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क्या जनरल रावत के राजनीतिक बयानों को बस प्रशंसा गीत मानना चाहिए?

CDS की नियुक्ति पर सामने आया सेना-राजनीति का गठजोड़!
Gen Rawat’s Political Statements
Image Courtesy : NDTV

सेना प्रमुख बिपिन रावत द्वारा उदारवादी संवेदनाओं पर किए गए प्रहार की जमकर आलोचना हो रही है। उन्होंने नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ चल रहे प्रदर्शनों में शामिल छात्रों, राजनेताओं और दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ टिप्पणी की थी।

रावत का मूल तर्क था कि प्रदर्शनकारियों का हिंसा की तरफ़ बढ़ना ग़लत है, इसकी आड़ में उन्होंने अपनी बात रखी थी।

यह जनरल की पहली राजनीतिक टिप्पणी नहीं है। सवाल उठता है कि आख़िर वे यह सब कहाँ से ला रहे हैं। दरअसल जनरल जानते हैं कि वे ऐसी टिप्पणी कर बच सकते हैं, क्योंकि वे सत्ताधारी नेताओं के साथ ख़ूब घुले-मिले हुए हैं। इसलिए वे हमेशा सत्ता के पक्ष में बोलते नज़र आते हैं। चाहे वो कश्मीर का मामला हो या असम में किसी पार्टी विशेष पर टिप्पणी का। जनरल रावत ख़ुद ऐसा करते हों या किसी और के कहने पर। दोनों ही स्थितियों में यह बेहद डरावना है। पहली घटना सेना के राजनीतिक हस्तक्षेप को दिखाती है, दूसरा सेना की राजनीतिकरण को बताती है।

मौजूदा स्थितियों में जनरल रावत ने जो बातें बोलीं वो जनरल के निजी मसले हो सकते हैं। वह सत्ता में मौजूद लोगों को याद दिलाना चाह रहे होंगे कि वो अभी भी आसपास ही मौजूद हैं और पहले चीफ़ ऑफ़ डिफ़ेंस स्टॉफ़(CDS) बनने के लिए तैयार हैं। अगर सरकार अगले चार दिन में सीडीएस की नियुक्ति करती है, तो यह जनरल रावत के 31 दिसंबर 2019 को होने वाले रिटायरमेंट से पहले की बात होगी। CDS के संभावित उम्मीदवारों का चुनाव अजित डोभाल कर रहे हैं।

रावत की बयानबाज़ी का एक सीधा कारण यह भी हो सकता है कि वो ज़रूरत से ज़्यादा बोलने के आदी हैं। मौजूदा स्थितियों में अगर वे सीडीएस नहीं भी बन पाते हैं, तो उनके पास कुछ हासिल करने के दूसरे मौक़े होंगे। उनके पूर्ववर्ती सेशेल्स में राजदूत बनने में कामयाब रहे हैं। जबकि अन्य स्थितियों में यह पद ज्वाइंट सेक्रेटरी लेवल के डिप्लोमेट को मिलती है। पिछले तीन सालों से अपनी बयानबाजी के सहारे रावत मौजूदा सत्ता को मक्खन लगा रहे हैं। इस दौरान वे सेना के अहम पदों पर रहे हैं। भले ही इन बयानों के कोई राजनीतिक परिणाम न भी निकलते हों, तो भी यह उन्हें अपने पूर्ववर्ती से ज्यादा बड़े पाप का भागीदार बनाते हैं।

जनरल के व्यवहार की एक सहानुभूतिपूर्ण व्याख्या भी हो सकती है। हो सकता है कि उन्हें ऐसा बोलने के लिए कहा गया हो और एक अनुशासित सैनिक के नाते वे अपना कर्तव्य निभा रहे हों। हमारे सुरक्षाबल अभी भी कश्मीर में फंसे हुए हैं। हथियारों के साथ मौजूद पुलिस पर सांप्रदायिक होने के आरोप लग रहे हैं। उत्तरपूर्व में भी सेना ज़मीन पर फ़्लैग मार्च करती नज़र आ रही है। चूंकि आंतरिक सुरक्षा भी सेना का एक काम होता है, इसलिए बिगड़ती स्थितियों को सुधारना भी उनका कर्तव्य है।

अगर देश में आगे स्थिति बिगड़ती है, इसके न बिगड़ने की गारंटी भी नहीं दी जा सकती क्योंकि सत्ताधारी दल का अगले साल होने वाले बंगाल चुनावों में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। तब सेना बीच में फंस सकती है। इसका एक अनुमान पूर्वी कमांड के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अनिल चौहान के बयान से भी लगता है। कोलकाता में 15 दिसंबर को उन्होंने कहा,''मौजूदा सरकार लंबे वक़्त से लंबित पड़े कुछ कड़े फ़ैसले ले रही है।'' बता दें कोलकाता में ही उनका मुख्यालय है। अगर पश्चिम बंगाल में प्रदर्शन आगे बढ़ते हैं तो यह सेना के लिए लड़ाई का मैदान बन जाएगा।

भारत पश्चिम बंगाल में सुरक्षा को लेकर बेहद संवेदनशील रहा है। पहले छद्म युद्ध में इंटेलीजेंस और सेना ने हस्तक्षेप किया, उसके बाद पूर्वी बंगाल में मानवीय संकट की स्थिति में सेना सीधे सामने आई। दूसरी तरफ़ इस बात का भी डर होता है कि एक अस्थिर बंगाल का फ़ायदा नक्सली उठा सकते हैं, जो पहले काफ़ी सक्रिय हुआ करते थे। आज भी माओवादी जंगलों में रह रहे हैं। इस दशक की शुरुआत में वे जंगलमहल के भी क़रीब आ गए थे। ऊपर से मुस्लिमों के विरोध प्रदर्शनों में जिहादी तत्वों के शामिल होने का भी ख़तरा होता है। यह तस्वीर सुरक्षा संस्थानों के लिए यह जिहादी-नक्सल गठजोड़ खड़ा कर सकती है।

इसलिए विरोध प्रदर्शनों के बढ़ने और फैलने से पहले ही उन्हें दबाना या बदनाम किए जाने की ज़रूरत महसूस हो रही है। हो सकता है कि इसलिए आर्मी चीफ़ इस तरह की भाषा का उपयोग कर रहे हैं। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पहले ही अपनी खोज को फैलाने में लग गई है। इसके मुताबिक़ अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम प्रवासी लखनऊ में गुप्त रूप से पहुंच चुके हैं। वहां हुए बवाल के लिए यही लोग ज़िम्मेदार हैं। इसी के चलते योगी आदित्यनाथ को कड़े क़दम उठाने पड़ रहे हैं।

यह अंतिम बात कुछ हद तक सुरक्षा तर्कों को आगे बढ़ाती है। लेकिन अगर इस सहानुभूतिपूर्ण नज़रिये को छोड़ दिया जाए तो CAA के विरोध प्रदर्शनों पर आर्मी चीफ़ के बयान पूरी तरह अकल्पनीय हैं। इसलिए सेना के पुराने लोगों ने रावत के बयान पर सवाल उठाए हैं। इनमें सबसे आगे रिटायर्ड एडमिरल लक्ष्मीनारायण रामदास हैं।

अंतिम विश्लेषण यही हो सकता है कि जनरल रावत के बयान के पीछे की प्रेरणा उनके निजी हित ही हैं। वो राजनीति की पुरानी चालें चल रहे हों। इसमें पहला तीर कोलकाता से उनके साथी ने छोड़ा, जो जनरल रावत की रेजीमेंट के साथी हैं।

उरी हमले के बाद कांग्रेस पार्टी ने दावा किया था कि यूपीए शासन में भी 6 सर्जिकल स्ट्राइक हुई थीं। उस दौरान जनरल रावत मिलिट्री ऑपरेशन्स के हेड थे। तब भी सत्ताधारी दल की मदद करते हुए उन्होंने दावा किया था कि पहले कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं की गई।

उस वक़्त विवाद में उत्तरी आर्मी कमांडर भी शामिल थे। उन्होंने ऊधमपुर में अपने पूर्ववर्ती रहे जनरल डी एस हुड्डा को ख़ारिज किया था। हुड्डा ने कांग्रेस मेनिफेस्टो के लिए सिक्योरिटी डॉक्ट्रीन बनाई थी। यह ज़रूरी था कि हुड्डा को नीचा दिखाया जाए। नदर्न आर्मी कमांडर ने अपने चीफ़ (सेनाध्यक्ष)के ऑर्डर का पालन करते हुए ऐसा ही किया था।

इन घटनाओं से पता चलता है कि सेना के तीन जनरल, जिनमें सेना प्रमुख और दो दूसरे कमांडर शामिल हैं, उन्होंने सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में हस्तक्षेप किया है। आर्मी चीफ़, सीडीएस के पद के लिए सबसे आगे हैं। नदर्न आर्मी कमांडर पहले आर्मी चीफ़ बनने की रेस में सबसे आगे थे। लेकिन लेफ़्टिनेंट जनरल एमएम नारावने ने उन्हें पछाड़ दिया।

सीडीएस पद के लिए तीनों सर्विस के तीन सितारे वाले जनरलों को नियुक्त किया जा सकता है। इसलिए उत्तरी कमांड के कमांडर भी कोशिश में लगे हैं। शायद पूर्वी कमांड के चीफ भी इसका ख़्वाब देख रहे हैं। अभी पद का सृजन हो चुका है, लेकिन किसी को इस पर नियुक्त नहीं किया गया है।

यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे अभी तक यह सरकार अपने फ़ैसले लेते आई है। नोटबंदी की लंबी लाइनें और जीएसटी के बाद मची अफ़रा-तफ़री याद करिए। याद करिए कश्मीर बंद को और अब CAA-NRC को। याद दिला दें कि बालाकोट हमले का भी कोई सबूत नहीं दिया गया है। इसी तरह पाकिस्तान के F-16 विमान को भी गिराए जाने का भी सबूत पेश नहीं किया गया। उलटे उस दौरान दो भारतीय विमानों का मलबा मिला था, जिसमें एक मिग-21 और एक हेलीकॉप्टर शामिल था। इस रिकॉर्ड को देखते हुए कहा जा सकता है कि सीडीएस का मुद्दा किस तरह आगे बढ़ेगा।

प्रधानमंत्री ने लालक़िले से सीडीएस की घोषणा की थी। उस वक़्त तक नियुक्ति के लिए कोई पैमाने नहीं बनाए गए थे, इसलिए घोषणा के बाद होमवर्क शुरू किया गया। इसके चलते सेना के ऊपरी लोग प्रतिस्पर्धा में आ गए। अब रिटायर हो चुके वायुसेना अध्यक्ष इस रेस में शुरुआती प्रतिस्पर्धी थे। उन्होंने चुनावों के वक़्त ग़ैर-ज़रूरी तरीक़े से राफ़ेल जेट ख़रीदारी की प्रक्रिया में सरकार द्वारा की गई जल्दबाज़ी से ध्यान हटाने की कोशिश की थी। वह अच्छी तरह जानते थे कि पूरे विवाद का राफ़ेल की योग्यता से कोई लेना-देना नहीं था।

केवल नौसेना ही अभी तक इन सबसे दूर रही है। शायद उन्हें अंदाज़ा है कि एक नौसेना प्रमुख के सीडीएस बनने की संभावना कम ही है। दूसरे लोगों की नज़रें इसलिए ही पोस्ट पर हैं क्योंकि उन्हें अपनी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं।

लालक़िले से की गई घोषणाओं के चलते ही सेना के लोग सत्ताधारी पार्टी से राजनीतिक और वैचारिक मेल-जोल की कोशिश बढ़ाते दिखाई दे रहे हैं। इस फ़ैसले को 2020 के गणतंत्र दिवस तक रोका जा सकता था। इस दौरान पद के लिए पूरा काम कर लेना था।

सीडीएस के इस पूरे मामले में वर्दी की गरिमा और भरोसा गिरा है। अब अगर कोई भी इस पद पर नियुक्त होता है तो उसे समझौतावादी नियुक्ति मानी जाएगी। ख़ासकर जनरल बिपिन रावत को पद मिलने पर यह सवाल उठेगा। बेहतर होगा कि उनके ताज़ा बयान को बस प्रशंसा गीत माना जाए और देश को अगले तीन सालों के लिए उनके राजनीतिक गठजोड़ से बचाया जाए।

लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया के नेल्सन मंडेला सेंटर फ़ॉर पीस एंड कॉन्फ़्लिक्ट रेज़ोल्यूशन में अतिथि प्रोफ़ेसर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why Gen Rawat’s Political Statements Should be His Swan Song

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