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पश्चिम बंगाल में उच्च कोटि की दल-बदल की ‘रणनीति’ ही भाजपा की नाव डुबो रही है 

बाहर से स्टार प्रचारकों को बंगाल में लाकर की जा रही कारपेट-बॉम्बिंग ने सिर्फ भाजपा को बाहरी लोगों की पार्टी के तौर पर चरित्र-चित्रण करने के लिए टीएमसी को आधार मुहैया कराने का काम किया है।
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मात्र प्रतीकात्मक उपयोग। स्रोत: एनडीटीवी 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की किस्मत ने पश्चिम बंगाल में एक बार फिर से करवट ली है। यह  उन्हें असत्यापित दावों की खाई में धकेल रहा है और पार्टी की रफ्तार को और धीमा करता जा रहा है। आपको हाई-प्रोफाइल बगावती और दल-बदलू सुवेंदु अधिकारी की हालत पर तरस खाना चाहिए, जिनको एक ऐसे मुकाबले में बहकाकर खड़ा कर दिया गया है, जिसमें उनकी जीत की संभावना बेहद क्षीण है।

सोमवार को, अधिकारी ने आरोप लगाया कि नंदीग्राम विधानसभा क्षेत्र में उनकी प्रतिद्वंद्वी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने नामांकन दाखिले के वक्त इस तथ्य का खुलासा करने में चूक गईं कि उनके खिलाफ छह मामले दर्ज हैं। इसके बाद जाकर भाजपा नेताओं ने शिकायत दर्ज करने के लिए राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी के दफ्तर का दौरा किया था, हालांकि नंदीग्राम के रिटर्निंग ऑफिसर ने पहले से ही बनर्जी की उम्मीदवारी की जांच पूरी करने के साथ अपनी मंजूरी दे दी थी। 

बाद में जाकर पता चला कि कम से कम एक मामले में बंगाल के मुख्यमंत्री की नाम राशि वाला मामला दर्ज हो रखा था। जहाँ एक तरफ इसने मीडिया में प्रचारित विशालकाय, युगांतकारी भिड़ंत जिसका पलड़ा किसी भी तरफ झुक सकता है, के बीच में कुछ बेहद जरुरी हँसी-मजाक वाली राहत दिलाने का काम किया है, लेकिन वहीं इसने भाजपा के बीच बढ़ती हताशा को भी रेखांकित किया है।

इस बारे में शुरुआत करने के लिए, आइये एक नजर उन समस्याओं पर डालते हैं, जिनसे अधिकारी को दो-चार होना पड़ रहा है। जब बनर्जी ने घोषणा की थी कि वे कोलकाता में भवानीपुर विधानसभा क्षेत्र के अलावा, जिसका वे 2011 से प्रतिनिधित्व कर रही हैं, नंदीग्राम (पूरबा मेदनीपुर जिला) से भी चुनाव लड़ेंगी तो अधिकारी ने उनका मखौल उड़ाया था और उन्हें चुनौती दी थी। इसे कोई बेहतर समझ नहीं कहा जा सकता क्योंकि भले ही बनर्जी के बारे में किसी की कुछ भी राय हो, लेकिन किसी को भी उनकी हिम्मत को लेकर कोई शक नहीं है। उन्होंने इस चुनौती को स्वीकारा है और फैसला किया है कि वे कोलकाता वाली अपनी “सुरक्षित” सीट को छोड़ रही हैं और सिर्फ नंदीग्राम से ही चुनाव लड़ेंगी।

लेकिन अब अधिकारी अधर में हैं। समस्या यह है कि बनर्जी के एक समय मुख्य सिपहसालार रहे अधिकारी को खुद को लेकर बेहद भव्य छवि का गुमान हो गया था। लेकिन जब जोर का धक्का लगना शुरू हुआ तो अधिकारी और भाजपा को पता चल गया है कि वस्तुतः वे किसी भी सूरत में मुख्यमंत्री को यहाँ पर नहीं हरा सकते हैं या वास्तव में कहें तो बंगाल में शायद ही किसी भी विधानसभा क्षेत्र में ऐसा कर पाने की स्थिति में हैं।

इस तथ्य के अलावा यह बात भी अब काफी हद तक स्पष्ट होती जा रही है कि भाजपा ने इस बीच में जो कुछ भी गति हासिल कर रखी थी, वह कई वजहों से बेहद तेजी से खत्म होती जा रही है। आइये हम उस रणनीति से शुरू करते हैं जिसे भाजपा ने बाकी के सारे देश में काफी बेहतर तरीके से इस्तेमाल में लाया और जिसके बारे में उन्हें लगता है कि इस रणनीति को उन्होंने अपने लिए प्रतिभाशाली अनुपात में पेटेंट करा रखा है। इसमें विरोधी खेमे के सदस्यों को दलबदल कराकर भाजपा में शामिल कराया जाता है और इसे स्पष्ट तौर पर पार्टी के बड़े पैमाने पर युद्ध के लिए छाती फुलाकर संभव बनाया जाता है। लेकिन दुर्भाग्यवश, बंगाल में यह बेहद प्रतिभाशाली-स्तर वाला दांव बुरी तरह से उल्टा पड़ गया है।

पिछले कुछ समय से यह स्पष्ट हो चला था कि कम से कम 2019 के चुनावों के बाद से ही विपक्षी खेमे से दलबदलुओं के लगातार प्रवाह ने राज्य बीजेपी के भीतर दो खेमों को पैदा कर दिया था। इनमें से एक धड़ा पुराने-समय के लोगों का है, और दूसरा धड़ा मौके पर काम आने वाले लोगों का बना हुआ है। बंगाल के भाजपा प्रमुख दिलीप घोष हमेशा से ही दल-बदलुओं के प्रति अविश्वास का भाव रखते आये हैं, खासतौर पर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से आने वाले लोगों से। यहाँ तक कि एक समय बंगाल की सत्ताधारी पार्टी में आधिकारिक तौर पर नंबर दो रहे मुकुल रॉय को तीन वर्षों तक उपेक्षित रखने की हद तक, उस समय से जब 2017 में उन्होंने दल-बदल किया था।

लेकिन विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए रॉय को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया और इस बात की सूचना है कि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नवंबर 2020 में हुई एक बैठक में बंगाल के नेतृत्व को स्पष्ट कर दिया था कि टीएमसी नेताओं को शरण दें और दलबदलुओं को और ज्यादा जगह दी जाए। इसके बाद जो सबसे बड़ी मछली जाल में फंसी थी, वह अधिकारी थे, लेकिन कई विधायकों सहित टीएमसी नेताओं का भाजपा में शामिल होने का सिलसिला बदस्तूर जारी है।

अधिकारी और पूर्व टीएमसी मंत्री एवं दोमजुर (हावड़ा जिले) के विधायक राजीब बनर्जी सहित इनमें से अधिकांश को इन चुनावों में टिकट बांटे गए हैं। कुछ मामलों में टीएमसी नेताओं को समायोजित करने को लेकर जैसी हड़बड़ी देखने को मिली है, वह बेहद अजीबोगरीब है। यह जरुरी नहीं है कि टीएमसी नेताओं के भाजपा में शामिल होने के मामले को सुलझ चुके मामले के तौर पर व्याख्या कर  दी जाए। पिछले कुछ हफ़्तों से कई लोग ऐसे भी दलबदलू भी आ रहे हैं, जिन्हें टीएमसी द्वारा इस बार टिकट देने से मना कर दिया गया है।

सिंगुर विधायक रबिन्द्रनाथ भट्टाचार्य के मामले पर ही विचार कर लें। उनकी 89 वर्ष की उम्र को देखते हुए उन्हें एक बार फिर से नामांकन दाखिल करने से वंचित कर दिया गया, जो टीएमसी की 80 वर्ष की उम्र को पार व्यक्ति को सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत्त नीति से मेल खाती है। टिकट से वंचित किये जाने पर वे फ़ौरन 8 मार्च को भाजपा में शामिल हो गए। वैसी ही तेजी दिखाते हुए उनके नाम को भी भाजपा के तीसरे और चौथे चरण के चुनावों के लिए घोषित 63 लोगों की सूची में शामिल कर लिया गया, जिसे 14 मार्च को जारी किया गया। गुस्साये स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं ने उसी दिन इस पर विरोध जाहिर किया, जिसमें भट्टाचार्य पर सत्ता में रहते हुए उनके खिलाफ सुनियोजित हमले करने का आरोप लगाया गया।

15 मार्च के दिन एक दिन पहले जारी की गई सूची को लेकर हुगली जिले में विरोध की लहर उठनी शुरू हो गई थी। चिन्सुराह में पार्टी कार्यालय में तोड़-फोड़ की गई, जबकि चंदरनगर कार्यालय पर ताला जड़ दिया गया था। एक पार्टी कार्यकर्त्ता ने आत्महत्या तक करने की धमकी दे डाली। यह गुस्सा खासतौर पर सिंगुर से भट्टाचार्य और उत्तरपाड़ा से दलबदल कर आये प्रबीर घोषाल के नामांकन को लेकर था। यह भी सूचना मिली है कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा से दलबदल कर आये बिशाल लामा को अलीपुरद्वार जिले में कालचीनी विधानसभा क्षेत्र से नामांकित करने को लेकर भारी असंतोष बना हुआ है, हालाँकि यहाँ पर कोई हिंसा नहीं हुई है। दक्षिण 24 परगना जिले में भी असंतोष पनप रहा है, क्योंकि नवगुन्तकों को समायोजित करने के लिए लंबे समय से भाजपा को अपनी सेवाएं दे रहे नेताओं को लगातार उपेक्षित किया जा रहा है।

सूचना के अनुसार 15 मार्च को, इस दलबदल रणनीति के मुख्य रचयिता शाह ने एक बैठक आयोजित की थी, जिसमें घोष, बंगाल के दो विचारक, भाजपा पार्टी प्रमुख जेपी नड्डा और वरिष्ठ पार्टी पदाधिकारी मौजूद थे। यह बैठक 16 मार्च की सुबह तक जारी रही और कुछ समय के ब्रेक के बाद फिर जारी रही।

खबरों के मुताबिक शाह, इन बढ़ते विरोध प्रदर्शनों को लेकर बेहद आग-बबूला थे और नामांकन के लिए नामों की सिफारिश करते वक्त आवश्यक परामर्श नहीं दिए जाने को लेकर उन्होंने बंगाल मामलों के जिम्मेदार प्रभारियों को कथित तौर पर जमकर खरी-खोटी सुनाई है। उन्होंने हालात का जायजा लेने के लिए एक बार फिर से 17 मार्च को दिल्ली में एक बैठक बुलाई है। मुकुल रॉय जो कोलकाता की बैठकों में अनुपस्थित थे, को इस बैठक तलब किया गया है।

अगर यह प्रतिक्रिया शाह के खुद की शिकार करने वाली रणनीति वाली भूमिका को नजरअंदाज करती है तो इस बात को समझ लेना चाहिए कि किसी और में यह हिम्मत नहीं होगी कि वह इस बात को उनके सामने रखने जा रहा है। आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ये वे खुद हैं, जो अब भाजपा को चला रहे हैं और व्यावहारिक तौर पर उसके मालिक हैं।

यदि दलबदल वाली “रणनीति” अटक गई है, तो चुनाव आयोग से बंगाल चुनावों को आठ चरणों तक तकरीबन चार सप्ताह तक खींचने का विचार, ताकि केंद्रीय नेताओं द्वारा प्रचार रैलियों में भाषणों की बमबारी की जा सके, काम आने वाली नहीं हैं। मोदी ऐसी 20 रैलियों को और शाह और नड्डा में से प्रत्येक को लगभग 50 के करीब रैलियों को संबोधित करना तय हो रखा था, जिनसे अब फायदे की जगह उल्टा नुकसान होने की संभावना है।

15 मार्च को आदिवासी क्षेत्र झारग्राम में निर्धारित एक रैली में बेहद कम लोगों की उपस्थिति को देखते हुए पहले से ही शाह को अपना कार्यक्रम रद्द कर देने के लिए मजबूर होना पड़ा है, जहाँ पर भाजपा सबसे मजबूत स्थिति में है। इस बारे में भाजपा का दावा था कि शाह के हेलीकाप्टर में कुछ समस्या आ जाने के कारण ऐसा करना पड़ा जो परिस्थितियों को देखते हुए संदेहास्पद जान पड़ता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने भी 16 मार्च को पुरुलिया और बांकुरा जैसे आदिवासी क्षेत्र में रैलियों को सम्बोधित किया, जिसमें बेहद कम लोगों की उपस्थिति देखने को मिली है। 

बाहर से स्टार प्रचारकों को बंगाल में लाकर कार्पेट-बॉम्बिंग करने से सिर्फ भाजपा को “बाहरी” लोगों की पार्टी के तौर पर चरित्र-चित्रण करने के लिए टीएमसी को और अधिक आधार मुहैय्या कराने के अलावा थकान को बढ़ाने वाला साबित होने जा रहा है। योग्य स्थानीय नेतृत्त्व की कमी पहले से ही स्पष्ट देखने में आ रही है, जैसा कि बंगाल के 294 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा द्वारा पर्याप्त विश्वसनीय उम्मीदवारों को ढूंढ पाने में विफलता में पहले से ही साफ़-साफ़ दिख रहा है। 

यदि सभी चीजों को ध्यान में रखें, तो अब ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि यह कोई असाधारण मुकाबला होने जा रहा है, हालांकि इसके युगांतकारी होने की संभावना है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें 

Genius-level Defection ‘Strategy’ Sinking BJP in West Bengal

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