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भारतीय निर्वाचन आयोग: अपनी ‘साख” को बनाए और बिगाड़े

हाल में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय निर्वाचन आयोग अपने दिशा-निर्देंशों और अधिकारों पर अमल कराने में विफल हो गया है। यह जानते हुए कि उसकी निष्क्रियता का मतलब कोविड-19 के प्रकोप के दुष्परिणामस्वरूप चारों तरफ मौत और विध्वंस का तांडव मचना होगा।
भारतीय निर्वाचन आयोग: अपनी ‘साख” को बनाए और बिगाड़े

जब मैं यह आलेख लिख रहा हूं तो देश के पांच राज्यों के लिए संपन्न हुए विधानसभाओं के चुनाव परिणाम घोषित किये जा रहे हैं। यह पूरी कवायद लोगों को उस त्रासदी की तरफ से ध्यान भटका रही है, जब आज का भारत कोविड-19 के मरीजों की लंबी-लंबी कतारों में खड़ा अपनी बारी का इंतजार कर रहा है, एम्बुलेंस में चिकित्सा सुविधाएं न होने से असहाय होकर मरीज दम तोड़ रहा है; गंभीर रूप से संक्रमित मरीज ऑक्सीजन के लिए हांफ रहा है और अंतिम सांसें गिन रहा है; मृतात्मा के अंतिम संस्कार करने के लिए उनके परिजन एक अंतहीन कतार में असहाय खड़े हैं। बड़े-बुजुर्ग और लाचार लोग तक अंतहीन पंक्तियों में खड़े हो कर कोविड-19 की वैक्सीन की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

इन चुनावों में कुछ पार्टियां चुनाव जीत सकती हैं और कुछ हार भी सकती हैं, लेकिन क्या यह परिदृश्य हमें कम्बोडिया के मौत के मैदान की याद नहीं दिलाता है? चुनाव समाप्त होने पर कौन विजयी रहा? क्या लोकतंत्र इसका विजेता है? यह नहीं भी हो सकता है। क्या भारतीय निर्वाचन आयोग टीएन शेषन की सुकीर्ति के गौरव में छिप गया है? निश्चित रूप से नहीं। यह संभवत: अब तक हुए सभी चुनावों की तुलना में सबसे बड़ी त्रासदी है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियों ने किसी भी तरह चुनावों को जीतने के लिए अपनी आत्मा तक को वाकई बेच दिया है, ठीक उस दानव के जैसे, जिसने सांसारिक सुख की लालसा में पिशाच के हाथों अपनी आत्मा बेच दी थी, जबकि देश व्यापक रूप से अंतिम संस्कार होते देख रहा है। निर्वाचन आयोग जो आगे बढ़ कर इस भयानक आपदा को रोक सकता था, दुर्भाग्यवश, उसने इसका सहभागी बनने का चुनाव किया।

 जब कलकत्ता और मद्रास उच्च न्यायालयों ने इन चुनावों में निर्वाचन आयोग की भूमिका पर प्रतिकूल टिप्पणियां कीं,  और जब मीडिया ने उन टिप्पणियों  का व्यापक कवरेज देना शुरू किया तो आयोग ने एक न्यायालय की शरण ली और उससे दरख्वास्त किया कि वह मीडिया को न्यायालय के आकलन की रिपोर्ट करने से मना करें क्योंकि इससे उसकी “साख” को बट्टा लगेगा ! पहली नजर में आयोग की यह कवायद पारदर्शिता की आवश्यकता को रोकती है, जो दो संवैधानिक अधिकारों “प्रेस की स्वतंत्रता” और “नागरिकों को जानने के अधिकारों” में अंतर्निहित की गई है। किंतु चुनाव के एक नियामक के रूप में निर्वाचन आयोग की भूमिका के बारे में गहरी चिंताएं हैं। जरा सोचिए कि आयोग की कीर्ति 1990 के दशक की शुरुआत में कैसी थी, जब टी एन शेषन चुनाव आयुक्त हुआ करते थे? क्या मौजूदा निर्वाचन आयोग  अपने आचरण और प्रतिष्ठा में उनकी बराबरी करता है?

ग्रीक दार्शनिक सुकरात ने कहा था, “अच्छी ख्याति अर्जित करने का एक रास्ता वह है कि जो तुम बाहर दिखना चाहते हो, उसके लिए निरंतर प्रयास करो।” मौजूदा निर्वाचन आयोग अपने लिए किस तरह की भूमिका को देखना पसंद करता है? क्या इसको लेकर वह उतना ही स्पष्ट और ईमानदार है?  क्या इसने स्वयं के प्रति न्याय किया है? क्या उसने कुछ भी बेहतर काम किया है, जिससे कि वह टी एन शेषन की विरासत का वास्तविक उत्तराधिकारी हो सके?

मैं सौभाग्यशाली हूं कि मुझे टीएन सेशन के साथ काम करने का अवसर मिला है, जब वे पूर्व के योजना आयोग (मौजूदा में नीति आयोग) के सदस्य थे। फिर जब वे चुनाव आयुक्त हुए तो चुनाव पर्यवेक्षक के रूप में भी उनके साथ काम करने का मुझे अवसर मिला। वे निर्वाचन कानून को उसकी हद तक ले गए और यह दिखा दिया कि भारतीय लोकतंत्र की रक्षा और उसकी गतिशीलता के लिए निर्वाचन आयोग के क्या अधिकार हैं।  उन्होंने आदर्श आचार संगीता को अस्थि-मज्जा और प्राण दिए। राजनीतिक पार्टियों के दिलो-दिमाग में कानून का डर दिखाने से वे कभी हिचकते नहीं थे। निर्वाचन आयोग की मान -मर्यादा की रक्षा के लिए आवश्यक होने पर उन्होंने अदालती विवादों में पड़ने से भी गुरेज नहीं किया। शेषन ने 1992 में दो राज्यों के चुनावों को इसलिए रद्द कर दिया था कि राजनीतिक पार्टियों ने निर्वाचन आयोग के साथ अपेक्षित सहयोग नहीं किया था। इतना ही नहीं, उन्होंने 1993 में 1,488 लोकसभा सांसदों को इसलिए अयोग्य घोषित कर दिया था क्योंकि वे चुनावी खर्चों का ब्योरा नहीं जमा कर सके थे। शेषन ने मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित करने की कोशिश करने वाले दो वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों को मंत्रिमंडल से निकाल बाहर करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री से कह दिया था।

उनके बाद हुए अनेक चुनाव आयुक्तों ने निर्वाचन आयोग की उस साख को बहाल रखने की भरसक कोशिश की थी, जिसे शेषन ने अपने दौर में बड़ी मेहनत से बनाया था। हालांकि उनमें से कुछ आयुक्तों ने इन अवसरों की अवहेलनाएं कीं क्योंकि उन्होंने उन नेताओं की जी हुजूरी की, जिन्होंने उन्हें निर्वाचन आयुक्त के पद पर नियुक्त किया था। और वे  कद्दावर राजनीतिक पार्टियों के सामने उचित नियम-कायदे को लेकर भी खड़े होने में डरपोक साबित हुए। इस तरह,  बाद के वर्षों में निर्वाचन आयोग की प्रतिष्ठा घट गई।  मौजूदा निर्वाचन आयोग के पास ऐसे अवसर थे कि वह शेषन की प्रथा का अनुपालन करते लेकिन उन्होंने यह नहीं किया।  अगर उसकी साख चोटिल हुई है,  तो यह  जख्म उनके खुद का पैदा किया हुआ है। लिहाजा, निर्वाचन आयोग का प्रेस की खबरों में दोष-दर्शन, इसीलिए निरर्थक है। 

यहां कुछ उदाहरण हैं, जो बताएंगे कि किस तरह निर्वाचन आयोग ने ऐसे स्वर्णिम अवसरों को अपने हाथों से व्यर्थ जाने दिया है, जबकि वह आसानी से उन दायित्वों को पूरा कर सकता था, जो शेषन ने किया।  अनेक राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी खर्चे और राजनीतिक चंदों के विवरण चुनाव आयोग के समक्ष देने में विफल रही हैं। इसके लिए चुनाव आयोग उन्हें चेतावनी दे सकता था कि ऐसा न करने पर अगले चुनाव में उनके भाग लेने पर रोक लगाई जा सकती है। लेकिन उसने मूकदर्शक होना स्वीकार किया।  जब राजनीतिक पार्टियां कॉरपोरेट से मिले चंदे को प्रमाणित करने में विफल हो गई, जिसे कंपनी एक्ट और विदेशी चंदा नियमन अधिनियम के प्रावधानों के तहत किया जाना  अनिवार्य था, तो ऐसी स्थिति में, चुनाव आयोग उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी कर पूछ सकता था कि इसके लिए उनके विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं की जानी चाहिए,  लेकिन निर्वाचन आयोग ने ऐसा भी नहीं किया।  निर्वाचन आयोग चुनावी भ्रष्टाचार, नामांकन के समय  हलफनामे में अपनी संपत्ति और खुद के बारे में सही-सही विवरण नहीं देने पर राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों पर मुकदमा दर्ज कर सकता था और इसी तरह की अन्य कार्रवाई भी करने का उसे अधिकार है।  निर्वाचन आयोग ने इन प्रावधानों के मुताबिक कार्य नहीं किया क्योंकि उन घमंडी उम्मीदवारों में से कुछ पथभ्रष्ट हैं। इसके परिणामस्वरूप,  राजनीतिक दलों ने निर्वाचन आयोग को हल्के में लेना शुरू कर दिया है और एक स्वतंत्र नियामक निकाय की भूमिका को एक मजाक बना दिया है। अवकाशप्राप्त लोकसेवकों में निर्वाचन आयुक्त बनने के लिए परस्पर होड़ लगी रहती है और इसके  लिए वे कोई भी बोली लगाने के लिए तैयार रहते हैं। 

निर्वाचन आयोग ने जिस तरीके से हालिया विधानसभा चुनावों और उपचुनावों का संचालन किया है, वह वाकई अजीबोगरीब है। कोविड-19 के प्रकोप को देखते हुए निर्वाचन आयोग इसकी त्रासदी को टालने के लिए चुनावों को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर सकता था पर उसमें यह इच्छाशक्ति नहीं थी। चुनावी रैलियों की इजाजत देने के बजाय निर्वाचन आयोग  कोविड-19 के कायदों का पालन करते हुए राजनीतिक दलों से वर्चुअल बैठक के करने पर जोर दे सकता था। पर इस मामले में आयोग के पास नया रास्ता नहीं था और न ही इसे लेकर उसका कोई नजरिया था। कोविड-19 के संदर्भ में तैयार की गई स्वयं उसकी नियमावली ही राजनीतिक दलों को चुनावी रैलियां करने से रोक देती, अगर वह कोविड-19 के तय कायदों के मुताबिक कार्य करते नहीं पाये जाते।

हालांकि राजनीतिक पार्टियों के स्टार चुनाव प्रचारकों में से कुछ सरकार के सर्वोच्च पदों पर थे, उन्होंने आयोग की इस चेतावनी की कोई परवाह नहीं की बल्कि दी गई नियमावलियों की धज्जियां उड़ा दीं और जानबूझकर आम जनता के जीवन को खतरे में डाल दिया। उनमें से कुछ नेता-प्रचारक तो सभा में जुटी भारी भीड़ का खड़े हो कर उनका अभिवादन करते देखते तो उनके चेहरे पर आत्ममुग्ध चमक फैल जाती थी। वे इस भारी भीड़ के बाद शर्तिया तौर पर आने वाली  मानवीय त्रासदी और आकस्मिकताओं को जानबूझकर नजरअंदाज करते थे।  निर्वाचन आयोग  अपने अंतर्निहित अधिकारों का उपयोग कर स्टार प्रचारकों  के विरुद्ध आपदा प्रबंधन अधिनियम (डीएमए)  के अंतर्गत मुकदमा दर्ज कर इन रैलियों को प्रतिबंधित कर सकता था। और यहां तक कि भारतीय अपराध संहिता (आईपीसी) की धारा 269 और 270 (संक्रामक रोगों का प्रसार कर मानवीय जीवन को खतरे में डालना)  और  गैर जवाबदेही तरीके से रैलियां करने पर चुनाव को स्थगित करने के अपने अधिकारों का उपयोग कर सकता था। 

वह सब करने के बजाय निर्वाचन आयोग अपने ही दिशा-निर्देशों और अधिकारों के समुचित उपयोग करने में विफल रहा, यह अच्छी तरह जानते हुए कि उसकी निष्क्रियता का मतलब कोविड-19 के प्रकोप के दुष्परिणामस्वरूप चारों तरफ मौतों और विध्वंस का तांडव मचना होगा। ऐसा करते हुए निर्वाचन आयोग भी इस अपराध में  सहभागी हो गया और जैसा कि दंड विधान में कहा गया है कि अपराध में सहयोग करने वाला भी समान दंड का भागीदार होता है। यह खुद निर्वाचन आयोग है, जिसने अपने अधिकार को कमतर कर लिया है। यह स्वयं निर्वाचन आयोग ही है, जिसने अपनी प्रतिष्ठा घटायी है। 

1990 के पूर्वार्ध में जब शेषन ने निर्वाचन आयोग में जान डाल दी थी, तब आयोग कद्दावर हो गया था।  आज भी,  दो दशकों बाद, शेषन का नाम समूचे देश में घर-घर लिया जाता है। उनका नाम स्वतंत्र चुनाव निगरानी का पर्याय हो गया है। यद्यपि उनकी स्मृति आज भी प्रत्येक भारतीयों के दिल में बसी हुई है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि निर्वाचन आयोग की प्रतिष्ठा में गिरावट आया है।  क्या यह  निर्वाचन आयोग के लिए उचित समय नहीं है कि वह स्वयं के बारे में  और अपनी भूमिका  को लेकर गहन चिंतन करे?

निर्वाचन आयोग की शक्ति उसके पारदर्शी क्रियाकलाप के प्रति उसकी प्रतिबद्धता में है, उसकी शक्ति राजनीतिक दलों के साथ स्वेच्छा के साथ व्यवहार करने तथा निर्भीकता से अहंकारी उम्मीदवारों एवं दलों को कानून के कटघरे तक लाने में है। अगर निर्वाचन आयोग इस चेतना के मुताबिक काम करने में विफल रहता है और अपने को सुधारने में कामयाब नहीं होता है,  तो निश्चित रूप से उसकी प्रतिष्ठा आगे  और गिरेगी। अगर वह शेषन की तरह का निर्वाचन आयोग के रसूख को फिर से पा लेता है, अपने को उसी रूप में रूपांतरित कर लेता है और व्यापक रूप से लोगों के मन-मस्तिष्क में अपनी छवि का विस्तार करता है, तो दूसरे उसके बारे में क्या कहते हैं, उसकी परवाह उसे क्यों करनी चाहिए?

मैं उम्मीद करता हूं कि निर्वाचन आयोग इन तमाम बिंदुओं पर तत्काल और ईमानदारी से विचार करेगा।  भारतीय लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए एक स्वस्थ, स्वतंत्र, निर्भीक और निष्पक्ष निर्वाचन आयोग का होना आवश्यक है। 

(लेखक भारत सरकार में पूर्व सचिव रहे हैं। इस लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Election Commission of India: The Making and Unmaking of Its ‘Reputation’

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