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यूपी चुनाव: बदहाल शिक्षा क्षेत्र की वे ख़ामियां जिन पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए लेकिन नहीं होती!

उत्तर प्रदेश के सभी दलों के राजनीतिक कार्यकर्ता शिक्षा के महत्व पर बात करते हैं। प्रचार प्रसार करते समय बच्चों को स्कूल भेजने की बात करते हैं। लेकिन राजनीति अंतिम तौर पर केवल चुनाव से जुड़ी हुई प्रक्रिया है। इसलिए शिक्षा को लेकर गहरे तौर पर समाज आंदोलित नहीं हो पाता।
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Image courtesy : iDream Education

साल 2019 में प्रकाशित नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि पढ़ाई लिखाई के क्षेत्र में आबादी और राजनीतिक रसूख के मामले में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की हालत सबसे अधिक खराब है। यह एक आंकड़ा उत्तर प्रदेश के बदहाल शिक्षा की तथ्यगत कहानी पेश कर देता है। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र की बहस की सबसे बड़ी खामी यह है कि अकादमिक दुनिया से अलग सार्वजनिक जीवन में होने वाली पढ़ाई लिखाई की बहस महज आंकड़ों और बजट में खर्च किए जाने वाले पैसे तक सिमट कर रह जाती हैं। इससे बाहर नहीं निकल पाती हैं। पढ़ाई लिखाई के पूरे संसार की मोटी तस्वीर उभर कर नहीं आती।

पैसे के दम पर काम कर रही मीडिया ने पहले से ही आम जन जीवन से जुड़े तमाम तरह के जरूरी मुद्दों को मुख्यधारा की बहस से बाहर कर रखा है, उसके ऊपर से जब शिक्षा क्षेत्र की सारी बहस केवल आंकड़ों तक सिमट कर रह जाती है तो शिक्षा क्षेत्र की मौजूद खामियां उभर कर सामने नहीं आ पातीं। इन खामियों को दर्शाने के लिए न्यूज़क्लिक की तरफ़ से मैंने उत्तर प्रदेश से जुड़े कुछ जागरूक और जुझारू जानकारों से बात की। उनसे बात करके यह समझने की कोशिश कि आखिर कर वह कौन सी जगह है जिस पर बात करते हुए पढ़ाई लिखाई के मुद्दे को राजनीतिक मंच के केंद्र पर लाया जा सकता है।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी के फेलो रह चुके रमाशंकर सिंह उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था की तस्वीर पेश करते हुए बताते हैं कि “जैसा समाज होता है, वैसे ही उसकी शिक्षा होती है। जैसी आर्थिक हैसियत होती है, वैसे ही शिक्षा का स्तर होता है। मेरे कानपुर में उसी सरकारी स्कूल से पढ़ा हुआ लड़का विदेश में जाकर नौकरी करता है, आईएएस पीसीएस बनता है और उसी सरकारी स्कूल से पढ़ा लड़का मजदूरी करता है। अब तो हालत ऐसी है कि कईयों को मजदूरी भी नहीं मिल पाती।”

“जातियों का बोलबाला अगर राजनीति में है तो इसीलिए है क्योंकि समाज उससे अछूता नहीं है। मैं कथित ऊंची जाति से आता हूं। मेरी  आर्थिक हैसियत अच्छी है, इसलिए इसकी संभावना ज्यादा है कि मैं सपने देख पाऊं। उन सपनों को पूरा कर पाऊं। जब आर्थिक हैसियत अच्छी होती है। आसपास के लोगों का सपोर्ट मिलता है तो आप 25-35 साल तक पढ़ाई कर लेते हैं। लेकिन जब ऐसा कुछ भी नहीं होता है तो आप 12वीं पास करते ही नौकरी की तलाश में लग जाते हैं। अफसोस इस बात का है कि उत्तर प्रदेश में 12वीं पास करते ही नौकरी की तलाश करने वाले ज्यादा हैं।”

“यूपी बोर्ड बारहवीं तक बहुत अधिक समावेशी है। लेकिन 12वीं के बाद उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश करते ही उत्तर प्रदेश की जातिगत भेदभाव की प्रवृत्ति पहले के मुकाबले ज्यादा मजबूती से शिक्षण संस्थानों में प्रवेश कर जाती है। जो लोग पिछड़ी जाति के हैं। दलित हैं। उनकी तीसरी चौथी पीढ़ी 12वीं के बाद की पढ़ाई कर पाती है। जैसे-जैसे पढ़ाई 12वीं से आगे बढ़ने लगती है उन्हें अलगाव का सामना करना पड़ता है। यह घनघोर सच्चाई है। इसे नकारा नहीं जा सकता।”

रमाशंकर सिंह की बात की पुष्टि करते हुए उत्तर प्रदेश के उच्च शिक्षण संस्थानों के ढेर सारे आंकड़े हैं। दैनिक भास्कर की रिसर्च टीम ने एक आंकड़ा पेश पेश किया है कि उत्तर प्रदेश की 30 स्टेट यूनिवर्सिटी में 22 सवर्ण कुलपति हैं। यानी 73% से भी ज्यादा। पिछड़ा वर्ग, यानी OBC के 6 हैं, प्रतिशत निकालेंगे तो 20%। शेड्यूल कास्ट यानी SC कैटेगरी के सिर्फ एक वाइस चांसलर हैं। यह 3% हुए। कुलपतियों का कार्यकाल 3 से 5 साल होता है। मौजूदा सभी 30 कुलपति BJP सरकार में नियुक्त हुए हैं। यही उत्तर प्रदेश की सच्चाई है। यही उत्तर प्रदेश की राजनीति में दिखता है। जिसे सवर्ण जाति के लोग जातिवादी राजनीति कहकर नकारने की कोशिश करते हैं।

रमाशंकर सिंह आगे बताते हैं कि उत्तर प्रदेश एक गरीब राज्य है। एक गरीब व्यक्ति सबसे पहले रोटी और छत के जुगाड़ के बारे में सोचता है। इसलिए उत्तर प्रदेश जैसे गरीब राज्य से सरकारी नौकरी की लोकप्रियता खत्म होना अभी बहुत दूर की बात है। उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में आप सुबह टहल कर देखिए तो आपको सैकड़ों नौजवान दौड़ते हुए दिखेंगे। उनकी जिंदगी का एक ही सपना है कि शरीर वैसा बन जाए कि वह दरोगा और कांस्टेबल की भर्ती निकले तो नौकरी ले पाएँ। इसी तरह के ढेरों उदाहरण मिलेंगे।

ऐसे समाज में शिक्षा नागरिक नहीं बनाती प्रजा बनाती है। इसलिए गहरे से गहरे सवालों पर नागरिकों की तरफ से राज्य को कम चुनौतियां मिलती हैं। रमाशंकर सिंह कहते हैं कि लोगों को लगता है कि चुनावी राजनीति करने वाले लोग शिक्षा पर बात नहीं करते।लेकिन ऐसा नहीं है। उत्तर प्रदेश के सभी दलों के राजनीतिक कार्यकर्ता शिक्षा के महत्व पर बात करते हैं। प्रचार प्रसार करते समय बच्चों को स्कूल भेजने की बात करते हैं। लेकिन राजनीति अंतिम तौर पर केवल चुनाव से जुड़ी हुई प्रक्रिया है। इसलिए शिक्षा को लेकर गहरे तौर पर समाज आंदोलित नहीं हो पाता। यह चुनावी बहस का गहरा हिस्सा बन पाए, यह समाज का काम है। इस काम को एनजीओ को सौंप दिया गया है। यह एनजीओ से नहीं होने वाला। भाजपा ने कहा था कि वह एनजीओ का तंत्र खत्म करेगी। लेकिन शासन में आने के बाद भाजपा ने वैसे एनजीओ को बंद करना चालू किया जिसे वह पसंद नहीं करती है।

रमाशंकर सिंह के बाद आईआईटी रुड़की से एमटेक की पढ़ाई करने के बाद ऑनलाइन शिक्षण और सामाजिक कार्यकर्ता का काम कर रहे पवन यादव से बात हुई। पवन यादव का कहना है कि उत्तर प्रदेश के सरकारी विद्यार्थियों को पढ़ाते समय उनकी सबसे बड़ी परेशानी यह होती है कि दसवीं क्लास के बच्चे की जानकारी छठवीं क्लास के बराबर भी नहीं होती। 12वीं क्लास के बच्चे की जानकारी आठवीं क्लास के बराबर भी नहीं होती है। मैथमेटिक्स में 12वीं क्लास से जुड़ा कोई विषय पढ़ाने की कोशिश करते समय यह अड़चन आन पड़ती है कि विद्यार्थी को छठवीं क्लास का गणित का समीकरण नहीं आता है। इस वजह से कई सारे विद्यार्थी क्लास तो करते हैं लेकिन क्लास से अलग हो जाते हैं। उनका पढ़ने में मन नहीं लगता। 

कोरोना की वजह से यह स्थिति बहुत गंभीर हुई है। आठवीं क्लास का बच्चा बिना कुछ पढ़े लिखे दसवीं क्लास में पहुंच गया। उसे कैसे पढ़ाया जाए। गहरी असमानता पैदा हुई है। सरकार केवल टीचर, स्कूल और कॉलेज बुनियादी संरचना, परीक्षा तक सीमित रहती है। लेकिन बच्चों की दुनिया बहुत बड़ी होती है। शिक्षा का मतलब क्लास पास करना नहीं होता है। जिंदगी के 25 से 30 साल सीखने की प्रक्रिया में गुजारना होता है। वहां पर आठवीं दसवीं क्लास में ही अगर ऐसा लगने लगे कि शिक्षक की बात बिल्कुल नहीं समझ में आ रही है तो यह बहुत बड़ी दिक्कत वाली बात हो जाती है। ऑनलाइन पढ़ाई ने तो ढेर सारी परेशानी पैदा की है। बच्चे के पास लैपटॉप है। मोबाइल है। नेटफ्लिक्स अमेजॉन है। फेसबुक है। व्हाट्सएप है। ट्विटर है। 

ऑनलाइन पर अलग ही दुनिया है। यूपी के गरीब मां बाप अगर बहुत कष्ट उठाकर मोबाइल और लैपटॉप खरीद भी देते हैं तो उन्हें संभालने और गाइडेंस देने वाला कोई नहीं है कि वह अपने बच्चों को संभाल पाएँ। एक तरह की विकृति पैदा हो रही है। पहले जब सोशल मीडिया का उभार इतना अधिक नहीं हुआ था। तब बच्चे नेताओं की बयानबाजी से बहुत अधिक प्रभावित नहीं होते थे। लेकिन आज होते हैं।

समझदार और पढ़े लिखे लोगों को लगता है कि जिसने मुस्लिमों को गाली दी वह समाज के फ्रिंज एलिमेंट्स है। लेकिन वह गाली जब सोशल मीडिया के सहारे बच्चों तक पहुंचती है तो उनके मन मस्तिष्क पर अलग तरह का प्रभाव छोड़ती है। सरकारी स्कूल के बच्चों पर तो बहुत गलत प्रभाव छोड़ती है। क्योंकि उनका समाज विज्ञान पहले से ही खराब होता है। सोशल मीडिया उसे बहुत अधिक खराब कर रहा होता है।

पवन यादव कहते हैं कि मेरा अपना मानना है कि इंटरनेट की क्रांति आने के बाद शिक्षण की दुनिया बहुत अधिक बदल गई है। अगर लोग अपने बच्चों की जिंदगी की परवाह कर रहे हैं, अगर शिक्षा महत्वपूर्ण स्थान रखती है तो चुनाव में शिक्षा का मुद्दा केवल स्कूल कॉलेज शिक्षकों की संख्या और पढ़ाई की गुणवत्ता तक सीमित नहीं हो सकती। इसके ढेर सारे नए आयाम खुले हैं। इन सब पर मजबूती से चर्चा करने की जरूरत है। धीरे धीरे यह सारी चीजें हिंदी पट्टी की गरीब दुनिया को बहुत गहरे तरीके से प्रभावित कर रही हैं।

पवन यादव का कहना है कि मैंने दक्षिण भारत के बच्चों को भी पढ़ाया है। दक्षिण भारत के बच्चों से जब उत्तर भारत के बच्चों की तुलना करता हूं तो बहुत बड़ा अंतर पाता हूं। दक्षिण भारत के बच्चे टेक्नोलॉजी की दुनिया में उत्तर भारत से बहुत आगे हैं। दक्षिण भारत का समाज उत्तर भारत के मुकाबले ज्यादा परिष्कृत होने की वजह से अपने बच्चों को संभालने में ज्यादा कामयाब हो रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार के बच्चों की सांप्रदायिक और जातिगत नफरत में डूबने की संभावना केरल और तमिलनाडु के बच्चों से ज्यादा है। सच पूछिए तो बात यह है कि सोशल मीडिया के उभार की वजह से पहचान की किसी भी तरह की राजनीति बच्चों पर बड़ों से ज्यादा प्रभाव डाल रही हैं। जिसका आँकलन अभी ढंग से लगाया नहीं जा रहा है। उत्तर प्रदेश में यह दूसरे राज्यों के मुकाबले और अधिक खतरनाक तरीके से हो रहा है। रोजाना कोई ना कोई ऐसी छींटाकशी जरूर होती है जिसके मूल में समुदायों के प्रति आपसी नफरत की भावना होती है। लैंगिक और जातीय भेदभाव की बात होती है। सोशल मीडिया से उपजे इन सारी छोटी-छोटी गलत बहसों से समझदार लोग भले ही पार पे लें लेकिन उत्तर प्रदेश के स्कूल और कॉलेजों में जिन बच्चों ने जिंदगी की समझ पर पहला और दूसरा कदम रखा है उनके बारे में सोच कर देखिए। 

विकास कुमार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के शोध विद्यार्थी हैं। स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के सचिव हैं। इनका कहना है कि उदारीकरण के बाद शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति बहुत खराब हुई है। शिक्षा लेन-देन की वस्तु बन गई है। पैसा है तो आप शिक्षा खरीद सकते हैं और पैसा नहीं है तो शिक्षा नहीं खरीद सकते हैं। पैसे का जुगाड़ करिए फिर पढ़िए, जैसी भावना का लोक संस्कृति का हिस्सा बन जाने की जगह आम लोग सरकार का गिरेबान नहीं पकड़ते कि क्यों वह पढ़ाई-लिखाई की ढंग की व्यवस्था नहीं कर रही है। जबकि एक सभ्य समाज में शिक्षा का पूरा उपक्रम मुफ्त में होना चाहिए।

भारत के अन्य राज्यों की अपेक्षा उत्तर प्रदेश राज्य के सरकारी स्कूल की स्थिति ज्यादा खराब है। यह खराबी भी 90 के बाद ज्यादा हुई है। आज के समय में जो बड़े-बड़े पदों पर पहुंचे हैं, उनमें ठीक-ठाक संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिन्होंने अपनी पढ़ाई लिखाई सरकारी स्कूल से की थी। लेकिन आज के समय में सरकारी स्कूल में जिस तरह से पढ़ाई लिखाई हो रही है उसकी दशा बहुत खराब है। वह ढंग की नौकरी नहीं दिलवा सकती है।

उत्तर प्रदेश राज्य के लोगों की औसत आय 40 हजार रुपए वार्षिक के आसपास है। जोकि देश के कुल औसत आय से आधी है. यहां तो ढेर सारे बच्चे मजदूर बनने के लिए तैयार हो रहे हैं। प्राथमिक स्कूलों को ही देख लीजिए। राजकुमार का कहना है कि मैंने इलाहाबाद के आसपास के कुछ स्कूलों का सर्वे किया है। सरकार कहती है कि एक शिक्षक पर तकरीबन 30 विद्यार्थी होने चाहिए। उत्तर प्रदेश के आंकड़े भी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश भी इस मानक पर खरा उतरता है। लेकिन यह तो महज आंकड़े हैं। मैंने कोई बहुत बड़ा सर्वे नहीं किया है बस छोटा सा सर्वे किया है. इन आंकड़ों की हकीकत यह भी है कि सरकारी स्कूल में बच्चों की संख्या पहले से कम हो रही है। बच्चे कम होने की वजह से कम शिक्षकों की तैनाती भी उत्तर प्रदेश की शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच के अनुपात के मानक को पूरा कर देती है। उत्तर प्रदेश में दो स्कूलों को मिलाकर एक स्कूल बनाने की नीति आई। अगर एक ही स्कूल में 80 बच्चे पढ़ते हैं और उनमें से चौथी पांचवी क्लास पास करने के बाद केवल 50 बच्चे रह जा रहे हैं तो अपने आप स्थिति ऐसी हो जाएगी कि एक टीचर पर 30 बच्चों का मानक पूरा हो जाएगा। 

उत्तर प्रदेश में प्राथमिक सरकारी स्कूलों को लेकर के इस दौर में एक और प्रवृत्ति सामने आई है। सरकारी स्कूल में लड़कों के मुकाबले लड़कियां ज्यादा पढ़ रही हैं। परिवार वाले पढ़ाई का मानक प्राइवेट स्कूल को मानते हैं तो लड़कों को प्राइवेट स्कूल में भेज देते हैं। सरकारी स्कूलों में लड़कियां ज्यादा है। उसमें भी वंचित वर्ग और वंचित जातियों से आने वाली लड़कियां ज्यादा हैं।। इनमें ड्रॉपआउट बहुत अधिक हैं। गरीबी और पिछड़ेपन की वजह से बहुत कम बच्चियां दसवीं क्लास की सीढ़ी पार कर पाती हैं। प्राथमिक सरकारी स्कूलों की एक और दिक्कत है कि यहां पर सब कुछ गैर जिम्मेदाराना तरीके से होता है। प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों का काम पढ़ाई से ज्यादा सरकार के गैर पढ़ाई के काम करने भी में बीतता है। कहीं पर कोई पशुओं को गिन रहा है तो कहीं पर कोई वैक्सीन लगाने का काम कर रहा है। 

प्राथमिक स्कूल की बुनियादी पढ़ाई के लिए बहुत अधिक समय खर्च होता है। इसके लिए ऐसे कुशल शिक्षकों की जरूरत होती है जो बाल मनोविज्ञान के हिसाब से मेहनत करें। गुणवत्ता के मामले में प्राथमिक स्कूल के शिक्षकों की स्थिति बहुत खराब है।

राजकुमार कहते हैं कि अगर आप उच्च शिक्षा को देखिए तो भाजपा की पूरी विचारधारा उच्च शिक्षा के खिलाफ जाती है। कोई भी विद्यार्थी संगठन बिना प्रशासन के इजाजत के कोई काम नहीं कर सकता। फैजाबाद में देव दीपावली के अवसर पर सरकार की तरफ से सरकारी कार्यक्रम में विद्यार्थियों को ले जाया गया। यह सरकार का काम नहीं है कि विद्यार्थियों का इस्तेमाल वह अपनी राजनीति प्रचार के लिए करे। दो-तीन साल पहले की घटना है कि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में "कैसे अच्छी बहू बनें" नाम से पाठ्यक्रम बनाया गया। सोचिए कि सरकार की क्या मंशा होगी। बहुत अधिक विरोध के बाद सरकार ने इसे वापस लिया।

नई शिक्षा नीति आई है। कोरोना का दौर चल रहा है। कैंपस बंद है। लेकिन बिना किसी ठोस बहस के नई शिक्षा की नीति के आधार पर पाठ्यक्रम में धड़ाधड़ बदलाव किया जा रहा है। हम सब यह सोचते हैं कि हमारी पढ़ाई लिखाई जारी रहे। किसी क्लास में हम फेल होकर बैठ ना जाएँ। लेकिन नई शिक्षा नीति की वजह से ऐसे नियम बने हैं कि ड्रॉपआउट को कानूनी बना दिया गया है। अगर कोई बीए बीकॉम का विद्यार्थी पहला साल पढ़कर छोड़ेगा तो उसे सर्टिफिकेट मिल जाएगा। यह करने के बजाय फोकस इस पर होना चाहिए था कि वह कैसे अपनी पूरी पढ़ाई पूरी कर पाए।

अंत में बात अजय कुमार से हुई। अजय कुमार इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के स्कॉलर हैं। उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश पिछड़ा हुआ समाज है। जातिगत भेदभाव हर जगह है लेकिन उत्तर प्रदेश में दूसरे राज्यों से ज्यादा है। पिछड़े हुए समाज के साथ दिक्कत यह होती है कि प्रगतिशीलता की बजाय सामाजिक संरचनाएं समाज को चलाने में अपनी भूमिका निभाती हैं। इसीलिए जितनी बहस जातियों पर होती है उतनी बहस शिक्षा जैसी बुनियादी चीजों पर नहीं होती।

एक छोटे से उदाहरण से अपनी बात कहूं तो जब तक समाज शिक्षा को गंभीरता से नहीं लेगा तब तक शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव नहीं हो पाएगा। अगर समाज शिक्षा को गंभीरता से लेता तो कोई पार्टी लैपटॉप देकर संतुष्ट ना करती बल्कि लैपटॉप की जगह पर किसी जिले में या शहर में या 100 किलोमीटर की एरिया में हजारों की संख्या में कंप्यूटर लैब बनवाती। जिसका इस्तेमाल विशुद्ध तौर पर केवल पढ़ने लिखने के लिए किया जाता। इसके बहाने शिक्षा का माहौल बनता। शिक्षा पर विमर्श छिड़ता। इसका फायदा अगली पीढ़ियां उठातीं। इस तरह के मजबूत कदम उठाने के बाद ही शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में पिछले 30 से 40 साल से जस के तस की स्थिति रही है। शिक्षा को लेकर कोई मुकम्मल खाका नहीं है। कोई मुकम्मल जांच और परिणाम नहीं है। कोई मुकम्मल बहस नहीं है। देश दुनिया की बात तो बहुत दूर है उत्तर प्रदेश शिक्षा के मामले में भारत के दूसरे राज्यों से बहुत पीछे है।

चलते चलते उत्तर प्रदेश के शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक और राय सुनिए। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के राहुल वर्मा ने अपने रिसर्च में बताया है कि भारत के कई प्राइवेट कॉलेजों की प्रवृत्ति है कि उनका मालिकाना हक कहीं ना कहीं से किसी नेता और नेता के सगे संबंधी से जुड़ा होता है। राहुल वर्मा का विश्लेषण बताता है की राजनीति में 20 साल से अधिक का समय गुजार चुके नेताओं की कॉलेज और स्कूलों के मालिक होने की संभावना दूसरों के मुताबिक तकरीबन तीन गुनी अधिक होती है। इसके ढेर सारे फायदे होते हैं। नेता का रसूख बनता है। नेता अपने लोगों को कॉलेजों में शिक्षक के तौर पर भर्ती करता है। स्कूल की बिल्डिंग का इस्तेमाल एग्जामिनेशन सेंटर के तौर पर किया जाता है। जहां धांधली अधिक होती है। कॉलेज ट्रस्ट के तहत चलते हैं। काला पैसा सफेद हो जाता है। कॉलेज के बच्चे नेता के कार्यकर्ता के तौर पर भी इस्तेमाल होते हैं। इस तरह से ऊपर से दिखते कई पढ़ाई लिखाई के केंद्र उत्तर प्रदेश में भीतर से चुनावी प्रतिस्पर्धा के गढ़ भी बने हुए है।

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