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हाथ से मैला ढोने की समस्या के समाधान के लिए सरकार को स्वतंत्र इकाई का गठन करना चाहिए : बेजवाड़ा विल्सन

सफाई कर्मचारी आंदोलन (SKA) द्वारा एक्शन 2022 नाम से 75 दिवसीय राष्ट्रीय जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। इस संबंध में न्यूज़क्लिक ने SKA के राष्ट्रीय संयोजक और रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित बेज़वाड़ा विल्सन से बात की।
Wilson

नई दिल्ली : सफाई कर्मचारी आंदोलन (SKA) द्वारा एक्शन 2022 नाम से 75 दिवसीय राष्ट्रीय जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। आज शनिवार को इस अभियान का 32वां दिन है। ये अभियान देश के भीतर हाथ से मैला ढोने की कुप्रथा के ख़िलाफ़ और उसे खत्म करने की मांग को लेकर चल रहा है। इसका नारा है "स्टॉप किलिंग अस" यानी हमें मत मारो। अमानवीय प्रथा, हाथ से मैला ढोने की प्रथा को कानूनी तौर पर मैनुअल स्कैवेंजर्स और उनके पुनर्वास अधिनियम, 2013 के तहत "सभी रूपों में" प्रतिबंधित किया गया है। हालांकि हाथ से मैला ढोने को 1993 में ही गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था।

बुधवार को, न्यूज़क्लिक ने एसकेए के राष्ट्रीय संयोजक और रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित बेज़वाड़ा विल्सन से बात की। उन्होंने बताया  कि 2016 और 2020 के बीच संगठन द्वारा हाथ से मैला ढोने के कारण 472 मौतें दर्ज की गईं और आज भी सफाई के दौरान सीवर और सेप्टिक टैंक में होने वाली मौतें जारी हैं। विल्सन ने हाथ से मैला ढोने की जघन्य प्रथा के विभिन्न पहलुओं और इसे ठीक से हल नहीं करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की विफलता के बारे में बात की। संपादित अंश पढ़ें:

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न्यूज़क्लिक : हमें एसकेए के चल रहे अभियान, ‘एक्शन 2022’ के बारे में बताएं।

बेजवाड़ा विल्सन : देखिए, यहां समस्या यह है कि मौतें [मैन्युअल मैला ढोने के कारण] लगातार हो रही हैं। हम सोचते रहे थे कि सरकारें इस बारे में कुछ करेंगी। लेकिन वास्तव में समस्या का कोई समाधान खोजने के बजाय, (केंद्र) सरकार ने समस्या को कम करके आंका या तथ्यों को नकारना शुरू कर दिया। तकनीकी रूप से उन्होंने लोगों को गुमराह करना शुरू कर दिया जिसकी वजह से हमने जनता को जागरुक करने का काम किया है।

कहीं न कहीं वे कहते हैं कि भारत में मैला ढोने की प्रथा है ही नहीं। फिर वे दावा करते हैं कि पिछले पांच वर्षों में हाथ से मैला ढोने के कारण किसी की मृत्यु नहीं हुई। फिर वे एक बयान जारी करते हैं जिसमें दावा किया जाता है कि देश में सीवरों और सेप्टिक टैंकों की सफाई करते हुए लगभग 300 लोगों की मौत हो गई।

इससे केवल यही पता चलता है कि वे जो भी आंकड़े दे रहे हैं वह पूरी तरह से सही नहीं हैं। यह उन चिंताओं में से एक थी जब हमें लगा कि हम चुप नहीं रह सकते। इसके बाद हमने देश के हर शहर में जाने का फैसला किया। इसके अंतर्गत हम कम से कम 75 शहरों में यात्रा करेंगे और जनता को सच बताएँगे। यह एक एक्टिविटी है कोई मिशन नहीं है। चूंकि, यह 2022 में हो रहा है, इसलिए अभियान का शीर्षक 'एक्शन 2022' है।

न्यूज़क्लिक : क्या आपको इस यात्रा के दौरान पुलिस प्रशासन की ओर से किसी समस्या का सामना करना पड़ा है?

विल्सन : हर शहर में जागरूकता अभियान के तहत हम हाथों में 'हमें मत मारो' की तख्तियां लेकर खड़े होने के अलावा और कुछ नहीं करते हैं। हालाँकि ये भी (राज्य) पुलिस को रास नहीं आता है। वो इस पर कुछ आपत्तियाँ उठाती है, और अंततः हमें खड़े होने की अनुमति नहीं देती है।

हमने दिल्ली, हैदराबाद और चंडीगढ़ सहित अन्य जगहों पर ऐसी स्थिति का सामना किया है। हमें बताया गया है कि 25 से अधिक लोगों के इकट्ठा होने की अनुमति नहीं है। अगर कानून-व्यवस्था की स्थिति बनती है तो हमारा साउंड सिस्टम तुरंत बंद कर दिया जाएगा। यहां तक कि कुछ शहरों में, हमें केवल डीएम (जिला मजिस्ट्रेट) को ज्ञापन सौंपने की अनुमति दी गई थी। लोकतंत्र में अब अपनी आवाज़ उठाना भी एक बड़ा अपराध हो गया है। पहले वे हमें मार रहे हैं और फिर वे हमें अपनी आवाज़ उठाने की अनुमति भी नहीं दे रहे हैं।

न्यूज़क्लिक : एसकेए ने अक्सर सरकारों पर हाथ से मैला ढोने के कारण होने वाली मौतों की वास्तविक संख्या की पहचान करने में विफल रहने का आरोप लगाया है। आखिर इसकी वजह क्या है? क्या दोनों की परिभाषा में अंतर है?

विल्सन : नहीं, मैला ढोने की परिभाषा जो सरकार इस्तेमाल करती है और जो एसकेए द्वारा इस्तेमाल की जाती है, वो एक ही है। यह वह परिभाषा है जिसका उपयोग 2013 के कानून (मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013) में किया गया है। हालांकि सरकार वास्तव में समस्या से बाहर निकलने के लिए परिभाषा में हेरफेर करने की कोशिश कर रही है।

इसके अलावा, इन दिनों एक और बात है- केंद्र ने दावा करना शुरू कर दिया है कि स्वच्छता राज्य का विषय है। लेकिन फिर 2014 में, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत कैसे की थी? मिशन के तहत शौचालयों के निर्माण पर कई लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए परन्तु फिर भी मशीनीकरण [मानव मल को मैनेज करने] पर एक पैसा भी नहीं खर्च किया गया है। इतना ही नहीं, हाथ से मैला उठाने वालों के पुनर्वास पर भी एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया है। इससे केवल यही पता चलता है कि बुनियादी तौर पर केंद्र गलत बोल रही है। वो चाहे तो सफ़ाई कर्मचारियों की बेहतरी के लिए काम कर सकती है।

न्यूज़क्लिक : 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने 1993 से सीवेज का काम करते हुए मरने वाले और हाथ से मैला उठाने वालों के परिवारों के लिए प्रत्येक को 10 लाख रुपये का मुआवज़ा देने के लिए कहा था। इसकी ज़मीनी हक़ीक़त क्या है?

विल्सन : महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों में एक भी परिवार को कोई मुआवज़ा नहीं मिला है। तेलंगाना में मुट्ठी भर परिवारों को मुआवजा मिला है। इसी तरह, जहां तक मुआवज़े का सवाल है, स्थिति केवल तमिलनाडु और पंजाब जैसे राज्यों में बेहतर है।

न्यूज़क्लिक : आपके विचार में, इस स्थिति के पीछे क्या कारण हैं?

विल्सन : सबसे पहले, राज्य सरकारें यह ही नहीं मानती हैं कि ये मौतें हाथ से मैला ढोने के कारण हुईं है। परिवारों को कई प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है, जो अक्सर एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया होती है। दूसरा, हमें कई राज्यों में अधिकारियों द्वारा बताया गया है कि उनके पास अभी तक ऐसी कोई योजना नहीं है जिसके तहत परिवारों (हाथ से मैला ढोने के पीड़ितों) को इस तरह के मुआवज़े का भुगतान किया जा सके। इसके लिए न तो केंद्र सरकार ने इस संबंध में कोई राशि हस्तांतरित की है और न ही राज्य सरकार ने कोई फंड रखा है।

फिर, रोज़गार की शर्तें हैं। कुछ मामलों में, हमें यह साबित करने के लिए कहा जाता है कि पीड़ित स्थायी कर्मचारी था। जब हाथ से मैला ढोने की बात आती है, तो 2013 के कानून में स्थायी या अनुबंध कर्मचारी के बीच ऐसा कोई भेदभाव नहीं है। इसके बावजूद ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकारें पीड़ितों को न्याय दिलाने की बजाय उनकी दुश्मन बनी हुईं है।

न्यूज़क्लिक : हाल ही में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने इस महीने एक योजना शुरू करने की बात कही है जिसका उद्देश्य सीवर में श्रमिकों की मौत को रोकने के लिए स्थायी समाधान पेश करना है। पूर्व में भी हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने के लिए मशीन से सफाई की बात कही गई है। इसपर आपके क्या विचार हैं?

विल्सन : समस्या यह है कि इतने वर्षों के बाद भी सरकार के पास मशीनीकृत सफाई की कोई योजना नहीं है। इस मुद्दे को हल करने के लिए प्रौद्योगिकी विकसित करने के लिए सरकार केवल कुछ निजी व्यक्तियों या कुछ विश्वविद्यालयों पर निर्भर है। होता क्या है कि निगम अधिकारी कुछ मशीनरी खरीद लेते हैं या दूसरी तरफ वे एक निजी ठेकेदार को नौकरी आउटसोर्स कर देते हैं।

हमारी मांग है कि प्रौद्योगिकी विकसित करने के लिए सरकार के पास अपना स्वयं का प्रतिष्ठान होना चाहिए और राष्ट्रव्यापी स्तर पर ऐसी तकनीक को अपनाने की क्षमता हासिल करने के लिए पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए। हाथ से मैला ढोने की समस्या से निपटने के लिए पूरी तरह से एक अलग इकाई (entity) होनी चाहिए।

न्यूज़क्लिक : वर्तमान में चल रहे अभियान के माध्यम से आपकी अन्य मांगें क्या हैं?

विल्सन : हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की प्रक्रिया के बीच, हम ये भी मांग कर रहे हैं कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि देश भर के सफाई कर्मचारियों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान किया जाए जिससे वो आधुनिक उपकरणों से काम करने में सक्षम हों और उनकी नौकरी सुनिश्चित हो सके। हम मशीनीकरण के कारण सफाई कर्मचारियों के होने वाले विस्थापन के पक्ष में नहीं हैं। इसके बजाय, उन्हें ट्रेनिंग दे जिससे वो अपने कौशल को बढ़ाकर मशीनों को संचालित कर सकें।

न्यूज़क्लिक : एक्शन 2022 अभियान के कम मीडिया कवरेज पर आपके क्या विचार हैं?

विल्सन : जब राज्य किसी मुद्दे को दरकिनार करना चाहता है, तो यह उम्मीद की जाती है कि मीडिया घराने भी उसी रास्ते पर चलेंगे। हां, हमारे अभियान की कवरेज वैकल्पिक मीडिया समूहों द्वारा की जा रही है और थोड़ी बहुत मुख्यधारा के मीडिया द्वारा भी की गई है। लेकिन मीडिया का एक बड़ा तबका आपको केवल एक विशेष प्रकार की कहानी पेश करता है। वे हमारे संघर्षों पर रिपोर्ट नहीं करते हैं।

न्यूज़क्लिक : एक्शन 2022 अभियान के बाद क्या?

विल्सन : एसकेए एक दबाव समूह के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहेगा, जो अन्य नागरिक संगठनों के साथ, केंद्र और राज्य सरकारों से जवाब मांगेगा। हम अगले संसद सत्र के दौरान मैला ढोने के मुद्दे को उठाने की भी योजना बना रहे हैं।

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