Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

रोज़गार बनता व्यापक सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा, संयुक्त आंदोलन की आहट

बेरोज़गारी के अभूतपूर्व संकट के ख़िलाफ़ समाज में हलचल बढ़ती जा रही है। न सिर्फ़ छात्र युवा संगठन बल्कि किसान व श्रमिक संगठन भी इसे ज़ोरशोर से उठा रहे हैं, यहां तक कि राजनीतिक दल भी अब इसके लिए सड़क पर उतर रहे हैं।
unemployment
फाइल फ़ोटो। साभार : ट्विटर

यह स्वागत योग्य है कि बेरोजगारी के अभूतपूर्व संकट के खिलाफ समाज में हलचल बढ़ती जा रही है और एक व्यापक आधार वाला एकताबद्ध आंदोलन आकार ले रहा है। इस सिलसिले में दो नए developments उल्लेखनीय हैं। पहला यह कि रोजगार का सवाल अब महज प्रतियोगी छात्रों व युवाओं का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि पूरे समाज की चिंता का सबब बन गया है। अब यह एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा बनता जा रहा है।

न सिर्फ छात्र युवा संगठन बल्कि किसान व श्रमिक संगठन भी इसे ज़ोरशोर से उठा रहे हैं, यहां तक कि राजनीतिक दल भी अब इसके लिए सड़क पर उतर रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने अपने आंदोलन के नए चरण में अग्निपथ योजना और रोजगार के सवाल को प्रमुख मुद्दा बनाया है। 7 से 14 अगस्त तक वे नौजवानों तथा पूर्व सैनिकों के साथ मिलकर पूरे देश में " जय जवान, जय किसान " सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। बिहार में वामपंथी दलों और महागठबंधन के हजारों कार्यकर्ता 7 अगस्त को पूरे प्रदेश में महंगाई और बेरोजगारी को लेकर प्रतिवाद में सड़क पर उतरे। 5 अगस्त को कांग्रेस ने दिल्ली और देश के अन्य इलाकों में महंगाई के साथ बेरोजगारी के सवाल को ज़ोरशोर से उठाया। तमाम राजनीतिक दल अपने अपने ढंग से इस सवाल को उठा रहे हैं।

रोजगार के सवाल पर उभरते आंदोलन का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि तमाम संगठन अलग-अलग तो संघर्षरत हैं ही, अब ये एकताबद्ध आंदोलन की ओर बढ़ रहे हैं।

जनसंगठनों के umbrella platform संयुक्त रोजगार आंदोलन समिति ने राष्ट्रीय रोजगार नीति और उसकी गारंटी का कानून बनाने के लिये 16 अगस्त से 22 अगस्त तक जंतर-मंतर पर आंदोलन का ऐलान किया है। बताया जा रहा है कि यह 200 से ऊपर संगठनों का मंच है जिसमें तमाम छात्र-युवा संगठनों के साथ श्रमिक, शिक्षक, बुद्धिजीवी भी शामिल हैं। उधर युवा हल्ला बोल की ओर से बिहार में रोजगार के सवाल पर जनजागरण और आंदोलन का कार्यक्रम लिया गया है और 16 अगस्त से 23 सितम्बर तक हल्ला बोल यात्रा निकाली जा रही है।

बेरोजगारी के सवाल पर अपनी सरकार के खिलाफ उभरते आक्रोश और आंदोलन की आशंकाओं को भांपते हुए जून में मोदी जी ने अचानक ऐलान किया कि अगले डेढ़ साल में 10 लाख नौकरी दी जाएगी। उन्होंने तमाम विभागों के सचिवों को निर्देश दिया कि नई भर्ती पर फोकस किया जाय और सभी विभागों/मंत्रालयों में मिशन मोड में सब खाली जगहें भरी जाएं।

ज्ञातव्य है कि उनके मंत्री जितेंद्र सिंह ने कुछ समय पहले लोकसभा को बताया था कि 1 मार्च 2020 को केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में 8.71 लाख वैकेंसी थी। अनुमान है कि यही अब बढ़कर 10 लाख पहुंच गई होगी, जिसे मोदी जी अब भरने की बात कर रहे हैं। इसी बीच एक ऐसा आंकड़ा आया जिसने सबको चौंका दिया। मोदी शासन के 7 साल में कुल 22 करोड़ लोगों ने नौकरियों के लिए आवेदन किया जिसमें से मात्र 7 लाख 22 हजार 311 को नौकरी मिली। यह लगभग 0.3% है।

8 साल में 7 लाख नौकरियां देने के ट्रैक रेकॉर्ड वाली मोदी सरकार क्या डेढ़ साल में 10 लाख नौकरियां दे पाएगी ? आखिर कई वर्षों से खाली पड़े पदों पर भर्ती न करके क्या युवाओं को इनसे इसलिए वंचित किया गया था कि चुनाव के साल में इसे मेगा इवेंट बनाया जा सके और बेरोजगारी के खिलाफ उबलते आक्रोश को ठंडा किया जा सके?

प्रधानमंत्री के रोजगार सम्बन्धी वायदे अब तक जुमले ही साबित हुए हैं और इस सवाल पर उनकी साख तलहटी छू रही है। यहां तक कि जिन सरकारी भर्तियों के लिये विज्ञापन हो जाता है उनमें भी परीक्षा के अनेक स्तर पार करने और अंततः अंतिम भर्ती पाने के लिए युवाओं को सालों-साल इंतज़ार करना पड़ता है, कई बार तो यह एक अंतहीन इंतज़ार ही बना रह जाता है। अंग्रेज़ी की कहावत लगता है मोदी राज के भारत के परीक्षार्थियों के लिए ही बनी थी, " There is many a slip between cup and lip. "

पर अगर चमत्कार हो जाय और मोदी सरकार ये नौकरियाँ दे भी दे तो क्या आज देश में रोजगार का जो विकराल संकट है वह हल हो जाएगा ? जिस देश में 120 लाख नए लोग हर साल रोजगार की तलाश में जॉब मार्केट में आ रहे हैं, वहां कई सालों से चुनावी वर्ष के लिए बचा कर रखी गई ये नौकरियां ऊंट के मुंह मे जीरा ही तो हैं।

विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार युवाओं ( 15 से 24 आयु वर्ग ) में बेरोजगारी की दर जहां जापान में 4.4 %, जर्मनी 6.9 %, इजराइल 8.8%, पाकिस्तान 9.40 % , नेपाल 9.5 %, अमेरिका 9.6 %, श्रीलंका 26.1%, वहीं भारत में यह 28.3 % है। CMIE के अनुसार तो स्थिति और भयावह है, 20-24आयु वर्ग में जून में यह 43.7 % रही। कुल बेरोजगारी दर मई के 7.1% से बढ़कर जून में 7.8% हो गयी।

McKinsey Global Institute के अनुसार भारत को 2030 तक अर्थात अगले 8 साल में 9 करोड़ रोजगार कृषि क्षेत्र के अतिरिक्त (non-farm job ) पैदा करने होंगे। सरकार ने बजट में अगले 5 साल में 60 लाख रोजगार का लक्ष्य घोषित किया है, जाहिर है सरकार के अपने पुराने रेकॉर्ड और मौजूदा नीतियों के आईने में यह एक असम्भव लक्ष्य है।

रोजगार को लेकर मौजूदा सरकार से लोगों की नाउम्मीदी का एक पैमाना यह भी है कि भारत में केवल 40% भारतीय काम में हैं या काम की तलाश में हैं जबकि विदेशों में यह 60% है। महिलाओं का workforce participation rate तो आज 2005 के 35% से भी घटकर मात्र 21% रह गया है जो वैश्विक औसत 50% के आधे से भी कम है । इस पैमाने पर हम न सिर्फ 20 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे नीचे हैं, बल्कि सऊदी अरब से भी नीचे हैं, जिसके बारे में आम समझ है कि वहां महिला भागेदारी सबसे कम होगी।

काम की गुणवत्ता की हालत यह है कि 15% से भी कम रोजगार formal sector में है जबकि 85 % से ऊपर इनफॉर्मल सेक्टर में है, जहां न गरिमामय वेतन है, न सेवा शर्तें और काम की स्थितियां। जिस स्किल डेवलपमेंट का इतना ढिढोरा पीटा गया, उसकी हालत यह है कि मात्र 5 % श्रमशक्ति औपचारिक रूप से स्किल्ड है जबकि जर्मनी में यह 75% और दक्षिण कोरिया में 96% है।

पूरी दुनिया में विकास और समृद्धि का रास्ता यही रहा है कि आबादी निम्न उत्पादकता से उच्चतर उत्पादकता वाले कामों की ओर शिफ्ट हुई, कृषि से मैन्युफैक्चरिंग की ओर गयी। लेकिन भारत मे GDP में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा मात्र 15% के आसपास बना हुआ है। बार बार सरकारों ने 25% का लक्ष्य रखा, लेकिन नीतिगत दिवालियेपन के कारण इसमें वृद्धि नहीं हुई।

दरअसल हमारे स्तर की अर्थव्यवस्था वाले तमाम देशों ने लेबर intensive उद्यमों पर जोर दिया और बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन तथा जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ाने में सफल हुए लेकिन हमने उच्चतर टेक्नोलॉजी आधारित capital intensive उद्योगों पर जोर दिया और रोजगार सृजन तथा मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा बढ़ाने में विफल हुए।

यह मांग लगातार उठती रही है कि मनरेगा जो फिलहाल ग्रामीण क्षेत्र के लिए है, वैसा ही रोजगार गारंटी कानून शहरी क्षेत्रों के लिए लागू किया जाना चाहिए। परन्तु मोदी जी जिस तरह मनरेगा पर अपने कार्यकाल के शुरू में ही हमला कर चुके हैं और अब रेवड़ियां बांटने अर्थात गरीबों को सरकार की ओर से मिलने वाली थोड़ी बहुत आर्थिक मदद, सब्सिडी आदि के खिलाफ सार्वजनिक अभियान छेड़े हुए हैं, उससे अब तो मनरेगा जैसी योजनाओं पर भी तलवार लटक रही है और नवउदारवादी नीतियों के संकट के अगले चरण में मोदी सरकार द्वारा इसके साथ भी छेड़छाड़ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसके बजट आबंटन में तो सरकार मनमाने ढंग से कटौती करती ही रहती है।

इसीलिए आज यह जरूरी है कि काम के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार के बतौर शामिल करने का 75 साल से लंबित agenda आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष का युद्धघोष बने ताकि देश के हर नागरिक के लिए गरिमामय रोजगार की गारंटी हो सके। जाहिर है इसके लिए मौजूदा नवउदारवादी नीतिगत ढांचे को पलटने और बड़े नीतिगत बदलाव की जरूरत है, जो तभी सम्भव है जब आंदोलन के माध्यम से रोजगार 2024 के चुनाव का बड़ा राजनीतिक मुद्दा बने और मौजूदा रोजगार विरोधी सरकार की विदाई हो।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest