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क्रीमी लेयर को केवल आर्थिक आधार पर तय नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

हरियाणा सरकार ने 17 अगस्त 2016 को क्रीमी लेयर के मानदंड से जुड़ी एक अधिसूचना जारी की थी। हरियाणा सरकार ने नियम बनाया कि जिनकी वार्षिक आय ₹6 लाख से अधिक होगी उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत क्रीमी लेयर से ऊपर का माना जाएगा और उन्हें आरक्षण नहीं मिलेगा।
क्रीमी लेयर को केवल आर्थिक आधार पर तय नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सामाजिक न्याय को लेकर एक गहरी समझ होने के बावजूद सरकार जैसी जिम्मेदार संस्था ऐसे कदम उठाती रहती हैं जो सामाजिक न्याय के विचार से बिल्कुल अलग होता है। जिसका मकसद सामाजिक न्याय स्थापित करना नहीं बल्कि वोट बैंक की राजनीति करना होता है।

हरियाणा सरकार ने 17 अगस्त 2016 को क्रीमी लेयर के मानदंड से जुड़ी एक अधिसूचना जारी की। हरियाणा सरकार ने नियम बनाया जिनकी वार्षिक आय ₹3 लाख से कम होगी उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत सरकारी सेवाओं और शिक्षण संस्थानों में सबसे पहले आरक्षण दिया जाएगा। उसके बाद उनकी बारी आएगी जिनकी वार्षिक आय ₹3 लाख से लेकर ₹6 लाख के बीच है। अंत में जिनकी वार्षिक आय ₹6 लाख से अधिक होगी उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत क्रीमी लेयर से ऊपर का माना जाएगा और उन्हें आरक्षण नहीं मिलेगा।

“पिछड़ा वर्ग कल्याण महासभा हरियाणा" नाम के एक संगठन ने इस अधिसूचना को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने तर्क दिया कि पिछड़े वर्गों से संबंधित व्यक्तियों को 'क्रीमी लेयर ' के रूप में अलग करने और पहचान के लिए मानदंड निर्दिष्ट करने के लिए सामाजिक, आर्थिक और अन्य कारकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। चूंकि ऐसा नहीं किया गया है, इसलिए अधिसूचना अमान्य है।

सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस अनिरुद्ध बोस ने याचिका पर सुनवाई की। सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि क्रीमी लेयर की पहचान के लिए आर्थिक आधार एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ मामले का भी जिक्र किया। साल 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ के मामले के बाद ही मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच ने ओबीसी के भीतर क्रीमी लेयर बनाने का आदेश दिया था।इसके पीछे की मंशा यह थी कि वह अन्य पिछड़ा वर्ग के भीतर जो जातियां सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक आधार पर मजबूत है उन्हें क्रीमी लेयर के जरिए बाहर रखा जाए। नहीं तो ओबीसी आरक्षण देने का कोई फायदा नहीं होगा। सारा फायदा इन्हीं सशक्त समुदायों के पास चला जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के जरिए ओबीसी के भीतर क्रीमी लेयर निर्धारित करने का आदेश राज्यों को दिया गया था। कुछ राज्यों ने जब क्रीमी लेयर नहीं बनाया तो साल 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से इस पर फैसला दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति भारत की उच्च प्रशासनिक सेवा जैसे कि आईएएस, आईपीएस, आईआरएस से जुड़ा है सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ेपन का शिकार नहीं है इसलिए क्रीमी लेयर से बाहर रखा जाना चाहिए। इसी तरह से पिछड़े वर्ग का अगर कोई व्यक्ति ऐसा है जो दूसरों को भी रोजगार दे रहा है तो उसे भी क्रीमी लेयर से बाहर रखा जाना चाहिए।अगर किसी के पास बहुत अधिक जमीन और बहुत अधिक संपत्ति है तो उसे भी क्रीमी लेयर के अंतर्गत रखना चाहिए। लेकिन इन सब का आकलन करते वक्त केवल आर्थिक आधार का मानदंड बनाना बिल्कुल जायज नहीं है। सामाजिक, आर्थिक और दूसरी तरह की परिस्थितियां मिलकर क्रीमी लेयर का मानदंड बनाई जानी चाहिए। अपने इसी फैसले को आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि साल 2016 में केवल आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर बनाने से जुड़ी हरियाणा सरकार की अधिसूचना को तत्काल प्रभाव से खारिज किया जाए।

केवल आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर का निर्धारण करना क्यों गलत है? इसका जवाब देते हुए इंदिरा साहनी मामले में जस्टिस जीवन रेड्डी ने एक बहुत ही मारके का उदाहरण दिया था। उन्होंने कहा था कि मान लीजिए कि एक लकड़ी का काम करने वाला बढ़ई कमाने के लिए खाड़ी के देशों में जाता है। वहां वह कैसा भी काम करे लेकिन भारत में विनिमय दर के मुताबिक उसकी कमाई अच्छी खासी दिखती है। तो इसका क्या निष्कर्ष निकालना चाहिए? क्या इसका मतलब यह होना चाहिए कि उसके बच्चे को आरक्षण ना दिया जाए? क्या इसका मतलब यह है कि उसकी सामाजिक स्थिति अच्छी हो गई? इन सवालों का जवाब ना में ही मिलेगा. इसलिए केवल आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर का निर्धारण करना गलत होगा। सामाजिक स्थिति में बढ़ोतरी, शिक्षा, रोजगार, आर्थिक हैसियत जैसे कई तरह के कारक मिलकर किसी की सामाजिक वंचना दूर करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर समाजशास्त्री प्रोफेसर अभय कुमार दुबे का कहना है कि अगर सुप्रीम कोर्ट केवल आर्थिक आधार पर निर्धारित किए गए क्रीमीलेयर के हरियाणा सरकार के नियम को मान लेता तो लगभग यह तय हो जाता कि आर्थिक हैसियत बढ़ने पर सामाजिक हैसियत भी बढ़ जाती है। लोग सामाजिक भेदभाव का शिकार नहीं होते हैं। सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ेपन का शिकार नहीं बनते हैं। कमाई बढ़ती है तो कथित निचली जाति के लोग लोगों की निगाह में बराबर हैसियत वाले बन जाते हैं। सच्चाई ये है कि केवल आर्थिक संपत्ति बढ़ने से ऐसा नहीं होता। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने स्वागत योग्य फैसला दिया है। हमारा संविधान भी बुनियादी तौर पर अस्पृश्यता और सामाजिक शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर सामाजिक न्याय स्थापित करने के लिए आरक्षण की बात करता है, आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात नहीं की गई है। आरक्षण की सबसे गहरी सच्चाई यही है कि यह सामाजिक न्याय का औजार है ना कि गरीबी हटाओ का कार्यक्रम। 

जानकार कहते हैं कि ओबीसी में क्रीमी लेयर के विवाद की जड़ें मंडल कमीशन की सिफारिशों से ही शुरू होती हैं। दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण को लेकर हमारे समाज में  मौन सहमति थी लेकिन जैसे ही ओबीसी को आरक्षण दिया गया वैसे ही विरोध के स्वर ज्यादा मुखर होने लगे। मंडल कमीशन ने यह बात स्वीकार की कि जिस तरह से छुआछूत और सामाजिक भेदभाव का शिकार दलित और आदिवासी है ठीक वैसी ही अन्य पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियां नहीं है। लेकिन यह जातियां भी बहुत पीछे हैं। इन्हें भी सामाजिक न्याय के औजार आरक्षण देने की जरूरत है। लेकिन फिर भी मंडल कमीशन की रिपोर्ट सर्वसम्मति की रिपोर्ट नहीं थी।

एक दलित सदस्य आर एल नाईक इस रिपोर्ट पर खूब खफा थे। आर एल नाइक ने बिंदेश्वरी मंडल को सुझाव दिया की अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को दो हिस्सों में बांट दिया जाए। यह जातियां पहले से ही दो हिस्सों में बंटी हुई हैं। कुछ जातियां ऐसी हैं जो भूस्वामी है लेकिन कुछ जातियों के पास जमीन नहीं है वह विशुद्ध तौर पर कारीगर हैं। इनकी स्थिति कहीं कहीं पर दलितों से भी बदतर है। बिंदेश्वरी मंडल ने इस सुझाव को नहीं माना। आर एल नाईक ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर हस्ताक्षर नहीं किए। कहने का मतलब यह है कि अन्य पिछड़ा वर्ग को दिए जाने वाले आरक्षण में शुरू से ही यह विवाद मौजूद रहा है कि आरक्षण के फायदों को सही जगह तक पहुंचाने के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग का बंटवारा किया जाए। 

लेकिन कहीं से भी इस बंटवार का आधार आर्थिक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले के साथ, कई दूसरे फैसलों के दौरान भी बात कही है कि उसे जातियों की स्थिति से जुड़े ठोस आंकड़े मुहैया करवाए जाएं तभी जाकर वह उचित निष्कर्ष निकाल पाएगा। इसलिए अगर क्रीमी लेयर की बहस बार-बार उठ रही है तो यह बहस जातिवार जनगणना से भी जाकर जुड़ती है। अगर इस बहस को इमानदारी से शांत करना है तो सरकार को चाहिए कि वह जातिगत जनगणना करवाए। उसके आधार पर नीति बनाए।

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