Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

राजदंड के साथ भाजपा के झूठ की स्थापना

आज जब वे सत्ता में हैं तो लोकतंत्र को मजबूत करने वाली स्थापना नहीं कर रहे हैं। वे राजशाही और सामंती सत्ता का एक जंग लगा प्रतीक-चिह्न खोज लाए और संसद में उसे स्थापित भी कर दिया।
modi
फ़ोटो साभार: PTI

नए संसद भवन में जिस राजदंड यानी सेंगोल की स्थापना हुई है, उसके साथ कई झूठ फैलाए गए। हालांकि, इसकी स्थापना के दौरान यह भी कहा गया कि यह सेंगोल बड़ी पवित्र चीज है। अगर कोई चीज पवित्र है तो उसके साथ झूठ क्यों फैलाया जा रहा है? इस राजदंड के बारे में जितने दावे किए गए, वे तथ्यों की कसौटी पर कहीं नहीं ठहरते, इसलिए उनकी पड़ताल जरूरी है।

नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में खुद प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा "अच्छा होता कि इस पूज्य सेंगोल को पर्याप्त मान-सम्मान दिया जाता। यह सेंगोल प्रयागराज में आनंद भवन में वॉकिंग स्टिक... यानी पैदल चलने पर सहारा देने वाली छड़ी कहकर प्रदर्शनी के लिए रख दिया गया था।"

ये दोनों बातें सफेद झूठ हैं। पहली बात तो यह आनंद भवन में नहीं, बल्कि इलाहाबाद संग्रहालय में रखा था। इसे 4 नंवबर 2022 को इलाहाबाद संग्रहालय से दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय लाया गया था। इसके लिए दोनों के बीच एक एमओयू पर हस्ताक्षर हुए और उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल की तरफ से स्वीकृति प्रदान की गई। यूपी के राज्यपाल ही इलाहाबाद संग्रहालय के चेयरपर्सन होते हैं।

दूसरा इसे वॉकिंग स्टिक कभी नहीं बताया गया। संग्रहालय में इसके विवरण में लिखा था, “पंडित नेहरू को सौंपी गई सोने की छड़ी”। इलाहाबाद संग्रहालय के रिटायर्ड क्यूरेटर डॉ ओंकार आनंदराव वानखेड़े ने 'द वायर' को बताया, यह कभी नहीं कहा गया कि यह नेहरू की वॉकिंग स्टिक है।

इस सेंगोल की स्थापना की सूचना आधिकारिक तौर पर गृहमंत्री अमित शाह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके दी थी। उन्होंने बताया कि आजादी के समय जब पंडित नेहरू से पूछा गया कि सत्ता हस्तांतरण के दौरान क्या आयोजन होना चाहिए तो नेहरू जी ने अपने सहयोगियों से चर्चा की। सी. गोपालाचारी से पूछा गया। सेंगोल की प्रक्रिया को चिह्नित किया गया। पंडित नेहरू ने पवित्र सेंगोल को तमिलनाडु से मंगवाकर अंग्रेजों से सेंगोल को स्वीकार किया। इसका तात्पर्य था पारंपरिक तरीके से ये सत्ता हमारे पास आई है। अधिकांश मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया कि सेंगोल को विमान से दिल्ली लाया गया था।

अमित शाह की प्रेस कॉन्फ्रेंस के अगले दिन 25 मई को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने चेन्नई में इसे “सत्ता हस्तांरण” का प्रतीक बताया। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद 'द हिंदू' ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसके अंग्रेजी शीर्षक का अनुवाद है, 'सेंगोल: राजदंड के बारे में सरकार के दावों के पक्ष में सबूत कमजोर'। यह रिपोर्ट कहती है कि इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि 15 अगस्त, 1947 को आजादी समारोह में शामिल होने के लिए संतों का एक समूह दिल्ली आया था और मंत्रोच्चार के साथ नेहरू ने उनसे सेंगोल स्वीकार किया था।

'द हिंदू' की रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार ने इस राजदंड की ऐतिहासिकता के बारे में जो सबूत दिए हैं, कुछ किताबों, लेख, मीडिया रिपोर्ट, सोशल मीडिया और निजी ब्लॉग पोस्ट से लिए गए गए हैं। ये सबूत सरकार के दावे को स्थापित नहीं करते। 1947 में 'द हिंदू' समेत अखबारों ने इसकी संक्षिप्त रिपोर्टिंग की थी और किसी ने नहीं लिखा है कि यह “सत्ता हस्तांरण” का प्रतीक है या फिर यह सी. राजगोपालाचारी की सलाह पर स्वीकार किया गया था। अखबार लिखता है कि 'द हिंदू' ने 11 अगस्त, 1947 को संतों के दिल्ली आने की तस्वीर प्रकाशित की थी, वह चेन्नई रेलवे स्टेशन की है, इससे यह संकेत मिलता है कि संतों का समूह विशेष विमान से नहीं बल्कि ट्रेन से आया था।

राजदंड को “सत्ता हस्तांरण” का प्रतीक बताने के लिए टाइम मैग्जीन का भी हवाला दिया जा रहा है। 25, 1947 को टाइम मैग्जीन में छपे लेख में इसे “सत्ता का प्रतीक” तो बताया गया है लेकिन उसमें भी इसे “सत्ता हस्तांरण” का प्रतीक नहीं कहा गया है। 'द हिंदू' की रिपोर्ट कहती है कि जिन किताबों में नेहरू के धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने को लेकर आलोचनात्मक रुख अख्तियार किया है, उनमें भी इसे “सत्ता हस्तांरण” का प्रतीक नहीं बताया गया है। इस बात के भी कोई सबूत नहीं मिलते हैं कि पहले यह राजदंड लॉर्ड माउंटबेटन को दिया गया और फिर उनसे “सत्ता हस्तांरण” के प्रतीक के रूप में इसे नेहरू ने स्वीकार किया।

सबसे हैरानी की बात है कि एक ब्लॉग पोस्ट को बतौर सबूत पेश किया गया है जिसका शीर्षक है- 'वॉट्सएप हिस्ट्री' और इसे लिखा है तमिल लेखक जयमोहन ने। इस लेख में दरअसल उन्होंने सोशल मीडिया पर बांचे जा रहे इतिहास का मजाक उड़ाया है।

इसे भी पढ़ें: राज—दंड या विप्र—दंड?

'सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू' के संपादक प्रोफ़ेसर माधवन पलट ने बीबीसी से कहा "ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं है कि लॉर्ड माउंटबेटेन ने इसे प्रधानमंत्री नेहरू को दिया और नेहरू ने इसे स्वीकार किया। संभव है कि प्रधानमंत्री नेहरू ने किसी तरह का उपहार स्वीकार किया हो, लेकिन सत्ता के प्रतीक के तौर पर तो बिल्कुल नहीं।... राजशाही का प्रतीक ऐसी चीज़ है जिसे नेहरू कभी बर्दाश्त नहीं करते। वो आग बबूला हो जाते।" इसी लेख में अन्य विद्वानों ने भी सरकार के दावों को खारिज किया है।

कांग्रेस पार्टी ने भी भाजपा द्वारा पेश किए गए इतिहास को फर्जी बताते हुए सेंगोल स्थापना की मंशा पर सवाल उठाए हैं। कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने कहा  "नई संसद को व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के झूठे दावों से अपवित्र किया जा रहा है। बीजेपी-आरएसएस के बिना किसी सबूत के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रही है। सेंगोल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होने के कारण बीजेपी के झूठे दावों की पोल खुल गई है। यह सच है कि सेंगोल, जिसे तामिलनाडु के सनातन समूह ने बनाया था और 1947 में देश के पहले पीएम जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया था। लेकिन इसका कहीं भी दस्तावेजी सबूत नहीं है कि सेंगोल को लॉर्ड माउंटबेटन ने सत्ता हस्तांतरण के रूप में नेहरू को सौंपा था। बीजेपी की तरफ से किए जा रहे दावे पूरी तरह से झूठे हैं।"

यह तो रही तथ्यों की बात, अब सरकार की ओर से जो भी दावे किए गए हैं, उनपर कुछ गंभीर सवाल उठते हैं। पहला, अगर यह राजदंड "सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक" के रूप में गवर्नर जनरल माउंटबेटन द्वारा पंडित नेहरू को सौंपा गया था तो उसकी कोई फोटो, वीडियो और तत्कालीन अखबारों में खबरें क्यों नहीं हैं? इस बारे में सरकारी दस्तावेज क्यों उपलब्ध नहीं हैं? सरकार को अपने दावों के पक्ष में वॉट्सएप विश्वविद्यालय का ज्ञान क्यों धकेलना पड़ रहा है?

दूसरा, अगर राजदंड हमारी आजादी का प्रतीक है तो फिर हमारा तिरंगा और अशोक चिह्न क्या है?

तीसरा, अगर यह "सत्ता हस्तांतरण" का प्रतीक है तो 28 मई, 2023 को किसने, किसको सत्ता सौंपी है?

सबसे बड़ा सवाल ये है कि सरकार इतने संवेदनशील मसले पर झूठ क्यों फैला रही है? क्या भारत के स्वतंत्रता आंदोलन, भारत की आजादी और 75 वर्षों के अतीत में एक यही चीज सबसे अहम है जिसे स्थापित करने के लिए इतने सारे झूठ बोले गए?

इसके उलट, अगर हम आरएसएस और उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा के अतीत में झांकें तो एक भयावह तस्वीर उभरती है। सर्वविदित है कि आरएसएस वही संगठन है जिसने आजादी के आंदोलन का विरोध किया, जिसने हर तरह से अंग्रेजों का समर्थन किया, जिसने जनता बनाम रजवाड़ों की जंग में रजवाड़ों का साथ दिया, जिसने हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ काम किया, जिसने तिरंगे को 'अशुभ' बताकर उसका विरोध किया, जिसने संविधान का विरोध किया। आज जब वे सत्ता में हैं तो लोकतंत्र को मजबूत करने वाली स्थापना नहीं कर रहे हैं। वे राजशाही और सामंती सत्ता का एक जंग लगा प्रतीक-चिह्न खोज लाए और संसद में उसे स्थापित भी कर दिया। राजदंड की स्थापना के अनुष्ठान और कर्मकांड में जितना तमाशा किया गया, यह लाखों कुर्बानियों के बाद अर्जित इस लोकतंत्र के खिलाफ साजिश से ज्यादा कुछ नहीं है। झूठ के राजदंड की स्थापना तो हो चुकी है, बस अब राजा की घोषणा होनी बाकी है।

इसे भी पढ़ें:  नए संसद भवन में सेंगोल और सावरकर की जयंती पर इसका उद्घाटन, जनता के सत्ता का स्त्रोत होने पर सवाल उठाता है

इसे देखें:  सावरकर जयंती पर नई संसद: संवैधानिक लोकतंत्र पर राजशाही-प्रतीक सेंगोल की स्थापना

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest