधिकारी मुख्य निर्वाचन अधिकारी की भूमिका में बिना मास्क लगाए उस भीड़ को देखते रहे।

ठीक ऐसी ही खबरें मध्य प्रदेश के उज्जैन, विदिशा, इंदौर, भोपाल से भी आ रही हैं जहां नागरिकों को मास्क न पहनने के लिए सख्ती से दंडित किया जा रहा है।

सत्ता में पुनर्वापसी के बाद भाजपा नीत प्रदेश सरकार अपने नागरिकों के खिलाफ इस कदर सख्त होती जा रही है और पूरा नियंत्रण नौकरशाही के अधीन किया जा चुका है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि मध्य प्रदेश में सत्ता के अपहरण और बलात एक चुनी हुई सरकार को पदच्युत करने के कारण ही देश में कोरोना संक्रमण इस अनियंत्रित दिशा में पहुँच गया है। जब केंद्र सरकार को कोरोना को देखते हुए सख्त कदम उठाने और आवश्यक तैयारियां करने की ज़रूरत थी उस समय वो मध्य प्रदेश के कांग्रेसी विधायकों को पर्यटन करा रही थी और शिवराज सिंह की ताजपोशी के बाद कोरोना पर ध्यान केन्द्रित किया गया। इसमें भी तैयारियों से ज़्यादा ज़ोर नागरिकों की सामान्य आवाजाही और कार्य-गतिविधियों को बलात नियंत्रित करने की ही कोशिशें हुईं।

देशव्यापी लॉकडाउन में पुलिस और पैरा फोर्सेस को जिस तरह से असीमित शक्तियाँ दी गईं उसकी परिणति इसी तरह के तानाशाही पूर्ण फैसलों में होना तय थी। लॉकडाउन में पुलिस की निर्ममता पूर्ण कार्यवाहियों के दृश्य लंबे समय तक सामाजिक जीवन में देखे जाते रहे हैं। अब जब सरकार ने पूरी तरह से लॉकडाउन खोल दिया है और नागरिकों का जीवन पटरी पर लौट रहा है ऐसे में कोरोना की दूसरी लहर के बहाने उन्हें फिर से उत्पीड़ित करने मुहिम छेड़ी जा रही है।

माना जा रहा है कि देश के लोग कोरोना को लेकर गंभीर नहीं हैं और उससे बचाव के उपायों का ठीक से पालन नहीं किया जा रहा है। यह तर्क आम तौर पर सरकारों व नौकरशाहों की तरफ से आ रहे हैं। ऐसे में छतरपुर जिले के लोगों की बात में देश के तमाम नागरिकों की बात भी निहित है कि -खुद सरकार इसे लेकर कितना गंभीर है? और वो नौकरशाह भी कितना गंभीर हैं? हाल ही में बिहार चुनावों के दौरान सरेआम बड़े पैमाने पर कोरोना प्रोटोकाल की धज्जियां उड़ाई गईं। मध्य प्रदेश उपचुनावों को लेकर भी सरकार द्वारा ऐसा संदेश दिया गया कि कोरोना जैसे खत्म हो गया है और चुनावी सभाओं में भी इन सुरक्षा उपायों का न्यूनतम पालन नहीं किया गया। ऐसे में हर समय केवल जनता को दोष देना कितना उचित है?

सवाल मध्य प्रदेश की पुनर्नवा भाजपा सरकार की प्राथमिकताओं को लेकर भी हैं। अगर कोरोना की दूसरी लहर प्रदेश में आ चुकी है और इसे पहले से ज़्यादा खतरनाक बताया जा रहा है तब क्या राज्य सरकार की प्राथमिकता में गौ-केबिनेट की बैठक होगी, लव-जिहाद जैसे वायवीय मुद्दे को लेकर कानून का मसौदा बनाने की होगी? लेकिन यही सच है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी तरह की पहली गौ-केबिनेट बनाकर गौ-वंश के अधिकारों और उनकी सुरक्षा, पोषण आदि को लेकर नागरिकों पर गाय-सेस लगाने का प्रस्ताव दे रहे हैं। विधि व गृह मंत्री की प्राथमिकताओं में आज ‘अ सूटेबल ब्याय’ पर आधारित सीरीज के कुछ दृश्य भी आए गए हैं जिन पर कठोरतम कार्रवाई को लेकर वे अपनी मंशाएं ट्वीट के ज़रिए ज़ाहिर कर रहे हैं। इससे पहले इन्हीं विधि व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने सार्वजनिक तौर पर मास्क न लगाने की बात कही थी। बाद में प्रधानमंत्री का (न कि कोरोना का) हवाला देते  हुए उन्होंने अपने उस बयान पर माफी मांगी थी।

सवाल ये भी है कि केवल नागरिकों के व्यवहार पर पाबंदी लगाकर कोरोना जैसी महामारी से निपटा जा सकता है और नागरिक व्यवहार पर पाबन्दियाँ ही एकमात्र उपाय रह गया है और इसे केवल कानून-व्यवस्था के मामले के तौर पर देखा जाना चाहिए? इन पाबंदियों के शोर में सरकारें व नौकरशाह यह भूल रहे हैं कि कोरोना अनिवार्यता एक स्वास्थ्य संबंधी मामला है जिसके लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ देने और नागरिकों को कोरोना से बचाव के उपायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किए जाने की ज़रूरत है। क्या वाकई कोरोना ने सत्ता व नागरिकों के बीच की संवाद की शैली हमेशा हमेशा के लिए बदल दी है और अब नागरिकों से संवाद केवल दंडात्मक होगा। बिना दंड दिये या दंड कि बात किए नागरिकों से सरकार और प्रशासन का कोई संबंध नहीं बचा है?

(सत्यम श्रीवास्तव स्वतंत्र लेखक-पत्रकार हैं।)

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