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नोटबंदी 2.O: प्रहसन बन गया है काला धन व भ्रष्टाचार ख़त्म करने का दावा

नोटबंदी 1.O की त्रासदी अब नोटबंदी 2.O में एक क्रूर मज़ाक में बदल गई है। इस पूरी घटना और प्रक्रिया का विश्लेषण करता मुकेश असीम का यह आलेख
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फ़ोटो साभार: PTI

मार्क्स ने कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है। मगर पहली बार जहाँ यह त्रासदी के रूप में घटित होता है तो दूसरी बार प्रहसन बन जाता है। 2,000 रुपये के नोटों का चलन बंद करने, किंतु उनके ‘लीगल टेंडर’ बने रहने वाली मोदी सरकार की नोटबंदी 2.O भी ऐसा ही एक इतिहास दोहराता प्रहसन है, हालांकि अपनी सरकार के हर छोटे-बड़े कार्य व घोषणा के श्रेय का एकाधिकार रखने वाले नरेंद्र मोदी ने इस बार इसका ऐलान स्वयं न कर रिजर्व बैंक से कराया। जाहिर है कि उन्हें खुद भी इसके प्रभाव में कुछ हद तक संदेह था और इसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया होने पर जिम्मेदारी से बचने का रास्ता खुला रखा गया था।

2016 की नोटबंदी 1.O में पाँच सौ व एक हजार रुपये की जगह लाया गया 2,000 का नोट आखिर 19 मई को वापस लेकर रिजर्व बैंक ने नाटक के इस दूसरे अंक के जरिए नोटबंदी की इस पूरी प्रक्रिया का पटाक्षेप कर दिया है। हालांकि मौजूदा सत्ता के मिजाज मुताबिक सरकार व रिजर्व बैंक इसे मानेंगे नहीं, पर यह एक प्रकार से 2016 के उस निर्णय की गलती को स्वीकारना ही है जब एक ओर कहा गया था कि बड़े नोट कालेधन के प्रसार के लिए जिम्मेदार होने की वजह से बंद किए जा रहे हैं लेकिन साथ में उनसे भी बड़ा नोट जारी कर दिया गया था। अब बताया जा रहा है कि 2,000 रुपये का नोट अस्थाई उपाय था। पर यह कोई नहीं बताएगा कि कि एक मनमाने अस्थाई उपाय के तौर पर 7 करोड़ से अधिक नोट मुद्रित करने पर कितना अपव्यय हुआ और उसकी जिम्मेदारी किसकी है।

2016 की नोटबंदी की तकलीफों के यातनादायक अनुभवों से गुजर चुकी जनता व आर्थिक विश्लेषकों में इस फैसले पर जो तीव्र नकारात्मक प्रतिक्रिया सामने आई है, अब उसकी वजह से पिछली बार की तरह इसके नए-नए फायदे ढूँढे व गिनाए जाने आरंभ हो गए हैं। एक लाभ यह गिनाया जा रहा है कि इससे बैंकों में नकदी जमा होने से चलन में नकदी घट जाएगी, बैंकों की लिक्विडिटी या नकदी तरलता बढ़ जाएगी। इससे बैंक एमएसएमई सेक्टर को ज्यादा ऋण देंगे और इन उद्योगों का विकास होगा। पर इसका जवाब तो नोटबंदी के पहले चरण में ही मिल गया था। नतीजा निकला कि अर्थव्यवस्था में नकदी का चलन घटने के बजाय और बढ़ गया क्योंकि परेशान लोगों ने अपने पास और अधिक कैश रखना जरूरी समझा। दूसरे, 2000 का नया नोट कैश में किए जाने वाले अवैध धंधों के लिए और भी सुविधाजनक सिद्ध हुआ और कुछ समय बाद ही इसकी इतनी अधिक जमाखोरी हुई कि बाजार में इसका अभाव हो गया। इसके बाद सार्वजनिक तौर पर गलती न स्वीकारते हुए भी सरकार और रिजर्व बैंक को इसे मुद्रित व जारी करना रोकना पड़ा। फिर भी अभी 3.61 करोड़ नोट सर्कुलेशन में बताए जा रहे हैं जो जनता के पास मौजूद कैश का 10.8% हैं।

असल में इस सरकार और इसके ‘विशेषज्ञों’ को लगता रहा है कि अर्थव्यवस्था और उसमें मुद्रा संचरण किन्हीं वस्तुगत नियमों से नहीं, उनकी मर्जी से नियंत्रित होता है। इतिहास में कई शासकों ने ऐसी बाजीगरी वाली अर्थनीति अपनाने की कोशिशें की हैं, मगर उनका परिणाम वही हुआ है जो नोटबंदी का हुआ। इसने न कैश का चलन कम किया, न तथाकथित काले धन को समाप्त किया, न टैक्स-जीडीपी अनुपात बढ़ाया। इसने सिर्फ उत्पादक अर्थव्यवस्था को बाधित कर इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी का विस्फोट किया जिससे देश आज तक नहीं उबर पाया।

अब हम इस फैसले के मुख्य कारण पर आते हैं। हालांकि नोटबंदी के दौरान आम जनता को बड़ी तकलीफ हुई थी, किंतु उसके बाद के चुनाव परिणामों से बहुत से विश्लेषकों की राय बनी हुई है कि अपनी तकलीफों को जनता ने मोदी सरकार के इस तर्क पर नजर अंदाज कर दिया कि इससे बेईमान, जमाखोर, काला धन रखने वाले अमीरों को उनसे भी ज्यादा तकलीफ हुई। इसके लिए तथाकथित काले धन वालों द्वारा अपने नोट जलाए जाने या फेंक दिए जाने का बड़े पैमाने पर प्रचार किया गया। वैसे तथ्य यह है कि कुछ अक्षम अनजान लापरवाह असहाय व्यक्तियों को ही इससे नुकसान हुआ क्योंकि वे अपने नोट समय पर नहीं बदल पाए। अन्यथा लगभग सभी नोट रिजर्व बैंक में वापस आ गए अर्थात सरकार की बात मानें कि बड़े पैमाने पर अर्थव्यवस्था में काला धन था, तो वे सभी काले धन मालिक नोटबंदी से लाभान्वित हुए क्योंकि उनका काला या अवैध कैश वैध सफेद धन में बदल गया।

किंतु जैसा हमने कहा सघन प्रचार के बल पर जनता के एक हिस्से में नोटबंदी को भ्रष्टाचार व काला धन विरोधी अभियान होने के नाम पर समर्थन हासिल हुआ था। आज की परिस्थिति में जब हिमाचल प्रदेश व कर्नाटक चुनाव के बाद मोदी-शाह के चुनावी रण में अजेय होने के दावे का खोखलापन सभी के सामने आ गया है और विभिन्न वजहों से जनता में बीजेपी के प्रभाव के बारे में शक खड़े हो गए हैं, लगता है कि 2016 के उस दांव को एक बार फिर से जल्दी में दोहराने का प्रयास किया गया है।

यह भी सच है कि इस बार पहले से नोट बदलने व जमा करने की तकलीफ को दोहराने से बचने की कोशिश की गई थी। पहली बार से लगभग एक चौथाई ही संख्या में नोटों को बदलने/जमा करने के लिए इस बार ढाई गुना समय दिया गया, 4 की बजाय एक बार में 10 नोट बदलने की अनुमति दी गई, और बार-बार इस बात पर जोर दिया गया कि नोट रद्द नहीं हुए हैं और लीगल टेंडर बने रहेंगे। अर्थात कोशिश थी कि काले धन व भ्रष्टाचार विरोधी होने का तमगा तो फिर से हासिल किया जाए मगर जनता को अत्यधिक असुविधा न दोहराई जाए।

लेकिन पिछले अनुभव से भयभीत लोगों ने लीगल टेंडर वाली बात पर भरोसा करने से इंकार कर दिया। रातों-रात घबराहट का माहौल बन गया और अगले दिन से ही बाजार में किसी भी लेन देन हेतु इस नोट को लेना बंद कर दिया गया। साथ ही जिनके पास ये नोट थे उन्होंने तुरंत इन्हें सोने आदि में बदलने की कोशिश करनी आरंभ कर दी। नतीजा यह हुआ कि कुछ घंटे में ही एक तो सोने के भाव चढ़ गए, दूसरे सोने के दो भाव हो गए। अगर भुगतान 2,000 के नोट के बजाय किसी और तरह से किया जा रहा हो तो सोने का भाव अगर 62,000 रुपये प्रति 10 ग्राम था तो 2,000 के नोट में भुगतान के लिए विभिन्न शहरों-मंडियों में 66 से 72 हजार रुपये तक दाम होने की बातें फैलने लगीं। इससे एक बड़ा ब्लैक मार्केट तैयार हो गया। और सरकार का काले धन व भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का दावा एक दिन में ही टांय टांय फिस्स हो गया।

दूसरी ओर, बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया में सवाल उठने शुरू हो गए। खास तौर पर इस लीगल टेंडर वाली बात पर जोरों की प्रतिक्रिया हुई और कहा जाने लगा कि अगर नोट लीगल टेंडर रहेगा तो 30 सितबर की डेडलाइन का क्या मतलब है? यह भी कहा गया कि जैसे क्लीन नोट पॉलिसी के तहत बैंक दूसरे पुराने नोटों को चलन से नियमित तौर पर निकाल नए नोट जारी करते हैं वैसा करने के बजाय इसे बड़ा ऐलान बना घबराहट फैलाने की क्या जरूरत है जबकि रिजर्व बैंक ने खुद ही बताया है कि इनका मुद्रण मार्च 2017 से बंद है और इनकी तादाद पहले ही 7 करोड़ से अधिक से घटकर मात्र 3.61 करोड़ रह गई है। यह भी पूछा जाने लगा कि जब आम लोगों के पास यह नोट हैं ही नहीं और एटीएम से मिलते भी नहीं हैं तो ये कौन हैं जिनके पास यह नोट इकट्ठा हैं।

पहले ही सचेत सरकार इस बार नोट वापसी पर पब्लिक प्रतिक्रिया से तुरंत सावधान हो गई। पहले ही नोट बदलने के लिए फॉर्म का प्रारूप और पहचान पत्र की जरूरत की बात सार्वजनिक डोमेन में थी। बताया जाने लगा कि 3.61 करोड़ नोटों को 10-10 कर बदलने में कितना अतिरिक्त काम और असुविधा होगी। यह सवाल भी पूछा ही जा रहा था कि जब नोट पर लिखा है कि ‘मैं धारक को वचन देता हूं’ तो पहचान पत्र मांगने का अर्थ ही धारक को रुपया चुकाने से इंकार करना है। इस पर सचेत हुई सरकार के निर्देश पर रिजर्व बैंक व एसबीआई ने सुर बदलकर शनिवार को ही 20 हजार तक के नोट एक्सचेंज करने के लिए स्लिप भरवाने और आइडेंटिटी प्रूफ मांगने वाला सर्कुलर रद्द कर दिया। इस बार ऐसे ही जाकर बिना स्लिप भरे नोट बदले जा सकेंगे। बैंक ने शाखाओं को पब्लिक के साथ सहयोग करने और असुविधा न होने देने का भी निर्देश दिया है! रिजर्व बैंक ने भी सोमवार को बैंकों को निर्देश दिया है कि वे नोट बदलने वालों के लिए छाया, ठंडे पेय जल,बैठने, आदि की व्यवस्था करें ताकि उन्हें गर्मी में कष्ट न हो!

इसकी मुख्य वजह यह है कि सभी को साफ हो गया है कि ये नोट आम जनता के पास नहीं एक विशेष तबके के पास ही इकट्ठा हैं जो अधिकांशतया बीजेपी समर्थक माना जाता है। कर्नाटक चुनावों के बाद की जिस परिस्थिति में यह निर्णय लिया गया है उस मौके पर सरकार अपने इन समर्थक कारोबारियों को नाराज करने के मूड में नहीं है। अतः अपने मिजाज मुताबिक यह सरकार अपने मूल फैसले को तो वापस नहीं ले सकती किंतु अब बिना किसी पहचान पत्र, बिना किसी सवाल, बिना बाद में किसी टैक्स झंझट के जोखिम के ही नोट वापस लिए जाएंगे और इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाएगा नोट किसने वापस किए। इससे इस पर बना ब्लैक मार्केट खत्म हो जाएगा। हालांकि एक बार में 10 नोट ही बदलने का निर्णय कायम है लेकिन कह दिया गया है कि एक दिन में कितनी भी बार नोट बदल सकते हैं। व्यवहार में देखें तो बिना रिकार्ड के इस बात पर कोई नियंत्रण ही नहीं है कि एक बार में कितने नोट बदले गए। निष्कर्ष यह कि बैंक में पहुँच रखने वाले कारोबारी एक बार में ही अपने सारे दो हजार के नोट बिना रिकार्ड के बदल सकेंगे। उनके लिए यह प्रक्रिया पूरी तरह सुविधाजनक व जोखिमहीन बना दी गई है।

इसके दो दिन पहले ही क्रेडिट कार्ड पर विदेशी लेन देन में 20% टैक्स पर भी अपने समर्थकों के हल्ले के बाद सरकार ऐसे ही पीछे हट गई थी, और 7 लाख रुपये तक की ट्रांजेक्शन को छूट दे दी थी। दोनों मामलों में अवैध (तथाकथित काला) धन समाप्त करने व टैक्स दायरे में लाने की बात अब चुपचाप छोड दी गई है। यह वक्त उनके अपने समर्थक वर्ग को असुविधा पहुंचाने का नहीं है। इससे मोदी सरकार के भ्रष्टाचार व काला धन विरोधी होने के सारे दावों की पोल खुल जाती है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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