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क्या गांधी ने सावरकर से दया याचिका दायर करने को कहा था?

विशिष्ट हिंदू राष्ट्र की धारणा को विकसित करने वाले सावरकर ने अंडमान से अंग्रेज़ों को दया याचिकायें लिखी थीं और ऐसा करने के लिए उन्हें किसी और ने नहीं कहा था बल्कि यह उनके ख़ुद का निजी फ़ैसला था।
Savarkar and gandhi

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रतीक पुरुष के रूप में हिंदू राष्ट्रवादियों को बढ़ावा देने को लेकर इस समय बहुत प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। 2 अक्टूबर को ट्विट करने वाले  दक्षिणपंथियों के हुजूम ने गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को लेकर एक बड़ा ट्विटर तूफान खड़ा कर दिया था। अब नाथूराम के गुरु विनायक दामोदर सावरकर की बारी है। जब वह छोटे थे तब सावरकर ब्रिटिश अफ़सरों के ख़िलाफ़ हथियारों का इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित करते थे। हालांकि, विनायक का दूसरा अवतार तब हुआ जब अंग्रेज़ों ने उन्हें अंडमान भेज दिया। यहां होने वाली क़ैद को काला पानी की सज़ा के तौर पर जाना जाता था। काला पानी शब्द दिखाता है कि यहां क़ैदी किस असाधारण प्रतिकूल परिस्थितियों में रहते रहे होंगे। सावरकर ने यहां नृजातीय और विशिष्ट हिंदुत्व विचारधारा वाले हिंदू राष्ट्र की अपनी धारणाओं को विकसित किया। यहीं से उन्होंने अंग्रेज़ों से रिहाई के सिलसिले में कम से कम छह दया याचिकायें भेजी थीं। उन्होंने इन याचिकाओं को 1911 से लिखना शुरू किया था और दया याचिका लिखने का यह सिलसिला उनके रिहा होने तक जारी रहा।

अब तक सावरकर को मानने वाले उनकी तरफ़ से लिखी गयी दया याचिका से इनकार करते रहे हैं। हालांकि, तारीफ़ में लिखी गयी उनकी बहुत सारी आत्मकथाओं ने उनकी छवि को एक क्रांतिकारी और हिंदुत्व विचारक के रूप में उभारा है लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ों को जो चिट्ठियां लिखी थीं,वह आम लोगों के पढ़ने के लिए उपलब्ध रही हैं। हालांकि, पिछले हफ़्ते इस पूरे प्रकरण ने तब एक अजीब-ओ-ग़रीब मोड़ ले लिया, जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि सावरकर ने अंग्रेज़ों को ये दया याचिकायें लिखी थीं, लेकिन उन्होंने इसके लिए चिट्ठी लिखने वाले सावरकर को नहीं, बल्कि गांधी को ज़िम्मेदार ठहरा दिया था।

सावरकर की एक और जीवनी वाली किताब के विमोचन के समय इस भाजपा नेता के दुष्प्रचार कौशल का यह उदाहरण सामने आया था। (यह किताब उदय माहूरकर और चिरायु पंडित ने लिखी है, और इस किताब का शीर्षक है- "वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रीवेंटेड पार्टिशन, यानी वीर सावरकर: वह व्यक्ति,जो बंटवारे को रोक सकते थे")। सिंह ने इस कार्यक्रम में कहा कि "सावरकर के बारे में झूठ फ़ैलाया गया...बार-बार कहा गया कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के सामने दया याचिका दायर की थी। लेकिन, सच्चाई यह है कि उन्होंने अपनी रिहाई के लिए दया याचिका दायर नहीं की थी। एक कैदी को दया याचिका दायर करने का अधिकार है। यह महात्मा गांधी ही थे, जिन्होंने उनसे दया याचिका दायर करने के लिए कहा था। उन्होंने गांधी की सलाह के बाद ही दया याचिका दायर की थी। महात्मा गांधी ने सावरकर जी को रिहा करने की अपील की थी। राजनाथ सिंह ने चेतावनी भी दी कि उनके राष्ट्रीय योगदान को नीचा दिखाने की कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा।

अब सवाल है कि एक क्रान्तिकारी का उस व्यक्ति के साथ मेल-जोल कैसा, जो बार-बार अंग्रेज़ों से माफ़ी मांगता फिरता रहा हो? ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर सच्चाई है क्या? दरअस्ल, 13 मार्च 1910 को सावरकर को गिरफ़्तार कर लिया गया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने एएमटी जैक्सन नामक नासिक के ज़िला कलेक्टर को मारने के लिए पिस्तौल की आपूर्ति की थी। और इसमें शक कहां है कि कोई क़ैदी चाहे, तो दया याचिका लिखने के लिए आज़ाद है। क़ैदी ख़ास तौर पर स्वास्थ्य या परिवार से जुड़ी चिंताओं के आधार पर क्षमादान की मांग करते हैं। ऐसे में सिंह का कहना है कि सावरकर ने एक निश्चित प्रारूप पर ही अंग्रेज़ों के सामने अपनी याचिका दायर की थी। लेकिन, यह सच इसलिए नहीं है क्योंकि सावरकर की लिखी गयी तमाम याचिकायें अलग-अलग हैं और उन्होंने इस आधार पर दया की गुहार लगायी थी कि जिस समय उन्होंने ऐसे कृत्य किये थे, उस समय वह एक दिशाहीन और भटके हुए नौजवान थे, जिससे उन्हें वह क़ैद मिली थी। सावरकर ने यह भी स्वीकार किया था कि उनकी सज़ा न्यायोचित है, लेकिन उन्होंने कहा था कि उन्हें वैसे भी रिहा इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि उन्हें अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया है। इन  बातों के अलावा उन्होंने ब्रिटिश सरकार को यह भी जताया था कि सरकार उनसे जिस तरह की सेवा की उम्मीद रखती है, वह सब करने के लिए तैयार हैं।

यह तो घोर निन्दा से भी बढ़कर है, यहां तक कि क्षमा याचना से भी बदतर। सावरकर ने  इस सिलसिले में जितनी भी चिट्ठियां लिखी, उनमें से ज़्यादातर चिट्ठियों के स्वर और भाव इसी तरह के हैं जो इस बात का उदाहरण है कि जेल से सुरक्षित रिहाई को लेकर कोई अपने घुटने किस हद तक टेक सकता है। कई लेखकों ने इन चिट्ठियों को बड़े पैमाने पर ज़िक़्र किया है इसलिए यह कोई ख़बर जैसी चीज़ भी नहीं है।

अब आइये, इस दावे पर विचार कर लेते हैं कि गांधी ने सावरकर को ये याचिकायें भेजने को लेकर ज़ोर दिया था। जिस समय सावरकर ने अपनी दया याचिकायें लिखनी शुरू की थीं उस समय तो गांधी दक्षिण अफ़्रीका में थे और गांधी 1915 में में जाकर भारत लौटे थे। जब उन्हें जनवरी 1920 में सावरकर के भाई डॉ नारायण सावरकर से वह चिट्ठी मिली थी, जिसमें उन्होंने अपने भाई की रिहाई को सुनिश्चित करने को लेकर गांधी से मदद मांगी थी, उस समय गांधी धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में लेने के लिए आगे बढ़ रहे थे।

गांधी ने उसके जवाब में 25 जनवरी 1920 को चिट्ठी लिखी थी। इस चिट्ठी का पहला वाक्य  ही ऐसा है, जो नारायण को उम्मीद नहीं बंधाती। यह पत्र जिस वाक्य से शुरू होता है, वह है, “आपको सलाह दे पाना मुश्किल है...।" गांधी ने नारायण को सलाह दी थी कि "इस मामले के तथ्यों के साथ स्पष्ट रूप से राहत देने वाली एक ऐसी याचिका तैयार कीजिए कि आपके भाई ने जो कुछ अपराध किया है, वह पूरी तरह से राजनीतिक था।" उन्होंने यह भी लिखा था कि वह "मामले को अपने तरीक़े से आगे बढ़ा रहे हैं।"  गांधी का यह जवाब कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी के खंड 19 में है। गांधी अपनी चिट्ठी में दिये गये सुझाव की वजह बताते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि"... इस मामले पर जनता का ध्यान केंद्रित कर पाना संभव हो सकेगा।" अगर दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो गांधी यह नहीं कहते हैं कि सावरकर को ख़ुद जेल से एक याचिका लिखनी चाहिए और इसमें तो कोई शक ही नहीं कि उस चिट्ठी में अंग्रेज़ों को लिखने का कोई ज़िक़्र भी है।

दुर्गादास आडवाणी की क़ैद जैसे एक अलग सिलसिले में गांधी ने लिखा है: “...मुट्ठी भर सत्याग्रहियों को जेल को अपना दूसरा घर मानने के लिए तैयार रहना चाहिए।” उन्होंने यह भी लिखा, "मुझे आशा है कि दुर्गादास के मित्र उन्हें या उनकी पत्नी को दया के लिए याचिना की सलाह नहीं देंगे और न ही पत्नी के दुख को उसके साथ जोड़कर उसे आगे बढ़ायेंगे। इसके उलट, यह हमारा कर्तव्य है कि हम उन्हें अपने दिल को मज़बूत करने के लिए कहें और उनसे कहें कि उन्हें तो इस बात की ख़ुशी होनी चाहिए कि उसका पति अपनी ख़ुद की ग़लती के लिए जेल में नहीं है। दुर्गादास को लेकर हमारी जो सबसे सच्ची सेवा हो सकती है, वह यही कि हम श्रीमती दुर्गादास को आर्थिक या ऐसी ही किसी और तरह से मदद पहुंचायें, जिनकी उन्हें ज़रूरत हो सकती है...”

गांधी ने एक लेख भी लिखा था (उनके संग्रहित लेखन के खंड 20 में उपलब्ध, पृष्ठ संख्या: 369-371), जिसमें कहा गया था कि सावरकर को रिहा कर दिया जाना चाहिए और अहिंसक राजनीतिक भागीदारी की अनुमति दी जानी चाहिए। हालांकि, उन्होंने आगे चलकर भगत सिंह के लिए भी इसी तरह की अपील की थी। राष्ट्रीय आंदोलन के सिलसिले में सबको साथ लेकर चलने वाला उनका यह दृष्टिकोण उन्हें इस तरह की कोशिश के लिए प्रेरित करता था। लेकिन, अब हिंदुत्व ब्रिगेड इस झूठ को गढ़ रही है कि गांधी ने सावरकर को अपने इस तरह के गिरे हुए माफ़ीनामे लिखने की सलाह दी थी। इतिहास की विडंबना यही है कि गांधी ने उसी सावरकर की रिहाई के समर्थन में लिखा था, जिस पर बाद में गांधी की हत्या का आरोप लगाया गया था। सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को लिखा था कि हिंदू महासभा की एक कट्टर शाखा ने सीधे सावरकर की अगुवाई में (गांधी को मारने की) साज़िश रची थी...” बाद में जीवनलाल कपूर आयोग भी इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचा था।

यह ठीक है कि सावरकर ने बाद में दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए काम करने की कोशिश की, गाय को एक पवित्र पशु भी नहीं माना, लेकिन उनके जीवन का केंद्र बिंदु अंग्रेज़ों की हर तरह से मदद पहुंचाना ही रहा। उन्होंने उस भारतीय राष्ट्रवाद के उलट हिंदू राष्ट्रवाद की नींव को ही गहरा किया, जिसने देश की आजादी के लिए संघर्ष किया था। 1942 में जब गांधी ने भारत छोड़ो का आह्वान किया, तो सावरकर ने हिंदू महासभा के लोगों को अंग्रेज़ों के प्रति अपने फ़र्ज़ निभाते रहने का निर्देश दिया था। सावरकर ने अंग्रेज़ों को अपनी सेना में भर्ती करने में भी मदद पहुंचायी थी।

हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर का महिमामंडन करना तो चाहते हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उन्हें उसी गांधी की छवि के नीचे छुपने की जगह तलाशनी होगी, जिनकी हत्या में हिंदुत्व के उभरते हुए यह प्रतीक पुरुष शामिल था। राजनाथ सिंह का यह बयान इस बात की मिसाल है कि कैसे दक्षिणपंथी अपने राजनीतिक मक़सदों को पूरा करने के लिए झूठ का खुलेआम इस्तेमाल करते हैं।

लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और टिप्पणीकार हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Did Gandhi tell Savarkar to File Mercy Petitions?

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