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द्रविड़ राजनीति, क्षेत्रीय स्वायत्तता और भारत का विचार

विधानसभा में राज्यपाल के प्रथागत उद्घाटन भाषण के दौरान तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा की गई चूक को क्षेत्रीय स्वायत्तता को कुदरती तौर पर कमज़ोर करने के हमले के रूप में समझा जा सकता है।
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वर्तमान भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के अधिकारों और स्वायत्तता को व्यवस्थित तरीके से कमज़ोर कर रही है, ऐसा वह उनके मतभेदों को आत्मसात करने के उद्देश्य से उनके नीतिगत स्पेस को अपने हाथ में लेने की कोशिश के ज़रिए कर रही है। यह हिंदू राष्ट्रवादी विश्वदृष्टि के मामले में पूरी तरह से संगत है जो 'भारत' को 'एक परिवार' मानता है जहां मतभेदों के लिए कोई जगह नहीं है। किसी के लिए भी तेजी से फैलते इस किस्म के समरूपक डिजाइनों को देखना जरूरी है, जिन्हे केंद्र सरकार एक गंभीर रूप से विजातीय/विषम राष्ट्र पर थोपने की कोशिश कर रही है। 'वन नेशन, वन मार्केट', 'वन नेशन, वन लैंग्वेज', 'वन नेशन, वन इलेक्शन', 'वन नेशन, वन राशन कार्ड', 'वन नेशन, वन एग्जाम', 'वन नेशन, वन फर्टिलाइजर' (यह बताने की जरूरत नहीं कि 'एक राष्ट्र, एक नेता') एक निरंतर केंद्रीकृत स्वाभाविक प्रवृत्ति को दर्शाता है।

हालांकि, मोनोलिथिक, एक ही तरह के संस्करणों को लागू करने के कारण सुलगते असंतोष को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कोविड-19 महामारी के चरम पर होने के दौरान 2020-21 में संसद ने जो तीन 'कृषि विधेयक' पारित किए थे, उनके खिलाफ देशव्यापी किसानों का आंदोलन, और क्षेत्रीय दलों द्वारा शासित राज्यों के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने लगातार सार्वजनिक मंचों पर अपना विरोध दर्ज़ किया है जो भारतीय संघवाद की गतिशीलता की सशक्त अभिव्यक्ति थी।

जुलाई 2022 में, इन राज्यों से असहमति की आवाजों को बदनाम करने के प्रयास में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके कल्याणकारी कार्यक्रमों को 'रेवड़ी' संस्कृति कह कर हमला किया, जो संभावित रूप से देश को एक खतरनाक रास्ते पर ले जा सकता है। प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी के कुछ दिनों बाद, विदेश मंत्री एस॰ जयशंकर ने श्रीलंका में उभरे आर्थिक संकट के आलोक में इसी तरह का संकेत दिया और राज्य सरकारों को 'राजकोषीय विवेक' के कथित गुणों पर सलाह दी।

9 जनवरी को राज्य विधानसभा में राज्यपाल के प्रथागत उद्घाटन भाषण के दौरान तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा की गई चूक, क्षेत्रीय स्वायत्तता को कुदरती तौर पर कमज़ोर करने के हमले के रूप में समझा जा सकता है। अभिभाषण को तमिलनाडु सरकार ने तैयार किया था और राज्यपाल के कार्यालय ने उसका अनुमोदन किया था। हालाँकि, विधानसभा में भाषण को  पढ़ते समय, उन्होंने परंपरा का उल्लंघन किया और भाषण के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया। आश्चर्यजनक रूप से, उन्होंने बिंदु संख्या पैंसठ को पूरी तरह से हटा दिया, जो तमिलनाडु में शासन के 'द्रविड़ियन मॉडल' का मार्गदर्शन करने वाले आदर्शों- सामाजिक न्याय, आत्म-सम्मान, समावेशी विकास, समानता, महिला सशक्तिकरण, धर्मनिरपेक्षता और सभी नागरिकों के प्रति करुणा को सूचीबद्ध करता है। इसका मतलब यह भी था कि पेरियार, बीआर अंबेडकर, के कामराज, अन्नादुराई और एम करुणानिधि जैसे क्रांतिकारी विचारकों और प्रमुख नेताओं के नाम भाषण के दौरान नहीं पढ़े गए, जिससे विधानसभा के भीतर और बाहर बेचैनी पैदा हो गई। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन द्वारा जब यह प्रस्ताव पेश किया कि वास्तविक भाषण से अलग जो भाषण राज्यपाल ने दिया है उसे विधानसभा की कार्यवाही में दर्ज नहीं किया जाना चाहिए तो राज्यपाल सदन से वाकआउट कर गए। 

जब रवि के कुछ हालिया बयानों को एक साथ जोड़ कर देखा गया, जिनमें सनातन धर्म की प्रशंसा की गई और द्रविड़ राजनीति को "प्रतिगामी" बताया गया, तो विधानसभा में राज्यपाल की रणनीतिक चूक को उस द्रविड़ राजनीति को अवैध बनाने के प्रयास के रूप में देखा गया जिसने आधे दशक से राज्य में विश्वसनीय विकास को अंजाम दिया था। राज्यपाल के कार्यों के निहितार्थ, जो एक खास वैचारिक झुकाव को व्यक्त करते हैं, उन्हें भारतीय संघवाद के ढांचे के भीतर विश्लेषण करने की जरूरत है। इस दृष्टिकोण को इस तथ्य से जांचा जा सकता है कि जब राज्यपाल को राज्य के संवैधानिक प्रमुख होने के नाते निष्पक्ष रूप से कार्य करना होता है, तो सरकार में किसी भी पार्टी के होने के बावजूद, ऐसे कई उदाहरण हैं कि राज्यपाल नई दिल्ली में केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में काम करते हैं। और तमिलनाडु के राज्यपाल पर न केवल द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) सरकार के सदस्यों ने, बल्कि तमिलनाडु के आम जनमानस ने भी मौजूदा राज्यपाल पर केंद्र सरकार का एजेंट होने का आरोप लगाया गया है, जैसा कि टीवी द्वारा किए गए स्पॉट सार्वजनिक सर्वेक्षणों और डिजिटल मीडिया आउटलेट और #GoBackRavi हैशटैग जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ट्रेंड कर रहा था से पता चला है।

जिन स्कोलर्स/विद्वानों ने भारत की राजनीति का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया है, वे इस समझ को साझा करते हैं कि एक सशक्त केंद्र के साथ भारत की संघीय संरचना को बहु-जातीय समाज में उभरने वाली मांगों को 'समायोजित' करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। 1950 के दशक के दौरान, केंद्र में औपनिवेशिक राज्य ने खुद को राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने और उसे बनाए रखने के उद्देश्य से भारत की उप-राष्ट्रीय विविधता के मुख्य प्रबंधक के रूप में स्थापित किया था। वास्तव में, इस उद्देश्य को पूरा करने वाले राष्ट्रीय प्रतीकों को सचेत रूप से अपनाकर और भाषाई राज्यों के विचार के साथ सामंजस्य स्थापित करके इस विविधता को प्राकृतिक और निर्बाध बनाने का प्रयास किया गया था। हालांकि, भारत के क्षेत्रीय राज्यों ने शासन के मामलों में अधिक स्वायत्तता की मांग और दावे ने निश्चित रूप से केंद्र सरकार के लिए काफी परेशानी पैदा की है।

भारत के संवैधानिक गणतंत्र बनने के बाद के तिहत्तर वर्षों में, राज्यों को राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता को कमजोर करने वाले घटकों के रूप में देखने की प्रवृत्ति ने, कई अभिव्यक्तियों को जन्म दिया है। आइए डीएमके से जुड़े एक उदाहरण पर विचार करें। जनवरी 1961 में, मौजूदा कांग्रेस पार्टी ने अपने भावनगर अधिवेशन में एक 'राष्ट्रीय एकता समिति' का गठन किया था। अपनी किताब रिपब्लिक ऑफ रेटोरिक: फ्री स्पीच एंड द कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ इंडिया में अधिवक्ता अभिनव चंद्रचूड़ लिखते हैं कि समिति ने "केवल एक सिफारिश की थी, कि भारतीय नागरिकों को पृथकता की मांग करने से रोकने के लिए अनुच्छेद 19 में संशोधन किया जाए। डीएमके को इन कार्यवाहियों से बाहर रखा गया था, और समिति ने उससे परामर्श नहीं लिया था। यकीनन यह सिफारिश इस डर से उपजी थी कि मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) में डीएमके जैसे राजनीतिक दल अलगाववादी मंच पर चुनाव लड़कर इस प्रवृत्ति स्थापित कर सकते हैं। यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि भले ही द्रविड़ लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार की डीएमके की अभिव्यक्ति में अलगाववादी संकेत शामिल थे, इसके मूल में, यह अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता के बारे में था।

यह कहने के साथ कि, क्षेत्रीय राज्यों द्वारा अपनी स्वायत्तता का इतेमाल करने की क्षमता केंद्र  और राज्य सरकारों के बीच साझा संप्रभुता की असममित प्रकृति से परिचालित है। यह उन अधिकार क्षेत्रों के सीमांकन में परिलक्षित होता है जिन पर वे अपने संबंधित विधायी अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, और जिसे संविधान की सातवीं अनुसूची में उल्लिखित संसाधन जुटाने की शक्तियों में उन्हें सौंपा गया है। यहां तक कि जो विषय सीधे तौर पर राज्यों के दायरे में आते हैं, उन्हें केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है, अगर संसद उन्हें जनता के हित में मानती है। इसके अलावा, जबकि केंद्र सरकार के पास कम जिम्मेदारियां हैं, लेकिन उसके पास राजस्व बढ़ाने के अनुपातहीन रूप से अधिक शक्तियां और साधन हैं। लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई राज्य सरकारें विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने की अकल्पनीय स्थिति में हैं क्योंकि वे लोगों के निकट हैं, लेकिन जरूरी वित्तीय संसाधनों को जुटाने के मामले में उनके पास अपेक्षाकृत संकीर्ण राजस्व आधार है। इस तरह के एक केंद्रीकृत संघीय ढांचे को एक सामान्य नागरिक पहचान और कल्याण वितरण को बढ़ावा देने के माध्यम से समावेशी विकास और विकास, क्षेत्रीय अखंडता और सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को हासिल करने के लिए अपनाया गया था।

यह ऐसी विवश संवैधानिक व्यवस्था और संघवाद की वास्तविक राजनीति के भीतर है कि क्रमिक सरकारें तमिलनाडु में समाज और अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन लाने में सफल रही हैं। इन उपलब्धियों को द द्रविड़ियन मॉडल: इंटरप्रेटिंग द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ तमिलनाडु में विकास अर्थशास्त्री ए. कलायरासन और एम. विजयबास्कर द्वारा प्रलेखित और आलोचनात्मक रूप से उसका मूल्यांकन किया गया है। सीमाओं और सहवर्ती आलोचनाओं के बावजूद, वे प्रयोगसिद्ध ढंग से स्थापित करते हैं कि तमिलनाडु "मानव विकास के साथ संरचनात्मक बदलाव की प्रक्रियाओं को संयोजित करने की क्षमता के मामले में भारत के प्रमुख राज्यों में अद्वितीय है।"

तमिलनाडू में संरचनात्मक बदलाव दो धुरी के साथ हुआ है - शहरीकरण की तेज दर के साथ-साथ खेतिहर परिवारों द्वारा आय के स्रोतों का विविधीकरण, यहां तक कि नाबार्ड का अनुमान है कि राज्य में कृषि परिवारों की हिस्सेदारी 12.8 प्रतिशत है, जो सबसे कम है। जो देश के अधिक औद्योगीकृत राज्यों में से एक है। इसके अलावा, नीति आयोग के पहले राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2021 के अनुसार, जो शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर के कई संकेतकों को ध्यान में रखता है, तमिलनाडु में आबादी का हिस्सा जिसे गरीबों के रूप में गिना जा सकता है, वह केवल 5 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत 25 प्रतिशत है। शोध से पता चला है कि यह वंचित/सबाल्टर्न समूहों द्वारा नीचे से ऊपर जाने की सामूहिक कार्रवाई और लोकप्रिय मांगों के तहत सकारात्मक कार्यवाही के नीचे तक की प्रतिक्रियाओं का एक संयोजन है जिसने इन बेहतर परिणामों का पैदा किया है।

कलैयारसन और विजयबास्कर अपने विश्लेषण को वैचारिक स्पेस के भीतर मजबूती से स्थापित करते हैं जिसे वे 'द्रविड़ सामान्य ज्ञान' कहते हैं। यह एक ऐसा शब्द है जो राज्य में 'सामाजिक न्याय' की राजनीति को प्रभावी ढंग से पकड़ता है जिसने ऐतिहासिक रूप से द्रविड़-तमिल लोगों के 'स्वाभिमान' को क्षेत्रीय स्वायत्तता से जोड़ा है। इसके विपरीत, सनातन धर्म के सबसे प्रभावशाली 20वीं सदी के विचारक, जिन्हें तमिलनाडु के राज्यपाल 'भारत' का अभिन्न अंग मानते हैं, ने स्पष्ट रूप से संघवाद के विचार को ही खारिज कर दिया था और राज्यों की श्रेणी को पूरी तरह से समाप्त करने की वकालत करता था। 

बंच ऑफ थॉट्स (1966) में आरएसएस समर्थक एम.एस.गोलवलकर जो आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक थे और जो हिंदू राष्ट्र के प्रमुख समर्थक थे ने लिखा है कि: "... सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के संविधान के संघीय ढांचे की सभी बातों को पूरी तरह से दफन कर दें, इसके अस्तित्व को खत्म कर दें।" सभी 'स्वायत्त' या अर्ध-स्वायत्त 'राज्य' एक राज्य के भीतर होने चाहिए अर्थात भारत..."। अभी हाल ही में, आर्थिक इतिहासकार आदित्य बालासुब्रमण्यन ने दिखाया है कि 1950 के दशक के उत्तरार्ध में 'भारतीयकरण' आर्थिक नीति के अपने प्रस्तावों की व्याख्या करते हुए, भारतीय जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय ने "स्थानीयता और राष्ट्र की स्थानिक श्रेणियों को अपनाया लेकिन शासन की मध्यस्थ इकाई राज्य या क्षेत्र को खारिज कर दिया था। जैसा कि प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट और उत्सव शाह ने तर्क दिया कि, उपाध्याय ने दान को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करके और यह प्रस्ताव दिया कि [जाति] समाज सभी के कल्याण का ध्यान रखेगा, और इसलिए नेहरूवादी राज्य-निर्माण दृष्टिकोण और कल्याणकारी-राज्य के सिद्धान्त का मुकाबला करने की वकालत की। गोलवलकर और उपाध्याय, भाजपा शासित केंद्र और कई राज्यों की सत्ता में खुले तौर पर सम्मानित व्यक्ति हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद एक लंबा निबंध लिखा है जिसमें 'गुरुजी' गोलवलकर के आध्यात्मिक और राजनीतिक विकास पर उनके प्रभाव की व्याख्या की गई है। उनकी सरकार ने उपाध्याय - दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना और दीन दयाल अंत्योदय योजना के नाम पर ग्रामीण विद्युतीकरण और युवा कौशल विकास के लिए अपनी प्रमुख योजनाओं का नाम रखा है।

नई दिल्ली में संघवाद को, आर्थिक योजनाकारों के लिए एक "सिरदर्द" बताना, भारत की योजना  प्रक्रिया के प्रदर्शन के शुरुआती आकलनों में से एक है। इसने राज्यों के "आत्मविश्वास" के बारे में एक धुंधला विचार व्यक्त किया है, लेकिन यह स्वीकार किया कि "उनका अस्तित्व भारतीय राजनीतिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है।" सुनने में भले ही घिसा-पिटा लगे, केंद्र-राज्य संबंधों के रूप में यह खेली गई वैचारिक रस्साकशी, सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के प्रति, भारत की आत्मा की एक लड़ाई है। जैसा कि रामचंद्र गुहा ने कहा है कि, स्वतंत्र भारत एक 'अप्राकृतिक' राष्ट्र है। भारतीय राष्ट्र की अस्वाभाविकता इसे राजनीति के एक ऐसे मॉडल के करीब ले जाती है जिसे 'राष्ट्र-राज्य' के प्रमुख मॉडल के विपरीत 'राज्य-राष्ट्र' के रूप में जाना जाता है। दो मॉडलों के बीच एक परिभाषित अंतर यह है कि पूर्व एक एकल या मुख्य सांस्कृतिक पहचान की सदस्यता लेने से इनकार करता है जिसे राष्ट्र नामक सीमाबद्ध क्षेत्र पर पूरी तरह से मैप किया जा सकता है, और कई लेकिन पूरक सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान की संभावना पर जोर देता है। इन सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों की बहुलता और पूरकता का सम्मान करने के साथ-साथ क्षेत्रीय राज्यों को अपने लोगों की सामूहिक सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से उभरने वाले शासन के मॉडल के साथ प्रयोग करने की अनुमति देना भारतीय लोकतंत्र को बनाए रखने और आगे बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण होगा।

रघुनाथ नागेश्वरन जिनेवा ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट में डॉक्टरेट शोधकर्ता हैं। विग्नेश कार्तिक केआर किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट, किंग्स कॉलेज लंदन में डॉक्टरेट शोधकर्ता हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Dravidian Politics, Regional Autonomy and the Idea of India

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