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भारत
राजनीति
यह लोकतांत्रिक संस्थाओं के पतन का अमृतकाल है
इस पर आप इतराइये या फिर रुदाली कीजिए लेकिन सच यही है कि आज जब देश आज़ादी का अमृतकाल मना रहा है तो लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तम्भों समेत तमाम तरह की संविधानिक और सरकारी संस्थाओं के लचर होने की गाथा भी गाई जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा हो कहाँ रहा है?
अखिलेश अखिल
26 Apr 2022
sansad
फ़ोटो साभार: द प्रिंट

क्या देश की अदालतें इबादतगाह नहीं जुआघर हैं और संविधान को हमने विफल कर दिया है। क्या संसद और विधान सभाएं जिन्हें हम विधायिका कहते हैं, किसी मछली बाजार से ज्यादा कुछ भी नहीं है! और कार्यपालिका के बारे तो कुछ पूछिए ही नहीं।  इसकी गाथा तो अंतहीन है। इसका एकमात्र चरित्र तो यही है कि इसके दामन दागदार हैं और जनता का इस पर कोई भरोसा नहीं। और लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तम्भ विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका पर अंकुश रखने, उसकी रखवाली करने और लोकतंत्र में जनता की आवाज बनने के लिए जिस मीडिया की भूमिका को चिन्हित किया गया था वह अब सबसे ज्यादा पतित, बेईमान और गुलाम हो गई है। 

मौजूदा समय में पत्रकारिता की नयी पहचान गोदी मीडिया के रूप में चर्चित है और पत्रकार समाज का सबसे बदनाम तबका। हालांकि पहले ऐसा नहीं था। दुनिया को भारतीय मीडिया पर गर्व था और भारत के पत्रकार भी अपने सुकर्मो पर गीत गाय करते थे। लेकिन अब भारत का वही मीडिया मानो किसी कोठे की दासी बन गई हो। अधिकतर  मीडिया का लोकतंत्र में न कोई आस्था  है और न ही जनता के सवालों से  उसका कोई लगाव। देश जलता रहे ,धर्म के नाम पर वोटों की तिजारत होती रहे और देश के मौजूदा सवालों पर विपक्ष चिल्लाता रहे लेकिन जब मीडिया इन सब बातों से अपना मुँह फेर ले और किसी निर्देश पर नर्तन करने लगे तो सारी लोकतंत्र की कहानी बेमानी ही लगती है। 

मौजूदा भारतीय लोकतंत्र की सही तस्वीर तो यही है जो ऊपर कही जा रही है। इस पर आप इतराइए या फिर रुदाली कीजिए लेकिन सच यही है कि आज जब देश आजादी का अमृतकाल मना रहा है तो लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तम्भों समेत तमाम तरह की संविधानिक और सरकारी संस्थाओं के लचर होने की गाथा भी गाई जानी चाहिए थी लेकिन ऐसा हो कहाँ रहा है? केवल हम इस बात को लेकर खुश हैं कि आजादी के 75 साल हो गए और इन सालों मे भारत दुनिया के सामने एक मजबूत राष्ट्र के रूप में खड़ा है। लेकिन यह कोई नहीं कहता कि इन 75 सालों में ही भारत का  लोकतंत्र हांफने लगा है ,उसके मूल्य धूमिल हुए हैं। संस्थाओं की गरिमा तार -तार हुई है ,हमने अपना चरित्र खो दिया है और एक ऐसी लम्पट संस्कृति का वरण कर लिया है जिसमे  नैतिकता है और न ही भविष्य।

लोकतंत्र के इन 75 सालों में आदमी आदमी का दुश्मन बन गया है। राजनीतिक दल बटमार पार्टी के रूप में दौड़ती नजर आती है। जाति और धर्म के नाम पर पार्टियों की गोलबंदी है और एक जाति और धर्म के लोग दूसरी जाति और धर्म पर हमलावर है। सम्पूर्ण विकास  की गाथा भले ही आज भी देश के कोने -कोने में नहीं पहुँच पायी हो। देश के वंचित और आदिवासी समाज को भले ही विकास की योजनाओं का लाभ नहीं मिलता हो, भले ही देश के कई इलाके नक्सलवाद, चरमपंथ और आतंकवाद से ग्रसित हों लेकिन सरकारी दावे बहुत कुछ  कहते नजर आते हैं। इसक एक सच ये भी है कि इसी देश में नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की भूमिका इतनी कमजोर, दागदार और लचर हो गई है कि जनता उनपर यकीन नहीं करती। इसे आप मौजूदा लोकतंत्र का गुण कहिये या फिर उसके ढहते होने का प्रमाण मानिए।

और इसी दौर का सबसे बड़ा सच ये है कि भले ही देश के कई इलाके आज भी पानी की कमी, अशिक्षा, बीमारी, लूट खसोट और भूख से परेशान हो लेकिन वहाँ लोकतंत्र पहुँच गया  है। पार्टियों के झंडे -बैनर सुदूर इलाके में भी आप को दिख जाएंगे और तरह -तरह के नेताओं की तस्वीर झोपड़पट्टियों की टाट पर लटकते मिल जायेंगे। 75 सालो की आजादी के बाद लोकतंत्र शहरी परकोटे को पार करते हुए गांव तक जरूर पहुंचा है लेकिन वही गांव आज भी न्याय पाने को लालायित है। कहने के लिए लोकतंत्र में जनता को तमाम अधिकार तो दिए गए हैं लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है? क्या मौजूदा प्रधान मंत्री इसकी दस्तक दे पाएंगे?

अगर ऐसा होता और संविधान की प्रस्तावना को ही हमारे सरकार ले लोग मानते तो देश के भीतर नफरत और घृणा की कहानी सामने नहीं आती। आज नफरत के माहौल पर लोकतंत्र रुदाली ही तो कर रहा है।

पूर्व राष्य्रपति के आर नारायणन ने कहा था कि ''सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक न्याय हमारे करोडो देशवासियों के लिए आज भी एक अधूरा सपना है। हमारे देश में सर्वाधिक तकनिकी कार्मिक हैं तो  निरक्षरों की संख्या भी सबसे अधिक है। हमारे यहां विशाल माध्यम वर्ग हैं लेकिन गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों और कुपोषित बच्चों की संख्या भी सर्वाधिक है। जहां बड़े -बड़े कारखाने हैं वही दरिद्रता और गंदगी भी है इस दुर्दशा को  लेकर लोगों में रोष उग्र हिंसक हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। द्रौपदी के समय से ही हमारे महिलाओं को बदले की भावना से सार्वजानिक चीर -हरण और अपमान का शिकार बनाया।  ग्रामीण क्षेत्रों में दलित महिलाओं के लिए अब भी यह  आम बात है ,परन्तु हैरानी की बात तो यह कि हम अब भी चुप हैं। समाज के कमजोर वर्गों से हमें ऊबना नहीं चाहिए अन्यथा जैसा  आंबेडकर ने कहा था कि हमारे लोकतंत्र की ईमारत गोबर पर बने महल जैसी हो जाएगी।"

यह दिल्ली कभी इंद्रप्रस्थ थी, जहां कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का धर्मयुद्घ लड़ा गया था। यही दिल्ली कभी सूफी-संतों की दुनिया थी, जहां एक से बढ़कर एक सूफी-संत डेरा जमाए रहते थे। यहीं थे बहादुरशाह जफर और स्थापित थी उनकी मुगलिया सल्तनत। इसी दिल्ली में गालिब और मीर की महफिलें सजती थीं और गूंजती थीं गांधी की प्रार्थनाएं ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम!’ इसी दिल्ली में लालकिले की प्राचीर से ‘आधुनिक भारत के जनक’ पंडित जवाहर लाल नेहरू आधुनिक भारत के सपने देखते थे। यहीं के काफी हाउस, मंडी हाउस और जेएनयू से लेकर संसद तक सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर गंभीर बहसें हुआ करती थीं। यह वही दिल्ली है, जहां महिलाओं को मां-बहन के रूप में देखा जाता था और इसी दिल्ली में ‘अंग’ से ‘अंग’ सट जाने पर तलवारें खिंच जाती थीं, लेकिन अब यहां ये सब नहीं होता! लोकतंत्र के सारे स्तम्भ  यह सब देखते जरूर हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं। लोकतंत्र के पतन का इससे उदहारण और क्या दिया जा सकता है।

21वीं सदी में दिल्ली भी बदल गई है। दिल्ली में गर्मी है, तपिश है और खुलापन के साथ लूट, दुष्कर्म, हत्या, दलाली, सेक्स बाजार और झटपट धनी बन जाने की ऐसी होड़ लगी है, मानो हम कुएं में गिरने को आतुर हैं। और इस खेल में लोकतंत्र के पिलरों की बड़ी भूमिका है।  दिल्ली का वर्तमान वह नहीं है, जो उसका अतीत था! अब यहां नए जमाने के ‘रईस’ रहते हैं। उनके पास पैसा है, सत्ता है और पुलिस की फौज है। कहते हैं कि गर्मी से गर्मी कटती है। इस शहर में गर्मी निकालने के कई ‘खेल’ हैं।  और इस खेल में पूरा लोकतंत्र शामिल है। क्या नेता ,क्या न्यायधीश ,क्या ब्यूरोक्रैट और क्या मीडिया से जुड़े लोग। लोकतंत्र के अवसान के साथ ही  लगता है भारत की संस्कृति भी बेहाया और नंगी  हो चली है।

किसी भी शताब्दी का कोई वर्ग इतना बेहया नहीं होगा, जितना हमारा उच्च और मध्यम वर्ग है। यही वह वर्ग है, जो बाजार के निशाने पर है और बाजार के लिए एक कमोडिटी है। अजीब से अर्द्धनग्न कपड़े पहनकर इठलाती औरत में जितना औरताना सौंदर्य या अस्मिता है, उतनी ही मर्दानगी उस पुरुष में भी है, जो सूट, ब्लेजर पहने ब्रीफकेस लेकर चमचमाते जूते पहने, कार में जाता दिखता है। दिल्ली में बैग उठाए व्यस्त सफल दिखता पुरुष अपने बुद्घिबल और बाहुबल के दम पर कुछ नहीं रचता! दरअसल, वह दलाल है, लाइजनर है, उसकी समृद्घि और सफलता उतनी ही व्यक्तित्वहीन, सौंदर्यहीन है जितनी हमारे देश की तकनीकी और वैज्ञानिक तरक्की के किस्से। एक दलाल सभ्यता के ‘लार’ टपकाऊ  विज्ञापनों की दुनिया के आधार पर इतिहास नहीं रचा जाएगा, लेकिन यह शायद हमारी सभ्यता के सबसे प्रामाणिक साक्ष्य हैं। खुशकिस्मती है कि इन्हें साक्ष्य की तरह देखा जाएगा, तब शर्म से डूब मरने के लिए हम नहीं होंगे। और यह सब भी लोकतंत्र के नाम पर ही हो रहा है और इसमें बड़ी भूमिका लोकतंत्र के चार स्तम्भों समेत उन संविधानिक और सरकारी संस्थाओं की भी है जिसला लगातार छरण होता जा रहा है।

भारतीय लोकतंत्र की ढहती संस्थाओं  की कहानी कोई  आज से  शुरू नहीं हुई है। विधायिका  में छरण तो 67 से ही शुरू हो गई थी। 80 के दशक में और भी बलवती  हुई। . नेताओं के चरित्र बदले। राजनीति बदली तो अपराध का राजनीतिकरण शुरू हुआ। बाहुबल के दम पर वोट लुटे जाने लगे। चुनावी हिंसा की एक नयी कहानी दिखने लगी। संसद और विधान सभाओं में एक से बढ़कर एक माफिया ,गिरोहबाज ,अपराधी सदन में पहुँचने लगे। इस खेल में कोई पीछे नहीं रहा। सभी दलों ने इस का लाभ उठाय जो आज भी  जारी है। राजनीति से शुचिता गायब हो गई और राजनीति कलंकित। मामला केवल अपराधियों के चुनाव जीतने तक का ही नहीं रहा। अपराधी मंत्री भी बनने लगे। अपराधियों की भिड़ंत फिर सदन में होने लगी। देश ने इस तरह  का तमाशा कई बार देखा। बेशर्म राजनीति इठलाती रही ,नेता तालियां बजाते रहे और सदन की दीवारे शर्मिंदगी झेलती रही। और फिर लोकतंत्र शर्मसार  होता रहा। सच तो यही है कि भारतीय लोकतंत्र हमेशा लूट का शिकार हुआ है। पहले वोट लूटकर लोकतंत्र को जमींदोज किया जाता था और अब आधुनिक तकनीक, झूठ फरेब और लोभ  के जरिए लोकतंत्र को भरमाया जाता है। यहाँ तक तो कुछ शर्म हया बची भी थी लेकिन अब जो धर्म ,पाखंड और जातीय संग्राम की बानगी देखने को मिलती है वह सब संविधान और लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है।

इस पूरे खेल में मीडिया और पत्रकारों की भूमिका कुछ ज्यादा ही है। लोकतंत्र की रखवाली का अपना दायित्व अगर मीडिया निभाता तो संभव था कि बहुत कुछ बहुत जल्दी यह सब घटित नहीं होता। लेकिन जैसे ही मीडिया ने अपने चरित्र को बदला ,सत्ता सरकार बेलगाम हो गई।

विधायिका के चरित्र बदले तो कार्यपालिका भी निरंकुश हो गई। न्यायपालिका बाजार बन गई। अदालत परिसर में मोलभाव होने लगे। जजों की बोलियां लगने लगी। जज के आसान के नीचे बैठे कर्मचारी हार जीत के मन्त्र बांटने लगे। आखिर इन्हे रोकता कौन ? जिस सदन और लोकतंत्र के प्रहरी के चरित्र बदल गए हों भला वह दूसरों पर उंगुली कैसे उठाये! क्या बायां हाथ दाया हाथ को दोषी ठहरा सकता है? खेल रोचक होने लगा।

पहले न्याय के मंदिर में इक्का -दुक्का मामले उपहास के होते थे लेकिन अब तो सरकार के दबाब ने निर्णय ही बदलने लगे। सरकार के फेवर में सुनवाई होने लगी और फैसला भी। जो सरकार के साथ खड़े हुए उन्हें पुरस्कृत किया जाने लगा। अदालत की सारी सीमाएं लांघ दी गई। जिन्हे जेल में होना चाहिए वे जनता के लिए कानून बनाने लगे और जो जनता की आवाज बन सकते थे उन्हें  राजनीतिक प्रतिद्वंदिता की  वजह से  सलाखों में  डाला जाने लगा। आज यही तो हो रहा है। अंधेर नगरी चौपट राजा वाली कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है। 

2014 के बाद की कहानी तो और भी शर्मसार करती नजर आती है।अगर संवैधानिक संस्थाओं की कार्यक्षमता की ऑडिटिंग या समीक्षा की जाए तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि अधिकतर संवैधानिक संस्थाएं, धीरे धीरे या तो अपने उद्देश्य से विचलित हो रही हैं या उनकी स्वायत्तता पर ग्रहण लग रहा है या उन्हें सरकार या यूं कहें प्रधानमंत्री के परोक्ष नियंत्रण में खींच कर लाने की कोशिश की जा रही है। संविधान का चेक और बैलेंस तंत्र जो विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के बीच एक महीन सन्तुलन बनाये रखता है, को भी विचलित करने की कोशिश की जा रही है। हम  उन संस्थाओं की बात नहीं कर रहे हैं जो कार्यपालिका के सीधे नियंत्रण में थोड़ी बहुत फंक्शनल स्वायत्तता के साथ, गठित की गयी हैं, बल्कि उन संस्थाओं की बात कर कर रहे हैं जो सीधे तौर पर संविधान में अलग और विशिष्ट दर्जा प्राप्त हैं और जिनके अफसरों की नियुक्ति में सरकार यानी कार्यपालिका का दखल भी सीमित है। यानी सरकार उनकी नियुक्ति तो कर सकती है, पर बिना एक जटिल प्रक्रिया के उन्हें हटा नहीँ सकती है। उदाहरण के लिये, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, कम्पट्रोलर और ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया, चीफ इन्फॉर्मेशन कमिश्नर जैसे कुछ अन्य संस्थाएं हैं। आज ये सारी संस्थाए अपनी गरिमा से भटकती नजर आ रही है। मामला केवल इन संविधानिक संस्थाओं तक का ही नहीं है ,देश की  सरकारी संस्थाए जैसे सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स सीवीसी, यूनिवर्सिटी सबके सब सरकार के इशारे पर चलते नजर आते हैं।

सरकार जो चाहती है ये संस्थाए वही करती है और इस सबके पीछे बीएस एक ही मतलब होता है कैसे अपने विरोधियों को पस्त किया जाए और कैसे अपने वोट बैंक को दुरुस्त किया जाए। लोकतंत्र का यह खेल काफी मनोरंजक है।  सवाल करे ,जो सरकार से पूछे और जो सरकार के कामकाज पर जनता को जगाये वह सरकार के लिए देशद्रोही बनता है। पिछले कुछ सालों की घटनाओ पर ही नजर डाले तो कारोब सौ से ज्यादा पत्रकार, नेता, समाजकर्मी और प्रवुद्ध वर्ग देशद्रोह के शिकार होकर जेल में बंद है। लोकतंत्र का यह खेल लुभाता भी है और भरमाता भी है। 

संविधानिक संस्थाओं में इधर सबसे ज्यादा किसी संस्थान पर दाग लगे हैं तो वह है चुनाव आयोग। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चुनाव आयोग मौजूदा सरकार की कठपुतली बन चुका है। आज यदि देखा जाय तो चुनाव आयोग पर इतने दाग लग चुके हैं जिसे साफ करने में लंबा वक्त गुजर जायेगा। कभी यही आयोग बेदाग था, मगर आज जिधर देखो उधर केवल दाग ही दाग नजर आते हैं। चुनाव के हर चरण में बड़े पैमाने पर में ईवीएम घोटाला, ईवीएम में खराबी, चुनाव आयोग की मनमानी और सरकार के दबाव में काम करने का आरोप चुनाव आयोग पर लगते रहे। लेकिन, कुल मिलाकर चुनाव आयोग मस्तमौला बैरागी की तरह बगैर किसी रुकावट के चलता रहा। उसे कोई शर्म नहीं। उसे अपने अतीत का कोई  नहीं। उसे तीन शेषन भी याद नहीं और न हीं उसे शेषन पर शायद अब गर्व ही है। सरकार जो कहती है मौजूदा चुनाव आयोग वही करता है। चुनाव आयोग सरकार के इशारे पर दौड़ता है और सिर्फ मकसद यही होता है कि कैसे सरकार के लोगों की जीत संभव हो सके और कैसे विपक्ष को कमजोर किया जा सके। 
 चुनाव आयोग लोकतांत्रिक रास्तों से हटकर अनैतिकता और असंवैधानिक रास्तों पर चल पड पड़ा है। इसको सही रास्ते पर लाना अब इतना आसान नहीं है।

सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि देश का मतदाता भी अब यह  यकीन करने लगा है कि यह आयोग सत्ताधारी दल को मदद पहुँचा रहा है।इंदिरा गाँधी के समय भी आयोग पर इस तरह के आरोप लगते थे लेकिन तब  कुछ नियंत्रण में था। अहम बात तो यह है कि आयोग का काम  निष्पक्ष चुनाव कराना है और नागरिको को वोट डालने के लिए प्रेरित भी करना है। उसकी नजर में सत्ता पक्ष और विपक्ष में कोई अंतर नहीं। कोई भी नेता अगर आयोग के नियमो का उल्लंघन करता है तो उस पर कार्रवाई जरुरी है चाहे वह देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। लेकिन 2014 से लेकर आजतक देश में  जितने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में पीएम मोदी और उनके लोग भाषण देते रहे और विपक्ष पर कई स्तरहीन हमले किये, उस पर आयोग ने आजतक कोई संज्ञान नहीं लिया। उन्हें हमेशा क्लीनचिट दे दी गई। आयोग का यह रवैया आम जनता को भरमा रहा है। आयोग के प्रति जनता का विश्वास ख़त्म हो  गया है। और डर तो यह है कि जनता का विश्वास ऐसे ही ख़त्म होता चला गया तो आयोग को कौन कहे इस लोकतंत्र के प्रति भी जनता  ख़त्म हो जाएगा और फिर क्या होगा उसकी कल्पना ही  की जा सकती है।

गौरतलब है कि भारतीय लोकतंत्र को मजबूत रखने और उसे दीर्घजीवी बनाने के लिए मूलतः दो स्तम्भ की भूमिका काफी अहम है। लोकतंत्र को जीवंत  रखने के लिए सबसे जरुरी है राजनीतिक दलों की पारदर्शिता और उसके भीतर का लोकतंत्र। दूसरा अहम स्तम्भ है संविधानिक संस्थाए जैसे विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। लेकिन राजनीतिक दलों की अंदरुनी स्थिति क्या है कौन नहीं जानता। कुछ वाम दलों को छोड़ दें तो लगभग अधिकतर पार्टियां पारिवारिक जेब पार्टियां हैं या फिर कुछ दलों में वन मैन शो की कहानी चरितार्थ होती दिखती है। मायावती जो चाहें, बहुजन समाज पार्टी वही फैसला करेगी। यही स्थिति लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान, करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू, बालठाकरे वगैरह के दलों की है। क्या इन दलों में कोई अंदुरुनी लोकतंत्र है? कदापि नहीं। इन दलों  की हालत यही है कि जो निर्णय पार्टी सुप्रीमो का होता है  पार्टी के लोग भी उस निर्णय को स्वीकार करते हैं। लेकिन खेल देखिये इन दलों की स्थिति अपने -आपने इलाके में काफी मजबूत है। इनके वोट बैंक है। ये चुनाव जीते या हारे इनके अपने मत प्रतिशत है और जातियों के झुंड भी। जब झुंड में बिखराव होते हैं तो पार्टी चुनाव हारती है और जब झुंड एक जुट होकर सामने वाले को चुनौती देता है तो परिणाम कुछ और ही होते हैं।  

इन पार्टियों में चुनाव न  बराबर होते हैं। इन पार्टियों में किसी राष्ट्रीय मुद्दों पर चिंतन और बहस नहीं होते। इन पार्टियों में चुनाव के जरिये संगठन तैयार नहीं होते। जब इन पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है तब भला इन पार्टियों के लोग संसद और विधान सभाओं में पहुंचकर किस लोकतंत्र की बात करेंगे? कौन सी लोकतान्त्रिक संस्कृति के ये वाहक होंगे? जबतक इन पार्टियों के भीतर लोकतंत्र नहीं होगा तब तक लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। इनके नेता लोकतान्त्रिक नहीं हो सकते। आज राजनीतिक दलों में प्रतिभा, काम, सेवा, समर्पण की पूंजी से कार्यकर्ता आगे नहीं बढ़ते. पैसा, अपराध, चाटुकारिता से आगे बढ़ते हैं। क्योंकि इन पारिवारिक दलों में बड़े नेताओं की दादागीरी-तानाशाही है।  इस कारण ऐसे दलों में चमचागीरी,जी हजूरी और अहंकार की संस्कृति ही विकसित होती है। इस संस्कृति-पृष्ठभूमि से विधायिका में पहुंचे लोग सिर्फ लड़-झगड़ सकते हैं। अपना अहंकार-शारीरिक ताकत ही दिखा सकते हैं, अपनी सत्ता का धौंस बता सकते हैं, अपनी ताकत से दूसरों को चुप कराने की धमकी दे सकते हैं कि ' हम राजा हैं, राजा के लिए कोई कानून-नियम नहीं होता।
           
कांग्रेस और बीजेपी के भीतर भी कोई लोकतंत्र नहीं है। कहने के लिए वहाँ सांगठनिक  चुनाव जरूर होते हैं लेकिन अंतिम फैसला तो बॉस ही करते हैं। जो पार्टी के शीर्ष पर बैठा होता है उसके फैसले अंतिम होते हैं चाहे पार्टी के भीतर कलह ही क्यों हो। कांग्रेस संस्कृति जैसा ही भाजपा में भी भाजपा आलाकमान संगठन में अपनी मरजी के अनुसार नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाता है। लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत कार्यकर्ताओं के चयन से संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर नेता बैठाये जायें, तो लोकतांत्रिक परंपरा विकसित होगी। इसलिए भारतीय लोकतंत्र में ' दलों के अंदर लोकतंत्र' कायम हो, इसकी पहल सबसे जरूरी है। लेकिन अब तक तो ऐसा नहीं हुआ। 

खेल देखिये। आज मौजूदा सरकार विपक्ष को तबाह करने के लिए तमाम जांच एजेंसियों का सहारा लेती है। सरकार के इस खेल को जनता भी जानती है लेकिन यह भी उतरना ही सच है कि जब यही विपक्ष सत्ता में था  तो मौजूदा सत्ता पक्ष को तबाह करने में कोई कमी नहीं करती थी और वह भी इन्ही जांच एजेंसियों के जरिये अपना खेल करता था। इस पुरे खेल में देश की एजेंसियां कठपुतली की भाँती नाचती हैं और वह अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। 

धर्मवीर आयोग ने '80 के आसपास अपनी रिपोर्ट में पुलिस व्यवस्था के संचालन में आमूलचूल परिवर्तन का प्रस्ताव दिया था. पर किसी दल ने उसे नहीं माना। राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतीकरण पर लगाम लगाने के लिए अदालतें कई तरह की सिफारिशें की ,चुनाव आयोग ने कई कानून बनाये ,जनप्रतिनिधि कानून लाये गए लेकिन आखिर हुआ क्या? इस देश में जीतने तरह के कानून बने हैं शायद ही किसी और देश में इतने कानून बने हों .लेकिन जितने कानून हैं उतनी तरह की समस्याएं भी खड़ी  हो गई है। 

मौजूदा प्रधानमंत्री बार -बार यह कहते रहे हैं कि राजनीति को साफ़ होनी चाहिए और अपराधी -आरोपी को राजनीति और चुनाव से दूर रखने की जरूरत  है। लेकिन बीजेपी से ही सबसे ज्यादा आरोपी दागी चुनाव जीतकर सदन तक पहुंचे हैं। राहुल गाँधी भी राजनीति में अपराध की जगह को गलत मानते हैं लेकिन उनकी पार्टी भी अपराधियों को टिकट देने से बाज कहा आती। बाकी के सभी दल भी इसी रस्ते पर चल रहे हैं। ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि राजनीति गुंडों का खेल है। और जब राजनीति गुंडों, लम्पटों, आरोपियों और गाड़ियों के सहारे होती रहेगी तो लोकतंत्र का चेहरा तो बदलेगा ही। और आज अगर लोकतंत्र की संस्थाए अपना चरित्र बदल रही हैं तो फिर है तौबा मचाने की बात बेईमानी है। आजादी के 75 साल में ही देश की संस्थाए राजनीति का शिकार हो चुकी है ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि मौजूदा वक्त भारत की स्वतंत्रता का भले ही अमृतकाल हो लेकिन इसके साथ ही  यह संविधानिक संस्थाओं के पतन का भी अमृतकाल है।

(व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

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