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पड़ताल: जौनपुर में 3 दलित लड़कियों की मौत बनी मिस्ट्री, पुलिस, प्रशासन और सरकार सभी कठघरे में

परिजन इसे हत्या का मामला बता रहे हैं और पुलिस आत्महत्या का। अगर यह हत्या है तब भी कई सवाल हैं जिनका जवाब पुलिस को ढूंढना होगा और अगर यह वाकई ग़रीबी की वजह से की गईं आत्महत्याएं हैं तब तो यह ज़िला प्रशासन के साथ साथ प्रदेश की सरकार के लिए भी बेहद शर्मनाक है, क्योंकि वह ग़रीबों के कल्याण के नाम पर नित नये दावे कर रही है। करोड़ों के विज्ञापन छपवा रही है। वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की ग्राउंड रिपोर्ट
Death of 3 dalit girls

बनारस से 119 किलोमीटर दूर अहरौली गांव में नज़र आती है ग़रीबी की वो तस्वीर जिसमें बरसों की लाचारी, बदहाली और नाउम्मीदी के रंग मिले हुए हैं। अहिरौली की दलित महिला आशा देवी ग़रीबी की गिरफ़्त से कभी नहीं छूट सकीं। उनका जन्म ग़रीबी में हुआ। इसी ग़रीबी में उनकी शादी हुई और अब इसी ग़रीबी में अब उन्हें घुट-घुटकर जीना है। पहले पति का सहारा था, टीबी से उसकी जान चली गई। और अब कहा जा रहा है कि उनकी तीन बेटियों ने आत्महत्या कर ली। आशा जौनपुर जिले की कुल 42,495 विधवाओं में से एक हैं।

पिछले एक दशक से ग़रीबी से मुक्ति का उपाय ढूंढने में नाकाम आशा देवी का गांव भी उतना ही ग़रीब है जितना वो ख़ुद। वह मक्का-मूली की खेती के लिए देश भर में मशहूर जौनपुर जिले के बदलापुर से करीब 22 किमी दूर अहिरौली गांव में रहती हैं। यहां पहुंचने के लिए करीब 18 किमी तक ऊबड़-खाबड़ रास्ता पार करना पड़ता है। यह गांव जौनपुर-प्रतापगढ़ के बार्डर पर काफ़ी अंदर जाकर है। आशा देवी फकत 32 बरस की उम्र में विधवा हो गईं। इनके पति राजेंद्र गौतम पहले मुंबई में रहते थे और मायानगर में ऊंची-ऊंची इमारतें बनाया करते थे। इसी दौरान उन्हें शराब के नशे की लत लग गई। कमाई बंद हुई तो पत्नी आशा देवी लोगों के घरों में काम करने लगीं, लेकिन हालत बिगड़ती चली गई। पूरा परिवार सड़क पर आ गया। तब छोटे भाई महेंद्र मुंबई पहुंचे और सभी को लेकर गांव आ गए। करीब चार डिस्मिल जमीन पर झोपड़ी बनाकर परिवार गुजर-बसर करने लगा।

राजेंद्र गौतम के छह बच्चों में पांच बेटियां- रेनू (22), ज्योति (18), प्रीति (16), आरती (14) और काजल (12) थीं। भाई गणेश (17) दिमागी रूप से कमजोर है। बड़ी बेटी रेनू की शादी इसी साल जून महीने में हुई थी। एक बेटी ज्योति अपनी बुआ के घर परऊ पट्टी में रहती है। तीन बेटियां प्रीति, आरती और काजल ही विधवा आशा देवी का सहारा थीं। 18 नवंबर 2021 को इन तीनों ने कथित तौर पर आत्महत्या कर ली। 

नहीं सुलझ सकी मौत की मिस्ट्री

बदलापुर के समीपवर्ती फत्तेपुर क्रासिंग पर तीनों लड़कियों के मांस के लोथड़े बरामद हुए थे। पुलिस के मुताबिक कोलकाता-नांगल डैम एक्सप्रेस (गाड़ी संख्या-12325) के आगे कूदकर लड़कियों ने आत्महत्या की थी। जिस समय यह घटना हुई उस वक्त ट्रेन 100 किमी की रफ्तार से पटरी पर दौड़ रही थी। तीनों लड़कियों का चेहरा और पैर कट गया था। शरीर चिथड़ा-चिथड़ा हो गया था। मौके पर मिले मोबाइल फोन के जरिए लड़कियों के बारे में जानकारी मिली।

‘न्यूज़क्लिक’ ने मौके की पड़ताल की। घटना स्थल पर लड़कियों की चप्पलें मौजूद हैं। कुछ कपड़े पटरी की चाबियों में अभी तक फंसे हुए हैं, जिन्हें पुलिस ने यूं ही छोड़ दिया है। कोलकाता-नांगल डैम एक्सप्रेस के ड्राइवर ने रेल महकमे को 19 नवंबर की रात 10.53 बजे पटरी पर लड़कियों के रन ओवर होने की सूचना दी थी। इससे पहले वारदात हो चुकी थी। जान देने वाली लड़कियां करीब 6.30 बजे तक घर में थीं। घटना के दिन रोटी और मूली की सब्जी बनी थी, जिसे खाकर सभी सो गए थे। अपने घर के छप्पर में सो रही लड़कियां अनायास बीस किमी दूर कैसे पहुंच गईं?  यह सवाल पुलिस ही नहीं, परिजनों के लिए भी पहेली बना हुआ है।

स्व. राजेंद्र गौतम की बहन के पुत्र अवधेश कुमार, निवासी- परऊपट्टी घटना के बाद अहिरौली गांव में बदहाल परिजनों के साथ रह रहे हैं। ‘न्यूजक्लिक’ से बातचीत में उन्होंने साफ-साफ कहा, "यह आत्महत्या नहीं, हत्या का मामला है। भला ऐसा कौन होगा जो जान देने के लिए 20 किमी दूर रात में पैदल सफर तय करे और ट्रेन के आगे कूदकर जान दे। जान देने के लिए भला कौन जंगल और नालों को पार करते हुए पहुंचेगा ?  अनपढ़ लड़कियों को भला कैसे पता था कि जब वो पहुंचेंगी तो ट्रेन आने वाली होगी? बदलापुर थाना पुलिस की इस झूठी कहानी पर भला कौन यकीन करेगा? हम लगभग रोज ही बदलापुर के इंस्पेक्टर से मिल रहे हैं और सुसाइड के बजाए हत्या की जांच करने को कह रहे हैं, लेकिन पुलिस इसके लिए तैयार नहीं है। हमें लगता है कि तीनों लड़कियों को योजनाबद्ध ढंग से मारा गया है। बाद में तीनों को रेल के आगे फेंक दिया गया। पुलिस ने आत्महत्या की कहानी गढ़ी है। "

अवधेश यह भी कहते हैं, "बदलापुर थाना पुलिस जांच-पड़ताल के बजाए इस मामले में लीपीपोती कर रही है। भला ऐसा कौन होगा जो जान देने के लिए 20 किमी दूर रात में पैदल सफर तय करे और ट्रेन के आगे कूदकर जान दे। अगर लड़कियों को जान देना ही था तो रास्ते में खड़े अनगिनत पेड़ों में से किसी एक पर फांसी लगाकर अथवा अपने छप्पर में किसी और तरीके से जान दे सकती थीं। बदलापुर थाना पुलिस मीडिया में झूठ फैला रही है कि घटना के दिन तीनों लड़कियों को मां आशा देवी ने खरी-खोटी सुनाई थी। हमें लगता है कि बदलापुर पुलिस हत्यारों को बचा रही है। पुलिस-प्रशासन के बड़े अफसरों से मिलकर हम हत्या के पहलुओं से अवगत कराएंगे और हत्या की उच्चस्तरीय जांच के लिए अर्जी भी देंगे।"

विधवा आशा देवी ने ‘न्यूजक्लिक’ से पुलिस का झूठ उजागर किया और कहा, "बेटियों से हमारा कोई विवाद नहीं हुआ था। तीनों बेटियां ही परिवार की मुखिया थीं। वही खर्च भी चला रही थीं। झोपड़ी के बगल में उन्होंने आलू, पालक, लहसुन और गोभी भी उगा रखी है। बेटियों से हमारे विवाद की कहानी खुद पुलिस ने गढ़ी है। यह बात गांव में किसी से भी पूछ लीजिए।"  

आशा देवी के पास खड़े राजेंद्र के बड़े भाई राजाराम कहते हैं, " हम लोगों का किसी से विवाद नहीं है। तीनों लड़कियां किसी के घर नहीं जाती थीं। गरीबी के चलते वह स्कूल भले ही नहीं जा पाती थीं, लेकिन मेहनत-मजूरी करने जाती थीं, तो तीनों एक साथ रहती थीं। बहुत मेहनती और खुशमिजाज थीं। खुद्दार और साहसी भी। भूखे पेट रह जाती थीं, लेकिन किसी से उधार तक नहीं मांगती थीं। घटना के दिन तीनों बहनों ने लकड़ियों ने लकड़ियां ढोईं थी, जो छप्पर के किनारे अभी भी मौजूद है।"

तनिक भी गंभीर नहीं पुलिस-प्रशासन

अहिरौली गांव की तीनों दलित लड़कियों की मौत के मामले में पुलिस और प्रशासन तनिक भी गंभीर नहीं हैं। पुलिस के रवैये को देखकर लगता है कि वह कुछ छिपा रही है। कई ऐसे सवाल खड़े हुए हैं जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि यह सुसाइड का नहीं, कत्ल का मामला है। आत्महत्या की शाम लड़कियों के फोन पर आखिरी काल अहिरौली गांव के इंद्रजीत नामक युवक की आई थी। करीब 16 वर्षीय यह लड़का दिल्ली में स्टील का प्लेट बनाने वाले कारखाने में छह सौ रुपये की पगार पर काम करता था। करीब दस रोज पहले ही वह घर लौटा था। पुलिस इस लड़के को उठाकर पूछताछ करने के लिए ले गई थी, लेकिन कोई राज नहीं उगवा सकी। 22 नवंबर की शाम पुलिस ने उसे छोड़ दिया।

पुलिस के मुताबिक इंद्रजीत का प्रीति से लगाव था। दोनों अक्सर फोन पर बातचीत भी किया करते थे। घटना के दिन इंद्रजीत ने अपनी मां के फोन से पांच मर्तबा लड़की को फोन किया था। इंद्रजीत की मां सरोजा बताती हैं, " कुछ रोज पहले इंद्रजीत का फोन खराब हो गया था। दोनों की बातचीत उनके फोन पर ही होती थी। घटना की रात पुलिस हमारे घर आई। उस समय इंद्रजीत घर में रोटी बना रहा था। पुलिस उसे जबरिया अपने साथ ले गई। चार दिन थाने में पूछताछ करने के बाद 22 नवंबर की शाम उसे छोड़ दिया गया। हमारा बेटा दोषी होता तो पुलिस भला उसे क्यों छोड़ती?"

इंद्रजीत के बड़े भाई राजेश की पत्नी पूजा ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा, " इंद्रजीत का प्रीति से जुड़ाव जरूर था, लेकिन वह भला कैसे तीन लड़कियों की जान ले सकता है?  प्रीति रिश्ते में इंद्रजीत की बुआ लगती थी। दोनों में बातें जरूर होती थीं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि इंद्रजीत ने उन्हें जान देने पर विवश किया। घटना 20 किमी दूर हुई और वारदात के तत्काल बाद पुलिस हमारे घर पहुंची तो वह खुद मौजूद था। चार दिनों तक लगातार पूछताछ के बाद पुलिस ने इंद्रजीत को निर्दोष पाया तो उसे छोड़ दिया।"

आत्महत्या या हत्या?

बदलापुर थाना पुलिस तीन लड़कियों की मौत की मिस्ट्री अब तक नहीं सुलझा पाई है। पुलिस के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं कि रात में तीन लड़कियां 20 किमी दूर जान देने भला क्यों आएंगी? शाम 6.30 बजे तक तीनों लड़किया घर में थीं। अहिरौली से फत्तेपुर रेलवे क्रासिंग तक जाने का रास्ता भी ठीक नहीं है। ऐसे में वह दस बजे से पहले बिना किसी वाहन के कैसे 20 किमी दूर पहुंच गईं और ट्रेन के आगे कूद गईं? अगर इंद्रजीत का कोई कुसूर था तो वह पुलिस को घर पर रोटी बनाते क्यों मिला?  तीनों लड़कियों ने सुसाइड का तरीका ट्रेन के आगे कूदने का क्यों चुना?  क्या उन्होंने ट्रेन का इंतजार नहीं किया? अहिरौली गांव से फत्तेपुर रेलवे क्रासिंग पर पहुंचने में जो शार्टकट रास्ता है उसमें कई नाले पड़ते हैं और जंगल भी। उसे उन्होंने कैसे पार किया?  क्या तीनों अनपढ़ लड़कियों को ट्रेन गुजरने का समय पहले से ही मालूम था?  क्यों लड़कियों को यही एक तरीका सूझा। ऐसे ढेर सारे सवाल हैं जिसका जवाब बदलापुर थाना पुलिस को ढूंढना है।

अहिरौली गांव महराजगंज थाना क्षेत्र में आता है, लेकिन घटना स्थल बदलापुर होने की वजह से वहां की पुलिस इस मामले की जांच कर रही है। आरोप है कि बदलापुर पुलिस मौत की मिस्ट्री सुलझाने में कोई खास दिलचस्पी लेती नजर नहीं आ रही है, क्योंकि लड़कियां दलित समुदाय की हैं। पुलिस बस इतना चाहती है कि घर वाले ही बता दें कि तीनों लड़कियों ने क्यों जान दे दी?  

इंस्पेक्टर संजय वर्मा कहते हैं, "हम कैसे बता दें कि लड़कियों ने कैसे जान दी? यह तो उनके परिजन ही बताएंगे। अभी हम जांच कर रहे हैं। पूछताछ के लिए हमने इंद्रजीत नामक जिस लड़के को पकड़ा था, उसे छोड़ दिया गया है।"

इस बारे में एसपी अजय कुमार साहनी से संपर्क करने की कोशिश की गई, लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई।

जौनपुर से अहिरौली पहुंचे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पंकज सोनकर कहते हैं, " यह आत्महत्या नहीं, हमें तो सीधे तौर पर हत्या का मामला लगता है। बदलापुर थाना पुलिस गहराई से इस मामले की पड़ताल क्यों नहीं कर रही है? यह बात समझ से परे है। लगता है कि पुलिस ने लड़कियों के कातिलों की पहचान कर चुकी है और उन्हें बचाने के लिए कहानियां गढ़ रही है। लड़किया शाम के समय घर से निकलीं तो क्या गांव में किसी ने उन्हें देखा?  अगर बदलापुर थाना पुलिस वाकई ईमादार हैं तो उन्हें अब तक बता देना चाहिए कि तीनों लड़कियां महज जंगल और नालों को पार करते हुए 20 किमी दूर रेलवे क्रासिंग पर कैसे पहुंच गईं और उन्हें किसी ने देखा तक नहीं? पुलिस को इस मामले की मौत की गुत्थी सुलझानी होगी, अन्यथा कांग्रेस आंदोलन छेड़ेगी।"  

अहिरौली गांव में पीड़ित परिवार को ढांढस बंधाने पहुंचे समाजसेवी नंदलाल पटेल कहते हैं, " आत्महत्या करने वाली तीनों लड़कियां नाबालिग थीं। सबसे बड़ी लड़की प्रीति की उम्र फकत 16 साल थी, लेकिन पुलिस ने जानबूझकर इसकी उम्र 18 साल दर्शायी है। सभी लड़कियों की उम्र में हेराफेरी की गई है ताकि इस मामले को हलका किया जा सके। पुलिस ने जिस लड़के को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया था उसका असली एंड्रायड फोन घर बिगड़ा हुआ पड़ा है। पुलिस अगर गंभीर होती तो उसकी छानबीन कर तीनों लड़कियों की मौत का राज जान सकती थी। बदलापुर थाना पुलिस लड़कियों की चप्पलों और फटे कपड़ों को अब तक अपने कब्जे में क्यों नहीं लिया? पुलिस मौत की मिस्ट्री सुलझाने के लिए घर वालों पर दबाव क्यों डाल रही है? तीनों लड़कियों की मौत के बाद परिजनों के दिमाग में जो बातें उमड़-घुमड़ रही हैं, उसका राज पुलिस क्यों नहीं खोल रही है? ऐसा क्या है जो वह छिप रही है? "

जौनपुर प्रशासन भी कम ज़िम्मेदार नहीं

पुलिस और प्रशासन का दावा है कि तीनों ने लड़कियों ने गरीबी के चलते सुसाइड किया है। समूचा परिवार भुखमरी की हालत में दाने-दाने के लिए मोहताज था। अहिरौली गांव की दलित समुदाय की तीनों लड़कियों की मौत को अगर गरीबी के चलते आत्महत्या मान लिया जाए तो भी उनकी मौत का धब्बा जौनपुर प्रशासन के साथ-साथ पूरे शासनतंत्र के माथे पर लगता है।

विधवा आशा देवी के पास सफेद रंग का जो राशन कार्ड है उस पर कोटेदार ने अनाज देने की आखिरी तारीख 28 अगस्त अंकित की है। तीन महीने तक इस परिवार को सरकार की ओर से एक दाना अनाज नहीं मिला है।

विधवा पेंशन के रूप में आशा देवी को हर छह महीने में 1800 रुपये पेंशन मिला करती थी। पड़ोसी प्रेमा देवी बताती हैं, " आशा देवी की लड़कियां राशन के लिए कोटेदार के यहां जाती थीं तो वह उन्हें भगा देता था। वह लालकार्ड पर यूनिट के हिसाब से राशन देता था। एक तिहाई हिस्सा यह कहकर हड़प लेता है कि उसे ऊपर तक पैसा पहुंचाना होता है।"

हैरानी की बात यह है कि आशा देवी के सात सदस्यों में से ज्योति, प्रीति और गणेश का नाम राशन कार्ड से गायब है। कोटेदार और अफसरों के यहां बार-बार चक्कर काटने के बावजूद तीनों का नाम राशन कार्ड पर नहीं चढ़ पाया। प्रशासन तब हरकत में आया जब तीनों लड़कियों ने कथित तौर पर सुसाइड कर लिया।

आशा देवी को सरकारी आवास बनवाने के लिए 1 लाख 20 हजार रुपये मिला था। उस पैसे से पक्की दीवार खड़ी हो चुकी है। अगली किस्त देने के लिए अहिरौली सेक्रेटरी और ग्राम प्रधान आशा की बेटियों को लगातार दौड़ा रहे थे।

तीन महीने से आशा देवी के कुनबे को राशन क्यों नहीं दिया जा रहा था, इसका जवाब प्रशासन के पास नहीं है। वह भी उस हालत में जब योगी सरकार अखबारों में लगातार दहाड़ रही है कि हर किसी को मुफ्त में पांच किलो अनाज दिया जा रहा है। घटना के बाद सबसे पहले मौके पर पहुंचे एक दैनिक अखबार के इलाकाई पत्रकार अखिलेश यादव कहते हैं, "हमने देखा था कि आशा देवी के घर में एक छटांक राशन नहीं था। बस करीब आधा किलो के आसपास धान जरूर था जिसे सुखाने के लिए रखा गया था।"

जौनपुर के कलेक्टर मनीष कुमार वर्मा भी लड़कियों की मौत की वजह गरीबी बताते हैं। वह इस दलित परिवार को ढेरों सुविधाएं देने का दावा तो करते हैं, लेकिन उनकी मौत पर खुद का दामन बचाते नजर आते हैं। अगर तीनों लड़कियां गरीबी के चलते मौत को गले लगाने पर मजबूर हुई हैं तो राशन हड़पने वाले तंत्र के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? आखिर वह कौन सी वजह थी जिसके चलते तीन महीने से कोटेदार परिवार के लोगों को राशन देने में हीला-हवाली कर रहा था? आशा देवी के तीन बच्चों का नाम राशन कार्ड से गायब क्यों था? जब परिवार के लोगों ने सरकारी आवास का एक कमरा खड़ा कर दिया तो छत डालने के लिए दूसरी किस्त जाने करने में हीला-हवाली क्यों की जा रही थी? सरकारी आवास बनवाने के लिए मजदूरी का पैसा सरकार देती है और अब तक इस मद में भी कोई धनराशि पीड़ित परिवार को क्यों नहीं दी गई? इस मामले में लापरवाही बरतने वाले किसी अफसर अथवा कर्मचारी के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

विधवा आशा देवी और उनकी परिवार जिस छप्पर में रह रहा है वह मिट्टी का है और पर करकट डालकर पालिथीन से ढंक दिया गया है। भोजन भी इसी छप्पर में बनता है। इसी छप्पर में आशा अपनी सभी लड़कियों और इकलौते बेटे के साथ गुजर-बसर करती हैं। जब से तीनों लड़कियों की मौतें हुई है तब से आशा देवी की आंखों के आंसू नहीं थमे हैं। जब भी कोई उनके घर पहुंचता है वह और उनकी जिंदा बची दोनों बेटियां दहाड़ मारकर रोने लग जाती हैं। आशा की बड़ी बेटी रेनू बताती है, " इसी साल जून महीने में हमारी शादी हुई थी। पहली बार रक्षाबंधन पर घर आई थी और अब बहनों की मौत के बाद। ज्योति भी महीनों बाद अपने बुआ के यहां से घर आई है।

रेनू व ज्योति कहती हैं, " मां अब किसके भरोसे जिंदा रह पाएगी। भाई की दिमागी हालत ठीक नहीं है। आखिर कैसे कटेगी जिंदगी। न पुलिस साथ दे रही है, न प्रशासन। हमारे पास तीनों बहनों के अंतिम संस्कार तक के लिए पैसे नहीं थे। एक ही चिता पर तीनों का अंतिम संस्कार करना पड़ा। घर में राशन भी तब पहुंचा, जब अफसरों ने यहां आकर हमारे परिवार की दुर्दशा देखी।" 

विधवा आशा देवी को अपनी उम्र नहीं मालूम, लेकिन पड़ोसियों की माने तो वह 40 या इससे एक-दो साल अधिक की हैं। मगर वह अपनी उम्र से ज़्यादा की लगती हैं। वह कहती हैं, “मेरे जीवन में केवल दुःख ही दुःख है।”

झूठी हैं सरकार की लोक-लुभावन घोषणाएं

उत्तर प्रदेश का जौनपुर ऐसा जिला है जहां के ज्यादातर लोग मायानगरी मुंबई से पैसा कमाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। जिले के ज्यादातर गांवों में आर्थिक संपन्नता भी दिखती है। लेकिन संपन्न लोगों के बीच एक तबका ऐसा भी दिखता है जो बेहद गरीब है। अहिरौली गांव की 45 घरों वाली दलित बस्ती में पहुंचने के बाद पता चलता है कि देश की आर्थिक प्रगति यहां से होकर अब तक नहीं गुज़री है। चुनाव के समय नेता यहां ज़रूर आते हैं। विधवाओं से और बदहाल किसानों से वादे करते हैं, लेकिन अगले चुनाव से पहले दोबारा नहीं दिखते।

मानवाधिकार और दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाली बनारस की एक्टिविस्ट श्रुति नगावंशी भी अहरौली पहुंच गई थीं। उन्होंने न्यूजक्लिक से कहा, "आमतौर पर दलितों और गरीब औरतों की आत्महत्या चुनावी मुद्दा नहीं बनती। अहिरौली गांव में आकर लगता है कि सरकारों ने अबतक जितनी लोकलुभावन घोषाणाएं की हैं वह झूठी हैं। महाराजगंज प्रखंड की किसी भी सड़क को देख लीजिए, दो कदम चलना मुश्किल हो जाता है। गनीमत है कि सड़क है, जिस पर चलते हुए ठोकर लगने पर किसी का कलेजा हलक से बाहर आ सकता है। दशकों से बदलापुर की सीट पर भाजपा और सपा को जीत मिलती रही है, लेकिन दलितों की समस्या पर ज़ोरदार आवाज़ विधानसभा में कभी सुनने को नहीं मिलती। जौनपुर जिले की ज्यादातर दलित बस्तियों में विकास पहुंचा ही नहीं है। इन बस्तियों में दूर-दूर तक पक्के घर भी नहीं दिखते। छप्परों के बाहर महिलाएं और बच्चे फटे-मैले कपड़ों में ही नज़र आते हैं। ज्यादातर दलित अशिक्षित हैं।"

नागवंशी यह भी कहती हैं, "लखनऊ और दिल्ली में जौनपुर के दलितों के लिए कोई बोलने वाला नहीं है। ये लोग चुनाव में कभी मुद्दा नहीं बनने वाले हैं। ये लोग मुख्यधारा से कटे हुए हैं और ग़रीबी में पिस रहे हैं। बेटियों की मौत के बाद गांव में आशा देवी का साथ देने वाला कोई नहीं है। कुछ रिश्तेदार हैं जो मदद कर रहे हैं, लेकिन आखिर कब तक वो भी मदद करते रहेंगे? दलित समुदाय की तीन लड़कियों की मौत के बावजूद सरकार और प्रशासन ने उसके परिवार को फूटी कौड़ी तक नहीं दी है। आशा देवी की बदक़िस्मती है कि पहले उनके पति की मौत हुई। कुछ साल बाद इनकी एक बेटी चल बसी। फिर इनकी आंखों की रोशनी गायब हो गई। तीन बेटियां जो घर को संभाले हुए थीं, अब वो भी चल बसीं। आशा देवी चुनाव में अपने मत का इस्तेमाल नहीं करतीं क्योंकि उनकी फ़रियाद कोई नहीं सुनता। योगी सरकार ने दलितों के लिए कई पैकेज़ दिए हैं, लेकिन अहिरौली जैसे पिछड़े इलाक़ों में किसानों की निरक्षरता के कारण वो इसका फ़ायदा नहीं उठा पाते।"

झूठे कीर्तिमान वाली होर्डिंग्स उतरवाएं योगी

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने इस मामले में योगी सरकार को घेरना शुरू कर दिया है। उन्होंने एक अखबार में छपी खबर को ट्विट करते हुए कहा है, "जौनपुर में भूख और बेकारी से त्रस्त नेत्रहीन विधवा की तीन बेटियों की आत्महत्या की खबर बेहद दुखदायी है। भाजपा सरकार में अगर रत्ती भर संवेदना है तो वह नेत्रहीन मां के भरण-पोषण का प्रबंध करे। भाजपा को अब अपने झूठे कीर्तिमानों के होर्डिंग्स उतरवा लेने चाहिए।"

पूर्वांचल में दलितों और आदिवासियों की एक बड़ी आबादी को आज भी विकराल गरीबी से जूझना पड़ रहा है। जान देने वाली आशा देवी की तीनों बेटियों की जिंदगी भले ही छोटी थी, लेकिन वह जब तक जिंदा रहीं, कड़ी मेहनत और ऊंची उम्मीदों से जुड़ी रहीं। तीनों बेटियां पढ़ना-लिखना भी चाहती थीं, लेकिन हालात ने उनका साथ नहीं दिया। गरीबी के दलदल में फंसी आशा देवी नाउम्मदी से बाहर ही नहीं निकल सकीं।

अहिरौली दलित बस्ती की तीनों लड़कियों की मौत को अगर सुसाइड मान लिया जाए तो यह घटना बहुत बड़ी है। जौनपुर के इतिहास में एक साथ तीन बच्चियों की सुसाइड का यह पहला और सबसे बड़ा मामला है। इस मामले में पुलिस और प्रशासन की नाकामी भी साफ-साफ उजागर हो रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि अभी तक योगी सरकार इस मामले में किसी कसूरवार की शिनाख्त नहीं कर पाई है। यह स्थित तब है जब इलाकाई विधायक रमेश चंद्र मिश्र घटनास्थल का दौरा करके लौट चुके हैं। इनकी चुप्पी भी अब दलितों को साल रही है।

सर्वाधिक मौतें किशोर-किशोरियों की

दुनिया भर में हर साल 80 लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें 1,35,000 लोग भारत के होते हैं। आत्महत्या के लिए प्रयास करने वालों की तादाद इससे कई गुना ज्यादा होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, 15 से 19 साल के युवाओं के बीच मौत की चौथी सबसे बड़ी वजह आत्महत्या है। जब लोग लोग अवसाद, लाचारी और जीवन में कुछ नहीं कर पाने की हताशा के चलते आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या एक गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या है। अगर आप भी तनाव से गुजर रहे हैं तो जीवनसाथी हेल्पलाइन 18002333330 से मदद ले सकते हैं। सही समय पर सलाह और परामर्श से आत्महत्याओं को काफ़ी हद तक रोका जा सकता है।

बीएचयू के मनोचिकित्सक डॉ. संजय गुप्ता कहते हैं कि आत्महत्या को सुसाइडल आइडिएशन (आत्महत्या का ख्याल) कहते हैं। ज़रूरी नहीं है कि किसी एक वजह से ऐसा हो। वह बताते हैं, " ऐसे लोग ये सोचने लगते हैं कि अब जीवन में कुछ भी नहीं बचा है। अवसादग्रस्त लोगों में आत्महत्या करने की दर सबसे ज़्यादा देखी गई है। आत्महत्या का विचार प्राकृतिक नहीं होता है। मस्तिष्क में बायो न्यूरोलॉजिकल बदलावों के चलते लोगों को लगने लगता है कि जीवन किसी काम का नहीं है। इसके बाद व्यक्ति आत्महत्या करने का विचार आता है। आत्महत्या के 90 प्रतिशत मामले मानसिक विकार के चलते होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि साल 2019 में आत्महत्या करने वाले 77 फीसदी लोग निम्न और मध्य आय वर्ग वाले थे। व्यक्ति के मन में नकारात्मक ख्यालों का आना साधारण बात है। कई बार ऐसे ख्याल कुछ ही पलों के लिए आते हैं, लेकिन कुछ लोगों में ये धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। किशोरों में इस तरह के विकार ज्यादा उपचते हैं। परिवार में जब कोई जिम्मेदार व्यक्ति नहीं होता तब किशोरों में आत्महत्या के भाव ज्यादा उपचते हैं, क्योंकि उनके पास कोई संबल और सहारा नहीं होता।

(बनारस स्थित विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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