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किसान विरोध प्रदर्शन: ज़मीन केवल आर्थिक मामला ही नहीं बल्कि भावनात्मक मुद्दा भी है!

किसान विक्रम गिल को अपने सात एकड़ के खेत से सालभर में मात्र 25,480 रूपये की ही कमाई हो पाती है। लेकिन इसके बावजूद कई वजहें हैं जिनके चलते वे अपनी ज़मीन पर अपने कब्जे को बनाये रखना चाहते हैं।
किसान विरोध प्रदर्शन

नई दिल्ली: “यदि किसान अपने बच्चों को लोहरी जैसे शुभ दिन पर जहर देने का विकल्प चुनते हैं तो इस पर आप क्या कहेंगे?” दिमाग सुन्न कर देने वाला यह सवाल लुधियाना के सुरजीत सिंह धेर की ओर से किया गया था, जो अपने दोस्तों के साथ दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर डेरा डाले हुए हैं। वे यहाँ पर केंद्र के साथ चल रही वार्ता के बीच में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए आये हुए हैं। धेर के सवाल, किसानों को जिन अनिश्चतताओं से दो चार होना पड़ रहा है, के बारे में एक समझ मुहैय्या कराते हैं, जिसमें ये कानून सिर्फ इस अनिश्चित भविष्य में दुश्चिंताओं को और हवा देने का ही काम कर रहे हैं।

हाथों में लाल झंडा थामे धेर ने इस संकट के बारीक पहलुओं को तफ़सील से समझाया। “पंजाब में किसान गुस्से में हैं, क्योंकि उन्हें शुरू से ही बदले में बेहद मामूली पेशकश के तौर पर उपलब्ध कराया गया था। लेकिन अब तो उनसे यह सब भी छीना जा रहा है। पंजाब के किसान 23 किस्म की फसलें उगाते हैं, लेकिन एपीएमसी मंडी से उन्हें सिर्फ गेंहूँ और चावल पर ही न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो पाता है। हमें उम्मीद थी कि बाजार अन्य फसलों पर भी हमें पुरस्कृत करेगा लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला है। हमने इस साल मक्का उगाया, जिसके लिए एमएसपी 1,850 रूपये प्रति कुंतल घोषित किया गया था। लेकिन इसके लिए कोई भी 1,400 रूपये प्रति कुंतल से अधिक का भुगतान करने को राजी नहीं था” उनका कहना था।

धेर का कहना था कि खेती में घटते लाभ ने युवाओं को इसे पूरी तरह से छोड़ने और 7,000 रूपये प्रति माह तक की कम वेतन का भुगतान करने जैसी नौकरियों की तलाश करने के लिए मजबूर कर दिया है। “सरकार ने सिर्फ गेंहूँ और चावल पर ही एमएसपी का भुगतान करने की इच्छुक है क्योंकि इसे वह गरीबों के बीच में वितरित करने के लिए खरीद करती है, लेकिन उसे इस बात का अहसास भी होना चाहिए कि हम अन्य फसलों को भी उगाते हैं। यदि केरल सरकार सब्जियों के लिए एमएसपी का भुगतान करने का विकल्प चुन सकती है, तो अन्य सरकारें ऐसा क्यों नहीं कर सकतीं?” धेर अक्टूबर अंत में केरल सरकार के निर्णय का हवाला दे रहे थे, जिसमें राज्य ने उन 16 किस्मों की सब्जियों को सूचीबद्ध किया था, जिन्हें एमएसपी के दायरे में खरीद के लिए लाया गया है।

हालाँकि मुद्दा सिर्फ फसल-कवरेज को लेकर ही नहीं है, जिसने किसानों के बीच में नाराजगी को पैदा करने का काम किया है। वे एमएसपी के लिए इस्तेमाल किये जा रहे फार्मूले को लेकर भी नाखुश हैं। किसानों का आरोप है कि ट्रैक्टरों में इस्तेमाल होने वाले डीजल और श्रमिकों को इस्तेमाल में लाये जाने वाले जैसी प्रमुख लागतों को सरकार द्वारा लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है। कृषि विभाग के भूतपूर्व कर्मचारी और विरोध प्रदर्शन में आये विक्रम सिंह गिल ने कृषि कार्यों में शामिल लागत का हिसाब-किताब के ब्योरे का खुलासा करने का काम किया। गिल जो कि पंजाब में रूप नगर जिले के श्री आनंदपुर साहिब के रहने वाले हैं, ने बताया कि उन्होंने अपने सात एकड़ के खेत में धान की खेती कर रखी है। इसके प्रति एकड़ औसत उपज तकरीबन 18 से 20 कुंतल तक होने का अनुमान है।

गिल का कहना था कि किसी फसल को उगाने की प्रक्रिया की शुरुआत खेत की जुताई और उसकी सिंचाई से शुरू होती है, जिसकी लागत प्रति एकड़ लगभग 5,000 रूपये बैठती है। एक बार भूमि सिंचित हो जाने के बाद बीजों और उर्वरक पर क्रमशः 2,000 रूपये और 1,400 रूपये तक की लागत लगती है। चालीस दिनों के इन्तजार के बाद खेतों में पहले दौर के यूरिया का छिडकाव किया जाता है और एक बार फिर से खेतों में पानी दिया जाता है। यूरिया की लागत जहाँ 700 रूपये आती है, वहीँ खेतों में पानी देने पर 1,200 रूपये तक खर्च होते हैं। इसके बाद जाकर खरपतवारनाशकों को इस्तेमाल में लाया जाता है, जिसकी लागत करीब 1,700 रुपयों तक बैठती है।

इसके लगभग 40 दिनों के बाद जाकर फसलों पर यूरिया एवं फंफूदीनाशक दवाओं को इस्तेमाल में लाया जाता है, जिसके लिए किसान को क्रमशः 700 एवं 900 रूपये खर्च करने पड़ते हैं। फसल की कटाई, परिवहन एवं मंडी में उपज की साफ़-सफाई में लगने वाली मजदूरी क्रमशः 6,000, 2,000 और एक बार फिर से 2,000 रूपये पड़ती है। इसके साथ गिल इसमें कीटनाशकों एवं खरपतवारनाशकों के चार दौर के छिड़काव के लिए इस्तेमाल में लगाई गई मजदूरी के 1,700 रूपये को भी जोड़ते हैं। फसलों के लिए एडवांस कर्जों पर बैंक भी 13% ब्याज वसूलते हैं। इन सबके उपर आढ़तिया या बिचौलिए द्वारा 6.5% हिस्सा वसूला जाता है और कुल बिक्री पर मंडी बोर्ड भी अपना 2.5% हिस्सा ले लेती है (जो कि कुलमिलाकर 2,880 रूपये बैठता है)। अंत में जाकर यह लागत 30,180 रूपये प्रति एकड़ के आस-पास बैठती है, जबकि फसल की बिक्री से 32,000 रूपये हासिल होते हैं। कुलमिलाकर प्रति एकड़ 1,820 रूपये का लाभ अर्जित होता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पारिवारिक श्रम को इसमें जोड़ना अभी बाकी है। यदि गिल के सात एकड़ में सालभर में दो फसलों का हिसाब लगायें तो एक साल में उन्हें 25,480 रूपये हासिल होते हैं, या मात्र 2,124 रूपये प्रति माह ही हासिल होते हैं।

इस सर्दियों में भी गेंहूँ की फसल में इसी प्रकार के परिणाम की उम्मीद है यदि सरकार ने एमएसपी में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी नहीं की तो। “जब सभी कुछ को निजीकरण ही कर दिया जायेगा तो कोई कैसे बच्चों की स्कूल की फीस और बीमार एवं बुजुर्गों की देखभाल कर सकता है?” उनका सवाल था। 

किसानों से हुई बातचीत में इस बात का खुलासा हुआ कि उनके लिए जमीन सिर्फ आर्थिक मसला ही नहीं है, वरन उनके लिए यह एक भावनात्मक सवाल भी बना हुआ है। “हमारे माता-पिता ने हमें पढाया- लिखाया और मेरी बहनों की शादियाँ सिर्फ इसलिए कर पाने में सक्षम रहे, क्योंकि हमारे पास कुछ जमीन थी। उन्होंने हमें सीख दी थी कि हर किसी चीज का बंटवारा बेशक कर लेना, लेकिन जमीन का नहीं, क्योंकि यह हमारी माँ है। अब कॉर्पोरेट इसे हमसे छीनना चाहते हैं। लेकिन हम ऐसा हर्गिज नहीं होने देंगे” उन्होंने कहा।

आल इंडिया किसान सभा गुरदासपुर के जिला अध्यक्ष गुरदर्शन सिंह ने तर्क दिया कि पंजाब में किसानों की बदहाली को निरंतर कमजोर होती जा रही सहकारिता प्रणाली से जोड़कर देखे जाने की आवश्यकता है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए उनका कहना था कि: “राज्य में सहकारिता की स्थिति अब ना के बराबर रह गई है। अब इसके जरिये हमें सिर्फ यूरिया ही मिलता है। लेकिन बहुत दिन नहीं हुए जब यहाँ से हमें चीनी और अन्य वस्तुएं भी मिला करती थीं। हालाँकि सरकार से जिस प्रकार के समर्थन की अपेक्षा थी, वह नहीं मिल रहा है। उनकी मौजूदगी वास्तव में हाशिये पर पड़े और छोटे किसानों के उत्थान में महत्वूपर्ण साबित हो सकती है।”

विरोध स्थल पर महिला सहभागियों की उत्साही नारेबाजी के साथ शामिल होने के कारण यह देश के किसानों के बारे में कुछ भ्रमों को तोड़ने का काम करता है। गुरशरण कौर, जो कि गुरदासपुर के बटाला से यहाँ पर आई हुई हैं ने कहा कि परिवारों को अपने बच्चों को पढाने-लिखाने, विभिन्न पाठ्क्रमों में दाखिला दिलाने या विदेशों में नौकरियों में भेजने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। वे आगे कहती हैं “निजी क्षेत्र में कोई रोजगार उपलब्ध नहीं है। अब हम सभी लोग खेती पर ही निर्भर हैं। यदि यह भी हाथ से जाता रहा, तो हम खायेंगे क्या? हम यहाँ से तभी जायेंगे, जब मोदी इन कानूनों को रद्द कर देते हैं।”

एक अन्य प्रदर्शनकारी सुरजीत कौर कहती हैं “यह कहना गलत है कि किसानों को कानूनों की समझ नहीं है, और इसे समझने के लिए हमें किसी अन्य की जरूरत पड़ रही है, कि इससे उनका आशय क्या है। हमारे बच्चे पर्याप्त शिक्षित हैं और उन्हें अच्छी तरह से पता है कि उनके लिए क्या भला या बुरा है।”

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Farmers’ Protest: Land is not Just an Economic Affair, but an Emotional One Too

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