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वित्त मंत्री जी, कॉर्पोरेट की जगह आम लोगों के लिए आर्थिक नीतियां बनेंगी तो 'हनुमान' ख़ुद खड़े हो जायेंगे

निर्मला सीतारमण ने कुछ दिनों पहले कहा कि इंडिया इंक या भारत का कॉर्पोरेट सेक्टर भारत में निवेश क्यों नहीं कर रहा है? आख़िर क्या वजह है कि निवेश रुक रहा है? क्या भारत के कॉर्पोरेट सेक्टर को अपनी क्षमता पर भरोसा नहीं है? क्या वह हनुमान की तरह हो गया है? क्या उसे जगाने के  किसी जामवंत को बुलाना पड़ेगा? हमने उद्योग धंघे के विकास के लिए हर मुमकिन कोशिश की तब भी निवेश क्यों नहीं हो रहा है?
Nirmala Sitharaman
फ़ोटो साभार: पीटीआई

भारत की अर्थव्यवस्था मीडिया की तरह नहीं है। ऐसा नहीं है कि मीडिया की तरह अर्थव्यस्था को खरीद लिया जाए और यह कहा जाए कि अर्थव्यवस्था में किसी तरह की बदहाली नहीं है। अगर बदहाली तो वह बदहाली दिखेगी। जनता के जेब में पैसा नहीं है तो अर्थव्यवस्था का चक्का नहीं चलने वाला।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को सुनिए। निर्मला सीतारमण ने कुछ दिनों पहले कहा कि इंडिया इंक यानी भारत का कॉर्पोरेट सेक्टर भारत में निवेश क्यों नहीं कर रहा है? आख़िर क्या वजह है कि निवेश रुक रहा है? क्या भारत के कॉर्पोरेट सेक्टर को अपनी क्षमता पर भरोसा नहीं है? क्या वह हनुमान की तरह हो गया है? क्या उसे जगाने के  किसी जामवंत को बुलाना पड़ेगा? हमने उद्योग धंघे के विकास के लिए हर मुमकिन कोशिश की तब भी निवेश क्यों नहीं हो रहा है?

इस बात के जवाब में कांग्रेस के डाटा एनालिटिक्स टीम के हेड प्रवीण चक्रवर्ती ने ट्विटर पर लिखा कि भारत की अर्थव्यवस्था भाजपा के समर्थकों और मीडिया की तरह नहीं है कि वह सरकार का आदेश मानें। उसकी अपनी गति है। कहने का मतलब यह है कि अगर अर्थव्यवस्था ढंग से नहीं चलाया जायेगा तो उसकी असफलता तय है। अगर उसकी नीतियों में जनता केंद्र में नहीं होगी तो वैसी ही परेशानियां पैदा होंगी, जिसके बारे में निर्मला सीतारमण कह रही हैं।

थोड़ा सीलसिलेवार तरीके से इस मसले को समझते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था में किस तरह की कमियां हैं, जिसकी वजह से निवेश नहीं हो पा रहा है।

साल 1997 से लेकर साल 2022 तक जीडीपी में इन्वेस्टमेंट का प्रतिशत 20 फीसदी से ऊपर रहा। साल 2007 में यह प्रतिशत बढ़कर तकरीबन 35.8 फीसदी हो गया। मगर साल 2022 में निवेश का यह पूरा सीलसीला कमजोर हो गया। अब यह घटकर 28.6 प्रतिशत के आसपास पहुंच गया है। यानि देश में निवेश कम हो रहा है।

इसी तरह हाउसहोल्ड इन्वेस्टमेंट को देखें तो साल 2012-13 में कुल जीडीपी में इसका हिस्सा 15.9% के आसपास था। साल 2018 - 19 में घटकर 10.3% के आसपास रह गया। प्राइवेट सेक्टर इन्वेस्टमेंट का कोई जीडीपी में हिस्सा साल 2007 में 21% के आसपास हुआ करता था। यह घटकर के 9% के पास पहुंच गया है। यहां यह ध्यान देने वाली बात है यह सब तब हो रहा है जब सरकार ने प्राइवेट सेक्टर को जमकर रियायत दी है। टैक्स इंसेंटिव के नाम पर कॉरपोरेट पर लगने वाले टैक्स को घटाकर 22% के आसपास कर दिया है।

अब सामान्य सा सवाल है कि ऐसा क्यों होता है? अर्थव्यवस्था के इस चक्र को समझिये। लोगों की जेब में पैसा होता है तो वह सामान और सेवाओं को खरीदते हैं। जब सामान और सेवाओं को खरीदा जाता है तो किसी कम्पनी की कमाई होती है। जब उत्पादित सामान और सेवाएं पूरी तरह से बिक जाती है। ज्यादा  सामान और सेवाओं की मांग होती है, तब कंपनी इन्वेस्ट करती है। मतलब मांग जरूरी है। मांग तब होती है,जब लोगों की जेब में पैसा होता है। यहां हकीकत यह है कि लोगों की जेब में पैसा ही नहीं है। देश के 90 फीसदी कामगारों की मासिक आमदनी 25 हजार रूपये प्रति महीने से कम है।  यानि खर्च करने के लिए लोगों के पास पैसा नहीं है। पैसा है तो केवल इतना ही कि जीवन की बुनयादी जरूरतें किसी तरह पूरी की जा सकें।

इसके साथ एक और आंकड़े को देखिये। विनिर्माण क्षेत्र से जुड़े कल- कारखाने के बुक ऑर्डर और इन्वेंट्री का सर्वे कर रिज़र्व बैंक यह आंकड़ा पेश करती है कि विनिर्माण क्षेत्र की कितनी क्षमता का दोहन हो रहा है? इस आंकड़ें के मुताबिक मार्च 2022 तक कंपनियों ने अपनी कुल क्षमता का महज 75 प्रतिशत इस्तेमाल किया। मतलब पहले से ही 25 प्रतिशत सामान बिक नहीं रहे हैं। यह स्थिति दशकों से बानी हुई है।  

अब अगर पहले के सामान नहीं बिकेंगे तो ऐसा कैसे मुमकिन है कि निवेश हो? कंपनियां अपना पैसा क्यों फंसाएंगी जब उन्हें मालूम है कि सामान खरीदने वाला कोई नहीं है। मोटे तौर पर कहा जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था के साथ हाल फिलहाल यही हो रहा है। यह हाल बदहाली की सबसे बड़ी वजह है। अगर इन्वेस्टमेंट नहीं होगा।  नए कल-कारखाने नहीं बनेंगे। रोजगार में बढ़ोतरी नहीं होगी। आबादी बढ़ेगी लेकिन आमदनी नहीं बढ़ेगी और बेरोजगारों की फ़ौज पहले से बढ़ते चली जायेगी। इस चक्र से निकलना आसान नहीं। केवल प्राइवेट सेक्टर के बलबूते यह मुमकिन नहीं। सरकार अब भी शिक्षा और सेहत जैसी बुनयादी जरूरतों पर खर्च के लिए तैयार नहीं है. अगर इस पर खर्च नहीं होगा तो लोगों की आमदनी इतनी नहीं कि वह खुद ही कुशल मानव संसाधन में तब्दील हो जाए।  रिसते हुए इकोनॉमिक मॉडल का असर यह हुआ है कि GDP विकास दर भी घट रही है और लोगो की आमदनी भी। भारत की अर्थव्यवस्था कुचक्र में फंस गयी है। केवल कॉर्पोरेट के लिए नीतियां बनाने से काम चलने वाला।  जब तक लोगों की जेब में पैसा नहीं पहुंचेगा तब तक इस कुच्रक से निकलना मुमकिन नहीं।

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