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ईडब्ल्यूएस आरक्षण एक तरह की प्रति-क्रांति है

शीर्ष अदालत जल्द ही अपना फ़ैसला सुनाएगी कि क्या सरकार द्वारा केवल आर्थिक आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है या नहीं।
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Image courtesy : The Leaflet

सुप्रीम कोर्ट जनवरी 2019 में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के मोदी सरकार के फ़ैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अगले सप्ताह से सुनवाई शुरू करेगा। इसमें देर इसलिए हो गई है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटा पर रोक नहीं लगाया था। इसकी संवैधानिक वैधता पर निर्णय लेने में तीन साल से अधिक समय लगा।

इसके विपरीत, सुप्रीम कोर्ट ने 1990 में वीपी सिंह सरकार के सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के फ़ैसले पर रोक लगा दी थी। इन्हें अन्य पिछड़ी जातियों या ओबीसी के रूप में जाना जाता है। सुप्रीम कोर्ट के विरोधाभासी दृष्टिकोण ने मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के. चंद्रू यह बताने को मजबूर हुए थे कि, “निश्चित रूप से, ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट के इनकार ने 2019 [लोकसभा] के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फ़ायदा पहुंचाया है।"

10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस आरक्षण में इसके दायरे में सिर्फ़ सामाजिक रूप से बेहतर समूह, मुख्य रूप से उच्च जातियां और मराठा, पटेल, जाट और कापू जैसी मध्यम जातियां शामिल थीं। इस प्रकार, ईडब्ल्यूएस कोटा ने न केवल मोदी को बल्कि उच्च जातियों को भी लाभ पहुंचाया जो लंबे समय से आरक्षण के ख़िलाफ़ मेरिटोक्रेसी का ज़ोर देते रहे हैं। उन्हें अब जबरन प्रशासनिक व्यवस्था में शामिल किया जाएगा। निचली जाति के दावों के उनके डर को आंशिक रूप से कम कर दिया गया है।

राव से मोदी तक

लंबे समय से यह तर्क दिया गया, कि उच्च जातियों में ग़रीबों को आरक्षण से वंचित रखना अनुचित है। इस तर्क ने "अन्य आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के पीवी नरसिम्हा राव के फ़ैसले को रेखांकित किया, जिन्हें आरक्षण की किसी भी मौजूदा योजना से लाभ नहीं मिल रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में, इंद्रा साहनी मामले में राव के फ़ैसले को रद्द कर दिया था, जिसने 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण को बरक़रार रखा था। शीर्ष अदालत ने कहा कि आरक्षण केवल आर्थिक मानदंडों पर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि सामाजिक पिछड़ापन शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन इसके आधार हैं।

दूसरे शब्दों में, आरक्षण केवल उन्हीं सामाजिक समूहों या जातियों के लिए उचित है जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं।

जिन आधारों पर सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को ख़ारिज कर दिया था, उन पर क़ाबू पाने के लिए, मोदी सरकार ने 103वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 के ज़़रिए संविधान में संशोधन किया, जिसमें अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 में नए खंड शामिल किए गए हैं। ये राज्य को विशेष प्रावधान करने का अधिकार देते हैं। इसके माध्यम से अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एससी), और ओबीसी के अलावा "नागरिकों के किसी भी आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के विकास" के लिए ईडब्ल्यूएस आरक्षण का संवैधानिक आधार तैयार किया गया।

वर्ग बनाम जाति

सुप्रीम कोर्ट 13 सितंबर से इस पर बहस करेगा कि क्या यह 103वां संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है या नहीं। संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा में इस बात पर बहस हुई कि क्या आरक्षण का एकमात्र आधार आर्थिक मानदंड होना चाहिए या क्या भारतीय समाज की संरचना से उत्पन्न होने वाले तमाम सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक नुक़सान को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

इन सब पर वकील और स्कॉलर मालविका प्रसाद ने कहा कि, "लोगों के समूहों द्वारा सामूहिक रूप से अनुभव किए गए सामाजिक नुक़सान के विपरीत विशेष प्रावधानों या आरक्षणों द्वारा संवैधानिक रूप से सुधार नहीं किया जाना था। एक ऐसा नुक़सान जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होता है और पूरी तरह से आर्थिक नुक़सान के रूप में सामने आता है।"

संविधान सभा के दो सदस्यों के बीच इस चर्चा से स्पष्ट होता है कि आरक्षण किसे मिलता है, इसे तय करने का आधार जाति ही क्यों होनी चाहिए, वर्ग क्यों नहीं होना चाहिए। एस नागप्पा ने कहा कि वे आरक्षण को हटाने के लिए समर्थन करने को तैयार हैं, अगर "हर हरिजन [आज जिन्हें दलित कहा जाता है] परिवार को 10 एकड़, 20 एकड़ सूखी भूमि मिलती है" और उनके बच्चों को विश्वविद्यालय तक मुफ़्त शिक्षा दी जाती है। मोहन लाल गौतम ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अगर हरिजनों के साथ ऐसी दरियादिली दिखाई जाती है तो हम अपनी श्रेणी बदलने को तैयार हैं। इस पर नागप्पा ने पलटवार किया कि एक "हिंदू" तब तक हरिजन नहीं बन सकता जब तक कि वह "दूसरों की सफाई और झाडू लगाने" के लिए तैयार न हो।

नागप्पा-गौतम की इस लड़ाई से पता चलता है कि भारतीयों का एक बड़ा वर्ग सदियों से नीच और ग़ुलामी के पेशे में फंसा हुआ था। काम का उनका चुनाव उनका अपना नहीं था। यह जाति के नियमों द्वारा निर्धारित किया गया था, जिसने उन्हें आधुनिक शिक्षा तक पहुंचने और जाति-व्यवसाय संबंध को तोड़ने में अक्षम कर दिया था।

सीधे शब्दों में कहें तो यह ऐतिहासिक नुक़सान पेशेवर वर्ग और सरकारी नौकरियों में एसटी और एससी के ख़राब प्रतिनिधित्व की व्याख्या करता है। दरअसल, निम्न सामाजिक स्थिति अक्सर आर्थिक पिछड़ापन पैदा करती है। आरक्षण जाति को उसके पारंपरिक व्यवसाय से अलग करने और मध्यम वर्ग को सामाजिक रूप से विविधता प्रदान करने का प्रयास करता है, जो दशकों के आरक्षण के बाद भी उच्च जातियों के प्रभुत्व में है।

राज्यसभा सांसद मनोज झा जिन्होंने 2019 में 103वें संशोधन के ख़िलाफ़ बात की थी उन्होंने एक साक्षात्कार में आर्थिक आयाम को उचित रूप से समझाया, "मैं मनोज झा हूं और मैं ग़रीब हो सकता हूं। लेकिन मेरी ग़रीबी किसी जाति विशेष में पैदा होने से नहीं पैदा होती है। दूसरी ओर, झा ने कहा कि ऐसे लोग हैं जिनकी "ग़रीबी को एक विशेष जाति में पैदा होने के कारण परिभाषित, वर्णित, निर्धारित और क़ायम रखा गया है। सीवर में कौन मरता है? दलित।" आरक्षण ग़रीबी का समाधान नहीं हो सकता है। झा ने कहा, "इसका समाधान छात्रवृत्ति और ऐसे अन्य तंत्र हो सकते हैं।"

सुप्रीम कोर्ट इस बात का जवाब देगा कि क्या मोदी सरकार का सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का फ़ैसला संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करता है, जैसा कि झा जैसे लोग कहते हैं।

ईडब्ल्यूएस कौन है?

आरक्षण को किसी सामाजिक समूहों या जातियों या किसी श्रेणी तक बढ़ाया जाना चाहिए या नहीं, यह निर्धारित करने से पहले सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण एक बेहतर आदर्श रहा है। उदाहरण के लिए, मंडल आयोग ने ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश करने से पहले सर्वेक्षण किया था। साल 2019 में, हालांकि, मोदी ने यह तय किए बिना आरक्षण को बढ़ा दिया कि उच्च जातियों में से कौन आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग है, उनकी आबादी क्या है और उनका सरकारी नौकरियों में क्या अपर्याप्त प्रतिनिधित्व था।

2006 में, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एसआर सिंहो के अधीन आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के लिए एक समिति गठित की गई थी जो एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण को लेकर नहीं था। ईबीसी आज के ईडब्लूएस हैं। यह अनुमान लगाया गया कि ईबीसी में भारत की आबादी का सिर्फ़ 5 प्रतिशत शामिल था। इस तरह, कलम के एक झटके में, केवल 5 प्रतिशत आबादी को 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया।

यह संदेहास्पद है कि क्या उच्च जातियों में जो वास्तव में ग़रीब हैं क्या वे ईडब्ल्यूएस आरक्षण से लाभ प्राप्त कर सकते हैं। क्या जिनके माता-पिता की आमदनी 8 लाख रुपये प्रति वर्ष है वे इस श्रेणी में आने योग्य हैं। यह आकलन किया गया कि 95 प्रतिशत सवर्ण जातियां 10 प्रतिशत आरक्षण के लिए होड़ कर सकती हैं!

व्यवस्था पर दबाव डालना

इस दृष्टिकोण से, ईडब्ल्यूएस आरक्षण उच्च जातियों में समृद्ध लोगों को प्रशासनिक व्यवस्था में स्थान दिलाता है, वह भी ख़ासकर एससी, एसटी और ओबीसी की क़ीमत पर ऐसा करता है। यह भर्ती नियम के कारण है, जो कहता है कि एससी, एसटी या ओबीसी जो सामान्य श्रेणी के अंकों को हासिल करता है, उसे सामान्य श्रेणी के रूप में टैग कर पद सौंपा जाएगा, न कि एक आरक्षण के आधार पर।

यह भर्ती प्रक्रिया इस वादे को पूरा करती है कि एससी, एसटी और ओबीसी को 49.5 प्रतिशत से अधिक सरकारी नौकरियों के लिए भर्ती किया जा सकता है। आख़िर कैसे? मान लें कि ओबीसी के लिए 100 पद आरक्षित हैं। यह भी मान लें कि कोई भी ओबीसी परीक्षार्थी सामान्य वर्ग के लिए पात्रता के ग्रेड से अधिक अंक प्राप्त नहीं करता है। उस स्थिति में, केवल 100 ओबीसी भर्ती होंगे। अब मान लीजिए कि 10 ओबीसी ने सामान्य वर्ग के पात्रता अंक से अधिक अंक प्राप्त किए हैं। इस स्थिति में 110 ओबीसी की भर्ती की जाएगी यदि उनमें से 100 ने ओबीसी श्रेणी के लिए योग्यता अंक के बराबर या उससे अधिक अंक प्राप्त किए हैं।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण सामान्य वर्ग में 10 प्रतिशत नौकरियों को प्रभावी ढंग से समाप्त कर देता है। सामान्य वर्ग में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए कम पद होंगे। कम पद सामान्य श्रेणी के लिए कट-ऑफ अंक भी बढ़ाएंगे। वास्तव में, ईडब्ल्यूएस आरक्षण को यह सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है कि व्यवस्था में संतुलन अभी या भविष्य में उच्च जातियों के ख़िलाफ़ नहीं हो।

आधी रात की डकैती या…

ईडब्ल्यूएस आरक्षण से कई ओबीसी नेता ग़ुस्से में हैं और यह उचित भी है। मंडल आयोग ने ओबीसी को देश की 52 प्रतिशत आबादी बताया था, लेकिन इसने उनके लिए सिर्फ़ 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी। आयोग का नेतृत्व करने वाले बीपी मंडल ने कहा था कि वह सरकारी नौकरियों में सभी रिक्तियों के 50 प्रतिशत पर आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के कई फ़ैसलों का उल्लंघन नहीं करना चाहते हैं। मंडल ने कहा, "इसके मद्देनज़र, एससी और एसटी के लिए 22.5 प्रतिशत तक जोड़ने पर ओबीसी के लिए प्रस्तावित आरक्षण 50 प्रतिशत के आंकड़े से नीचे रहेगा।"

ओबीसी नेताओं का दावा है कि इससे पहले कि सरकार उच्च जातियों को कोटा देने के लिए उनके 50 प्रतिशत की सीमा को हटा दे ओबीसी के आरक्षण का हिस्सा पहले बढ़ाया जाना चाहिए था। वे कहते हैं कि मोदी ने 50 प्रतिशत के सुप्रीम कोर्ट के नियम का पालन करने के लिए मंडल के निर्दोष आचरण का फ़ायदा उठाया और उच्च जातियों का पक्ष लिया।

एक विचारधारा यह भी कहती है कि ओबीसी की आबादी मंडल के 52% के अनुमान से अधिक है, जो 1931 में पिछली जाति जनगणना से हासिल की गई थी। यही कारण है कि वे जाति-आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं, जिसे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को एक हलफ़नामा में कहा है कि ऐसा नहीं किया जा सकता है और इसके लिए विभिन्न कारणों का हवाला दिया है। 2011 में, एक सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना की गई थी। हालांकि, इसका डेटा गुप्त रखा गया है।

राज्यसभा सांसद झा ने 2019 में कहा था कि "अन्य पिछड़ा वर्ग [2011] के आंकड़ों में देश की आबादी का लगभग 68 प्रतिशत हिस्सा है।" उन्होंने आगे कहा, "इसलिए मैं कहता हूं कि 10 प्रतिशत आरक्षण आधी रात की डकैती से कम नहीं है।"

ईडब्ल्यूएस आरक्षण को आधी रात की डकैती कहें। या फिर एक और सबूत है जिसे अध्यापक व मानवाधिकार कार्यकर्ता ज्यां द्रेज ने सवर्ण जातियों के विद्रोह के रूप में बताया। अगले कुछ हफ़्तों में, हमें पता चल जाएगा कि पिछले नौ वर्षों में थोड़ा-थोड़ा करके प्रगति करने वाली प्रति-क्रांति को धीमा या रोका जा सकता है या नहीं।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

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