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हक़ीक़त: रुपया गिरा या डॉलर मज़बूत हुआ!

'रुपया नहीं गिर रहा बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है'- इससे ज्यादा बढ़िया यह कहना है कि भारत की आर्थिक नीतियों की वजह से रुपया लगातार गिर रहा है।
doller vs rupee
फ़ोटो साभार: Mint

डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार गिर रहा है। आज 1 डॉलर तब मिलेगा जब 82.38 रुपये दिए जाएंगे। आप कहेंगे कि डॉलर से आप के ऊपर तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ता तो चिंता की क्या बात है? आपका 100 रुपया आज भी 100 रुपया है। उससे उतना ही सामान और सेवा खरीदी जा सकती है जितनी पहले मिलती थी तो चिंता की क्या बात? लेकिन यहीं आप ग़लत हैं। हकीकत यह है कि जब डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होता है तो भले ही आप चिंता करे या न करे,भले ही आपने जीवन में कभी डॉलर न देखा हो, मगर आप और हम जैसों आम लोगों पर ही असर पड़ता है।

भारत में सब कुछ तो पैदा नहीं होता। अपनी कई बुनियादी जरूरतों के लिए भारत विदेशों पर निर्भर है। विदेशी व्यापार डॉलर में होता है। क्रूड आयल यानी कच्चे तेल को ही देखिये। भारत की जरूरत का तकरीबन 85 फीसदी बाहर से आयात होता है। जब तेल की खरीदारी डॉलर में होगी तो इसका मतलब है कि बाहर से तेल मंगाने पर आपको ज़्यादा रुपया देना होगा। इससे क्या होगा। आपके देश में तेल के दाम बढ़ंगे। तेल यानी पेट्रोल, डीज़ल के दाम बढ़गें तो आपको ज़्यादा रुपया चुकाना पड़ेगा। साथ ही अन्य सामानों पर भी महंगाई बढ़ेगी। महंगाई बढ़ेगी तो इसका सबसे ज्यादा असर उन्हीं 90 प्रतिशत कामगारों पर पड़ेगा जो महीने में 25 हजार रुपये से कम कमाते हैं। यानी डॉलर के मुकाबले जब रुपया गिरता है तो आम आदमी की कमर तोड़ने वाले महंगाई अर्थव्यवस्था के गहरी जड़ों में समाने लगती हैं।

अब आप कहेंगे ठीक बात है - रुपये के मुकाबले डॉलर के मजबूत होने पर आयात महंगा हो जाता है, लेकिन निर्यात में भी तो फायदा होता है। इसका फायदा भी तो मिलता है तो डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने के खराबी के तौर पर क्यों देखा जाए? इसका जवाब यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था चालू खाता घाटे वाली व्यवस्था है। भारत में आयात, निर्यात से अधिक होता है। यानी भारत से कॉफी, मसाले जैसे सामान और तकनीकी सेवाओं का जितना निर्यात होता है, उससे कई गुना अधिक आयात होता है। भारत में विदेशी व्यापार हमेशा नकारात्मक रहता है। इसका मतलब है कि डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होने पर भारत को मुनाफा कम, आम आदमी को हर्जाना ज्यादा भुगतना पड़ेगा।

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डॉलर और रुपये की बहस में यह बात जान लेने के बाद कि कैसे डॉलर का गिरना आम लोगों पर असर डालता है? अब हाल फिलहाल में चर्चाओं के गलियारे में छा रही खबर पर बात करते हैं। खबर यह है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से जब अमेरिका में आयोजित एक कार्यक्रम में पूछा गया कि डॉलर के मुकाबले रुपए की गिरावट पर आपकी क्या राय है? इस पर निर्मला सीतारमण ने कहा कि 'सबसे पहले तो मैं इसे ऐसे नहीं देखती हूं कि रुपया गिर रहा है। मैं इसे देखती हूं कि डॉलर लगातार मजबूत हो रहा है। इसलिए स्वाभाविक रूप से वे करेंसीज कमजोर होंगी, जिसकी तुलना में डॉलर मजबूत हो रहा है।'

नेताओं को यह कला बखूबी आती है कि वह वही बोलते हैं, जिससे उनकी गलती न दिखे। लेकिन नेताओं के बयानों के हिसाब से देखा जाए तो साफ़- साफ दिखेगा कि निर्मला सीतारमण उतना ही सच बोल रही हैं कि गोदी मीडिया यह हेडिंग बनाये कि रुपया गिर नहीं रहा बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है। साल 2013 में 1 डॉलर जब 60 रुपये के आसपास चला गया तो निर्मला सीतारमण ने बयान दिया कि रुपये का गिरना भारतीय अर्थव्यवस्था की चिंताजनक हाल को बताता है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली को प्रतिबिंबित करता है।

इसे थोड़ा भाजपा के बयान से देखिये। साल 2013 में डॉलर के मुकाबले रुपये गिरकर 68 रुपये प्रति डॉलर हो गया था। भाजपा की तरफ से बयान आया कि डॉलर के मुकाबले रुपया तभी मजबूत होगा जब देश में मजबूत नेता आएगा। उस समय कहा जा रहा था कि यह बताना मुश्किल है कि डॉलर के मुकाबले रुपया ज्यादा गिर रहा है या कांग्रेस पार्टी? कांग्रेस पार्टी और रुपये के गिरने में होड़ लगी है। 2018, 2019, 2020 और 2021 में लगातार रुपया कमज़ोर होता गया। चार साल से भारत का रुपया कमज़ोर होता जा रहा है। अब यह कमजोर होकर सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है।

यानी यह बात समझने वाली है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोर होने की कहानी रूस और यूक्रेन की लड़ाई के बाद ही शुरू नहीं हुई है, बल्कि यह बहुत लम्बे समय से चलते आ रही है। भाजपा के मुताबिक मजबूत नेता के आ जाने के बाद से डॉलर के मुकाबले रुपया में मजबूती होनी चाहिए थी, लेकिन यह पहले से ज्यादा मजबूत होने की बजाए कमजोर हो गया। कहने का मतलब है कि रूपये को गिरने को लेकर बयानबाजी वाली राजनीति होती आ रही है। अगर इस जमीन से देखेंगे तो निर्मला सीतारमण के तर्क महज अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं दिखेगा।

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जब इस मसले पर वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार आनिंदो चक्रवर्ती से बात की गयी तो उन्होंने बताया कि निर्मला सीतारमण जो कह रही हैं वह बात सही है। डॉलर मजबूत हो रहा है और रुपया गिर रहा है। रुपया जिस दर से गिर रहा है, उससे ज्यादा तेजी से यूरोप की दूसरी करेंसी गिर रही हैं। इस पूरे मसले की जड़ में भारत की आर्थिक नीतियां है। पिछले 30 साल के आर्थिक नीतियों का नतीजा है कि डॉलर के मुकाबले रुपया लागातर गिर रहा है। भारत ने खुली अर्थव्यवस्था की नीति पूरी तरह से अपना ली। इसलिए यह हो रहा है।

पहले विनिमय दर को सरकार नियंत्रित करती थी। डॉलर के मुकाबले रुपया को बहुत ज्यादा गिरने नहीं दिया जाता था। यह नीति अब पूरी तरह से हटा दी गयी है। उदाहरण के तौर पर जब पहले अमेरिका की बैंक अपने यहां ब्याज दर बढाती थी तो ऊँचा ब्याज कमाने के लिए चाहे जितना मर्जी उतना डॉलर भारत के बाजार से अमेरिका के बाजार में नहीं चला जाता था। उस पर एक सीमा लगी होती थी। जिसके तहत एक निश्चित सीमा से ज्यादा डॉलर भारत के बाजारों से नहीं निकाला जा सकता था। अब यह छूट पूरी तरह से हटा ली गयी है। अब जिसे जितना मर्जी उतना डॉलर वह देश से निकालकर बाहर इन्वेस्ट कर सकता है। यानी अब विनिमय दर को सरकार नियोजित नहीं करती है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि वित्तीय कारोबार की दुनिया में जहां पर ब्याज दर अधिक होता है, वहां डॉलर चला जाता है। जहां तक यूरोपीय मुल्कों की बात है तो वह अपने ऊर्जा जरूरतों के लिए रूस और यूक्रेन पर ज्यादा निर्भर थे। अब जब से वहाँ पर लड़ाई छिड़ी हैं तब से ऊर्जा जरूरतों के लिए पहले जो पैसा खर्च किया जाता था। इसलिए डॉलर जर्मनी और इंग्लैंड जैसी करेंसी ज्यादा दर से गिर रही है।

आज की भूमण्डलीकृत दुनिया में डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट से बचने का उपाय यह है कि भारत खुली अर्थव्यवस्था की नीति से खुद को दूर रखे। नियोजित व्यापार वाली नीती अपनाए। अगर खुले व्यापार की नीति होगी तब दुनिया के विकसित देशों से आयात ज्यादा होगा। जैसा कि अब तक होते आ रहा है। भारत केवल बाजार बनकर रह जाएगा। इसकी अपनी अर्थव्यवस्था इसकी जरूरतों को पूरा करने की बजाय दूसरी अर्थव्यवस्था के सामान हावी रहेंगे। भारत में निवेशकों को ज्यादा मुनाफा नहीं दिखेगा और डॉलर के मुकाबले रुपया का गिरना लगातार जारी रहेगा।

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