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ग्लेशियर टूटने से तो आपदा आई, बांध के चलते मारे गए लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन!

प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और खिलवाड़ के नतीजे के तौर पर इस तरह की दुर्घटनाओं और त्रासदियों की मार लोगों को झेलनी पड़ती है। इसकी चपेट में अक्सर वे लोग आते हैं, जो इस खिलवाड़ और दोहन के लिए जिम्मेदार नहीं होते हैं।
टनल में फंसे लोगों को बचाने के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन जारी। फोटो साभार : ITBP
टनल में फंसे लोगों को बचाने के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन जारी। फोटो साभार : ITBP

“आपदा बड़ी है, नदी में शव मिलते जा रहे हैं, नदी का पानी ऐसा लग रहा है जैसे उसमें सीमेंट-गारा घोल दिया है”, यह कहते हुए चमोली के पीपलकोटी में रहने वाले नरेंद्र प्रसाद पोखरियाल कहते हैं कि प्राकृतिक आपदा तो आती ही है लेकिन बांध तो विनाश लेकर आते हैं। 

ऋषिगंगा और तपोवन पावर प्रोजेक्ट के पास राहत-बचाव कार्य जारी है। ज़िला आपदा प्रबंधन अधिकारी नंदकिशोर जोशी ने बताया कि दोनों पावर प्रोजेक्ट पर अब तक 10 लोगों के शव बरामद किए जा चुके हैं। 25 लोगों को सुरक्षित निकाला गया है। जबकि 153 लोग लापता हैं।

मलबे से भरी तपोवन की बड़ी टनल में 30 से अधिक लोगों के दबने की आशंका। फोटो साभार : Indian army

153 लोग हैं लापता, रेस्क्यू ऑपरेशन जारी

राज्य के डीजीपी अशोक कुमार रेस्क्यू ऑपरेशन की अगुवाई कर रहे हैं। उनसे मिली जानकारी के मुताबिक 10 लोगों के शव बरामद किए गए हैं। इनमें से तीन तपोवन टनल से और बाकी उसके नीचे डाउन स्ट्रीम से बरामद किये गए हैं। डीजीपी के मुताबिक कुल 153 लोग लापता हैं। इनमें रेणी गांव में ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट से 32 लोग लापता हैं। तपोवन पावर प्रोजेक्ट से 121 लोग लापता हैं। तपोवन में दो टनल हैं। छोटी टनल से 12 लोगों को रेस्क्यू किया गया। करीब 2.5 किमी. लंबी बड़ी टनल में 25-30 लोग हो सकते हैं। जो 153 के आंकड़े में शामिल हैं। ये टनल पूरी तरह मलबे से भरी हुई है। जिसे 70-80 मीटर तक खोल दिया गया है। जेसीबी से मलबा निकाला जा रहा है। आज दिनभर में इस टनल को खोलने का प्रयास जारी है। डीजीपी के मुताबिक नदी के निचले हिस्सों में कहीं से भी शव मिलने की सूचना नहीं है।

एसडीआरएफ, एनडीआरएफ, वायुसेना के अत्याधुनिक विमान रेस्कूय ऑपरेशन में तैनात हैं। हादसे के दिन रविवार को मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत भी मौके पर गए। उन्होंने हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों के लिए 4 लाख रुपये मुआवज़े की घोषणा की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 2-2 लाख रुपये की आर्थिक मदद की घोषणा की है। आज केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक भी घटनास्थल पर

चमोली की ज़िलाधिकारी स्वाति भदौरिया ने बताया कि हादसे के बाद पुल टूटने से 13 गांव अलग-थलग पड़ गए हैं। उनके लिए बचाव कार्य शुरू कर दिया गया है और राहत सामग्री पहुंचाई जा रही है। मेडिकल टीमें भी पहुंच गई हैं। जो लोग अलग-अलग पहाड़ों पर फंसे हुए हैं उनके लिए भी बचाव कार्य चल रहा है।

विष्णुगाड-पीपलकोटी पावर प्रोजेक्ट के विरोध में धरने पर बैठे ग्रामीण

‘इन बांधों ने हमारा जीना दूभर कर दिया’

उधर, रविवार की इस घटना से दहशत में आए ग्रामीणों ने चमोली तहसील में विष्णुगाड-पीपलकोटी पावर प्रोजेक्ट के विरोध में धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया है। धरने में शामिल चमोली के हाट गांव के बुजुर्ग तरुण प्रसाद जोशी बताते हैं “कल ग्लेशियर फटने से जो हुआ है हम उससे बहुत भयभीत हो गए हैं। इन लोगों ने हमारे घर, गोशाला, मकान भारी ब्लास्टों के ज़रिये बर्बाद कर दिया है। टीएचडीसी के पास हमारे टूटे मकानों की तस्वीरें हैं। ये न हमें रात को चैन से सोने देते हैं, न दिन में खाने देते हैं। हम इनसे विस्थापन की मांग कर रहे हैं। आप हमें जानबूझ कर मत मारिए। देखो, आपदा के सामने कोई नहीं टिक सकता है। बरसात भी आने वाली है। हम लोगों का जीना दूभर हो रहा है। मेरे गांव में 12 परिवार हैं। हमारे ठीक बगल में हरसारी तोक में भी यही मुश्किल है।”

जलवायु परिवर्तन को कब गंभीरता से लेंगे हम

देहरादून में वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के डॉ. मनीष मेहता बताते हैं कि नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व में ऋषिगंगा कैचमेंट क्षेत्र में हिमस्खलन के चलते ये घटना हुई। इस पूरे क्षेत्र में 25 से अधिक ग्लेशियर हैं जो 1 से लेकर 14 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। यहीं पर हिम स्खलन के चलते ग्लेशियर टूटा। अनुमान है कि इस ग्लेशियर पर झील रही होगी। इसलिए नदी में पानी का प्रवाह बढ़ गया। सिर्फ ग्लेशियर होता तो नदी में बर्फ़ की चट्टाने नज़र आतीं।

वाडिया संस्थान के ही डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव बताते हैं कि बर्फ़बारी के बाद गर्मी बढ़ने से हिमस्खलन होते हैं। सर्दियां खत्म होने और गर्मियां शुरू होने का समय हिमस्खलन यानी एवलांच का समय माना जाता है। इस बार जनवरी का महीना पिछले 6 दशकों में बेहद गर्म रहा। दिन का तापमान असामान्य तौर पर बेहद अधिक रहा।

ये पूरा क्षेत्र हिमस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील है। ग्लेशियर टूटने की ये घटना एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट को दर्शाती है। इससे पहले 2013 और 1970 में हम ये देख चुके हैं।

हिम स्खलन होना, नदियों में बाढ़ आना प्राकृतिक है लेकिन इतने संवेदनशील क्षेत्रों में बांधों का बनाया जाना सवाल खड़े करता है।

उच्च हिमालयी क्षेत्र में बांधों पर सवाल

वर्ष 2013 की आपदा के बाद उच्च हिमालयी क्षेत्र में प्रस्तावित 24 जलविद्युत परियोजनाओं का काम रोक दिया गया था। राज्य सरकार इन परियोजनाओं को शुरू कराने के लिए लगातार पूरा ज़ोर लगा रही है। वर्ष 2020, मार्च में इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा भी खटखटाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से इसके पर्यावरणीय असर को लेकर रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। ये सुनवाई अलकनंदा-भागीरथी नदी घाटी पर प्रस्तावित हाइड्रो पावर परियोजना को लेकर हुई थी। जिस पर सुप्रीमकोर्ट ने भी टिप्पणी की थी -“ सरकार इन पावर प्रोजेक्ट्स को इको सेंसेटिव ज़ोन से बाहर दूसरे क्षेत्रों में शिफ्ट करने पर विचार कर सकती है, ताकि लोगों की ज़िंदगियां खतरे में न आएं।”

2013 की आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनी एक्सपर्ट कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि समुद्र तल से 2000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर बसे क्षेत्रों में बांध नहीं बनाए जाने चाहिए। क्योंकि वे प्री-ग्लेशियल ज़ोन हैं। जहां कभी ग्लेशियर हुआ करते थे। तापमान बढ़ने के साथ ग्लेशियर सिकुड़ गए लेकिन उनका मलबा अब भी वहां है।

इस कमेटी के सदस्य रहे रवि चोपड़ा चारधाम परियोजना से जुड़ी हाई पावर्ड कमेटी के सदस्य भी हैं। उन्होंने उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अपेक्षाकृत चौड़ी सड़कें बनाने का विरोध किया था। सुप्रीम कोर्ट में इससे जुड़ी रिपोर्ट भी दाखिल की थी।

रवि चोपड़ा बताते हैं कि 2013 में बनी एक्सपर्ट बॉडी ने कहा था कि धौलीगंगा में प्रस्तावित 6 बांध न बनाए जाएं। “एक रिवरमैन और रोडमैन होने के नाते मैं कह सकता हूं कि नदियां हमसे कहीं अधिक शक्तिशाली हैं”।

टनल के पास मलबा हटाते उत्तराखंड एसडीआरएफ के जवान

विरोध और सवाल

सीपीआई-एमएल ने चमोली में ग्लेशियर टूटने के चलते हुई दुर्घटना को लेकर शोक जताया है। बयान जारी कर सीपीआई-एमएल के गढ़वाल सचिव इंद्रेश मैखुरी और राज्य कमेटी के सदस्य अतुल सती ने कहा है कि इस घटना की चपेट में आ कर लापता हुए लोगों को ढूँढने के प्रयास किए जाने चाहिए। घायलों के इलाज का पूरा खर्च राज्य सरकार वहन करे और मृतकों को मुआवजा दिया जाएगा।

ऋषिगंगा परियोजना जिस क्षेत्र में स्थित है, वह चिपको आंदोलन के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध गौरा देवी का गाँव-रैणी है। एक जमाने में जिस क्षेत्र में जंगलों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपक गए, बीते कुछ सालों से न केवल इस गाँव के आसपास बल्कि पूरे जोशीमठ क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ हुई और विस्फोट भी किए गए।

पार्टी ने इस क्षेत्र में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया है। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और खिलवाड़ के नतीजे के तौर पर इस तरह की दुर्घटनाओं और त्रासदियों की मार लोगों को झेलनी पड़ती है। उसकी चपेट में अक्सर वे लोग आते हैं, जो इस खिलवाड़ और दोहन के लिए जिम्मेदार नहीं होते हैं।

2013 की आपदा के बाद इस विनाशकारी विकास के मॉडल के बारे में विचार किया जाना चाहिए था। लेकिन सबक सीखने के बजाय प्रकृति का दोहन और तेज करने के लिए उतावलापन है। सीपीआई-एमएल ने प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के मुनाफाखोर विकास के मॉडल पर तत्काल रोक लगाने की मांग की है।

सीपीआई नेता समर भंडारी कहते हैं कि इस तरह की आपदाएं जिस तेज़ी से बढ़ रही हैं ये बेहद गंभीर है। इसे हम सिर्फ प्राकृतिक आपदा के तौर पर नहीं देख सकते। ये घटना बेहद संवेदनशील हिमालयी बेल्ट में विकास के मॉडल पर सवाल के तौर पर है। हिमालयी क्षेत्र की भौगोलिक विशिष्टता के हिसाब से विकास का मॉडल होना चाहिए। पहाड़ी क्षेत्रों के विकास का मॉडल मैदानी क्षेत्र के विकास मॉडल जैसा नहीं हो सकता। जिस तरह पहाड़ों में सड़कें चौड़ी करने के लिए लाखों पेड़ काटे जा रहे हैं, ब्लास्ट किये जा रहे हैं, नदी में मलबा डाला जा रहा है। इससे पहाड़ी क्षेत्र अस्थिर हो रहे हैं। ये सारी चीजें मिलकर पूरे इलाके में बड़ा संकट पैदा कर रही हैं।

समर भंडारी कहते हैं कि इन मामलों में राजनैतिक नेतृत्व बड़ा असंवेदनशील है। कोई भी सरकार रही है, विकास के नाम पर ऐसे ही आत्मघाती रवैया अपनाते रहे हैं। चमोली की घटना इसी का नतीजा है।

वहीं माटू जन संगठन के विमल भाई ने मांग की है कि इस तरह के मामलों में नीति निर्धारकों, राजनेताओं, अफसरशाहों और ठेकेदारों की ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए।

नदी के पानी के साथ सीमेंट-गारा का मलबा

एक बार फिर प्रकृति का संदेश पढ़ें 

हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक संघर्ष कर रहे भरत झुनझुनवाला निराशा से कहते हैं कि इस तरह की घटनाओं से सरकार या जनता की सोच पर कोई असर नहीं पड़ता। वर्ष 2013 की आपदा का कोई असर नहीं पड़ा। केदारनाथ आपदा को दो साल में भूल गए तो इस आपदा को तो दो महीने में भूल जाएंगे।

चमोली की ये घटना बताती है कि संवेदनशील क्षेत्रों में बांध बनाने की ये लाइन गलत है। हमें बांध और उससे जुड़ी आपदा की जगह पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर बात करनी चाहिए। ये अजीब सी परिस्थिति है कि स्थानीय लोगों को भी कोई चिंता नहीं है। कंपनी को कोई नुकसान नहीं होगा वो इंश्योरेंस क्लेम ले लेगी। सरकारी अधिकारियों को मुआवज़ा बांटने का मौका मिलेगा, कमीशन मिलेगा, तो उनका नुकसान नहीं है। लोगों को मुआवज़ा मिल जाएगा। तो ये everyone loves a good flood का उदाहरण है। भरत, श्रीनगर और देवप्रयाग के बीच लछमौली गांव में रहते हैं।

जब धरती डोलेगी तब क्या होगा

उत्तराखंड का पूरा गढ़वाल क्षेत्र इस समय सहमा हुआ है। नदियों-प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर यहां जनकवि गिर्दा की कविता की इन पंक्तियों को दोबारा पढ़ना और सोचना चाहिए।

बोलो व्यापारी तब क्या होगा,

दिल्ली-देहरादून में बैठे योजनकारी तब क्या होगा,

सारा पानी ठूस रहे हो,

नदी समंदर लूट रहे हो,

गंगा यमुना की छाती पर

कंकड़ पत्थर कूट रहे हो,

उफ तुम्हारी ये खुदगर्जी,

चलेगी कब तक ये मनमर्जी,

जिस दिन डोलेगी ये धरती,

सर से निकलेगी सब मस्ती,

जब महल चौबारे बह जाएंगे,

खाली रोखड़ रह जाएंगे,

बूंद-बूंद को तरसोगे जब,

बोलो व्यापारी तब क्या होगा,

दिल्ली देहरादून में बैठे योजनकारी तब क्या होगा।

आज भले ही मौज उड़ालो,

नदियों को प्यासा तड़पा लो,

गंगा को कीचड़ कर डालो,

लेकिन डोलेगी जब धरती,

बोलो व्यापारी तब क्या होगा, वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी तब क्या होगा।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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