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दिल्ली के प्रदूषण से कोविड-19 का ख़तरा कई गुना बढ़ सकता है

इस ख़तरे को देखते हुए सरकारों को जिस तरह मिलकर युद्ध स्तर पर संकट का मुकाबला करना चाहिये, वैसा न होकर केंद्र की भाजपा सरकार और दिल्ली की आप सरकार आपस में ही झगड़ रही हैं।
प्रदूषण
प्रतीकात्मक तस्वीर

वैज्ञानिक अब यह साबित कर चुके हैं कि थोड़े समय के लिए भी कोई वायु प्रदूषण के प्रभाव को झेलने पर मजबूर हो तो कोविड-19 का खतरा कई गुना बढ़ सकता है। इसके मायने हैं कि दिल्ली जैसे वायु-प्रदूषण वाले शहर में कोविड-19 से मरने वालों की संख्या बढ़ेगी।

15 अक्टूबर को न्यूयॉर्क टाइम्स में जेफ्री गेट्लमैन और हरि कुमार का एक लेख छपा है, जिसका दावा है कि गम्भीर कोरोना वायरस संक्रमण का एक लक्षण है सांस लेने में तकलीफ। और डॉक्टरों का कहना है कि परिवेशी वायु यदि अचानक जहरीला हो जाए जैसा कि उत्तर भारत में हर वर्ष इसी समय होता है, तो अधिक कोरोना वायरस संक्रमित लोग अस्पताल में पहुंचेंगे या मरेंगे। उन्होंने दिल्ली के संदर्भ में इस विषय पर विस्तृत चर्चा की है। देखें: 

हर साल दिल्ली में धूम-कोहरा smog छा जाता है। क्या इस वर्ष भी धूम-कोहरा कुछ हफ्तों बाद गहराएगा और कोविड महामारी के साथ एक जानलेवा मिश्रण तैयार करेगा? इसको लेकर व्यापक संशय है, पर सभी सरकारें यदि मिलकर काम करें तो आशा की गुंजाइश कम नहीं है। लॉकडाउन के दौर में दिल्ली का प्रदूषण काफी कम था, पर अब कहा जा रहा है कि हरियाणा-पंजाब के खेतों से प्रदूषण दिल्ली में फैलता है।

हमें समझना होगा कि केवल खेतों को जलाने की वजह से दिल्ली में धूम-कोहरे का संकट नहीं पैदा होता है। 2016 में 30 अक्टूबर और 7 नवम्बर के बीच, यानि दिवाली के समय डा. प्रोबीर के पत्रा व छः अन्य वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया था (ऐटमॉस्फियरिक पोल्यूशन रिसर्च जरनल Vol.10, अंक 3, पृष्ठ 868-879)। उसमें उन्होंने बताया कि स्मॉग बनने के 3 प्रमुख कारण हैं-पंजाब व हरियाणा में देर से खेतों को जलाना, दिवाली में भारी मात्रा में पठाखों का जलाया जाना, मौसम-विज्ञान की एक अजीब स्थिति, जिसमें उत्तरी हवाएं कमजोर होती हैं, ऐटमॉस्फियरिक बाउंडरी लेयर (ABL) का छिछला होता है, वायु का तापमान कम होता है और बढ़ी हुई उमस रहती है, जो एक अलग किस्म के वायु-अप्रवाह की स्थिति पैदा करता है।

2016 की स्थिति से इस बार एक फर्क है कि फसल के समय अच्छी वर्षा होने के कारण खेतों में ठूंठ जलाने की प्रक्रिया सितम्बर से ही आरंभ हो गई और यह प्रक्रिया लंबित हो गई। दूसरे, यदि मीडिया के माध्यम से प्रदूषण से बढ़ने वाले कोविड के खतरों पर लोगों को शिक्षित कर दिया जाए तो पठाखे जलाना काफी कम किया जा सकता है।

तीसरा, इस बार हवा की तेज़ रफ्तार के चलते दिल्ली की वायु-गुणवत्ता ‘बहुत खराब’ से ‘खराब’ हो गई। फिर, हवा की दिशा ने भी खेतों की आग से बन रहे धूम-काहरे को उत्तर-पश्चिम से दिल्ली में घुसने से बचाया है। इसलिए आशा की कुछ गुंजाइश जरूर है। पर अभी भी यह अनिश्चित है कि हरियाणा-पंजाब के खेतों के जलने से दिल्ली में कितना धुंआ पहंचेगा। और यह भी देखना बाकी है कि ‘सेकेन्ड-वेव’ कोविड महामारी और खेतों के जलने का समय यदि एक हो जाता है, तो मरने वालों की संख्या कितनी बढ़ेगी।

पर इस खतरे को देखते हुए सरकारों को जिस तरह मिलकर युद्ध स्तर पर संकट का मुकाबला करना चाहिये, वैसा न होकर केंद्र की भाजपा सरकार और दिल्ली की आप सरकार आपस में ही झगड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री ने तो तब हद ही कर दी जब वे ट्वीट करके बताने लगे कि कैसे पवन टर्बाइनों का प्रयोग कर वातावरण की नमी से पानी निकाला जा सकता है और पेय जल उपलब्ध कराया जा सकता है; उससे बिजली भी बन सकती है और वातावरण से ऑक्सीजन भी पैदा किया जा सकता है; इस तरह प्रदूषण समाप्त हो सकता है।

शायद उनके सलाहकारों ने उन्हें यह नहीं बताया कि एक पवन टर्बाइन टावर जो अधिक से अधिक 2.5-3 मेगावाट बिजली पदा कर सकता है 5.69 करोड़ रु लागत पर लगेगा। और दिल्ली में अधिकतम बिजली की खपत 2019 में ही 7400 मेगावाट थी। फिर इन टर्बाइन्स को लगाने में भूमि अधिग्रहण सहित कई और मामले आएंगे, तो दिल्ली की समस्या हल करने के लिए ही कई साल लगेंगे। राहुल गांधी ने इस विषय पर मोदी पर तंज कसा पर उन्हें अपने पंजाब मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को सलाह देनी चाहिये थी कि वे खेतों की आग पर पहले काबू करें।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार के सिर पर ठीकरा फोड़ा और भाजपा सरकार, जिसका कब्जा तीन म्युनिसिपल काॅर्पोरेशनों पर है, को दोषी ठहराने की कोशिश की। क्या इंजीनियरिंग पढ़े केजरीवाल को पता नहीं कि मुन्सिपल काॅर्पोरेशनों के काम के दायरे में वायु-प्रदूषण की रोकथाम का काम नहीं आता? उत्तर एमसीडी के मेयर जय प्रकाश ने केजरीवाल पर आवश्यक अनुदान न देने का आरोप लगाया, जबकि मुम्बई के बाद सबसे धनी काॅर्पोरेशन दिल्ली के हैं।

उधर राघव चड्ढा ने कूड़ा जलने के फोटो मीडिया को दिखाकर दिल्ली के काॅरपोरेशनों पर आरोप मढ़ा कि इनकी वजह से ही स्मॉग बढ़ रहा है। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने पंजाब और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों पर आरोप लगााया कि वे किसानों को खेत में आग लगाने से नहीं रोक रहे। दोषारोपण का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कह दिया कि सारी मुसीबत दिल्ली सरकार की पैदा की हुई है क्योंकि खेतों के जलने से केवल 4 प्रतिशत प्रदूषण होता है।

क्या मंत्री जी को यह भी नहीं पता कि खेतों के जलने से पैदा होने वाला प्रदूषण स्थायी नहीं होता बल्कि कितने खेत किसी दिन जलते हैं उसपर निर्भर होता है-यह सितंबर मध्य में 1 प्रतिशत था, सितंबर अंत में 3 प्रतिशत हो गया, अक्टूबर प्रथम सप्ताह में 4 प्रतिशत और 14 अक्टूबर को 18 प्रतिशत था। 18 तारीख तक यह बढ़कर 19 प्रतिशत हो गया। ऐसा लगता है कि बजाए विकट होती समस्या को हल करने के लिए गंभीरता से लगने के, दानों पक्ष ‘ब्लेम-गेम’ में लग गए हैं।

कानूनी हस्तक्षेप का लंबा इतिहास

सर्वोच्च न्यायालय ने भी हस्तक्षेप किया और रिटायर्ड जज मदन लोकुर को पंजाब और हरियाणा में खेतों को आग लगाने के मामले में निगरानी करने के लिए नियुक्त किया। दिल्ली के प्रदूषण संकट को सर्वोच्च न्यायालय की विशेष पीठ 1985 से ही सीधे देख रही थी, जब उसने एम सी मेहता की जनहित याचिका पर सुनवाई प्रारंभ की। कई आदेशों के बाद भी मामले का कोई संतोषजनक हल नहीं निकला। 2001 में उसने दिल्ली से गुजरने वाले पड़ोसी देशों के भारी, मध्यम और हल्के माल ढोने वाले ट्रकों पर प्रतिबंध लगाया।

7 अप्रैल 2015 को नैशनल ग्रीन ट्राइब्युनल ने आदेश दिया कि 10 साल पुराने डीज़ल वाहन और 15 साल पुराने पेट्रोल वाहन दिल्ली की सड़कों पर नहीं चलेंगी। 2015 में डीज़ल एसयूवी (diesel SUVs) के पंजीकरण पर भी रोक लगा दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि एनसीआर में प्रदूषण बढ़ाने वाले वे लोग जो कानून का उलंघन करते हैं 1 लाख रु का जुर्माना भी भरेंगे। पर समस्या जस-के-तस बनी रही। अब देखना होगा लोकुर जी क्या कमाल दिखाते हैं।

प्रशासनिक हस्तक्षेप के लंबे इतिहास ने दिये सीमित परिणाम

दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार ने भी कई पहलकदमियां लीं और 2 दशकों से अधिक समय से कई ठोस कदम भी उठाए। पर समस्या बनी रही और बढ़ती भी गई। पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार एनवायरनमेंट पोल्यूशन प्रिवेंशन एण्ड कंट्रोल अथॉरिटी (EPCA) का पुनर्गठन 5 जुलाई 2016 को किया और संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों को ईपीसीए के प्रति जवाबदेह बनाया गया।

ईपीसीए न्यायालय को समय-समय पर प्रदूषण को रोकने के लिए उठाए गए कदमों के विषय में सूचित करता रहता है। अनगिनत रिव्यू कमिटियां भी बनीं और एक ऐसी रिव्यू कमिटी भी बनी जो रिव्यू कमिटियों के निष्कर्षों का भी रिव्यू करती है! ईपीसीए अब तक 119 रिपोर्टें जारी कर चुका है पर कोई स्थायी समाधान अब तक नहीं निकल सका।

2016 में आप सरकार ने ऑड-ईवन (odd-even) स्कीम चलाई, डीज़ल जेनरेटरों पर प्रतिबन्ध लगाया और अपील की कि ट्रैफिक चैराहों पर वाहनों के मोटरों को लोग बंद कर दें। पर इन सब कदमों का खास असर नहीं हुआ। इसके बाद केजरीवाल ने पंजाब और हरियाणा बाॅर्डर के जिलों के किसानों पर सारा दोष मढ़ दिया। पर सच्चाई क्या है?

सैटेलाइट तस्वीरों के अनुसार 2019 के पूरे साल में दोनों राज्यों में 4000 खेतों में आग लगाई गई। यह संख्या इन राज्यों के बार्डर के जिलों के कुल खेतों की संख्या का 1 प्रतिशत है। यदि सभी खेतों में आग लगाई जाती तो दिल्ली की भयानक स्थिति हो जाती।

दरअसल ज्यादातर किसान फसल कटने के बाद बचे ठूंठ को चारा के रूप में प्रयोग कर लेते हैं या फिर उसे बिछाने के काम में लाते हैं अथवा खाद बना लते हैं। पर हारवेस्टर के आने के बाद से यह समस्या पैदा हो गई कि फसल कटने के बाद ठूंठ खड़ी रहती है और उसे जलाने के अलावा कोई चारा नहीं होता।

इसका एक कारण और भी है-मजदूर बाहर कमाने चले जाते हैं तो लेबर मिलना मुश्किल हो जाता है और जो मिलते भी हैं उनकी मजदूरी बढ़ गई है। ठूंठ काटने की मशीनें तो हैं पर उनपर सब्सिडी बहुत कम है। तो किसान को अलग-अलग मशीनों के लिए 1.35 लाख से 2.1 लाख तक की लागत लगानी पड़ती है। सरकार यदि किसानों को ऐसी मशीनें खरीदने के लिए वित्तीय सहायता दे या सस्ते माईक्रोबियल बायोडिसपोज़ेब्ल तकनीक (microbial biodisposable technology) उपलब्ध कराए तो किसान खेतों को क्यों जलाएं?

वर्तमान समय में दिल्ली का प्रदूषण

राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सुचकांक या एक्युआई की गणना करने के लिए राष्ट्रीय परिवेश वायु गुणवत्ता के मापदंड तय किये जाते हैं यानि बिग पार्टिकुलेट मैटर (big particulate matter) पीएम 10 और फाइन पार्टिकुलेट मैटर पीएम 2.5 के लिए सुरक्षा सीमा तय करके यह होता है। प्रदूषण कार्बन डायआक्साइड, कार्बन मोनाक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन डायाक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर डायाक्साइड के चलते होता है।

यदि एक्यूआई 0-50 है तो यह अच्छा कहलाएगा, 51-100 है तो संतोषजनक, 100-200 मध्यम, 201-300 बुरा, 300-400 बहुत बुरा और 400-500 गंभीर। 15 अक्टूबर को दिल्ली की एक्यूआई पीएम 10 के लिए 312 तक पहुंच गई थी और पीएम 2.5 के लिए 379 तक, यानि बहुत खराब थी। इससे गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो सकती है।

वायु प्रदूषण भारी स्वास्थ्य संकट पैदा करेगा

एक ऑनलाइन नागरिक मंच है लोकल सर्किल्स। यह जनता के तमाम मुद्दों पर नियमित सर्वे करवाता है। इसका ऑनलाइन सर्वे  3 नवम्बर 2019 को प्रकाशित किया गया, जिसमें पता चला कि दिल्ली-एनसीआर के 65 प्रतिशत परिवारों में एक या एक से अधिक सदस्यों को कोई न कोई प्रदूषण-संबंधित स्वास्थ्य समस्या है।and also Pollution Survey: 64% NCR residents won't burn crackers this Diwali

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण के चलते विश्व में करीब 70 लाख लोग कम आयु में बेमौत मारे जाते हैं। यूके की प्रसिद्ध मेडिकल जरनल लांसेट ने दिसम्बर 2018 में लांसेट प्लैनेट हेल्थ प्रकाशित किया था। उसमें एक चौंकाने वाले शोध का जिक्र है, जिसके अनुसार 2017 में भारत में जो तकरीबन 1 करोड़ मौतें हुई थीं, उनमें से 12.4 लाख मौतें वायु प्रदूषण के चलते हुईं।

यह अध्ययन आईसीएमआर (ICMR), पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, वाशिंगटन स्थित इंस्टिटियूट फार हेल्थ मेट्रिक्स ऐण्ड इवैलुएशन के साथ स्वास्थ्य शोध विभाग, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। इनमें से 2 तो सरकारी एजेंसियां हैं।

आईसीएमआर के निदेशक डा. बलराम भार्गव ने 6 दिसम्बर 2018 को इन तथ्यों को जारी करते हुए कहा कि ‘हर आठ मौतों में से एक वायु प्रदूषण के कारण हो सकती है। वायु प्रदूषण सीओपीडी, डायबेटीज़, हार्ट अटैक, लंग कैन्सर और स्ट्रोक जैसी बीमारियों के संदर्भ में रुग्णता का कारण बनता है।’

यह अजीब विडम्बना है कि जब भारत और चीन एलएसी के पास अपने सैनिकों को भेजकर एक-दूसरे को मारने की योजना बना रहे थे, आईआईटी दिल्ली से वैज्ञानिकों की एक टीम शंधाई के फुदान विश्वविद्यालय और शेनज़ेन पाॅलिटेकनिक के साथ मिलकर एक संयुक्त अध्ययन कर रहे थे, जिसके जरिये उन्होंने पाया कि यदि लॉकडाउन के समय के बेहद निम्न प्रदूषण स्तर को लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी बनाए रखा जा सका तो भारत में कम से कम 6.5 लाख लोगों को मरने से बचाया जा सकेगा। पर यह आश्चर्य की बात है कि 22 अक्टूबर को भारत में महामारी से मरने वालों की संख्या 116,681 तक पहुंचने पर भी इस शोध को देश में गंभीरता से नहीं लिया गया।

लॉकडाउन के फायदों को बनाए रखना

लॉकडाउन की वजह से दिल्ली में वायु प्रदूषण करीब 40-60 प्रतिशत घटा था। क्या इस स्थिति को और शून्य उत्सर्जन या ज़ीरो एमिशन को बिना लॉकडाउन के भी दोहराया जा सकता है? हां, यह संभव है! यदि किसानों का सहयोग लिया जाय और स्थानीय पंचायत व सरकारें सतर्क हो जाएं तो खेतों में आग लगाना पूरी तरह बंद हो सकता है।

यदि ऑटो-उत्सर्जन-कंट्रोल की आधुनिक तकनीक और डीज़ल व पेट्रोल को अधिक शुद्ध बनाया जाए तो ऑटो उत्सर्जन को करीब करीब शून्य बनाया जा सकता है। 28 फरवरी 2018 को ईपीसीए ने स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दलील दी कि बीएस-1 (BS-I) से बीएस-4  (BS-IV) उत्सर्जन मानकों की ओर बढ़ने से दिल्ली में तीन-पहिया वाहनों से उत्सर्जन को 80-90 प्रतिशत तक कम किया जा सका। पुनः बीएस-4 (BS-IV) से बीएस-6 (BS-VI) की ओर बढ़कर प्रदूषण को और 50 प्रतिशत घटाया जा सका। यूरोपीय देशों ने भी साबित किया है कि उत्सर्जन के मानकों को कठोर बनाकर औद्योगिक उत्सर्जन और निर्माण कार्य से पैदा हो रहे प्रदूषण को शून्य के करीब लाया जा सकता है।

केवल पर्यावरण एक्टिविस्ट ही नहीं, आईएमएफ (IMF) तक ने कुल शून्य (net-zero) उत्सर्जन के लिए आह्वान किया है। दरअसल, आईएमएफ द्वारा प्रकाशित अक्टूबर के वल्र्ड इकनाॅमिक आउटलुक में एक पूरा चैप्टर ‘मिटिगेटिंग क्लाइमेट चेंज’ (Mitigating Climate Change) पर है और उसमें एक पैरा है ‘हाउ टू रीच नेट ज़ीरो एमिशन बाई 2050’ (How to Reach Net-zero Emission by 2050)।

इससे हम समझ सकते हैं कि कार्बन उत्सर्जन को शून्य तक ले आना कोई दिवास्वप्न नहीं है, बल्कि व्यवहारिक है और एक नीतिगत लक्ष्य हो सकता है। हमारे देश को आगे बढ़कर हर कीमत पर उत्सर्जन में कमी लानी चाहिये ताकि लाखों लोगों के जीवन को बचाया जा सके।

(कुमुदिनी पति महिला एक्टिविस्ट और स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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