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पेगासस कांड: आखिर क्या है RSS से जुड़ा GVF ट्रस्ट? जिसकी अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार के आयोग की जांच पर लगा दी रोक

आरएसएस और हरियाणा की बीजेपी सरकार से करीबी संबंध रखने वाले, दिल्ली स्थित थिंक टैंक "ग्लोबल विलेज फाउंडेशन" ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाते हुए पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा पेगासस जासूसी कांड में गठित जांच आयोग की सुनवाई पर रोक लगाने की अपील की थी। आखिर ऐसा क्यों किया गया? न्यूज़क्लिक की गहन पड़ताल।
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17 दिसंबर को चीफ जस्टिस एन वी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की सदस्यता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने पेगासस से सबंधित एक जांच स्थगित कर दी। यह जांच सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मदन बी लोकुर और कोलकाता हाईकोर्ट के पूर्व कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश रहे ज्योतिर्मय भट्टाचार्य की सदस्यता वाली बेंच कर रही थी। इस जांच को पश्चिम बंगाल सरकार ने बैठाया था। बेंच को पेगासस स्पाईवेयर सॉफ्टवेयर द्वारा पत्रकारों, राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जासूसी की जांच करनी थी। 

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस जांच को रद्द करने का फ़ैसला दिल्ली स्थित "थिंक टैंक" ग्लोबल विलेज फाउंडेशन पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट की एक याचिका पर दिया है। याचिकाकर्ता की पैरवी हरीश साल्वे (पूर्व सॉलिसिटर जनरल ऑफ़ इंडिया) और महेश जेठमलानी कर रहे थे। 

इस संगठन का गठन 2015 में किया गया है, यह कर से छूट प्राप्त गैर सरकारी संगठन है, जिसका पंजीकरण भारतीय न्यास अधिनियम के तहत किया गया है। सगंठन अपनी वेबसाइट पर अपने आप को "जन नीतियों के विश्लेषण, उन्हें लागू करने में मदद और उनके गठन करने की दिशा में शोध करने वाला संस्थान" बताता है। संगठन के इतिहास और इससे संबंधित लोगों को देखते हुए समझ में आता है कि संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हरियाणा बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार से करीबी रखता है।  

इस संगठन से जुड़े अहम लोगों का आरएसएस से संबंधों का इतिहास रहा है, उन्हें हरियाणा सरकार ने अहम पदों पर नियुक्त किया है। एक मामले में तो केंद्र सरकार ने भी संगठन के व्यक्ति को अहम पद दिया है। आरएसएस, इस संगठन और राज्य सरकार के बीच खुले संबंधों पर तो एक बार हरियाणा के मुख्य विपक्षी दलों (कांग्रेस, आईएनएलडी) ने सीबीआई जांच की तक मांग की थी। इस जांच की मांग राज्य सरकार द्वारा इस संगठन के लोगों की नियुक्तियों को लेकर की गई थी। 

ग्लोबल विलेज फाउंडेशन का आरएसएस और बीजेपी से संबंध

हरियाणा में 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के तीन महीने बाद ही ग्लोबल विलेज फाउंडेशन का गठन हुआ था। संगठन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इसके शुरुआती दो ट्रस्टी- बलराम नंदवानी और विजय वत्स हैं। दोनों ही स्वदेशी जागरण मंच के सदस्य हैं, जो आरएसएस से जुड़ा है। संगठन की वेबसाइट कहती है कि इन दोनों लोगों ने 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन में हिस्सा लिया था, जो दिसंबर 2020 में आयोजित किया गया था। पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट नंदवानी फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं, कथित तौर पर वे आरएसएस के सदस्य हैं।

2016 में नंदवानी को उत्तर हरियाणा बिजली बिल वितरण निगम लिमिटेड (यूएचबीवीएन) में स्वतंत्र निर्देशक के तौर पर नियुक्ति किया गया था। यह कंपनी हरियाणा सरकार की ऊर्जा वितरण कंपनी है, जो राज्य का उत्तरी हिस्सा देखती है। उस वक़्त कांग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा ने नंदवानी की नियुक्ति "हितों का टकराव" बताया था। उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा था कि नंदवानी की यूएचबीवीएन की ऊर्जा बेचने वाली ऊर्चा उत्पादक कंपनियों में हिस्सेदारी है। 

हरियाणा के पूर्व ऊर्जा मंत्री कैप्टन अजय यादव ने ट्रिब्यून अख़बार को बताया था कि नंदवानी "ऊर्जा खरीद को सीधे प्रभावित कर सकते हैं और उनका सभी खातों व लेखा परीक्षा पर नियंत्रण है।" उन्होंने आगे कहा, "ऊपर से वे कोई सरकारी कर्मचारी नहीं हैं, इसलिए उनके खिलाफ़ गलती के लिए कोई भी कार्रवाई नहीं की जा सकती। खरीद के लिए जो निविदाएं होती हैं, उनकी जानकारी निर्देशकों को होती है और इस जानकारी का इस्तेमाल ऊर्जा व्यापारियों और विक्रेताओं के पक्ष में किया जा सकता है।"

वहीं नंदवानी ने सफ़ाई देते हुए किसी भी तरह के हितों के टकराव से इंकार किया है, उन्होंने ट्रिब्यून से कहा कि "गहरे घाटे में चल रही यूएचबीवीएन में मेरे काम खातों संबंधी सुधार लाना है।"

अक्टूबर 2016 में जीवीएफ के पूर्व ट्रस्टी अनिरुद्ध राजपूत को संयुक्त राष्ट्रसंघ की "अंतरराष्ट्रीय कानून आयोग" में भारत का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। अंतरराष्ट्रीय कानून आयोग, एक वैश्विक कानूनी संस्था है, जो सार्वजनिक कानून का संहिताकरण करती है। अनिरुद्ध राजपूत को जीवीएफ का "संरक्षक" और कार्यकारी परिषद का सदस्य बताया गया है। उस दौरान राजपूत की उम्र 33 साल थी और वे एक डॉक्टोरल डिग्री कर रहे थे। उनकी नियुक्ति पर सवाल उठे थे, क्योंकि उनके पहले भारत हमेशा एक वरिष्ठ और मंझे हुए कानूनी जानकार को इस पद के लिए चुनता था। 

कम से कम मार्च, 2019 तक राजपूत जीवीएफ के ट्रस्टी बने रहे। संघ से ताल्लुक रखने वाले राजपूत वकील हैं और वे आरएसएस के थिंक टैंक जम्मू-कश्मीर स्टडी सेंटर के निर्देशक भी रहे हैं। अनिरुद्ध राजपूत को हरियाणा सरकार ने मई 2016 में पांचवे वित्त आयोग का सदस्य भी बनाया था। वहीं जीवीएफ की सार्वजनिक नीति के निदेशक मुकुल एशर को इस वित्त आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। मुकुल जीवीएफ के सलाहकारी मंडल में भी हैं। 

नाल्को के पूर्व मुख्य प्रबंध निदेशक व जीवीएफ के सलाहकारी मंडल व कार्यकारी परिषद के एक सदस्य बजरंग लाल बागड़ा "एकल अभियान" के सलाहकारी मंडल में भी शामिल हैं। एकल मंडल आरएसएस से जुड़ा संगठन है, जो जनजातीय इलाकों में अनौपचारिक स्कूल चलाता है। वे विश्व हिंदू परिषद के संयुक्त महासचिव भी हैं।   

फिर जीवीएफ के शैक्षणिक सुधार सलाहकार और सलाहकारी मंडल के तीसरे सदस्य बी के कुठालिया एक आरएसएस विचारक हैं। जिन्हें दीनानाथ बत्रा के करीब़ माना जाता है। दीनानाथ बत्रा शैक्षणिक मुद्दों पर आरएसएस की सबसे प्रमुख आवाज़ हैं। मार्च, 2018 में कुठालिया को नवनिर्मित हरियाणा स्टेट हायर एजुकेशन काउंसिल में अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त किया गया था। 

जीवीएफ के सह-संस्थापक और कार्यकारी परिषद के सदस्य सुमित कुमार, हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर के विशेष अधिकारी हैं। जीवीएफ में कौशल विकास और शैक्षणिक टीम के प्रमुख राज नेहरू को श्री विश्वकर्मा कौशल विश्व विद्यालय का संस्थापक उप-कुलपति नियुक्त किया गया था। वे हरियाणा स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स डिवेल्पमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड के बोर्ड में निदेशक भी हैं। उन्हें, यूजीसी द्वारा गठित एक पैनल में सदस्य भी बनाया गया था। इस पैनल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को लागू करने की योजना बनाने का काम दिया गया था। 

मुख्यमंत्री रहते हुए खुद खट्टर कई बार जीवीएफ के कार्यक्रमों में गए हैं। वे मई, 2016 में संगठन के स्थापना दिवस में भी पहुंचे थे। जीवीएफ द्वारा सितंबर 2016 में जीएसटी पर आयोजित एक कॉन्फ्रेंस- "जीएसटी समिट" में भी खट्टर मुख्य अतिथि थे। 

दिसंबर 2015 में जीवीएफ ने नास्कॉम और हरियाणा सरकार के तकनीकी शिक्षा विभाग के साथ एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत जीवीएफ को नोडल एजेंसी बनना था, इस एमओयू का लक्ष्य नौकरियों का सृजन करना था। नास्कॉम एक गैर सरकारी व्यापारिक संगठन है, जो सूचना तकनीक से जुड़े मुद्दे उठाता है। जुलाई 2016 में मुख्यमंत्री खट्टर की उपस्थिति में जीवीएफ ने महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी, रोहतक के साथ समाजव आर्थिक सार्वजनिक नीतियों पर शोध, और समग्र अध्ययन के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए। 

नंदवानी ने ट्रिब्यून को हरियाणा सरकार में जीवीएफ का किरदार बताते हुए कहा, "यह एनजीओ सार्वजनिक नीतियों पर शोध के लिए थिंक-टैंक है। जीवीएफ ने सरकार को जीएसटी और दूसरे मुद्दों पर मदद की है, जीवीएफ अर्थशास्त्रियों, वकीलों, चार्टर्ड अकाउंटेंट जैसे विशेषज्ञों का समूह है। हम सरकार के साथ अलग-अलग मुद्दों पर काम कर रहे हैं। हम ऐसे लोग हैं, जिनकी सामाजिक पृष्ठभूमि है और जीवीएफ परिषद के सभी सदस्य स्वयंसेवी ढंग से इसमें काम करते हैं।"

मुख्यमंत्री खट्टर के मीडिया सलाहकार अमित आर्या ने ट्रिब्यून को बताया, "जीवीएफ में खुद का मतलब ना रखने वाले ऐसे पेशेवर लोग शामिल हैं, जो अलग-अलग सरकारों को नीति निर्माण में मदद कर रहे हैं। उन्होंने कई मामलों में केंद्र सरकार की भी मदद की है। इसी तरह वे अपने-अपने क्षेत्र में हरियाणा सरकार की मदद कर रहे हैं।"

कांग्रेस के रण सिंह मान का आरोप है कि एक बेनाम आरएएस नेता जीवीएफ को समर्थन देता है और जीवीएफ के पूर्व सदस्य सुनील शर्मा, मुख्यमंत्री खट्टर और आरएसएस के बीच की कड़ी हैं। सुनील शर्मा को हरियाणा राज्य औद्योगिक और अवसंरचना विकास निगम (HSIIDC) का नोडल अधिकारी व राज्य सरकार के औद्योगिक विभाग में मुख्य संयोजक नियुक्त किया गया था। वे HSIIDC के एस्टेट डिपार्टमेंट के प्रमुख भी हैं। 

पेगासस केस में जीवीएफ का हस्तक्षेप

तो पेगासस केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पश्चिम बंगाल सरकार की नियुक्ति वाले जांच आयोग को रोकने से पहले, आरएसएस और हरियाणा सरकार के साथ करीबी संबंध रखने वाले इस एनजीओ ने केस में कैसे हस्तक्षेप किया। और इस हस्तक्षेप का क्या प्रभाव हुआ?

चलिए तो पेगासस जासूसी कांड से जुड़ी अलग-अलग तारीख़ों को याद करते हैं। 

18 जुलाई को मीडिया संगठनों के अंतरराष्ट्रीय संघ, जिसमें भारत द वायर शामिल था, उसने "पेगासस प्रोजेक्ट" में खोजे गए तथ्यों को जारी किया। प्रोजेक्ट में पाया गया कि करीब़ 300 भारतीयों के फोन नंबर वाली एक सूची लीक हुई है, यह संभावना है कि इन फोन नंबरों की इज़रायली एनएसओ समूह के पेगासस सॉफ्टवेयर के ज़रिए निगरानी की गई हो। इस सूची में पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता और सरकारी अधिकारी शामिल थे। फॉरेंसिक जांच में भी पता चला कि सूची में जिन लोगों के नंबर थे, उनमें से कुछ फोन में इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर घुसपैठ की गई थी। जबकि एनएसओ समूह इस दौरान दावा करता रहा कि वो इस सॉफ्टवेयर को सिर्फ़ "सरकारों" को ही बेचता है।  

26 जुलाई को पश्चिम बंगाल सरकार ने दावों की जांच करने के लिए दो सदस्यों वाले आयोग का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज, जस्टिस मदन लोकुर कर रहे थे। केंद्र सरकार पेगासस से जासूसी की ना तो पुष्टि कर रही थी और ना ही इससे इंकार कर रही थी। 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी, जो दो बार सांसद रह चुके हैं, उनकी पार्टी टीएमसी के राष्ट्रीय महासचिव, ममता बनर्जी के सलाहकार और चुनावी रणनीतिज्ञ प्रशांत किशोर का फोन नंबर भी पेगासस प्रोजेक्ट में जिक्र की गई सूची में शामिल था। फिर एमनेस्टी इंटरनेशनल और टोरंटो में सिटीजन लैब द्वारा किए गए फॉरेंसिक परीक्षण में प्रशांत किशोर के फोन में घुसपैठ की पुष्टि की गई। 

इस बीच सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल की गईं। कई ऐसे लोगों ने भी याचिकाएं दाखिल कीं, जिनके बारे में फॉरेंसिक विशेषज्ञों ने पुष्टि में कहा कि उनके फोन की पेगासस द्वारा जासूसी की गई थी। इन याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट से अपनी निगरानी में मामले की जांच करवाने की अपील की गई थी। 

ठीक इसी बिंदु पर जीवीएफ ने सुप्रीम कोर्ट में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा बनाए आयोग को चुनौती दी। 

कोर्ट में सुनवाई

शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट की बेंच जीवीएफ की याचिका पर सुनवाई करने के मूड़ में नहीं थी। 18 अगस्त को मौखिक सुनवाई में वकील सौरभ मिश्रा ने जीवीएफ की तरफ से पेश होते हुए कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार के पास इस मामले में आयोग बैठाने का क्षेत्राधिकार नहीं है। जीवीएफ ने तर्क दिया गया कि केवल भारत सरकार ही पेगासस केस में जांच आयोग बैठा सकती है। 

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की तरफ से पेश होते हुए जीवीएफ के केस को समर्थन दिया और कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार की अधिसूचना अंसवैधानिक है। 

मिश्रा ने कहा कि लोकुर-भट्टाचार्य की सदस्यता वाला आयोग दैनिक आधार पर काम कर रहा है और समन व नोटिस जारी कर रहा है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही एक राष्ट्रीय स्तर जांच के लिए दाखिल की गई अपील की सुनवाई कर रहा है, इसलिए जब तक सुप्रीम कोर्ट लंबित याचिकाओं पर फ़ैसला नहीं कर लेता, तब तक जांच आयोग की सुनवाई रोकनी चाहिए। 

उस दिन बेंच ने आयोग की सुनवाई पर रोक लगाने के लिए अंतरिम आदेश जारी करने की मिश्रा की अपील रद्द कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जीवीएफ के शपथ पत्र में कुछ “अनियमित्ताएं” हैं।

अगली मौखिक सुनवाई में 25 अगस्त को जीवीएफ की तरफ से मशहूर वकील और भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे पेश हुए। साल्वे ने तर्क दिया कि पेगासस हैकिंग के पीड़ितों द्वारा दाखिल और फिलहाल कोर्ट में लंबित याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पश्चिम बंगाल वाले आयोग की सुनवाई पर प्रभाव पड़ेगा। साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट में लंबित याचिकाओं के निस्तारण तक पश्चिम बंगाल आयोग की कार्रवाई पर रोक लगाने की अपील की। 

पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ से पेश होते हुए वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कोर्ट को भरोसा दिलाया कि पश्चिम बंगाल सरकार जांच आयोग से कहेगी कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पेगासस याचिकाओं पर पर्याप्त सुनवाई होने तक वो आगे कार्रवाई ना करे। साल्वे ने जीवीएफ की तरफ से सिंघवी के इस वायदे को मान लिया और तब कोई स्थगन का आदेश जारी नहीं किया गया। 

लेकिन इसी दौरान पश्चिम बंगाल सरकार ने इस मामले में जीवीएफ के हस्तक्षेप और मंशा पर सवाल खड़े कर दिए। एक शपथ पत्र में पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा कि जीवीएफ ने यह याचिका पेगासस में मामले में किसी भी स्वतंत्र जांच को आगे बढ़ने से रोकने के लिए दाखिल की है। बंगाल सरकार ने कहा कि जीवीएफ के अध्यक्ष और ट्रस्टी बलराम नंदवानी का आरएसएस और उससे जुड़े स्वदेशी जागरण मंच से करीबी संबंध है। कोर्ट में सिंघवी ने कहा कि याचिकाकर्ता एक एनजीओ है, जिसके स्पष्ट राजनीतिक संबंध हैं। जीवीएफ से जुड़ा शख़्स इसलिए कोर्ट से जांच आयोग पर रोक लगाने वाला आदेश चाहता है ताकि वो अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करवा सके।  

बाद में 27 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस मामले से जुड़ी सभी याचिकाओं को एक साथ जोड़ने का आदेश दे दिया। कोर्ट ने रिटायर्ड सुप्रीम कोर्ट जज, जस्टिस आर वी रवींद्रन की अध्यक्षता में पेगासस के ज़रिए जासूसी के आरोपों की जांच के लिए एक समिति का गठन कर दिया। रिटायर्ड जज को मदद करने के लिए दो अधिकारियों के साथ-साथ समिति में तीन स्वतंत्र तकनीकी विशेषज्ञों को शामिल किया गया। समिति का गठन करने वाली इस अंतरिम सुनवाई में कोर्ट ने पश्चिम बंगाल जांच आयोग के आदेशों का कोई जिक्र नहीं किया। 

इस सुनवाई के बाद पश्चिम बंगाल जांच आयोग ने अपनी सुनवाई फिर से चालू कर दी। 

16 दिसंबर को साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट की बेंच के सामने जीवीएफ की याचिका का “जिक्र” किया। अगले दिन ही इस मामले पर सुनवाई की तारीख़ मुकर्रर कर दी गई। साल्वे ने कोर्ट से कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा कोर्ट में भरोसा दिलवाए जाने के बावजूद आयोग ने अपनी कार्रवाई जारी रखी है। पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ से पेश होते हुए सिंघवी ने कहा कि जांच आयोग को प्रतिबंधों के बारे में बता दिया गया था, लेकिन पश्चिम बंगाल राज्य आयोग की कार्रवाईयों पर नियंत्रण नहीं रखता। सिंघवी ने यह भी बताया कि जांच आयोग ने अपनी सुनवाई, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अंतरिम आदेश जारी किए जाने के बाद ही शुरू की थी। 

साल्वे ने कहा कि चूंकि आयोग एक स्वतंत्र संस्था है और पश्चिम बंगाल राज्य इसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। साल्वे ने कहा कि जीवीएफ की याचिका में आयोग को एक वादी बनाया जाए। कोर्ट ने यह अपील मान ली और आयोग को एक नोटिस जारी कर अपनी प्रक्रियाएं रोकने के लिए कहा।  

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक टकराव

जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा जीवीएफ की याचिका पर सुनवाई की जा रही थी, तभी एक राजनीतिक टसल शुरू हो गी। आयोग की सुनवाई पर रोक के तीन दिन बाद 20 दिसंबर को पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने मुख्यमंत्री से उन प्रक्रियाओं की जानकारी मांगी, जिनके चलते जांच आयोग का गठन हुआ। धनखड़ को जुलाई, 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार ने नियुक्त किया था। वे तबसे ही राज्य में टीएमसी सरकार के मुखर आलोचक रहे हैं, उन्होंने अनुच्छेद 167 को तक लागू किया, जिससे तहत मुख्यमंत्री को यह रिकॉर्ड राज्यपाल को देना होता है। 

मुख्यमंत्री को लिखे ख़त में धनखड़ ने लिखा कि राज्य के मुख्य सचिव यह जानकारी देने में नाकामयाब रहे हैं और कमीशन को बनाने की अधिसूचना “राज्यपाल के मत के आधार पर” गठित की गई है। लेख के लेखकों को सरकार में उच्च पदों पर तैनात सूत्रों ने बताया कि मुख्य सचिव को राज्यपाल कार्यालय की तरफ से रिकॉर्ड की मांग की गई थी और मुख्य सचिव ने किसी भी तरह की जानकारी देने से इंकार कर दिया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में 16 दिसंबर को जीवीएफ की याचिका का जिक्र किया गया।  

पेगासस जांच पर प्रभाव

इस प्रतिबंधात्मक आदेश के पहले पश्चिम बंगाल जांच आयोग ने आरोपों की जांच करने की प्रक्रिया में कुछ कदम उठाए थे। 

आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक,1 3 अगस्त को आयोग ने पेगासस घुसपैठ से प्रभावित होने वाले से जानकारी हासिल करने के लिए नोटिस जारी किया था। साथ ही 21 दूसरे व्यक्तियों को प्राइवेट नोटिस जारी किया गया था। इनमें से पांच लोगों ने नोटिस का जवाब दिया। इसके बाद इन्हें दूसरा नोटिस भी जारी किया गया। इसके अलावा 11 लोगों ने स्वैच्छिक ढंग से बिना नोटिस प्राप्त किए आयोग को जानकारी उपलब्ध कराई। 

आयोग ने पहले नोटिस अगस्त से नवंबर 2021 के बीच भेजे थे। यह नोटिस इन लोगों को भेजे गए थे। 

1) पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव बीपी गोपालिका

2) कनाडा की टोरंटो यूनिवर्सिटी में मंक स्कूल ऑफ ग्लोबल अफेयर्स में स्थिति लैब, द सिटीजन लैब और एमनेस्टी इंटरनेशनल को। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने पेगासस प्रोजेक्ट में तकनीकी मदद उपलब्ध कराई थी। सिटीजन लैब ने एमनेस्टी की जांच का परीक्षण किया था। 

3) द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और एम के वेणु। द वायर, मीडिया संगठनों के अंतरराष्ट्रीय संघ का हिस्सा था, जिसने लीक सूची की जांच की थी और उसे प्रकाशित किया था। फॉरेंसिक विशेषज्ञों ने माना है कि वेणु और वरदराजन के फोन में भी “घुसपैठ” की गई थी।

4) परंजॉय गुहा ठाकुरता- पत्रकार

5) एसएनएम आब्दी- पत्रकार

6) प्रशांत किशोर- राजनीतिक रणनीतिकार व सलाहकार

7) अभिषेक बनर्जी- टीएमसी के राष्ट्रीय महासचिव, सांसद और ममता बनर्जी के भतीजे

8) टोनी जेसुदासन (और उनकी पत्नी)- रिलायंस अनिल धीरूभाई अंबानी समूह में कॉरपोरेट कम्यूनिकेशन के प्रमुख

9) वेंकट राव पोसिना- राफेल फाइट जेट बनाने वाली कंपनी, फ्रांस की दसां एविएशन में भारतीय प्रतिनिधि 

10) हरमनजीत नागी- फ्रांस राज्य द्वारा संचालित ऊर्जा कंपनी इलेक्ट्रिसाइटे डे फ्रांस एसए (ईडीएफ) के प्रमुख

11) प्रत्यूष कुमार- बोइंग इंडिया के प्रमुख

12) अंजनी कुमार- श्रम अधिकार कार्यकर्ता

13) शिव गोपाल मिश्रा- भारतीय रेलवे में कर्मचारियों के यूनियन लीडर

14) राजेश्वर सिंह और आभा सिंह- ईडी के वरिष्ठ अधिकारी और उनकी बहन

15) हनी बाबू एमटी- दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक एसोसिएट प्रोफ़ेसर और सामाजिक कार्यकर्ता, जिन्हें एल्गार परिषद केस में गिरफ़्तार किया गया था

16) राहुल गांधी- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष

17) राकेश अस्थाना- सीबीआई के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी और दिल्ली के मौजूदा पुलिस कमिश्नर 

18) राकेश तिवारी- बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष

चूंकि प्रतिबंधात्मक आदेश लग चुका है, इसलिए अब पश्चिम बंगाल जांच आयोग को सुप्रीम कोर्ट में जीवीएफ याचिका के मामले में पेश होकर साबित करना पड़ेगा कि उसकी जांच जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के स्वचलित तंत्र द्वारा इस केस में अगली सुनवाई के लिए 4 फरवरी, 2022 की तारीख़ दी गई है। 

जिन लोगों के नामों का जिक्र है, उनमें से वेणु, वरदराजन, द सिटीजन लैब, पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव, परंजॉय गुहा ठाकुरता और आब्दी ने लोकुर-भट्टाचार्य आयोग द्वारा जारी किए गए नोटिस का जवाब दिया है, जिसके बाद उन्हें दूसरा नोटिस जारी किया गया। 

वेणु और वरदराजन ने कहा कि उन्होंने लिखित वक्तव्य भेजा था। इसके बाद आयोग ने उनके साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस की योजना बनाई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश द्वारा आयोग की कार्रवाई रोक लगने के चलते ऐसा नहीं हो पाया। 

आब्दी ने कहा कि उनसे लोकुर-भट्टाचार्य आयोग के सामने पेश होने के लिए कहा गया था। लेकिन जिस दिन उनकी पेशी होनी थी, उसी दिन सुप्रीम कोर्ट का प्रतिबंधात्मक आदेश आ गया

गुहा ठाकुरता ने बताया कि वे लोकुर-भट्टाचार्य आयोग के सामने सशरीर पेश हुए और आयोग ने उनका वक्तव्य रिकॉर्ड किया था। उन्होंने अपना मोबाइल भी आयोग को दे दिया था, ताकि उसके डेटा का फॉरेंसिक विश्लेषण किया जा सके। 

हनी बाबू की साथी जेनी रोवेना ने बताया कि उन्हें लोकुर-भट्टाचार्य आयोग की तरफ से कोई नोटिस नहीं मिला है। 

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट की तकनीकी समिति ही एकमात्र संस्था है, जो याचिकाकर्ताओं द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में इस समिति को जांच ख़त्म करने की अंतिम तारीख़ नहीं दी है। तो समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट जमा करने से पहले एक लंबा वक़्त निकल जाएगा, तब जाकर केस में आगे कोई प्रगति हो पाएगी।

जनवरी की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति ने एक सार्वजनिक नोटिस जारी कर कहा कि जिन-जिन लोगों को लगता है कि पेगासस के ज़रिए उनके मोबाइल में घुसपैठ की गई है, वे आगे आएं और अपना वक्तव्य समिति के सामने दर्ज करवाएं, साथ ही अपने मोबाइल को तकनीकी विश्लेषण के लिए जमा करें। 

वरदराजन ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति ने उनसे बात की और उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। समिति ने उनके मोबाइल पर आए डेटा को भी फॉरेंसिक परीक्षण के लिए रिकॉर्ड करने की अनुमति मांगी। साथ ही कुछ सवालों पर उनके जवाब मांगे। वरदराजन ने बताया कि उन्होंने समिति से कुछ स्पष्टीकरण मांगे हैं और जल्द ही वे अपना वक्तव्य दर्ज करवाने के लिए समिति के सामने पेश होंगे। 

गुहा ठाकुरता और आब्दी दोनों ने कहा कि उन्होंने जस्टिस रवींद्रन समिति को ख़त लिखा था। समिति ने दोनों के मोबाइल को परीक्षण के लिए जमा करवाने और दोनों को समिति के सामने पेश होकर अपना वक्तव्य दर्ज कराने को कहा है। 

रोवेना ने बताया कि जस्टिस रवींद्रन समिति द्वारा नोटिस जारी किए जाने के बाद उन्होंने समिति के ईमेल पर अपने पति हनी बाबू की तरफ से संदेश लिखा था और समिति का पता मांगा था, ताकि हनी बाबू मुंबई की तलोजा जेल से समिति को अपनी प्रतिक्रिया लिख सकें। हनी बाबू एल्गार परिषद केस में सुनवाई का सामना कर रहे हैं और एनआई द्वारा जुलाई, 2020 में गिरफ़्तार किए जाने के बाद उन्हें 18 महीने से जेल में रखा गया है। रोवेना को अब तक समिति की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हनी बाबू का मोबाइल, जिसमें पेगासस के ज़रिए घुसपैठ की संभावना है, वह अब भी एनआईए के कब्ज़े में है। 

लेखकों ने अभिषेक बनर्जी और राहुल गांधी के प्रतिनिधियों तक भी संदेश भिजवाया। लेकिन इस लेख के प्रकाशित होने तक उनकी प्रतिक्रिया नहीं आई है।  

पश्चिम बंगाल जांच आयोग और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति में अंतर 

पश्चिम बंगाल राज्य सरकार द्वारा गठित जांच आयोग और सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति की शक्तियों और गठन में अंतर है। पश्चिम बंगाल द्वारा गठिन जांच आयोग, जांच आयोग अधिनियम 1952 के तहत गठित हुआ है। इसके द्वारा खोजे गए तथ्य और नतीज़े राज्य सरकार या सुप्रीम कोर्ट पर बाध्यकारी नहीं होंगे। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति के मामले में भी यही बात है। दोनों ही ऐसी रिपोर्टें बना सकते हैं, जो सलाहकारी होंगी।  

लेकिन पश्चिम बंगाल जांच आयोग को गठित करने वाली अधिसूचना ऐसे वैधानिक प्रबंध करती है, जिससे आयोग किसी भी व्यक्ति से कानूनी सवाल कर सकता है, उसे जानकारी देने के लिए बोल सकता है और किसी भी जगह दस्तावेजों को खोजने के लिए छापेमारी करवा सकता है। आयोग राज्य या केंद्र की एजेंसी के अधिकारी को अपनी जांच के लिए, संबंधित सरकार को सूचित कर उपलब्ध करवा सकता है।  

दूसरी तरफ़ सुप्रीम कोर्ट की समिति के लिए ऐसी शक्तियां नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट का आदेश केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को “समिति की पूर्ण मदद करने के लिए सभी सुविधाएं, जिसमें अवसंरचना संबंधी जरूरतें, श्रमबल, वित्त या कोई दूसरी जरूरी चीज उपलब्ध कराने के लिए कहता है।” लेकिन यह आयोग की तुलना में कम शक्तियां हैं।

आयोग और समिति के कार्यक्षेत्र की प्रवृत्ति, मुख्य केंद्र और प्राथमिकताओं में भी अंतर है।

सुप्रीम कोर्ट की समिति को यह जांच करनी थी कि- क्या पेगासस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल भारत के नागरिकों की जासूसी करने के लिए किया गया या नहीं, पीड़ितों की जानकारी, जब पहले पेगासस हैकिंग की रिपोर्ट आई थी, तब सरकार ने क्या कदम उठाए थे, क्या किसी भारतीय एजेंसी ने पेगासस सॉफ्टवेयर की खरीद की या नहीं, इसके इस्तेमाल के लिए क्या कानूनी ढांचा है, आदि।

दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल आयोग को कार्यक्षेत्र के संबंध में दिए गए निर्देश बिल्कुल स्पष्ट हैं। निर्देशों के मुताबिक़ आयोग को उपरोक्त सभी विषयों की जांच करनी थी सिर्फ़ यह छोड़कर कि ऐसे सर्विलांस की पिछली रिपोर्टों पर केंद्र सरकार ने क्या कदम उठाए)। लेकिन एक अतिरिक्त चीज यह जुड़ जाती है कि "इस तरह के सर्विलांस में कौन से राज्य और गैर-राज्य तत्व शामिल थे," "ऐसी घटनाएं जिनसे यह निगरानी रखने की जरूरत पड़ी", "फिर कौन सी जानकारी इकट्ठी की गई, भंडारित की गई और उपयोग की गई", "किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा पैदा की गई ऐसी स्थितियां (संबंधित व्यक्तियों द्वारा उकसावे आदि) जिनके चलते यह निगरानी रखनी पड़ी।

सुप्रीम कोर्ट की समिति पर एक और अतिरिक्त भार है, जिसके ऊपर आयोग को ध्यान केंद्रित नहीं करना था। सुप्रीम कोर्ट ने समिति को इन चीजों पर सुझाव देने का काम भी दिया है- “निजता के अधिकार को सुरक्षित करने और सर्विलांस पर मौजूदा कानून में संशोधन या नए कानून पर सुझाव देना”, “राष्ट्र और इसकी संपत्तियों की साइबर सुरक्षा को उन्नत करने पर सुझाव", "नागरिकों के निजता के अधिकारों के उल्लंघन को रोकने पर सुझाव", "नागरिकों के लिए ऐसे तंत्र का गठन करना, जो अवैधानिक सर्विलांस (निगरानी) पर उनकी आपत्तियों का समाधान कर सके", "साइबर सुरक्षा कमियों को दूर करने, साइबर हमलों के ख़तरे का विश्लेषण करने और साइबर हमलों की जांच करने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन"।

मोटे तौर पर आयोग का कार्यक्षेत्र, पेगासस के ज़रिए हुए सर्विलांस पर एक व्यापक जांच थी, जबकि समिति को आरोपों की जांच के साथ-साथ कानून, नीति और प्रशासन पर सुझाव देने का अतिरिक्त काम भी दिया गया था। 

अंत में, आयोग को जांच पूरी करने के लिए 6 महीने का वक़्त दिया गया था, जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई समिति को कोई आखिरी तारीख़ नहीं दी गई है। 

फिर ऐसी कोई रोक भी नहीं है कि दोनों जांच को एक साथ चलने से रोका जाए, बल्कि इससे तो ज़्यादा तथ्य सामने आ सकते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश में खामी

"इंडियन कांस्टीट्यूशनल लॉ एंड फिलोसॉफी ब्लॉग" के लिए लिखे एक लेख में याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों की टीम के एक सदस्य कृष्णेश बापत ने तर्क दिया कि पश्चिम बंगाल जांच आयोग पर रोक लगाने वाला सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कई त्रुटियां हैं। 

बापत के मुताबिक़, पहली त्रुटि यह है कि कोर्ट का आदेश यह साफ़ नहीं करता कि उसने आयोग की सुनवाई पर रोक क्यों लगाई है। "कोर्ट ने आयोग को आगे सुनवाई पर रोक लगा दी, जबकि इसके लिए तर्क नहीं दिए, ना ही आयोग के वकील को सुना गया।"

"कोर्ट तभी प्रतिबंधात्मक आदेश लागू कर सकता था जब उसे लगता कि आयोग का गठन करने वाली अधिसूचना प्राथमिक तौर पर असंवैधानिक है या संतुलन याचिकाकर्ताओं के पक्ष में झुका हुआ है या आयोग की सुनवाई जारी रहना अन्यायपूर्ण रहेगा।" लेकिन कोर्ट ने ऐसी कोई वज़ह नहीं बताई।   

बापत के मुताबिक़, दूसरी त्रुटी यह है कि कोर्ट ने यह नहीं बताया कि जीवीएफ के पास इस तरह की अपील लगाने का कानूनी अधिकार है या नहीं। बापत लिखते हैं, "पेगासस प्रोजेक्ट द्वारा जो खुलासे किए गए हैं, एनजीओ का उनसे कोई संबंध नहीं दिखाई देता। आयोग द्वारा एनजीओ को वादी के तौर पर समन भी नहीं भेजा गया था। जहां तक लेखक की समझ है कि जांच आयोग की कार्रवाई रहने से एनजीओ को कोई फर्क भी नहीं पड़ता। इसलिए यह जरूरी था कि कोर्ट बताता कि क्यों एक एनजीओ की अपील को माना गया, वह भी तब जब पश्चिम बंगाल राज्य ने एनजीओ की भलमनसाहत पर सवाल खड़ा किया था।" 

ग्लोबल विलेज फाउंडेशन की प्रतिक्रिया

लेख के लेखकों ने जीवीएफ और इसके अध्यक्ष बलराम नंदवानी से उनकी टिप्पणी जानने के लिए संदेश भेजा था। लेखक यह विशेष तौर पर जानना चाहते थे कि क्यों एनजीओ ने पेगासस मामले में हस्तक्षेप करने का फ़ैसला किया और किस आधार पर उसे ऐसा करने का अधिकार है।

लेकिन अब तक जीवीएफ या नंदवानी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। उनकी प्रतिक्रिया आने पर लेख में शामिल की जाएगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें:- 

Why Did RSS-Linked GVF Intervene in SC to Stop West Bengal Probe Commission on Pegasus Snooping?

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