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उत्तर बंगाल के राजबंशियों पर खेली गई गंदी राजनीति

भाजपा और टीएमसी दोनों ही राजबंशी के उच्च मध्यम वर्ग के एक तबके की भावनाओं को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो अक्सर राजनीतिक नेताओं द्वारा निभाए गए झांसों में विश्वास करते हैं। 
North Bengal

पश्चिम बंगाल में उत्तरी हिस्से में राजबंशी लोगों और कामतापुरी भाषा के समर्थकों के बीच अलगाव को भुनाकर एक विभाजनकारी और खतरनाक राजनीति की जा रही है। इस भाषा-आधारित आंदोलन और राजनीति के जटिल इतिहास को समझने के लिए इसके जटिल इतिहास की जांच-परख करनी होगी। 

बंगाल (पश्चिमी और पूर्वी दोनों) के उत्तरी भाग और असम के पश्चिमी भाग के विशाल क्षेत्रों के मूल निवासी देशी मानुष (स्वदेशी लोग) के रूप में जाने जाते थे। उनकी बोली को देशी भाषा (स्वदेशी भाषा) के नाम से भी जाना जाता था।

इन लोगों के सामाजिक-मानवशास्त्रीय विवरणों का पता लगाने के लिए ब्रिटिश प्रशासकों, शोधकर्ताओं और मानवविज्ञानियों ने विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण किए थे। इनके अनुसंधान और सर्वेक्षण कार्यों से नतीजों के रूप में विभिन्न प्रकार के विचार सामने आए हैं। कुछ में कहा गया कि ये लोग मंगोलॉयड थे, दूसरे में कहा गया कि वे द्रविड़ थे, और फिर भी कुछ अन्य शोधों में निष्कर्ष निकाला गया कि वे आर्य-द्रविड़ियन-मंगोलॉयड रक्त के मिश्रित नस्ल के लोग थे। लेकिन उन सभी की राय है कि लोगों के इस समूह ने, कई अन्य लोगों की तरह, संस्कृतिकरण के माध्यम से 'कोच' नाम प्राप्त किया; फिर, हिंदूकरण के माध्यम से, यानी आगे हुए संस्कृतिकरण के चलते, उन्हें राजबंशी के रूप में जाना जाने लगा था। 

इन उल्लेखनीय प्रशासक-शोधकर्ताओं में बुकानन हैमिल्टन (1812), बीएच हॉजसन (1849), ईटी डाल्टन (1872), एच. बेवर्ली (1872), एचबी राउनी (1872), डब्ल्यूडब्ल्यूहंटर (1876), एचएफजेटी मेगेयर (1890), ओ. डोनेल (1891), एचएस रिस्ले (1891), ईए गैट (1901), जी ए ग्रियर्सन (1904), और ओ मैले (1911) शामिल हैं। इस सूची में इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया (1908) का नाम भी जोड़ा जा सकता है। उनसे एक सुराग लेकर आचार्य सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय ने भी इस तरह के अध्ययन में योगदान दिया था। 

इन सभी अध्ययनों ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राजबंशी और कोच एक ही जाति हैं। वास्तव में, रंगपुर में क्षत्रिय आंदोलन बाद में उपर्युक्त विशाल क्षेत्र में फैल गया था और इस विवाद में इसकी उत्पत्ति हुई।

जटिल इतिहास 

रंगपुर क्षत्रिय जाति उन्नति बिधायानी सभा' ने 1891 की जनगणना की पूर्व संध्या पर इस आदेश के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया कि लोगों के इस समूह की जाति को 'कोच' के रूप में दर्ज किया जाएगा। आदेश के खिलाफ मांग थी कि देशी लोग कोच से अलग थे, दोनों अलग-अलग जाति के थे, और लोगों के इस समूह को 'ब्रात्य क्षत्रिय' के रूप में वापस किया जाना चाहिए। 

रंगपुर धर्म सभा के अध्यक्ष पंडित जादवेश्वर तारकरत्न ने वास्तविक स्थिति के बारे में एक राय के लिए जिला मजिस्ट्रेट, रंगपुर द्वारा अनुरोध किए जाने पर कहा कि लोगों का यह समूह ब्रात्य क्षत्रिय था और वे कोच से अलग थे। 17 फरवरी, 1891 को जिलाधिकारी ने इस आशय का आदेश जारी किया, लेकिन इसे लागू नहीं किया गया। 1901 और 1911 की जनगणना में भी इस आदेश का पालन नहीं किया गया था। माथाभंगा के पंचानन बर्मा, जो रंगपुर दरबार में कानून का अभ्यास करते थे और रंगपुर साहित्य पत्रिका के संपादक थे, इस परिदृश्य में उभर कर आए और 1910 में क्षत्रिय आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए रंगपुर क्षत्रिय समिति का गठन किया गया। इस आंदोलन ने पूरे क्षेत्र में हलचल मचा दी, और अधिकारियों को उनके साथ समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा। बहुत विचार-विमर्श और परामर्श के बाद, यह सहमति बनी कि इस समूह के लोगों की जाति को राजबंशी के रूप में दर्ज किया जाएगा। 

उनकी बोली जाने वाली भाषा पर भी यही सिद्धांत लागू किया गया था। देशी लोगों की भाषा देसी थी, और राजबंशी लोगों की वही भाषा राजबंशी के नाम से जानी जाने लगी। बोली जाने वाली भाषा के लिए 'राजबंशी' नाम स्वीकार करने के औचित्य को भारतीय भाषा सर्वेक्षण की जीए ग्रियर्सन की रिपोर्ट के प्रकाशन से बल मिला। ग्रियर्सन को ब्रिटिश सरकार द्वारा देश के विभिन्न भाषा समूहों पर सर्वेक्षण करने की जिम्मेदारी दी गई थी। सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय के अनुसार, उन्होंने देश की 179 भाषाओं और 544 बोलियों पर सर्वेक्षण किया और सम्मानपूर्वक टिप्पणी की, "ये आंकड़े वास्तव में किसी एक देश या राज्य के लिए एक राष्ट्र होने का दावा करने वाले चौंका देने वाले हैं।" सर्वेक्षण की रिपोर्ट 19 खंडों में प्रस्तुत की गई थी, जिनमें से कुछ के एक से अधिक खंड थे। इसीलिए भारत की किसी भी भाषा के भाषा विज्ञान पर कोई भी व्यावहारिक चर्चा भारतीय भाषा सर्वेक्षण से शुरू होती है। 

लेकिन 'राजबंशी' पर सर्वेक्षण रिपोर्ट की सामग्री क्या है? जैसा कि ग्रियर्सन द्वारा रिपोर्ट किया गया है, सर्वेक्षण ने प्रतिबिंबित किया है कि, "यह निम्नलिखित जिलों में बोली जाती है-रंगपुर, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग जिले के तराई क्षेत्र, कूच बिहार के मूल राज्य, असम में गोलपारा के हिस्से के साथ, पहले ही उल्लेख किया गया है। तो इस प्रकार हम पाते हैं कि राजबंशी बोली जिन लोगों द्वारा बोली जाती है: इनका कुल योगफल है-35,09,171।" 

इसलिए, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि क्षेत्रीय सर्वेक्षण से ही उनकी बोली जाने वाली भाषा का नाम राजबंशी के रूप में सामने आया है। ग्रियर्सन ने उस भाषा के नाम को स्वीकार किया और रिपोर्ट किया जिसमें क्षेत्र का सर्वेक्षण परिलक्षित होता है और उन्होंने बिना किसी औचित्य के बाहर से नाम नहीं थोपा है। क्षेत्र सर्वेक्षण से उभरे नाम को भाषाविदों, मानवविज्ञानी, समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों द्वारा स्वीकार किया गया था, इस प्रकार, सभी क्षेत्रों के विद्वानों, और सबसे ऊपर, आम राजबंशी और उनके बीच के बुद्धिजीवियों के बीच विमर्श के बाद ही ऐसा किया गया था। 1990 के दशक में ही कूचबिहार जिले के तूफानगंज के एक हाई स्कूल के शिक्षक धर्मनारायण बर्मा ने भाषा के नाम के बारे में असहमति की आवाज उठाई। 

1992 में, धर्मनारायण बर्मा ने 'ए स्टेप ऑफ कामता बिहारी लैंग्वेज' नामक एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने राजबंशी की बोली जाने वाली भाषा, राजबंशी के स्थान पर 'कामतापुरी' नाम का सुझाव दिया। उनके अनुसार, ऊपर वर्णित क्षेत्र कामतापुर के रूप में जाना जाता था और इसकी भाषा कामतापुरी के  नाम से। उनका तर्क था कि यह क्षेत्र सन् 1250 से पहले कामरूप के नाम से जाना जाता था। राजा पृथु ने 1250 में अपनी राजधानी कामतापुर ले लाए थे। तभी से यह राजधानी कामतापुर साम्राज्य के नाम से जानी जाने लगी। 2011/1418 बीएस में, उन्होंने 'रायदक' पत्रिका में लिखा: "यह कामरूप 1255 के बाद कामतापुर के रूप में जाना जाने लगा। अविभाजित असम और अविभाजित उत्तर बंगाल को महाराज नारायणनारायण के शासन काल में कामतापुर के नाम से जाना जाता था। 

हालाँकि, बर्मा के सिद्धांत ऐतिहासिक रूप से असत्य हैं। पृथु कामरूप के राजा थे और 1228 में नसीरुद्दीन मामूद के साथ युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए थे। फिर उनके द्वारा 1250 में राजधानी स्थानांतरित करने का सवाल ही कैसे पैदा हो सकता है? कोच-राजबंशी वंश के सबसे प्रसिद्ध राजा बिस्वा सिंह के पुत्र महाराजा नारनारायण का राज्य कोच बिहार/कूच बिहार था, न कि कामतापुर। और नरनारायण-चिला रे के शासन में कूचबिहार का यह इतिहास व्यापक रूप से जाना जाता है। 

धर्मनारायण के शिष्य धीरेन दास एक और इतिहास का उल्लेख करते हैं-गोसानीमारी का इतिहास। वे कहते हैं, "पंद्रहवीं शताब्दी में कामरूप राज्य का एक शहर था, जिसका नाम कामतापुर था, जो धारला नदी के पश्चिमी तट पर धन से भरा शहर था। गोसानीमारी में यह इलाका आज भी चकाचौंध है। यह एक विशाल किला है और यह कामरूप की राजधानी थी।" दुर्भाग्य से, यह भी ऐतिहासिक तथ्यों द्वारा समर्थित नहीं है। 

स्वाभाविक रूप से, यह प्रश्न उठता है कि बर्मा, जो इतिहासकार नहीं थे, उन्होंने और उनके अनुयायियों ने क्षेत्र के इतिहास को तोड़-मरोड़ कर ऐसा बेतुका दावा क्यों किया? इस तरह के दावे का कारण जानने के लिए हमें 1990 के दशक में क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विकास का विश्लेषण करना होगा। 

कोलकाता-उत्तर बंगाल विभाजन

पश्चिम बंगाल के साथ कूचबिहार राज्य के विलय के दिनों से, कोलकाता स्थित प्रशासन द्वारा उत्तर बंगाल के लोगों के प्रति लापरवाही, शोषण और उदासीनता की शिकायतें आती रही हैं। इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र का सभी तरह से विकास नहीं हुआ-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जिसके कारण उनके साथ घोर अन्याय हुआ। एक व्यापक भावना इस प्रभाव से बढ़ी कि उत्तर बंगाल के लोग इस तरह के अन्याय और अभाव के शिकार हो गए हैं। ऐसी भावनाओं से कुछ राजबंशी बुद्धिजीवियों का रोष और पीड़ा बढ़ी जिन्होंने 1969 में उत्तराखंड आंदोलन नामक एक सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक आंदोलन की शुरुआत की। हालांकि, समर्थन की कमी के कारण आंदोलन गहरी जड़ें नहीं जमा सका। इस आंदोलन के बाद उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय में स्थित उत्तरबंगा तपशील जाति ओ आदिवासी छात्र संगठन (यूटीजेएएस) द्वारा आंदोलन किया गया था। 

हालांकि यह छात्र संगठन भी अपनी मांगों के समर्थन में ज्यादा समर्थन नहीं जुटा सका। फिर इस आंदोलन को कुछ अन्य लोगों को स्थानांतरित कर दिया गया, जिन्होंने उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय के एक लिपिक कर्मचारी अतुल रे के नेतृत्व में 1995 में कामतापुर पीपुल्स पार्टी के बैनर तले कामतापुर आंदोलन चलाया। कोलकाता स्थित प्रशासन द्वारा उत्तरी बंगाल के लोगों, विशेष रूप से राजवंशियों पर थोपा गया अभाव और अन्याय, इस आंदोलन का प्रमुख विषय बना था। इसलिए, उनकी प्राथमिक मांग उत्तर बंगाल के लिए एक अलग राज्य की थी।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, धर्मनारायण बर्मा ने अपनी पुस्तक में विकृत इतिहास की मदद से कामतापुर और कामतापुरी भाषा के अस्तित्व की मांग को सामने रखा था। कामतापुर पीपुल्स पार्टी ने इस पुस्तक का पूरा-पूरा लाभ उठाया और व्यापक प्रचार और राजनीतिक सभाओं, विरोध प्रदर्शनों, जुलूसों के जरिए आम तौर पर राजबंशियों का समर्थन हासिल करने की कोशिश की कि क्षेत्र की भाषा कामतापुरी के रूप में जानी जाती है, और कामतापुरी पूरी तरह से एक अलग भाषा है और यह बंगाली का एक अन्य रूप या प्रकार नहीं है। जलपाईगुड़ी जिले में धूपगुड़ी और मोयनागुरी और दार्जिलिंग जिले में नक्सलबाड़ी और फांसिदेव उनकी गतिविधियों के तब मुख्य क्षेत्र बन गए थे। 

इस प्रकार, कामतापुर समर्थक अपने आंदोलन को भाषाई आंदोलन के रूप में रंगना चाहते थे। असम उस समय आसू (AASU), आमसू (AMSU) और बोडो आंदोलनों से उभरा था और उन से प्रभावित होकर, कामतापुर पीपुल्स पार्टी ने कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (KLO) नाम से अपनी इसी तरह की चरमपंथी शाखा बनाई थी। समय के साथ तीस्ता, कलजानी और तोरसा में इतना पानी बह चुका था और कामतापुर आंदोलन कमजोर और कमजोर होता गया। इसके प्रमुख नेता तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में शामिल हो गए, और अन्य ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होना पसंद किया। 

बर्मा, गिरिंद्रनारायण राय, नरेन दास, बजले रहमान, धीरेन दास के नेतृत्व में कामतापुरी भाषा के सिद्धांतकार अब हर तरह से राजबंशी के स्थान पर कामतापुरी नाम के लिए हर तरह से तर्क-वितर्क कर रहे हैं। फिर से, उन्होंने 'कामतापुरी भाषा साहित्य परिषद' की एक पुस्तिका के हालिया प्रकाशन में अपने तर्क व्यक्त किए हैं। बरमा के मत का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।बज़ले रहमान और धीरेन दास ने अपने गुरु धर्मनारायण के साथ एक ही धुन में अपने तर्क दिए। 

उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय के अंग्रेजी के प्रोफेसर गिरिंद्रनारायण का तर्क है-"इन सबके बीच 'राजबंशी भाषा अकादमी' का गठन 2012 में राजनीति के एक कदम के रूप में किया गया था"; "भाषा के नाम के रूप में कामतापुरी का प्रस्ताव 2017 में राजनीति के एक और चरण में फिर से सामने आया और कामतापुरी अकादमी का गठन किया गया।" उनके तर्क ने राजबंशी से कामतापुरी भाषा का नाम बदलने के इरादे को पर्याप्त उजागर कर दिया है। नरेन दास, जो UTJAS आंदोलन के प्रमुख नेता थे और अब कामतापुरी के समर्थक हैं, उन्होंने तर्क दिया: "राजबंशी शब्द कामतापुरी की तुलना में बिल्कुल नया है। यह शब्द कालिका पुराण में, भ्रामरीतंत्र के दूसरे भाग में, विष्णु पुराण के चौथे भाग में, कामतेश्वरी कुलकारिका में है। यह शब्द हैमिल्टन बुकानन और जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के लेखन में भी पाया जा सकता है।" तो, उनके मत से, ग्रियर्सन के क्षेत्र सर्वेक्षण से परिलक्षित 'राजबंशी' शब्द काफी पुराना है, और कम से कम 100 साल या उससे भी ज्यादा समय से बोली जाने वाली भाषा के नाम के रूप में उपयोग किया जा रहा है। इसके बावजूद दास के लिए यह नाम नया है और वह भाषा को 'कामतापुरी' नाम देने पर तुले हैं। इन सभी का निष्कर्ष है कि प्रस्ताव में इतिहास और भाषा विज्ञान की तुलना में राजनीति से संबंधित अधिक अर्थ हैं। 

भाजपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों ही राजबंशी उच्च मध्यम वर्ग के एक ऐसे वर्ग की भावनाओं को भुनाने की कोशिश कर रही हैं, जो अक्सर राजनीतिक नेताओं द्वारा किए गए झांसों में विश्वास करते हैं और निजी स्वार्थ के लिए उनके हाथों में खेले जाने का स्वभाव रखते हैं। राजनेताओं ने इमोशनल ब्लैकमेल कर राजबंशियों को झांसा दिया है। इसका यहां एक उदाहरण दिया गया है। भाजपा नेता दावा करते रहे हैं कि भारत सरकार जल्द ही कामतापुरी भाषा को मान्यता देने जा रही है। कामतापुरी के समर्थकों ने इस पर विश्वास कर लिया और इस संबंध में राजवंशी लोगों को समझाने की कोशिश की। नरेन दास ने वकालत की है कि 2003 में प्रसिद्ध भाषाविद् सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में केंद्र सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण के बाद मान्यता के लिए 38 भाषाओं की सिफारिश की है और इसमें 'कामतापुरी' नाम सूची में क्रम संख्या 16 पर दिखाई देता है। धीरेन दास ने उद्धृत किया है: "समिति ने 2004 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। यह रिपोर्ट केंद्र सरकार के संबंधित विभागों/मंत्रालयों के परामर्श के लिए विचाराधीन है-जिसमें संविधान की आठवीं अनुसूची में 38 भाषाओं को शामिल करने की मांग की गई है। ये भाषाएं हैं (1) अंगिका, (2) बंजारा……(16) कामतापुरी……(38) तुलु।" 

उल्लेखनीय है कि समिति ने उन भाषाओं के नामों को वर्णानुक्रम में सूचीबद्ध किया है जिनके लिए आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की गई है और इस सूची में कामतापुरी का क्रमांक 16 है। समिति द्वारा की गई सिफारिश का कोई प्रश्न ही नहीं है। पत्रांक दिनांक 31/82015 में वास्तविक स्थिति स्पष्ट कर दी गई है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजुजू ने एस.एस.अहलूवालिया, दार्जिलिंग के सांसद को लिखा कि डॉ.सीताकांत महापात्र समिति का गठन 'आठवीं अनुसूची में और भाषाओं को शामिल करने के संदर्भ में उद्देश्य मानदंड का एक सेट विकसित करने के लिए' किया गया था। वास्तव में, महापात्र समिति द्वारा अनुशंसित मानदंडों पर विचार करने के लिए एक अंतर-मंत्रालयी समिति का गठन किया गया है और उन्होंने अभी तक मानदंडों को अंतिम रूप नहीं दिया है। इसलिए सिफारिश का सवाल एक बड़ा झांसा है। 

राजबंशी-कामतापुरी विभाजन की टीएमसी की राजनीति 

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कामतापुरी समर्थकों के विश्वास को भुनाकर राजबंशियों के बीच एक तीखा विभाजन पैदा करने के लिए और भी गंदा एवं खतरनाक खेल खेला है। कामतापुर पीपुल्स पार्टी ने उनकी शिकायतों के समाधान के रूप में एक अलग राज्य की मांग करते हुए राज्य प्रशासन के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। पार्टी ने अपने अनुचित दावों के कारण धीरे-धीरे जमीन खो दी और 2016 के विधानसभा चुनाव के दौरान सत्ताधारी पार्टी के साथ हाथ मिला लिया। 

ममता बनर्जी ने 25 अप्रैल 2017 को कूचबिहार रसमेला मैदान में आयोजित केपीपी की बैठक में भाग लिया और बैठक की भावना को बढ़ाने के लिए घोषणा की कि राजबंशी और कामतापुरी दोनों भाषाओं को मान्यता दी जाएगी। इस प्रकार, उन्होंने इस भाषा के विभाजन के लिए कदम उठाया, और कामतापुरीवालों ने इसका विरोध नहीं किया। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी, और इसने बनर्जी को 2018 में राजबंशी और कामतापुरी दोनों को आधिकारिक भाषाओं की सूची में शामिल करने के अपने कदम के साथ राजबंशी के बीच विभाजन को बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित किया। 

कामतापुरी के अनुयायी अब तक यही मानते रहे हैं कि राजबंशी की बोली जाने वाली भाषा को कामतापुरी के नाम से जाना जाता है, न कि राजबंशी के नाम से। भाषा एक ही है, लेकिन बनर्जी ने एक कदम आगे बढ़कर घोषणा की कि राजबंशी और कामतापुरी दो भाषाएं हैं। वास्तव में, राजभाषा पर उनकी कार्रवाई के दो पहलू हैं-(i) ममता ने अधिनियम के संवैधानिक प्रावधान का पालन नहीं किया है, और (ii) उन्होंने तथ्यात्मक स्थिति को विकृत कर दिया है। राजभाषा से संबंधित संवैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 345 में हैं,जो अनुच्छेद 346 और 347 के अधीन हैं। अनुच्छेद 347 एक राज्य की आबादी के एक वर्ग द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं से संबंधित विशेष प्रावधान है; उनकी ओर से की जाने वाली मांग पर, यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाते हैं कि राज्य की जनसंख्या का पर्याप्त अनुपात उनके द्वारा बोली जाने वाली किसी भी भाषा का उपयोग उस राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त करने के लिए करना चाहता है, तो यह निर्देश दे सकता है कि ऐसी भाषा भी आधिकारिक तौर पर उस राज्य या उसके किसी भी हिस्से में ऐसे उद्देश्य के लिए मान्यता प्राप्त है जैसा वह निर्दिष्ट कर सकता है।

वे यहीं नहीं रुकी रहीं। कामतापुरी को राजभाषा बनाते हुए, उसने घोषणा की है कि राजबंशी और कामतापुरी दो अलग-अलग भाषाएँ हैं, जिसका अर्थ यह है कि राजबंशी और कामतापुरी बोलने वाले दो अलग-अलग लोग हैं। यह उत्तर बंगाल के राजवंशियों को विभाजित करने वाला पहला कदम है। उनका अगला कदम इन लोगों को उनकी रीढ़ की हड्डी पर प्रहार करना है-इस समुदाय की आने वाली पीढ़ियों को खत्म करने के लिए। उन्होंने उत्तर बंगाल के कुछ सौ प्राथमिक विद्यालयों में राजबंशी और कामतापुरी दोनों को शुरू करने की योजना बनाई है। राजबंशी पहले से ही हर मामले में पिछड़े हुए हैं। आज देश में प्रचलित राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में अंग्रेजी या हिंदी माध्यम में शिक्षा न होने पर अच्छे अवसरों की उम्मीद नहीं की जा सकती है। यहां तक कि एक अच्छे बंगाली माध्यम के स्कूल या कॉलेज में शिक्षा प्रतियोगिता के लिए छात्रों को तैयार करने में भी कसर रह जाती है। फिर बंगाली के एक संस्करण राजबंशी में पढ़ने वालों का भविष्य क्या होगा, जो संथाली जैसी अलग भाषा नहीं है? प्राथमिक स्तर के बाद वे किस पाठ्यक्रम/शिक्षा के लिए उपक्रम चलाएंगे/क्या उन्हें अध्ययन के लिए कठिन समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा? उनसे अच्छे स्कूलों में प्रवेश पाने की उम्मीद कैसे की जाती है? ऐसे सभी प्रश्नों के उचित एवं संतोषजनक उत्तर नहीं मिल रहे हैं। 

कामतापुरी नेता अतुल रे का जून, 2021 में निधन हो गया। कामतापुरी भाषा के प्रधान सिद्धांतकार धर्मनारायण बर्मा भाजपा सरकार से 'पद्मश्री' पुरस्कार पाकर खुश हैं। अन्य शायद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की घोषणा को जानकर रोमांचित हो गए हैं। लेकिन हम आशंकित हैं कि राजबंशी के इस वर्ग का भविष्य बस बर्बाद ही होने वाला है और ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल के राजनेताओं ने अपने हित के लिए इसकी सफलतापूर्वक योजना बनाई है। क्या उत्तर बंगाल के राजवंशियों को उनका आभारी होना चाहिए?

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

The Dirty Politics Played on Rajbanshis of North Bengal

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