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क्या ख़त्म हो रहा है कोयले का प्रभुत्व : पर्यावरण संकट और काला हीरा

क्या कोरोना के बाद की दुनिया में पर्यावरण पर ज़्यादा ज़ोर होगा? लेकिन ट्रेंड से पता चलता है कि ऊर्जा उत्पादन में कोयला अपनी सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी जारी रखेगा। जैसा हाल में भारत ने किया, उस दौर में भी सरकारें पर्यावरण के मुद्दे पर टालमटोल भरा रवैया अपनाना जारी रखेंगी।
कोयले का प्रभुत्व

क्यों कोयला अब भी भारत में बरक़रार रहेगा और कैसे जीवाश्म ईंधन को नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों से बदलना भी आख़िर में उतना ही ख़तरनाक होगा? यह पांच हिस्सों वाली सीरीज़ का पहला हिस्सा है, जिसमें जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ऊर्जा की तरफ़ परिवर्तन की भारतीय और वैश्विक प्रतिबद्धताओं का परीक्षण किया गया है।

कोरोना वायरस के बाद शौकिया तौर पर यह माना जाने लगा है कि गंदा कोयला अब प्राकृतिक मौत मर रहा है।

अब माना जा रहा है कि अब नवीकरणीय क्षमताओं की ताकत एक हरित दुनिया में दाख़िला लेगी, जिसके लिए नवीकरणीय अर्थव्यवस्था (RE) ज़िम्मेदार होगी।

लोग मान रहे हैं कि वैश्विक स्तर पर कोयला अब बाहर हो चुका है। कोरोना के बाद भारत में होने वाले सुधारों में पर्यावरण पर ज़्यादा जोर होगा।

यह भी माना जा सकता है कि NHPC द्वारा अप्रैल, 2020 में जारी की गई '2GW' की अहम सौर निविदा अब नया ''RE'' सामान्य है। इसे सीधे 25 सालों के लिए 2.55 रुपये/kWh वाली रिकॉर्ड कम कीमतों पर जारी किया गया है। यह 33 डॉलर/MWh के बराबर होता है (फिलहाल 76 रुपये का एक डॉलर है)।

अब यह कहना भी चलन में है कि कोयले का नया उत्पादन और पुराने भंडार पर पैसा लगाना अच्छे पैसे की गलत काम के लिए बर्बादी है।

यह कहना आम हो गया है कि सरकार और पूंजीवादी जीवाश्म ईंधन पर आधारित वैश्विक ऊर्जा उत्पादन और खपत में बदलाव ला रहे हैं। इसके तहत तेल, प्राकृतिक गैस और कोयला आधारित ऊर्जा की खपत और उत्पादन को पवन, सौर या लिथियन ऑयन आधारित बैटरी ऊर्जा की ओर मोड़ा जा रहा है।

मौसम परिवर्तन के दौर में केंद्रीय बैंकिंग और वित्त स्थिरता को ''द ग्रीन स्वान'' का डर खूब चर्चा में है। बैंक फॉर इंटनेशनल सेट्लमेंट्स जनवरी, 2020 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक़ मौसम परिवर्तन जीवाश्म ऊर्जा कंपनियों को बर्ब़ाद कर सकता है। ग्रीन स्वान उस धारणा को कहते हैं जिसमें इंसान ने वातावरण में प्रदूषक डालकर मौसम को अस्थिर कर दिया है। जीवाश्म ईंधन में निवेश इसी के तहत आता है।

अगर वित्तीय उठापटक होती भी है, तो भी पर्यावरण के लिए यह बेहतर ही है। ग्रीन स्वान की घटनाएं पर्यावरण को बचाने के लिए केंद्रीय बैंक का हस्तक्षेप जरूरी कर देती हैं। इसके तहत बैंक बड़े स्तर पर अपनी कीमत खो चुकी संपत्तियों को ख़रीद सकते हैं। ताकि एक बार फिर वित्तीय ढांचे को बचाया जा सके। फिर भी यहां बहुत सारे यथार्थवादी और गिद्ध पूंजीपति बैठे हैं, जो आखिर में अपनी मनमर्जी ही करेंगे।

यह लोग भयावह स्तर की खनन गतिविधियों में लगे होंगे, जिनसे पर्यावरण को बहुत नुकसान होगा। केंद्रीय बैंक सोचते रह जाएंगे कि जबरदस्त विरोध के बावजूद कोयला, ऊर्जा का सबसे बड़ा संसाधन कैसे बना रह सकता है या सरकारें पर्यावरणीय के मुद्दे पर पलटी क्यों मार रही हैं, बिलकुल वैसा ही जैसा भारत में हाल में हुआ।

खुल जा सिम-सिम

हम सबसे आखिर से शुरूआत करते हैं। 16 मई, 2020 से। खूब ढोल-नगाड़ों के साथ भारत ने कोयले का पूर्ण व्यवसायीकरण कार्यक्रम शुरू किया। यह ''राजस्व साझा करने और प्रोत्साहन छूट'' पर आधारित था। इसके तहत कोयले को गैस में परिवर्तित करने के लिए प्रेरित किया गया। शुरूआत में 50 नये कोयले और 500 खनिज ब्लॉकों की नीलामी की गई। साथ में इसके लिए प्रवेश की शर्तों में भी ढील दी गई। इस क्षेत्र की मदद के लिए 50,000 करोड़ का निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर में करने का ऐलान किया गया, ताकि सार्वजनिक कंपनी ''कोल इंडिया'' की खदानों से अरबों टन कोयले का स्थानांतरण किया जा सके।  

अब अमेरिका की बात करते हैं, वहां 750 बिलियन डॉलर के बेलऑउट पैकेज में सबेस ज़्यादा फायदे में जीवाश्म ऊर्जा और कोयला कंपनियां रह सकती हैं। यह पैकेज कोरोना वायरस के दौरान आई मंदी से निपटने के लिए दिया जा रहा है। एक्सोनमोबिल, शेवरां और कोच इंडस्ट्री जैसी बड़े नामों समेत 90 कंपनियां इस पैकेज से लाभ लेने की उम्मीद में हैं। इसमें 150 दूसरी कंपनियों को भी लाभ दिया जा रहा है, जिसमें अमेरिकन इलेक्ट्रिक पॉवर और ड्यूक एनर्जी जैसे नाम शामिल हैं।

पर्यावरणीय थिंक-टैंक और दूसरे विश्लेषक लगातार कह रहे हैं कि भविष्य हरित पर्यावरण पर आधारित है। वह सब लोग इसकी कीमत, तकनीक और पर्यावरणीय हासिल से अच्छी तरह वाकिफ़ हैं। बल्कि कोयले के पक्ष में कोई बात ही नहीं कर रहा है। फिर भी कोयला सरकार के दिल और दिमाग पर हावी है।

कोयला ऊर्जा

वैश्विक स्तर पर 40 फ़ीसदी बिजली कोयले से बनाई जाती है, वहीं ऊर्जा संबंधित कार्बन डॉयऑक्सॉइड के उत्सर्जन में भी कोयले की हिस्सेदारी 40 फ़ीसदी है। बांग्लादेश जैसी गरीब़ अर्थव्यवस्था से लेकर G-7 के सदस्य देश जापान तक ने कोयले में विश्वास जताया है और इसकी मात्रा बढ़ाने की बात कही है। कम वक़्त या उससे भी आगे के भविष्य में इसका उपयोग खत्म होने की संभावनाएं सिर्फ़ बढ़ाचढ़ाकर की गई बातें हैं। 

2019 में कोयले का वैश्विक उत्पादन 8.1 बिलियन टन पहुंच गया था। यह 2018 से 2.7 फ़ीसदी ज़्यादा था। इस बड़े उत्पादन में शुरूआती 4 सबसे बड़े उत्पादकों- चीन, भारत, इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया समेत दूसरे देशों ने योगदान दिया। इन चार देशों की कुल वैश्विक कोयला उत्पादन में 69.8 फ़ीसदी हिस्सेदारी है। कोरोना महामारी के चलते 2020 में इसके उत्पादन में 0.5 फ़ीसदी तक की ही बढ़ोत्तरी होगी। इसके साथ ही तापीय कोयला उत्पादन 0.5 फ़ीसदी बढ़कर 7.05 बिलियन टन तक पहुंचने की उम्मीद है। वहीं धात्विक कोयला (मेटॉलर्जिकल कोल) उत्पादन 1.1 बिलियन टन पर स्थिर रहेगा।

कोरोना महामारी के बाद बनने वाली स्थितियों को ध्यान में रखकर गणना की जाए तो कुल मिलाकर 2023 तक वैश्विक उत्पादन CAGR (चक्रवृद्धि दर) दर से बढ़ते हुए 2.4 फ़ीसदी ही बढ़ेगा। यह तब तक 8.8 बिलियन टन हो जाएगा।

इसमें कोई शक नहीं है कि दुनिया के कई देशों ने कोयले से इतर किसी दूसरे तरीके से बिजली उत्पादन की कोशिश की है। लेकिन एशिया में चीन और भारत जैसे देशों में बिजली उत्पादन में कोयले की अहम भूमिका बनी रहेगी। 

बांग्लादेश जैसे गरीब़ और घनी आबाद़ी वाले देश में कोयले से चलने वाले ऊर्जा संयंत्रों का व्यापार अच्छा है। भले ही वहां नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं को विकसित करने की कोशिश की जा रही है, पर ज़मीनी हकीकत को देखते हुए कोयले का आर्थिक पक्ष देश के लिए फायदेमंद है। जापान और चीन जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में कोयले की बहुत खपत है। अपने तमाम तकनीकी सूहलियतों के बावजूद चीन में पवन या सौर ऊर्जा ग्रिड निर्माण का बहुत ज़्यादा काम नहीं हुआ, उसने कोयले को तस्वीर से बाहर नहीं जाने दिया। जापान भी कोयले से बनी ऊर्जा की सड़क पर तेजी से दौड़ रहा है। 

नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं पर शक

अब भारत आते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि यहां नवीकरणीय संसाधनों के प्रति अच्छा रुझान है, लेकिन जीवाश्म ईंधन की खपत लगातार बढ़ती जा रही है, जबकि नवंबर, 2019 में भारत का नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन की वृद्धि चार सालों में सबसे कम रही। इसमें सिर्फ़ 0.23 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई और उत्पादन 7.92 बिलियन यूनिट्स रहा। यह कोरोना के पहले का मामला था। 

सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (CEA) के आंकड़ों के मुताबिक़, 2019 में अप्रैल से नवंबर के बीच यह क्षेत्र  5.22 फ़ीसदी की दर से आगे बढ़ा। लॉकडॉउन में गृहमंत्रालय ने नवीकरणीय प्रोजेक्ट के लिए भत्तों की घोषणा की है। लेकिन इनकी घोषणा करना आसान है, पता नहीं इसका पालन कब किया जाएगा। राज्यों को इन प्रोजेक्ट को लागू करना होगा।

नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय की तरफ से प्रोजेक्ट को पूरा के लिए प्रोत्साहन राशि भी रखी गई है, साथ में काम पूरा करने की अंतिम सीमा भी बढ़ाई गई है। सवाल यह है कि आर्थिक दिक्क़तों का सामना कर रही डिस्कॉ़म कंपनियां नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादकों को पैसे दे सकती हैं या कुछ राज्य स्थिति का फायदा उठाते हुए इस बकाया को न चुकाने या नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्रों को बंद न करने का लोभ संवरण कर पाएंगे। किसी भी मामले में तरलता की कमी और कैपेक्स निवेश में कमी, ख़ासकर B2Bs (बिज़नेस टू बिज़नेस) में लॉकडॉउन के दौरान बड़ी समस्या उभरी है।

भारत में बड़े नीतिगत बदलावों के ज़रिए कोरोना के पहले ही कोयले की कहानी लिखी जा चुकी थी और इसमें निजी खिलाड़ियों के लिए व्यवसायिक खनन का रास्ता खोल दिया गया था।  कोरोना के चलते कोयले को भी बाधाओं का सामना करना पड़ा है। लॉकडॉउन के चलते 1 मई, 2020 तक कोल इंडिया से भेजे जाने वाले जहाजों में अप्रैल में सात महीनों का सबसे कम स्तर था। पिछले साल की तुलना में शिपिंग में 25 फ़ीसदी की कमी आई है और मार्च 2020 में शिपिंग का आंकड़ा 39.1 मिलियन टन ही रहा।

कोरोना महामारी के फैलने से पहले कोल इंडिया ने दिसंबर, 2019 में 58.02 मिलियन टन कोयला उत्पादित किया था। 2018 दिसंबर में एक साल पहले यह आंकड़ा 54.14 फ़ीसदी था। उस महीने में यह अब तक का सबसे ऊंचा आंकड़ा था। कोयले के लौटने की आवाज पूरी दुनिया में सुनाई दे रही थी। 

IEA (इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी) की हालिया वार्षिक कोयला बाज़ार रिपोर्ट हमें बताती है:

- तीन साल की लगातार गिरावट के बाद 2017 में कोयले की मांग में वृद्धि हुई, 2018 में फिर तेजी आई और कोयले की वैश्विक मांग में 1.1 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी आई।

- 2018 में भारत में कोयले की मांग में दो फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई, जो अब तक का सबसे ऊंचा उछाल था। 2018 में कोयले का अंतरराष्ट्रीय व्यापार चार फ़ीसदी बढ़ा, 1.4 बिलियन टन से भी ज़्यादा कोयले की अंतरराष्ट्रीय शिपिंग हुई। 2018 में उत्पादन में 3.3 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई।

- दुनिया के 6 सबसे बड़े कोयला उत्पादक देशों में से चार ने अपने उत्पादन में वृद्धि की। भारत, इंडोनेशिया और रूस ने अपने इतिहास में सबसे ज़्यादा उत्पादन किया।

- इंडोनेशिया और रूस ने अपने इतिहास में कोयले का सबसे ज़्यादा निर्यात किया।

- 2018 में कोयले की औसत कीमत, 2016 का तुलना में 60 फ़ीसदी ज़्यादा थीं, इसके चलते यह एक फायदेमंद व्यापार बना।

- कोल ऑस्ट्रेलिया ने निर्यात से 67 बिलियन डॉलर का राजस्व हासिल किया और कोयला सबसे बड़ी निर्यातक वस्तु बन गया।

- कोयले के लिए चीन की भूख कम होगी। बीपी एनर्जी के अनुमानों के मुताबिक़ चीन में कोयले की ऊर्जा उत्पादन में हिस्सेदारी 2040 तक 35 फ़ीसदी ही रह जाएगी। 2017 में यह 60 फ़ीसदी थी। लेकिन चीन तब भी दुनिया का सबसे ज़्यादा कोयला खपत वाला देश बना रहेगा और 2040 में दुनिया के 39 फ़ीसदी कोयले की खपत चीन में हो रही होगी।

- S&P ग्लोबल प्लाट्स एनालिटिक्स में लीड कोल एनालिस्ट, मैथ्यू बॉयल के मुताबिक़, ''चीन के कोयला संयंत्र बहुत नए हैं, उनका लंबे वक़्त तक इस्तेमाल किया जा सकता है। नवीकरणीय ऊर्जा के तेज़ वृद्धि के बावजूद उनके पास दूसरे विकल्पों के लिए बहुत ज़्यादा क्षमता नहीं हैं। इसलिए कोयला की मात्रा को न्यूक्लियर या गैस से बदलना संभव नहीं होगा।''

यहां कुछ पंडित कोयले को आर्थिक तौर पर आप्रासंगिक बता रहे हैं, जिसकी वजह से यह बाज़ार से बाहर जा रहा है। लेकिन 2015 के पेरिस समझौते के बाद ज़मीनी हकीक़त कुछ और है। प्राकृतिक गैस, नवीकरणीय संसाधनों और कार्बन प्राइसिंग समेत कोयले को बाहर करने वाली नीतियों का विकसित देशों में कुछ तो असर हुआ है, लेकिन दुनिया में उनके अलावा भी दूसरे देश रहते हैं। IEA का भी कहना है कि 2019 में कोयला उत्पादन के आंकड़े 2024 तक इसी रफ़्तार से चलते रहेंगे।

अमेरिका के मिले-जुले इशारे

हाल की घोषणाओं को छोड़ दें, तो अमेरिका में नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को लेकर सकारात्मक माहौल है। 2013 से 2017 के बीच पवन और सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट की कीमतों में अमेरिका में क्रमश: 13 फ़ीसदी और 37 फ़ीसदी की कमी आई है। अप्रैल, 2019 में अमेरिका ने अहम घोषणा में कहा कि उनके नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन ने कोयला ऊर्जा उत्पादन को पछाड़ दिया है।

अमेरिका में नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन से कुल उत्पादन का 23 फ़ीसदी हिस्सा उत्पादित हो रहा था, वहीं कोयले की हिस्सेदारी 20 फ़ीसदी ही रह गई थी। 2019 के पहले 6 महीनों में नवीकरणीय ऊर्जा के कुल उत्पादन में सौर और पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी पचास फीसदी थी और इसने पनऊर्जा के प्रभुत्व को खत्म कर दिया था।

लेकिन यह सब खुशनुमा माहौल 2020 में खत्म होता नज़र आ रहा है, अब नवीकरणीय उत्पादकों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि नई पवन चक्कियां लगाने के लिए मिलने वाले ''उत्पादन कर साख'' की सहूलियत को अब खत्म कर दिया गया है। सौर ऊर्जा निवेश के लिए भी टैक्स-क्रेडिट खत्म कर दी गई। जबकि सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा का अमेरिकी नवीकरणीय ऊर्जा बाज़ार में सबसे अहम स्थान है।

असल बात यह है कि हरित ऊर्जा की वकालत करने वाले खपत के ट्रेंड को मानने से भी इंकार कर देते हैं। बड़ी विकसित अर्थव्यवस्थाओं में बिजली की मांग रुक चुकी है या फिर कई दशकों से कम हो रही है। लेकिन विकासशील देशों में ऐसा नहीं है। जबकि यही देश दुनिया का ज़्यादातर हिस्सा बनाते हैं। नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताएं कम होती ऊर्जा मांग वाले देशों में प्रासंगिक बनी रह सकती हैं। लेकिन एशिया के मौजूदा देशों में जहां खपत लगातार बढ़ रही है, वहां इनका मजबूती से टिकना मुश्किल हो जाता है। 

कोयले के पक्ष में इसकी उपलब्धता और तैयार स्थिति जाती है। यह भले ही एक जीवाश्म ईंधन है, लेकिन कोयला तेल या गैस की तुलना में ज़्यादा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। worldcoal.org के मुताबिक़ दुनिया के भीतर 2018 में 132 साल के उपयोग के लिए कोयला उपलब्ध था। कोयले से जीवाश्म आधारित उत्सर्जन का ख़तरा होता है, लेकिन इससे दुनिया की ऊर्जा मांग की पूर्ति होती है। इसलिए यह विकास के लिए बेहद अहम है। दुनिया की 38 फ़ीसदी बिजली और 71 फ़ीसदी स्टील कोयले के उपयोग से उत्पादित किया जाता है। 

भारत में 208 में ईंधन आधारित उत्सर्जन 2018 में 6.3 फ़ीसदी बढ़ गया। यह पिछले साल से तीन गुना ज़्यादा था। बावजूद इसके, नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं की कम होती कीमतों के बाद भी कार्बनीकरण घटाने की तमाम योजनाएं, फंडिंग और प्रोत्साहन तकनीकी और प्रशासनिक जाल में फंसा रहा गया। यूएन एनवॉयरमेंट प्रोग्राम सभी का उत्साह बनाए रखता है। संगठन ने बताया कि 2019 के अंत तक दुनिया भर में 2.6 ट्रिलियन डॉलर पैसा नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं में लगाया जा चुका है। इसे नवीकरणीय ऊर्जा निवेश के लिए रिकॉर्ड तोड़ दशक बताया जा रहा है।

कोरोना महामारी के बाद के साहित्य में इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि ऊर्जा सुरक्षा ही अर्थव्यवस्था के दोबारा उभार का आधारभूत हिस्सा होगा, क्योंकि बिजली सुरक्षा और लचीला ऊर्जा ढांचा अब बेहद जरूरी हो गए हैं। IEA कहता है कि ''स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन किसी भी तरह की आर्थिक वापसी और प्रोत्साहन पैकेज का जरूरी हिस्सा होना चाहिए।'' इस चीज के साथ भले ही सैद्धांतिक सभी की सहमति हो, लेकिन बहुत सारी अर्थव्यवस्थाएं व्यवहारिकता में इस स्थिति को नहीं अपनाएंगी।

जीवाश्म ईंधन का लालच अब भी बहुत खींचने वाला है। पिछले साल की तुलना में अप्रैल में चीन का कोयला आयात 22 फ़ीसदी बढ़ गया। क्योंकि कम कीमतों के चलते व्यापारियों ने कोयला का भंडारण शुरू कर घरेलू मांग में वापसी के लिए तैयारी शुरू कर दी। यह वह व्यवहारिकता है, जिसे आशावादी लोगों को सोचना चाहिए।

खनन क्षेत्र: खुल जा सिम-सिम

1) राजस्व बांटने वाले तंत्र ने स्थिर रुपये/टन वाले पुराने तरीके को बदला।

2) उदारवादी प्रवेश शर्तों के हिसाब से कोई भी कोयले के ब्लॉक की नीलामी में हिस्सा ले सकता है और इसे खुले बाज़ार में बेच सकता है।

3) 50 ब्लॉक तुरंत आवंटित किए जाएंगे।

4) किसी तरह की अहर्ताओं की मांग नहीं की जाएगी। केवल एक तय सीमा के साथ राशि की घोषणा होगी।

5) पहले केवल उन्हीं ब्लॉक की नीलामी होती थी, जिनकी पूरी तरह खोज की जा चुकी होती थी। लेकिन अब आंशिक तौर पर खोजे जा चुके ब्लॉक में ''उत्पादन और खोज'' दोनों की व्यवस्था एक साथ होगी।

6) खोज में निजी क्षेत्र का स्वागत।

7) समय से पहले उत्पादन करने पर राजस्व साझा करने के दौरान छूट के ज़रिए प्रोत्साहन दिया जाएगा।

उदारीकरण और विविधता

1) राजस्व साझा करने में छूट देकर कोयले को गैस या तरल बनाने के लिए प्रोत्साहन। इससे भारत को गैस आधारित अर्थव्यवस्था बनने में मदद मिलेगी।

2) निजी ब्लॉक और CIL द्वारा 2023-24 के लिए लक्षित उत्पादन- एक बिलियन टन कोयले की निकासी के लिए 50000 करोड़ रुपये इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में लगाए जाएंगे। 

3) इसमें 18,000 करोड़ रुपये खदान से रेलवे स्लाइडिंग तक कोयले के मशीनी स्थानांतरण (कंवेयर बेल्ट के ज़रिए) पर खर्च होंगे। इससे पर्यावरणीय नकुसान कम करने का उद्देश्य है।

4) कोल बेड मीथेन (CBM) के खनन अधिकारों की नीलामी CIL खदानों से ही की जाएगी।

5) खदान योजना को सरलीकृत और ऐसे ही दूसरे उपायों से व्यापार करने की सुलभता बढ़ाई जाएगी।

6) इससे सालाना उत्पादन में अपने-आप 40 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी की उम्मीद है।

इस आर्थिक प्रोत्साहन को खनन के नुकसान के साथ पढ़ा जाना चाहिए।

कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्र से उपजने वाले पदार्थ से प्रदूषण का स्तर काफ़ी बढ़ता है, क्योंकि इसमें नुकसानदेह कणों का घनी संख्या होती है। बिजली बनाने के लिए कोयला जलाने से PM4, SO2, NOx और Hg गैस पैदा होती हैं। अगर तापीय ऊर्जा संयंत्रों के उत्सर्जन में बदलाव नहीं हुआ, तो अनुमानों के मुताबिक यह प्रदूषक 2050 तक भारत में हर साल 13 लाख लोगों की मौत के ज़िम्मेदार बनेंगे (हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट, 2018)।

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं, वे 1980 के दशक से कोयले पर लिखते आ रही हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Questioning the Death of Coal–I: Green Swan and Black Diamond

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