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दिल्ली हिंसा: उमर ख़ालिद के परिवार ने कहा ज़मानत नहीं मिलने पर हैरानी नहीं, यही सरकार की मर्ज़ी है

उमर ख़ालिद के पिता ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभियोजन पक्ष के आरोपों को साबित कर पाने में पूरी तरह नाकाम होने के बावजूद अदालत ने "मनगढ़ंत साज़िश के सिद्धांत" पर यक़ीन किया।
UMAR KHALID

नई दिल्ली: शहर की एक अदालत ने गुरुवार को जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र और कार्यकर्ता उमर ख़ालिद की 2020 के उस दिल्ली हिंसा व्यापक षड्यंत्र मामले (एफ़आईआर नंबर 59/2020) में ज़मानत याचिका ख़ारिज कर दी, जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) और सख़्त आतंकवाद विरोधी कानून–ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA) शामिल हैं। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने आख़िरकार इसे तीन बार टालने के बाद यह आदेश सुना दिया। अदालत ने 3 मार्च को अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था।

ख़ालिद को 13 सितंबर, 2020 को गिरफ़्तार किया गया था। 23 फ़रवरी की शाम को भड़की उस सांप्रदायिक हिंसा में कम से कम 53 लोगों की मौत हो गयी थी, 750 घायल हो गये थे और करोड़ों रुपये की संपत्ति का नुक़सान हुआ था और पूर्वोत्तर दिल्ली के ट्रांस-यमुना क्षेत्र में पिछले साल के 27 फ़रवरी तक जारी रहा।

हालांकि, यह आदेश ख़ालिद के परिवार और उन शुभचिंतकों के लिए हैरान करता नहीं दिखता, जिनमें से कई लोगों ने हाल ही में दिल्ली की तिहाड़ केंद्रीय जेल से बाहर आयी सह-आरोपी इशरत जहां के ज़मानत आदेश की भाषा और लहज़े की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि उसी विशेष अदालत की ओर से उन्हें ज़मानत देने के बाद तो यह इस बात का इशारा है कि आने वाले दिनों में क्या होने वाला है।

14 मार्च को जहां को इस आधार पर ज़मानत देना कि वह "चक्का-जाम" (सड़क की नाकेबंदी) और उन संगठनों के सदस्य या "गड़बड़ी फैलाने वाले" उस व्हाट्सएप ग्रुप (दिल्ली प्रोटेस्ट सपोर्ट ग्रुप या डीपीएसजी) के उस विचार के पीछे नहीं थी, जिसने पूरी "साज़िश" में "भूमिका निभायी" थी। अदालत ने बताया था कि उसने "फ़ेस वैल्यू " पर आरोप पत्र को मंज़ूर कर लिया था, ताकि यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि "विघटनकारी चक्का-जाम" कोई "पूर्व नियोजित साज़िश" थी और दिल्ली में 23 अलग-अलग "नियोजित" स्थलों पर टकराव और हिंसा को "उकसाने" के लिए "पूर्व नियोजित" विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया गया था।

रावत ने अपने आदेश में ज़िक़्र करते हुए कहा, “पूर्वोत्तर दिल्ली में रहने वाले समुदाय को असुविधा और ज़रूरी सेवाओं में व्यवधान पैदा करने के लिए जानबूझकर सड़कों को अवरुद्ध किया गया था। इसका मक़सद मिली-जुली आबादी वाले इन इलाक़ों में सड़कों को अवरुद्ध करना और नागरिकों के आने-जाने को रोकने के लिए इस पूरे क्षेत्र को घेर लेना था, ताकि दहशत पैदा हो।”

उन्होंने अभियोजन पक्ष के उस सिद्धांत को ही कथित तौर पर दोहराया कि उस विरोध प्रदर्शन (नागरिकता संशोधन अधिनियम या सीएए, नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन या एनआरसी और प्रस्तावित राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर या एनपीआर के ख़िलाफ़) में महिलाओं का "इस्तेमाल" आगे के एक "ढाल" के रूप में किया गया था । उनके मुताबिक़ इस तरह की कथित योजना और उसका क्रियान्वयन एक आतंकवादी अधिनियम की परिभाषा के तहत आता है।

यह मानते हुए कि अभियुक्तों के ख़िलाफ़ यूएपीए की धारा 43 डी के मुताबिक़ लगाया गया आरोप पहली नज़र में "सच" हैं, अदालत ने कहा, "हथियारों का इस्तेमाल, हमले का तरीक़ा और जिस तरह तबाही हुई, यह सब मिलकर दिखाता है कि यह पूर्व नियोजित था....इस पूरी साज़िश में उन विभिन्न समूहों और लोगों के शामिल किये जाने की बात कही गयी है, जिन्होंने विरोध प्रदर्शन की आड़ में टकराव पैदा करने वाले चक्का-जाम को अंजाम देने में एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाये रखा। नतीजतन पूर्वोत्तर दिल्ली में हिंसा और दंगे हुए।”

यह धारा बताती है कि अगर अदालत को लगता है कि अभियोजन का मामला 'पहली नज़र में' सच है, तो ज़मानत नहीं दी जायेगी। यह क़ानून ज़मानत का फ़ैसला करते समय किसी आरोपी के ख़िलाफ़ लगाये गये आरोपों के गुण-दोष आधारित परीक्षण का समर्थन करता है। और किसी मामले के गुण दोष में आरोपी के ख़िलाफ़ सामग्री भी शामिल है।

इस आदेश पर टिप्पणी करते हुए ख़ालिद के पिता सैयद क़ासिम रसूल इलियास ने गुरुवार को कहा कि वह ज़मानत से इनकार करने से हैरान नहीं हैं। उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा, "यह एक दुर्भाग्यपूर्ण आदेश है, लेकिन मैं हैरान नहीं हूं। ऐसा लगता है कि इसे माननीय न्यायाधीश के आदेश पर नहीं,बल्कि सरकार के आदेश पर तैयार किया गया है, ताकि असहमति की आवाज़ पर अंकुश लगाया जा सके।

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “यह मामला बहुत कमज़ोर है और सभी आरोपियों के ख़िलाफ़ लगाये गये आरोप मनगढ़ंत हैं। हमारे वकील (सीनियर एडवोकेट त्रिदीप पेस) ने अभियोजन की थ्योरी को एक-एक करके ध्वस्त कर दिया था। पुलिस गवाहों के बयान विरोधाभासी पाये गये। यह साबित कर किया गया था कि जब दंगे भड़के थे,उस समय उमर ख़ालिद दिल्ली में नहीं थे। इसलिए, उसे कथित साज़िश के मास्टरमाइंड के रूप में पेश करना और कुछ नहीं बल्कि अव्लल दर्जे का मनगढ़ंत आरोप है, जिसे अदालत ने दुर्भाग्य से इन आरोपों को साबित कर पाने में अभियोजन पक्ष के पूरी तरह से विफल रहने के बावजूद मान लिया।”  

इलियास ने आगे कहा कि 17 फ़रवरी, 2020 को महाराष्ट्र के अमरावती में ख़ालिद ने जो भाषण दिया था, उसका एक चुनिंदा हिस्सा अभियोजन पक्ष की ओर से बतौर सबूत पेश किया गया, ताकि यह साबित हो सके कि ख़ालिद ने हिंसा को “उकसाया” था।

उन्होंने आगे कहा, “हमने कोर्ट में पूरा भाषण सुनाया और जज से कहा कि वह बतायें कि उस पूरे संबोधन में क्या कुछ आपत्तिजनक है। हमने अभियोजन पक्ष से उनकी बनायी वीडियो क्लिप के स्रोत के बारे में पूछा। जवाब था-रिपब्लिक टीवी, जबकि इस टीवी ने इस क्लिप को भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय के ट्वीट से उठाया था। इस तरह, थोड़े में कहा जाये,तो बिना किसी संदेह के साबित हो गया कि ये आरोप झूठे थे। अदालत के पास ज़मानत अर्ज़ी को मंजूर करने के लिए पर्याप्त आधार था।”

यह चार्चशीट 'फैमिली मैन' की स्क्रिप्ट की तरह है

ख़ालिद के ख़िलाफ़ आरोपों का खंडन करते हुए पेस ने दलील दी थी कि पूरी चार्जशीट उस वेब श्रृंखला 'फ़ैमिली मैन' (एक जासूसी नाटक) की पटकथा की तरह लग रही थी, जिसमें इन आरोपों का समर्थन करने के लिए कोई सबूत ही नहीं था कि उनका मुवक्किल "बग़ावत का उस्ताद" है।

उन्होंने कहा था कि इस चार्जशीट में "बढ़ा-चढ़ाकर लगाये गये आरोप" उन "समाचार-चैनलों" में से किसी चैनल की स्क्रिप्ट की तरह हैं,जो रात 9 बजे पढ़ी जाती है और यह "जांच अधिकारी की उर्वर कल्पनाशक्ति" को दिखाती हैं।

पेस ने ख़ालिद के भाषण के सिलसिले में कहा कि न्यूज़ 18 और रिपब्लिक टीवी (दो समाचार प्रसारकों) ने पूरी क्लिप का एक "छोटा" हिस्सा चलाया था। वकील ने कहा, "दिल्ली पुलिस के पास रिपब्लिक टीवी और न्यूज18 के इस क्लिप के अलावा कुछ भी नहीं है।"

उन्होंने आरोप लगाया कि न्यूज़18 ने एकता और सद्भाव की ज़रूरत के सिलसिले में ख़ालिद के अहम बयान को अपने प्रसारित वीडियो से हटा दिया था।

अभियोजन पक्ष के इस दावे का विरोध करते हुए कि चक्का जाम एक आतंकी कृत्य के बराबर है, उन्होंने कहा कि सड़कों की नाकाबंदी कोई अपराध नहीं होता और पहले के कई आंदोलनों में भी इसका इस्तेमाल किया जाता रहा है।

पेस ने आरोप लगाया कि पुलिस गवाहों के दिये बयानों को “तैयार किया” था और चार्जशीट के साथ-साथ एफ़आईआर 59/2020 में भी “झूठ में फांसाने” का यह पैटर्न दिखता है। उनका कहना था कि ख़ालिद की गिरफ़्तारी से तीन दिन पहले एक गवाह का बयान दर्ज किया गया था, जिसका एकमात्र मक़सद ख़ालिद की हिरासत को सही ठहराना था।

ख़ालिद के वकील ने आरोप लगाया कि जांच एजेंसी ने इस मामले में "मनगढ़ंत" बयान दिये, क्योंकि ये एक दूसरे के साथ "बेहद असंगत" थे, और इसके समर्थन में कोई ठोस सबूत नहीं था।

वकील का तर्क था, "मैंने हाल ही में 'द ट्रायल ऑफ़ शिकागो 7' नाम की एक फ़िल्म देखी है, जिसमें सरकार के गवाहों ने पहले से ही सरकारी गवाह बनने की योजना बना ली थी।"

दिल्ली पुलिस के इस आरोप को खारिज करते हुए कि सीएए का विरोध अपनी प्रकृति में ही "सांप्रदायिक" था, पेस ने कहा कि " विवादास्पद क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन नहीं,बल्कि दिल्ली पुलिस ख़ुद ही सांप्रदायिक थी।"

धारणा बनाने के मक़सद से फ़िल्मों का हवाला

ख़ालिद की ज़मानत याचिका का विरोध करते हुए अभियोजन पक्ष ने कहा कि फ़िल्मों का हवाला देना असल में "धारणा" बनाने की एक कोशिश थी, क्योंकि बचाव पक्ष के पास इस मामले के गुण-दोष पर बहस करने के लिए कुछ भी नहीं है।

“वह (पैस) चाहते हैं कि आवेदन पर एक वेब श्रृंखला के हिसाब से फ़ैसला लिया जाये। वह चाहते हैं कि इस मामले को 'फैमिली मैन' और 'ट्रायल ऑफ़ शिकागो 7' की तरह समझा जाये। यह तो दुर्भाग्यपूर्ण है। आइये, इस बात को समझते हैं कि वह फ़ैमिली मैन या शिकागो 7 के साथ इस मामले की साम्यता क्यों बिठाना चाहते हैं। विशेष लोक अभियोजक अमित प्रसाद का कहना था कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि जब आपके पास गुण-दोष के आधार पर कुछ होता नहीं है, तो आप आगे जाकर सुर्ख़ियां बटोरना चाहते हैं। वह आगे बताते हैं,"आप एक धारणा बना देते हैं और यही कारण है कि हम सुनवाई की तारीख़ों की अगर गूगल सर्च करें, तो पता चलता है कि जब क़ानून को लेकर ज़िरह किया जाता है, तो उससे क़ानून की हिफाज़त नहीं होती, बल्कि उसी फ़ैमिली मैन के हवाले से बहस की जाती है, तो फिर उसमें तमाम बातें शामिल हो जाती हैं। यह धारणा बनाने का मामला है। आप क़ानून को लेकर कुछ भी ज़िरह नहीं करना चाहते, आप किसी ऐसी चीज़ पर बहस करना चाहते हैं, जो मीडिया के अनुरूप हों।"

उन्होंने बचाव पक्ष पर भी आपत्ति जतायी, इस बात का आरोप लगाया कि जांच एजेंसी सांप्रदायिक है, क्योंकि दंगों को "सावधानी के साथ योजनाबद्ध" किया गया था। चूंकि इसे योजनाबद्ध तरीक़े से अंजाम दिया गया था, इसलिए संपत्तियों की ताबही हुई थी और ज़रूरी सेवाओं में व्यवधान पैदा हुआ था और पत्थर, लाठियों और पेट्रोल बमों का इस्तेमाल किया गया था, इस मामले में यूएपीए की धारा 15(1))ए)(i),(ii) और (iii) लगाया गया।

अभियोजन पक्ष की दलील थी कि विरोध स्थलों को "रणनीतिक रूप से" 25 मस्जिदों के क़रीब चुना गया था। इस विरोध प्रदर्शन को वैध बनाने के लिए एक "सांप्रदायिक" विरोध प्रदर्शन को धर्मनिरपेक्षता का नाम दे दिया गया।

प्रसाद ने यह दलील भी दी कि उस विरोध प्रदर्शन का मक़सद सीएए या एनआरसी का विरोध करना नहीं, बल्कि सरकार को शर्मिंदा करना और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित करना था।

उन्होंने ख़ालिद को लेकर आरोप लगाया था कि आरोपी की छवि जनता के बीच संविधान की रक्षा करने और भारतीय झंडा लहराने वाली थी, जबकि उसका एजेंडा अलग था।

अभियोजन पक्ष की ये पूरी दलील उस डीपीएसजी नाम से बने व्हाट्सएप ग्रुप के इर्द-गिर्द ही केंद्रित था, जिसे उन्होंने "बेहद संवेदनशील" बताया, जिसमें हर छोटे-छोटे मैसेज पर ख़ास तौर पर विचार-विमर्श किया जाता था और फिर बाक़ी सदस्यों को भेज दिया जाता था। उनका तर्क था, "वहां लिया गया हर फ़ैसला सचेत और सुविचारित था।"

इस मामले के कुल 15 आरोपियों में से पांच आरोपी (सफ़ूरा ज़रगर, आसिफ़ इक़बाल तन्हा, नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और इशरत जहां) ज़मानत पर बाहर हैं। बाक़ी 10 आरोपी (जेएनयू छात्र शरजील इमाम, उमर ख़ालिद, जामिया मिलिया इस्लामिया के शोधार्थी मीरान हैदर, जामिया एलुमनी एसोसिएशन के प्रमुख शिफ़ा-उर-रहमान, एक्टिविस्ट ख़ालिद सैफी, शादाब अहमद, तसलीम अहमद, सलीम मलिक, मोहम्मद सलीम ख़ान और अतहर ख़ान) करीब दो सालों से जेल में बंद हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Delhi Violence: Not Surprised at Bail Denial, it’s Govt's Will, says Umar Khalid’s Family

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