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अब मंदी सिर्फ़ 'पिंक न्यूज़पेपर्स' की हेडलाइन नहीं, बल्कि हमारे घरों, दुकानों और सड़क तक उतर आई है

ध्यान दीजिएगा कि यह आँकड़े जो जारी हुए हैं यह सितंबर तक के हैं और हम देख रहे हैं कि मार्केट अक्टूबर और नवंबर में भी नहीं सुधर पाया है, यानी तीसरी तिमाही में भी सुधार के लक्षण नही दिखाई दे रहे हैं...।
Economic slowdown in India

आज सभी अखबारों में जीडीपी की गिरती हुई दर की चर्चा है। पहली बार अखबार ओर मीडिया स्थिति की गंभीरता को समझने का प्रयास करता दिखाई दे रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है अर्थव्यवस्था की बदहाली इतनी विकट है कि अब मंदी सिर्फ पिंक न्यूजपेपर्स की हेडलाइन तक ही सीमित नहीं रह गई है अब यह हमारे घरों, दुकानों और सड़कों तक उतर आयी है।

यह मंदी हमें प्रत्यक्ष नजर आने लगी है। सब इसी की बात कर रहे हैं। वैसे इस मंदी की, इस स्लोडाउन की नींव तो तभी पड़ गयी थी जब असंगठित क्षेत्र ध्वस्त होना शुरू हुआ था। 2017 का आखिरी महीना आते आते नोटबन्दी ओर जीएसटी का सम्मिलित असर बाजार पर दिखना शुरू हो गया था। इनफॉर्मल सेक्टर में रोजगार पा रहे लोगों की कमर टूटना शुरू हो गई थी। लाखों लोग अपने जमे जमाए काम धंधों से हाथ धो बैठे थे।

2018 के बाद से हर तिमाही GDP की दर जो गिरना शुरू हुई वह अब तक थमी नही है। वजह साफ है कि उपभोक्ता की क्रयशक्ति ही कम हो गयी है। बहुत कम लोग ही रिस्क उठा कर पूँजी लगा कर नया काम करने को उत्सुक नजर आ रहे है। बाजार का सेंटिमेंट पूरी तरह से बिगड़ा हुआ है।

पिछली 6 तिमाही से लगातार जीडीपी की ग्रोथ रेट गिरती ही जा रही है। और आने वाले समय में इसमें सुधार होने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है, क्योंकि मार्केट में कोई डिमांड ही नही दिखाई दे रही है। त्योहारी ओर शादी ब्याह का सीजन लगने के बावजूद मार्केट में सुस्ती छाई हुई है। ध्यान दीजिएगा कि यह आँकड़े जो जारी हुए हैं यह सितंबर तक के हैं और हम देख रहे हैं कि मार्केट अक्टूबर ओर नवम्बर में भी नहीं सुधर पाया है, यानी तीसरी तिमाही में भी सुधार के लक्षण नही दिखाई दे रहे हैं...।

जब नोटबंदी की गयी तब पूर्व प्रधानमंत्री एवं विश्व में मान्यता प्राप्त अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने इसे संगठित लूट और सुनियोजित कानूनी दुरूपयोग बताते हुये GDP में दो प्रतिशत कमी आने की आशंका जताई थी ओर यह बात कालांतर में बिल्कुल सच साबित हुई।

दरअसल पिछले साल जब जीडीपी के दूसरी तिमाही के आँकड़े घोषित किये गए थे तब उस तिमाही की ग्रोथ 7 प्रतिशत बताई गयी थी। मुझे याद है कि तब भारतीय मूल के एक जानेमाने अर्थशास्त्री मेर्टन कॉलेज, ऑक्सफोर्ड के एमरिट्स फेलो और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के रीडर एमरिट्स का बयान बड़ा चर्चित हुआ था। उन्होंने कहा था कि " मैं एक बात कहूंगा, (भारत का राष्ट्रीय खाता) एक मात्र ऐसी जगह है जहां आप सात फीसद वृद्धि देख सकते हैं। आपको यह कहीं और नज़र नहीं आ सकती है।

यदि आप निर्यात और आयात देखते हैं तो वे बिल्कुल सपाट हैं। ये कम हुये हैं या बराबर रहे अथवा बहुत धीमी वृद्धि हुई। यदि आप संगठित क्षेत्र में रोजगार पर नजर डाले तो वहां ठहराव है।" उन्होंने कहा कि यदि आप औद्योगिक उत्पादन पर नजर डालें तो यह बहुत धीमी रफ्तार से बढ़ रहा है। यदि आप बैंक क्रेडिट पर नजर दौड़ाते हैं तो यह बहुत धीमी वृद्धि कर रहा है। निवेश अनुपात जो 2011 में जीडीपी का 34 फीसद था, अब जीडीपी का 27 फीसद है। अतएव निवेश वाकई लुढ़क गया है। ऐसे में यह विश्वास करना मुश्किल है कि राष्ट्रीय आय सात फीसद सलाना दर से वृद्धि कर रही है।

पिछले साल देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम ने भी साफ साफ कह दिया था कि नोटबंदी का फैसला देश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका साबित होगा।

कल बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तीसरी तिमाही के जीडीपी ग्रोथ रेट के आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए कहा कि असलियत में जीडीपी ग्रोथ रेट 4.5 नहीं वह 1.5 प्रतिशत है। यानी यह झूठे आँकड़े दिखाकर जनता को भरमाया जा रहा है। इसी बात को सितंबर 2014 से जून 2018 तक नरेंद्र मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रमण्यन ने हावर्ड यूनिवर्सिटी से प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में सिद्ध करके बताया था।

अरविंद सुब्रमण्यम ने इस शोधपत्र में जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही थी, वह यह थी कि जीडीपी ग्रोथ रेट की गणना साल 2011 से पहले मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन, मैन्यूफैक्चरिंग उत्पाद और औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और मैन्यूफैक्चरिंग निर्यात से निकाली जातीं थी लेकिन बाद के सालों में इस संबंध को लगातार विस्मृत कर दिया जाता रहा है।

सुब्रमण्यम ने अपने शोध पत्र में दिखाया कि किस तरह नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस NSSO ने इस फर्जीवाड़े को अंजाम दिया है… दरअसल उसने एमसीए-21 के नाम से एक नया डाटाबेस बनाया है और उसी से जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े निकाले है। जाँच में पता चला है कि उस MCA-21 में शामिल 38% कंपनियां या तो अस्तित्व में ही नहीं थी या फिर उन्हें गलत कैटेगरी में डाला गया था। ऐसा किये जाने से आर्थिक वृद्धि दर औसतन 2.5% ऊंची हो गई हैं।

यह फर्जीवाड़ा आज भी चल रहा है

आपको जानकर हैरानी होगी कि इस साल की पहली छमाही में बुनियादी उद्योगों की वृद्धि दर महज 1.3 फीसदी रही जबकि पिछले वित्त वर्ष की समान अवधि में इसमें 5.5 फीसदी का इजाफा हुआ था। जीएसटी संग्रह भी अक्टूबर महीने में लगातार तीसरे महीने 1 लाख करोड़ रुपये से कम रहा है। राजस्व संग्रह पिछले साल अक्टूबर महीने की तुलना में 5.3 प्रतिशत कम रहा। अक्टूबर माह में चालू वित्त वर्ष के 7 महीनों में कर संग्रह में सबसे तेज गिरावट दर्ज की गई है। ताजा आँकड़े तो मैन्युफैक्चरिंग दर को शून्य के भी नीचे बता रहे हैं। यानी भविष्य के आसार बद से बदतर हो रहे हैं।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश का राजकोषीय घाटा अक्टूबर के अंत में 7.2 लाख करोड़ रुपये पहुंच गया है और बजट में पूरे साल के लिए लगभग 7.1 लाख करोड़ का अनुमान लगाया गया था यानी सिर्फ 7 महीने में साल भर का घाटा हो गया है। हालात इतने बदतर है कि मोदी सरकार द्वारा राज्यों को जीएसटी लगाने से हुई क्षतिपूर्ति की रकम भी नहीं दी जा रही है।

आसान है कह देना कि जीडीपी गिर रही है, या यह कह देना कि फिल्में तो आज भी 100 करोड़ का कलेक्शन 3 दिनों में कर रही है, पर बहुत मुश्किल है शाम को दुकान बढ़ा कर जाते हुए एक छोटे व्यापारी से आंख से आंख मिलाकर पूछना कि भाई बाजार में ग्राहकी कैसी चल रही हैं, किस्तें चुकाने का दर्द उसकी आवाज़ में उभर जाता है…

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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