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चिटफंड लूट की पूरी कहानी : देश भर में विरोध प्रदर्शन, सांसदों का घेराव

शनिवार को पूरे देश में और राजस्थान के सभी सांसदों के निर्वाचन क्षेत्र में स्थित निवास स्थान का पीएसीएल सहित सभी चिटफंड पीड़ित "ऑल इन्वेस्टर सेफ्टी ऑर्गेनाइजेशन" (AISO) के बैनर तले घेराव किया।
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चिटफंड लूट का नाम तो आप आए दिन सुनते ही रहते होंगे। बार-बार इस तरह की लूट की खबरें आने के बाद भी अब तक इस पर लगाम नहीं लगी है। इस लूट में कइयों की जिंदगी लुट चुकी है। फिर भी स्थिति जस के तस है। 12 अक्टूबर यानी आज पूरे देश में और राजस्थान के सभी सांसदों के निर्वाचन क्षेत्र में स्थित निवास स्थान का पीएसीएल सहित सभी चिटफंड पीड़ित "ऑल इन्वेस्टर सेफ्टी ऑर्गेनाइजेशन" (AISO) के बैनर तले घेराव किया।

 "ऑल इन्वेस्टर सेफ्टी ऑर्गेनाइजेशन" (AISO) के कार्यकर्ताओं ने प्रेस रिलीज जारी कर कहा है कि यह कार्यक्रम सांसदों का घेराव है न कि उनसे अनुनय-विनय और ज्ञापन का। इनके द्वारा लोगों की 3 प्रमुख लोकतांत्रिक मांग रखी गई हैं
1. संसद में यह मुद्दा उठाने का वचन
2. AISO के केंद्रीय कार्यकारिणी से मिलने का निश्चित तारीख सहित समय
3. प्रधानमंत्री, गृह मंत्री एवं वित्त मंत्री में से किसी भी एक से मिलवाने की वचनबद्धता।


साल 1983 से संचालित पीजीएफ और पीएसीएल ने देश के 5.85 करोड़ निवेशकों के कुल 50 हजार करोड़ रुपये, सहारा ग्रुप के 2.5 करोड़ निवेशकों के तकरीबन 25 हजार करोड़ रुपये, शारदा चिट फंड घोटाले के तकरीबन एक करोड़ लोगों के दस हजार करोड़ रूपये जैसे सैकड़ों बड़े चिट फंड घोटाले सामने आ चुके हैं। एक अध्ययन के मुताबिक पिछले चार सालों में पूरे देश में 350 चिटफंड कंपनियों ने 18 करोड़ लोगों के तकरीबन 15 लाख करोड़ रुपये लूट लिए हैं। जिसमें अनगिनत छोटी चिटफंड कंपनियों के लूट-तंत्र के कोई निश्चित आंकड़ें मौजूद नहीं है।

चिट फंड अधिनियम, 1982 की धारा 2 (बी) के अनुसार चिट फंड स्कीम का मतलब होता है कि कोई शख्स या लोगों का समूह या पड़ोसी आपस में वित्तीय लेन देन के लिए एक समझौता करें। इस समझौते में एक निश्चित रकम या कोई चीज एक तय वक्त पर किस्तों में जमा की जाती है और परिपक्वता अवधि पूरी होने पर ब्याज सहित लौटा दी जाती है।
चिट फंड को कई नामों जैसे चिट, चिट्टी, कुरी से भी जाना जाता है। चिट फंड के माध्यम से लोगों की छोटी छोटी बचतों को इकठ्ठा किया जाता है।  चिट फंड अक्सर माइक्रोफाइनेंस संगठन होते हैं।

चिट फंड कंपनियों के साथ एक सामान्य बात यह पाई जाती है कि सभी मल्टीलेवल इन्वेस्टमेंट मार्केटिंग मॉडल की तरह काम करती है। इसमें निवेश करने वाला व्यक्ति ही इसका एजेंट होता है। यानी निवेशक ही एजेंट की तरह काम करता है। और अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए एजेंट हर संभव कोशिश करते हैं कि उनसे और अधिक लोग जोड़ें।

हर चिट कम्पनी एजेंटों का नेटवर्क तैयार करने के लिए पिरामिड की तरह काम करती है। यानी जमाकर्ता और एजेंट को और ललचाया जाता है ताकि वो नया सदस्य लायें और उसके बदले में कमीशन लें। इस प्रक्रिया में आरंभिक निवेशकों को परिपक्वता राशि या भुगतान नए निवेशकों के पैसे से किया जाता है और यही क्रम चलता रहता है। दिक्कत तब आती है जब पुराने निवेशकों की संख्या नए निवेशकों  से ज्यादा हो जाती है यानी जब नकद प्रवाह में असंतुलन या कमी आ जाती है और कंपनी लोगों को उनकी परिपक्वता अवधि पर पैसे नहीं लौटा पाती है तो चिट फंड कंपनी पैसा लेकर गायब हो जाती है।

चिट फंड कम्पनियां मुख्य रूप से शेयर बाजार, रियल एस्टेट, होटल, मनोरंजन और पर्यटन, माइक्रो फाइनेंस, अखबार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, अभिनेताओं और हस्तियों के साथ करार में पैसा लगातीं हैं। इनके विज्ञापन भी अभिनेताओं और नेताओं से सजे-धजे होते हैं। इसलिए भोली जनता इनके आकर्षण में फंस जाती है।  

लोगों के बीच एक आम धारणा यह भी बनी हुई है कि चिट फंड कंपनी किसी कानून के तहत बंधी हुई नहीं है। इसलिए अगर इसमें फंस गए तो इससे लड़ना मुश्किल है। लेकिन ऐसा नहीं है। अधिकतर बड़ी चिट फंड कंपनियां किसी कानून के तहत पंजीकृत होती है। हर साल इनका ऑडिट होता है। यानी इन कंपनियों के खातों की जांच-परख हर साल  होती रहती है। फिर भी इनके खातों में चल रही धांधलियों को नहीं पकड़ा जाता है। इससे यह साफ़ होता है कि इनमें सरकारों की भी मिलीभगत है। सरकार के प्रशासनिक अधिकारीयों भी मिलीभगत है। अगर ऐसा नहीं होता तो इन्हें क्लीन चीट कैसे दे दी जाती।  

"ऑल इन्वेस्टर सेफ्टी ऑर्गेनाइजेशन" (AISO) के प्रवक्ता सीबी यादव लिखते हैं कि चिट फंड के नाम पर देश में लूट की एक समनांतर अर्थव्यवस्था खड़ी हो गयी है। यह मामला केवल गरीबों के लूट से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि मानवधिकारों के हनन से भी जुड़ा है। चूँकि निवेशक ही एजेंट होता है।  इसलिए जब कम्पनी पैसा लेकर भाग जाती है तो निवेशकों को लोग मालिक मानकर चोर समझने लगते हैं। समाज इन्हें दुत्कारने लगता है कि इन्होंने पैसा डुबो दिया। इसलिए इन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ती है। पहला तो इनका पैसा डूबा जाता है और दूसरा इन्हें सामजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। इस अपमान से हारकर कई एजेंटों ने आत्महत्या तक की है।

सीबी यादव आगे लिखते हैं कि अगर गहराई से देखा जाए तो इसके लिए सरकार जिम्मेदार है। क्योंकि क़ानूनी तौर पर रजिस्टर होने की वजह से ही लोग इनमें पैसा लगाते हैं। ऑडिट में  कंपनियों की धांधलियों को आसानी से पकड़ा जा सकता है। लेकिन लचर निगरानी तंत्र और मिलीभगत की वजह से इन्हें क्लीन चीट मिलता रहता है। सरकार ब्लॉक, जिला व ग्राम पंचायत स्तर पर निगरानी तंत्र बना सकती है। एक हेल्पलाइन नंबर जारी कर सकती है, जिसकी मदद लेकर निवेशक यह पता लगा सके कि कंपनी की स्थिति और साख क्या है ?  इनमें करोडो लोगों का पैसा डूब चूका है , इसलिए केवल मालिकों पर शिकंजा कसने से बात नहीं मानेगी। बात तभी बनेगी जब सभी को उनका डूबा हुआ पैसा वापस मिले। इसके लिए सरकार को आगे बढ़कर अपनी भूमिका निभानी होगी।

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