Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ग्राउंड  रिपोर्टः रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के गृह क्षेत्र के किसान यूरिया के लिए आधी रात से ही लगा रहे लाइन, योगी सरकार की इमेज तार-तार

EXCIUSIVE: उत्तर प्रदेश के चंदौली में डीएपी के बाद अब यूरिया के लिए हाहाकार मचा हुआ है। 266.5 रुपये वाली यूरिया 400 से 500 में भी नहीं मिल रही है। यह हाल उस जिले का है, जिसे धान के कटोरे का रुतबा हासिल है। यहीं चकिया के भभौरा गांव में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का पैतृक घर भी है। यहां यूरिया के लिए आधी रात से ही लाइन लग रही है। इस इलाके में यह पूरा साल खाद संकट के नाम गया है। धान के बाद गेहूं के सीजन में किसान यूरिया के लिए मारे-मारे घूम रहे हैं। दिन-रात की लाइन लगा रहे हैं फिर भी किसान ब्लैक में दोगुनी कीमत पर यूरिया खरीदने के लिए मजबूर हैं।
Farmers

14 जनवरी की रात तीन बजे ही चकिया कस्बे के कृभको केंद्र पर रसिया गांव के रमेले तीन बोरी यूरिया खाद के लिए लाइन में लगे। अपराह्न दो बजे तक इन्हें खाद नहीं मिला तो वह उसी जगह माथा पकड़कर लेट गए, जहां किसानों ने खाद के लिए लंबी लाइन लगा रखी थी। भूख से रमेले की अतड़यां ऐंठ रही थी, क्योंकि पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं गया था। उनके पास कुल जमा चार बीघा खेत है, जिसमें उन्होंने गेहूं की बुआई कर रखी है। एक हफ्ते पहले उन्होंने गेहूं के खेतों की सिंचाई इस उम्मीद में कर दी थी कि यूरिया खाद का छिड़काव कर देंगे। लगातार चार-पांच दिनों से वो यूरिया के लिए सहकारी समितियों पर दौड़ लगा रहे हैं। रमेले को भरोसा नहीं है कि रोजाना रात में लाइन लगाने के बावजूद उन्हें यूरिया मिल पाएगा या नहीं?

माथ पकड़कर लेटे भूख से बेहाल रसियां गांव के किसान रमेले

उत्तर प्रदेश के चंदौली में डीएपी के बाद अब यूरिया के लिए हाहाकार मचा हुआ है। 266.5 रुपये वाली यूरिया 400 से 500 में भी नहीं मिल रही है। यह हाल उस जिले का है, जिसे धान के कटोरे का रुतबा हासिल है। यहीं चकिया के भभौरा गांव में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का पैतृक घर भी है। यहां यूरिया के लिए आधी रात से ही लाइन लग रही है। इस इलाके में यह पूरा साल खाद संकट के नाम गया है। धान के बाद गेहूं के सीजन में किसान यूरिया के लिए मारे-मारे घूम रहे हैं। दिन-रात की लाइन लगा रहे हैं फिर भी किसान ब्लैक में दोगुनी कीमत पर यूरिया खरीदने के लिए मजबूर हैं। सिर्फ चंदौली ही नहीं, समूचे पूर्वांचल में यूरिया खाद की जबर्दस्त किल्लत है। योगी सरकार के मिस मैनेजमेंट ने किसानों को फिर सड़कों पर खड़ा कर दिया है। गेहूं के फसल में पहली सिंचाई कर दी गई है और यूरिया खाद के लिए चौतरफा हाय-तौबा मची हुई है।

यूरिया के लिए अलसुबह से ही लाइन लगाए अलगू सिंह कभी अपनी किस्मत को कोस रहे थे तो कभी सरकार को। भभौरा गांव के अलगू सिंह देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पड़ोसी हैं। रिश्ते में वह उनके भाई लगते हैं। बचपन में वह राजनाथ सिंह के साथ खेले-कूदे हैं। वह कहते हैं, "किसे दुखड़ा सुनाएं। राजनाथ सिंह तो अच्छे हैं। आमने-सामने होने पर वह हालचाल भी पूछ लेते हैं, लेकिन उनके परिवार के लोग किसी काम के नहीं हैं। इन्हें तो किसी से कोई मतलब ही नहीं है। किसी तरह की कोई मदद नहीं करते। हम राजनाथ को चिट्ठी भेजें तो भी वो कूड़ेखाने में चली जाएगी। सरकार कोई भी हो, हमें हर साल उर्वरकों के संकट से जूझना पड़ता है। सरकारी नुमाइंदे संकट पैदा न हीं करेंगे तो यूरिया की कालाबाजारी कैसे होगी? आधी रात से लाइन में लगने के बावजूद छोटे और मझोले किसानों को यूरिया नहीं मिल रही है और सामंती किसानों को इफरात खाद दे दी जा रही है। आखिर यह कहां का न्याय है? "

यूरिया संकट पर दुखड़ा सुनाते भभौरा गांव के अलगू सिंह और अन्य किसान .

राजनाथ सिंह के भभौरा का समीपवर्ती गांव है रघुनाथपुर। यहीं के किसान हैं चंद्रमा पांडेय। इनके पास 15 बीघा खेत है। पिछले तीन-चार दिनों से वह यूरिया के लिए लाइन लगा रहे हैं और जब उनकी बारी आती है तब तक खाद लापता हो जाती है। चंद्रमा कहते हैं, "यूरिया बांटने के लिए यहां कोई नियम नहीं है। बड़े किसान ट्रैक्टर लेकर आते हैं और खाद भरकर ले जाते है। एक-एक बोरी के लिए छोटे किसानों से कई-कई दिन लाइन लगवाई जा रही है। यहां यह मामूली दुर्दशा है किसानों की। फोन पर ही यूरिया का सौदा हो रहा है। खाद पहुंचने से पहले ही बिक जा रही है। रक्षा मंत्री हमारे भी पड़ोसी हैं। उनका खेत, हमारे खेत से सटा है। हम चाहकर भी नौकरशाहों की नौटंकी उन तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। लाइन लगाते-लगाते जिंदगी नर्क हो गई है। चुनाव आने वाला है। योगी सरकार को पता चल जाएगा कि वह कितना अच्छा काम कर रही है? हम किसी भी सूरत में बीजेपी को वोट नहीं देंगे। हम खाद मांगते हैं तो वो मंदिर का राग अलापते हैं। हम जिंदा रहेंगे तब तो मंदिर में पूजा कर पाएंगे? हम लाइन में लगने की मजदूरी जोड़ दें तो पता चलेगा कि यूरिया से कई गुना हमारा श्रम लाइन में लगने से खर्च हो गया। सरकार की उर्वरक वितरण व्यवस्थात ठीक रहती तो हमें लाइन लगाने की जरूरत क्यों पड़ती?"

मांग रहे यूरिया, दे रहे जिंक

चंडीपुर के किसान विनोद कुमार सिंह यूरिया के साथ जबरिया जिंक खरीदने के सरकारी दबाव से आहत हैं। वह कहते हैं, "हमारे खेत को जिंक की जरूरत नहीं है। फिर वह हमारे किस काम की है और सरकार उसे हमारे गले क्यों मढ़ रही है? सहकारी समितियों पर किसानों को जो जिंक जबरिया दिया जा रहा है उस पर एक्सपायरी डेट ही नहीं है। मतलब, सब गोलमाल है। यूरिया के लिए हम पहले उतरौत स्थित सहकारी समिति पर कई दिन लाइन में खड़े रहे और वहां खाद नहीं मिली तो चकिया आ गए। यहां भी लंबी लाइन लगी है। मकर संक्रांति का पर्व तक नहीं मनाया। हमें पांच-छह बोरी यूरिया की जरूरत है, लेकिन सिर्फ दो बोरी खाद मिलने का भरोसा दिलाया गया है। वह तब जब एक बोरी यूरिया के लिए हम 336 रुपये चुकाएंगे। सरकार ने यूरिया का न्यूनतम मूल्य 266.50 रुपये तय कर रखा है और उसके साथ एक किलो जिंक का पैकेट जबरिया थमाया जा रहा है, जिसका दाम करीब 70 रुपये है।"

रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के गांव भभौरा के नजदीकी गांव प्रेमापुर के अरमनाथ को दस बोरी यूरिया की जरूरत है। पिछले दस दिनों से वह उर्वरक के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। इस साल इन्होंने बीस-पच्चीस बीघा खेत बंटाई पर ले रखा है, इसलिए ज्यादा खाद की दरकार है। अमरनाथ कहते हैं, "पिछले दो-तीन दिनों से हम रोजाना सुबह लाइन लगाते हैं, लेकिन हमारा नंबर आने से पहले ही यूरिया खत्म हो जाती है। इसे हम क्या कहें, अपनी बदनसीबी या फिर सरकारी तंत्र का भ्रष्टाचार?" अमरनाथ भी इस बात से आहत हैं कि सहकारी समितियों पर जिंक सल्फेट मोनोहाइड्रेट जबरिया किसानों के गले मढ़ा जा रहा है। जितनी बोरी खाद आप ले रहे हैं, उतने किलो ग्राम जिंक आपको लेना ही पड़ेगा, भले ही आपको इसकी जरूरत हो या नहीं?"

यूरिया के लिए कई दिनों से परेशान जनकपुर के अरविंद कहते हैं," 266.50 रुपये वाली यूरिया खुले बाजार में पांच-छह सौ रुपये प्रति बोरी के भाव से बिक रही है। सहकारी समितियों यूरिया के साथ बिना एक्सपायरी डेट वाला जिंक का पैकेट जबरिया थमाया जा रहा है। जिंक का दाम यूरिया में जोड़ दिया जाए तो वह 336 से ज्यादा में मिलती है। यह लूट नहीं डकैती है। हम लोगों के ऊपर चौतरफा मार पड़ रही है। बारिश की दगाबाजी से धान की फसल खराब हो गई। किसी तरह गेहूं बो पाए तो खाद का संकट खड़ा हो गया। महंगाई अलग मार रही है। रही सही कसर फसल को बचाने के लिए यूरिया न मिलने से पूरी हो गई है। सोसायटियों के बाहर ही खुले बाजार में धड़ल्ले से खाद की लूट मची है। जहां सोसायटियों में खाद है वहां थोड़ी राहत है। जहां किल्लत है मनमानी कीमत पर यूरिया बेची जा रही है।

चकिया के कृभको केंद्र पर गांधीनगर के कमला अपनी पत्नी शारदा देवी के साथ यूरिया लेने पहुंचे थे। सिर्फ एक बोरी यूरिया के लिए यह दंपती कई दिनों से लाइन में लग रहा है और हर रोज उन्हें मायूसी मिल रही है। खाद लेने पहुंची इकलौती महिला शारदा कहती हैं, "गेहूं के खेत की सिचाई हुए सात-आठ दिन हो चुका है। अगर यूरिया का छिड़काव नहीं करेंगे तो गेहूं का एक दाना भी नहीं होगा। पिछले एक हफ्ते से हम पागलों की तरह यूरिया खोज रहे हैं। चार-पांच सौ रुपये बोरी भी मिलती तो भी खरीद लेते, लेकिन कहीं वह भी मिल नहीं रही है।"

पांच बीघे में गेहूं की खेती करने वाले मूंसाखाड़ के किसान राम पुकार की पुकार न सरकार सुन रही है, न चुनाव लड़ने के लिए घरों पर दस्तक देने वाले नेता। वह कहते हैं, "तीन दिन से हर रोज अलसुबह चकिया के कृभको केंद्र पर लाइन लगाते हैं, लेकिन हमारी बारी आने से पहले यूरिया का गोदाम खाली हो जाता है। यूरिया नहीं मिलेगी तो बाजार से एक-दो बोरी ब्लैक में लेकर पूरे खेत में छींट दूंगा।" प्रेमापुर के अमरनाथ कहते हैं, "मैं यूरिया लेने जिस सहकारी समिति पर गया, वहां बताया गया कि यूरिया खत्म हो गया है। हालांकि वहां पर पर्याप्त मात्रा में खाद गोदाम में रखी हुई थी। मुझे दस बोरी यूरिया की जरूरत थी। पूछने पर सभी जगह यही बताया गया कि यह किसी और का खाद है।"

बेलावर के 60 वर्षीय अरशद और कौड़िहार के 54 वर्षीय राघव राम पिछले आठ दिनों से यूरिया के लिए दौड़ लगा रहे हैं। दोनों किसान बताते हैं, "266 रुपये प्रति बोरी मिलने वाली यूरिया 400-500 रुपये और 1,230 रुपये प्रति बोरी मिलने वाली डीएपी 1500-1600 में किसान ब्लैक में खरीदेंगे तो खेती कैसे होगी और फायदा क्या होगा?" छीतमपुर के उम्रदराज चंद्रशेखर को लाइन लगने की ताकत नहीं है, मजबूरी उन्हें खींचकर कृभको केंद्र पर ला रही है। चंद्रशेखर बताते हैं, "हमने डेढ़ बीघे में गेहूं की खेती कर रखी है। बुआई करते समय हमने एक बोरी डीएपी 1500/बोरी खरीदा, जो हमें एक दुकानदार के यहां ब्लैक (कालाबाजारी) से मिल गई थी। एक बोरी यूरिया वहीं से 400 रुपये के हिसाब से लिया था। सिंचाई करने के बाद यूरिया छिड़का जाना है तो खाद फिर गायब है।"

न्यूजक्लिक को दुखड़ा सुनाते बेलावर गांव के किसान अरशद 

चकिया कृभको केंद्र पर रामपुर भभौरा के बड़े किसान पप्पू सिंह पहुंचे और बगैर लाइन लगाए ही 35 बोरी यूरिया अपने ट्रैक्टर पर लदवा लिया। कुछ किसानों ने कृभको केंद्र के प्रभारी रमेश चंद्र शुक्ला को घेरकर हंगामा शुरू किया तो वह हत्थे से उखड़ गए। कहने लगे, "हम सुबह से ही किसानों को खाद बांट रहे हैं। घंटे भर के लिए खाना खाने गए तो किसानों ने हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी।" न्यूजक्लिक ने उमेश चंद्र शुक्ला से सवाल किया कि जिन किसानों जिंक की जरूरत नहीं है, वह उन्हें जबरिया क्यों दी जा रही है? इस पर वह निरुत्तर हो गए और एक कमरे में भागे। बाद में अंदर से किवाड़ बंद लिया। उनके साथ ट्रैक्टर पर पहले से ही यूरिया लदवा चुके पप्पू सिंह भी थे। इसी के साथ हंगामा कर रहे किसानों का शोर तेज हो गया।

किसानों को फटकार लगाते चकिया के कृभको केंद्र प्रभारी रमेश चंद्र शुक्ला

रबी सीजन में गेहूं के अलावा सरसो, आलू, चना, मटर और मसूर की अच्छी पैदावार के लिए यूरिया की जरूरत पड़ती है। सिर्फ चंदौली ही नहीं, पूर्वांचल के गाजीपुर, वाराणसी, जौनपुर, सोनभद्र, आजमगढ़, मऊ, बलिया, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर, देवरिया आदि दिलों में यूरिया की कमी नहीं है, लेकिन कालाबाजारी जोरों से चल रही है। पिछले एक पखवाड़े से स्थिति विकराल बनी हुई है। एक तरफ किसान यूरिया की तंगी वाले सोसायटियों से परेशान मिले हैं तो दूसरी तरफ बाहर महंगी कीमतों ने किसानों को बेचैन कर दिया है। यूरिया के साथ सोसायटियों पर मिलने वाली डीएपी और फिर पोटाश कीमतें भी बढ़ा दी गई हैं। निजी कारोबारियों का साफ-साफ कहना है कि उन्हें जिन कीमतों से फायदा है उतने में ही खाद बेचेंगे। उन्हें सोसायटियों से कोई मतलब नहीं है। ऐसे किसान जिनका खाता सोसायटी में नहीं है या फिर सोसायटी में खाद का स्लाट खत्म हो गया है, इसका फायदा उठाकर मोटी कमाई वाला कारोबार चल रहा है। मजबूरी में किसान प्राइवेट दुकानों से महंगे दाम में यूरिया खरीद रहे हैं।

ब्लैक में बिक रही यूरिया खाद 

लालपुर के 48 वर्षीय किसान रफीउल्लाह अपने खेत पर तराजू में यूरिया खाद तौलते हुए मिले। खाद की उपलब्धता के सवाल पर उन्होंने खासी नाराजगी जताई। "न्यूजक्लिक" से बातचीत में कहा,  “जब भी फसल का सीजन आता है, सभी जरूरी उर्वरक खत्म हो जाते हैं। सहकारी संस्थाओं में खाद नहीं मिलती, लेकिन खुले बाजार में ब्लैक में खुलेआम मिलती है। रबी सीजन में हमें जरूरत थी यूरिया की। नहीं मिली तो 380 रुपये में हमने भटरौल सहकारी समिति से खरीद लिया। ब्लैक खरीदने में आसानी यह हुई कि हमें लाइन नहीं लगानी पड़ी।"

गेहूं के खेतों में छिड़़कने कि लिए यूरिया की तौल करते लालपुर के रफीउल्लाह

रफीउल्लाह यह भी कहते हैं, "आपके पास पैसा है तो जब चाहें तब बाजार से यूरिया ही नहीं, कोई भी उर्वरक आसानी से मिल जाता है। सोसाइटी वाले भी ब्लैक में खाद बेचते हैं। बांटने की बारी आती है तो खाद लापता हो जाती है। हमारे गांव से तीन-चार किमी के दायरे में उतरौत और भटरौल सहकारी समितियों से किसानों की आपूर्ति की जाती है। फिर भी हमें खुले बाजार से 1500/बोरी के भाव से डीएपी खरीदना पड़ा। भाजपा सरकार कहती है कि यूरिया के दाम कम कर दिए हैं, जबकि सच्चाई ये है कि दाम कम करने के साथ-साथ बोरी से पांच किलो ग्राम खाद ही कम कर दिया है। यूरिया की जो बोरी पहले 50 किलो की थी, वह अब 45 किलो की हो गई है।" एक सहकारी समिति के सचिव नाम न छापने की शर्त पर न्यूजक्लिक से कहा, "इनदिनों चंदौली जिले में यूरिया की शॉर्टेज चल रही है। बफर गोदाम में यूरिया उपलब्ध है, लेकिन डिमांड के मुताबिक सप्लाई नहीं की जा रही है। जिन सोसाइटियों पर खाद भेजी भी जा रही है उसका एक बड़ा हिस्सा ब्लैक में बिहार चला जा रहा है। इस सिंडिकेट में कुछ सामंती किसान भी शामिल हो गए हैं।"

बिहार के सीमा पर सटे इलिया और शहाबगंज में ब्लैक में यूरिया का दाम 500 रुपये के आसपास है। दोनों जगहों की सहकारी समितियों पर यूरिया के लिए रोजाना हंगामा हो रहा है। यूरिया के लिए किसान रोजाना सुबह लाइन लगाकर सोसाइटियों के आगे खड़े हो जाते हैं। किसानों का चिंतित होना और यूरिया के लिए जद्दोजहद करना लाजिमी है, क्योंकि समय पर गेहूं के खेतों में यूरिया का छिड़काव न होने पर पैदावार घट जाएगी। क्षेत्रीय पत्रकार सद्दाम कहते हैं, "यूरिया की किल्लत नहीं है, लेकिन कृषि और सहकारिता विभाग के अधिकारियों ने ऐसा कृत्रिम संकट पैदा कर दिया है कि किसान ब्लैक में उर्वरक खरीदने के लिए मजबूर हैं। उर्वरकों का दाम नियंत्रित करने के लिए जिले में कई नियंत्रक अधिकारी तैनात हैं, फिर भी यूरिया की ब्लैक मार्केटिंग धड़ल्ले से चल रही है। आलम यह है कि किसानों को खुले बाजार में इफ्को के उर्वरक के लिए प्रति बोरी पर 150 से 200 रुपये ज्यादा मूल्य चुकाना पड़ रहा है। 266.50 रुपये बोरी वाली यूरिया, खुले बाजार में 400-500 रुपये प्रति बोरी की दर पर ब्लैक में बेची जा रही है।"

बिहार बार्डर पर स्थित इलिया सहकारी समित के बाहर आधी रात से लगी किसानों की लंब कतार

चंदौली जनपद उत्तर प्रदेश के प्रमुख धान उत्पादक इलाके में शामिल है। बिहार सीमा पर सटे इस इलाके की करीब 80 फीसदी आबादी कृषि कार्यों में लगी है। चंदौली जिले में करीब 1.25 लाख हेक्टेयर में रबी फसलों की खेती की जाती है, जिसके लिए तकरीबन 25 हजार टन यूरिया जरूरत पड़ती है। चंदौली जिले में रबी सीजन में 25 हजार टन यूरिया की खपत होती है। ज्यादातर किसान गेहूं की फसल की सिंचाई कर चुके हैं और अब यूरिया के लिए भटक रहे हैं। गेहूं के खेत में यूरिया झोंक रहे किसान अपने खेतों की मिट्टी की जांच कराने में दिलचस्पी नहीं लेते। मनमाने ढंग से खेते में उर्वरक डालते जा रहे है, चाहे उन्हें ब्लैक में ही खरीदना क्यों न पड़े। जब हीला-हवाली व हुज्जत के बाद सिर्फ एक-दो बोरी यूरिया ही मिल रही है तो किसान खेती कैसे कर पाएंगे?

चंदौली में यूरिया खाद के लिए चौतरफा संकट है, लेकिन चंदौली के जिला कृषि अधिकारी बसंत कुमार दुबे दावा करते हैं कि उर्वरकों की कहीं कोई किल्लत नहीं है। वह कहते हैं, "यूरिया की आपूर्ति के लिए कृषि महकमा मुस्तैद है। बीते दिनों हुई बारिश के चलते यूरिया की डिमांड अचानक बढ़ गई है। यूरिया बांटने के लिए जिले में 83 साधन सहकारी समितियों और दुकानों को अधिकृत किया गया है। सहकारी समितियों पर उर्वरक बांटने वाले सचिवों की संख्या सिर्फ 25 है, जिसके चलते वितरण में थोड़ी दिक्कत हो रही है। समितियों और निजी खाद की दुकानों पर कृषि विभाग के कर्मचारियों को तैनात किया गया है। आधार कार्ड और खतौनी के आधार पर प्रति हेक्टेयर पांच बोरी यूरिया वितरित की जा रही है।"

उर्वरक संकट का नंगा सच

 केंद्र सरकार ने 10 दिसंबर 2021 को संसद में यूरिया और डाई अमोनियम फास्फेट (डीएपी) की कमी को लेकर सात सांसदों-महाराष्ट्र के हेमंत पाटिल, सुशील कुमार सिंह, रामदास तडस, पूनम महाजन, पश्चिम बंगाल से देबाश्री चौधरी, नुसरत जहां और पंजाब से सांसद भगवंत मान द्वारा पूछे गए सवालों का जवाब दिया। रसायन और उर्वरक मंत्री मनसुख मांडविया ने यूरिया की देश में पर्याप्त मात्रा के सवाल पर कहा, "देश में यूरिया की कोई कमी नहीं है। यूरिया के आयात पर साल 2020-21 में 25049.62 करोड़ खर्च किए गए। साल 2016-17 के बाद यह सबसे ज्यादा राशि है।" केंद्र सरकार के इन दावों के बावजूद देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह पैतृक गांव भभौरा और उसके आसपास के तमाम गांवों के हजारों किसानों को कड़ाके की ठंड के बावजूद यूरिया के लिए आधी रात में कतार लगानी पड़ रही है।

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के गृह क्षेत्र में यूरिया के लिए लाइन में कई घंटे के खड़े बेबस किसान 

यूपी के बुंदेलखंड के ललितपुर में पिछले साल अक्टूबर महीने में चार किसानों की मौत खाद संकट के कारण हो गई। एक किसान ने फांसी लगा ली तो वहीं तीन किसान कई दिन तक खाद के लिए लाइन में खड़े रहे, जिसके चलते उनकी तबीयत खराब हो गई और बाद में उनकी मौत हो गई। इस घटना के बाद से विपक्ष योगी सरकार पर हमलावर है। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मृतक किसानों के परिवारों से मुलाकात करने के बाद योगी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा, "किसान मेहनत कर फसल तैयार करे तो फसल का दाम नहीं। किसान फसल उगाने की तैयारी करे, तो उन्हें खाद नहीं।"

किसान मजदूर मंच की राज्य कमेटी के सदस्य अजय राय कहते हैं,  "यूपी में चुनाव है और योगी सरकार नौकरशाहों की मनमानी पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। इसी का नतीजा है यूरिया धड़ल्ले से ब्लैक में बेची जा रही है। अगर यूरिया की कमी नहीं है तो फिर किसानों की लाइन सहकारी समितियों पर क्यों लग रही है? अगर यूरिया खाद मिल रही होती तो किसानों की लाइन में खड़े रहने के कारण मौतें नहीं होती। खाद की कालाबाजारी से किसानों का संकट बढ़ गया है और वो बहुत ज्यादा तंग हैं। हमने उर्वरकों की ऐसी किल्लत सालों बाद देखी है। पहली बार देख रहा हूं कि कई-कई दिन कतार में लगने के बाद भी किसानों को यूरिया नहीं मिल रही है।"

चंदौली जिले में तमाम किसानों ने अपनी फसलों को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। रोज-रोज लाइन लगाने से आजिज आकर कई किसानों ने तय कर लिया है कि अब खाद खरीदने नहीं जाएंगे। फसल उपजनी होगी, तो उपजेगी, नहीं उपजनी होगी, तो नहीं उपजेगी। किसान नेता चौधरी राजेंद्र सिंह कहते हैं, "रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के गांव के आसपास गांवों की पड़ताल कर लीजिए, सच सामने आ जाएगा। यूरिया की किल्लत से बेहाल किसानों की गेहूं की फसलें पीली पड़ रही हैं। सुबह से शाम तक लाइन लगाने के बावजूद यूरिया नहीं मिल रहा है। जिन्हें मिल भी रहा है वह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह ही है।"

चौधरी राजेंद्र यह भी कहते हैं, "मिट्टी की जरूरत के हिसाब से खेतों में उर्वरक डाला जाना चाहिए। केमिकल कंपनियों को अपना डंप और एक्सपायर जिंक बेचना है। इन कंपनियों ने नौकरशाहों के साथ साठगांठ करके किसानों को लूट रही हैं और जबरिया किसानों के गले जिंक खाद मढ़ रही हैं। जब हमारे खेत में सारा न्यूट्रेंट है, तो जिंक लेकर क्या करेंगे? सरकार को चाहिए कि वो पंचायत स्तर पर मिट्टी की जांच के लिए लैब बनाए और जांच रिपोर्ट के आधार पर किसानों को उर्वरक दिया जाए। सरकार खुद किसानों को लूट रही है और उसके इशारे पर खाद बेचने वाली कंपनियां भी। किसानों को बिना एक्सपायरी डेट के जबरिया जिंक बेचा जाना बेहद गंभीर मामला है। जांच की जाए को बड़े घोटाले का राजफाश हो सकता है। कितनी शर्म की बात है कि योगी सरकार मिट्टी की जांच के लिए मामूली सी लैब तक नहीं खोल पा रही है। ऐसी सरकार पर भला कौन भरोसा करेगा?"

भारत की लगभग 33 निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां व को-ऑपरेटिव संस्थाएं मिलकर हर साल 24 से 25 मिलियन टन यूरिया का उत्पादन करते हैं। कुल 9 से 10 मिलियन टन यूरिया का निर्यात किया जाता है। इस साल भारत में रबी सीजन में कुल 179.001 लाख मीट्रिक टन यूरिया की जरूरत है। इस सीजन के लिए 60.862 लाख मीट्रिक टन नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम और सल्फर (जिसे एनपीके भी कहा जाता है) की जरूरत थी। केंद्र सरकार लगातार कह रही है कि देश में खाद की कोई कमी नहीं है। लेकिन मीडिया रिपोर्ट इन दावों को खारिज करती है।

फैक्टचेकर डॉट इन वेबसाइट भी दावा करती है कि देश में उर्वरकों की भारी किल्लत है। रिपोर्ट के मुताबिक, अक्टूबर 2021 में 18.08 लाख मीट्रिक टन डायमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) की जरूरत थी, लेकिन सरकार के पास 9.7 लाख मीट्रिक टन ही उपलब्ध था, जिनमें से 9.1 लाख मीट्रिक टन खाद की ही बिक्री की गई। मीडिया रपट के मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाद के दाम में इजाफा, कोविड-19 के चलते खाद बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चा माल का उत्पादन कम होने और आयात में पेंचीदगी के चलते देश में खाद की किल्लत हो रही है। उर्वरकों की किल्लत सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं, बल्कि दुनिया के सभी देश इसकी कमी से जूझ रहे हैं। चीन, ऑस्ट्रेलिया, कोरिया, पाकिस्तान में यूरिया की जबर्दस्त किल्लत है। रूस और चीन यूरिया का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश हैं। दोनों देशों ने अपने किसानों को यूरिया सप्लाई करने के लिए निर्यात पर रोक लगा दी है।

विशेषज्ञों के मुताबिक यूरिया की किल्लत के पीछे कोयला और प्राकृतिक गैस की कीमत में बेतहाशा इजाफा जिम्मेवार है। यूरिया का निर्माण कोयला अथवा प्राकृतिक गैस से किया जाता है। प्राकृतिक गैस या कोयले से तैयार होने वाले गैस को पहले अमोनिया में तब्दील किया जाता है और इसका इस्तेमाल संश्लेषित यूरिया में किया जाता है। कोयला और प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ गए तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने उर्वरकों का उत्पादन कम कर दिया, जिसके चलते विश्व बाजार में उर्वरकों का संकट पैदा हो गया।

ज़िंदगी में घुल रहा यूरिया का ज़हर

 देश में उत्पादित कुल नाइट्रोजन फर्टीलाइजर में यूरिया हिस्सेदारी 84 फीसदी है। हाल ही में पहली मर्तबा भारत में नाइट्रोजन की स्थिति का मूल्यांकन किया गया तो पता चला कि यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। यूरिया ने किसानों की उपज कई गुना भले ही बढ़ा दी है, लेकिन वही अब उन्हें खून के आंसू रुला रही है। इस खाद के अंधाधुंध प्रयोग के चलते उपज घट रही है। साथ ही जमीन के बंजर होने की शिकायतें भी बढ़ती जा रही हैं। चंदौली के प्रगतिशील किसान बल्लभाचार्य कहते हैं, "यूरिया खाद हमारे लिए जी का जंजाल बन गई है। खेतों में डालो तो मुसीबत है और न डालो तो पैदावार गिरने का संकट खड़ा हो जाता है। किसी के पास यूरिया का कोई विकल्प नहीं है। यूरिया हमारे खेतों का वह जीवन बन गया है, जिसकी फसल जहर के रूप में कट रही है। हरित क्रांति के शुरुआती दौर को देखें तो पता चलता है कि साल 1966-67 के बाद सरकार ने किसानों से यूरिया का इस्तेमाल करने के लिए खूब चिरौरी की थी। उस समय ऐसा लगा था कि खेती से होने वाला नुकसान यूरिया के उपयोग से मुनाफे में बदल जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। पैदावार बढ़ने से हम खुश थे। हालांकि शुरू में हम डर भी रहे थे कि यूरिया के इस्तेमाल से कहीं हमारी फसल ही चौपट न हो जाए। हमने डरते-डरते पहली बार 1967 में एक एकड़ में केवल चार किलो यूरिया डाला। जब फसल तैयार हुई तो हमें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ, क्योंकि पहली बार हम देख रहे थे कि गेहूं की उपज हमें तीन गुना अधिक मिली।

बल्लभाचार्य कहते हैं, "पहले हम इतने ही खेत में गोबर की खाद डाल कर चार कुंतल (400 किलो ग्राम) उपज लेते थे। अब हम देख रहे थे कि सीधे 1200 किलो से अधिक गेहूं की उपज मिली। हम सभी को यकीन नहीं हुआ कि यह कौन सा चमत्कार है। खेतों में बढ़ी पैदावार को देख गांव के दूसरे किसानों ने सहकारी समितियों से देखा-देखी मिलने वाला यूरिया डाला और वे भी अपनी-अपनी फसल देखकर गदगद थे। आखिर तीन गुना ज्यादा फसल पाकर कौन किसान होगा जो खुशी से फूला नहीं समाएगा। देखते ही देखते यूरिया खेतों का नायक बन गया था। किसान तो इसकी ऐसे तारीफ करने लगे जैसे अभी फिल्मी हीरो पेप्सी और कोला की करते हैं। उपज का नशा हमें चढ़ा तो हम इस नशे को बढ़ाते चले गए। खेतों में यूरिया की मात्रा दोगुनी-तिगुनी कर दी। साल 1985 से 1995 के बीच प्रति एकड़ 125 किलोग्राम यूरिया डालकर उपज दस से 12 गुना बढ़ा ली। हाल यह है कि अब यूरिया बढ़ाने से भी खेतों की पैदावार बढ़ने के बजाय घट रही है।"

बनारस के ख्यातिलब्ध बागवानी शैलेंद्र सिंह रघुवंशी कहते हैं, "चार दशक से यूरिया के अंधाधुंध इस्तेमाल ने खेतों को बंजर कर दिया है। नतीजा खेतों में काम करने वाले किसानों के घरों में बीमारियों की बाढ़ सी आ गई है। यूरिया में पाया जाने वाला नाइट्रेट भूगर्भ जल को प्रदूषित करता है। यह जमीन की सतह पर घुल जाता है और बाद में पानी के बहाव के साथ झीलों, मछलियों के तालाबों, नदियों और अंततः समुद्र में पहुंचकर उसकी पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाता है। इसी के चलते नदिय़ों में अब मछलियां भी खत्म होने लगी हैं। यूरिया के अंधाधुंध इस्तेमाल से हमारे कुएं और तालाब का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। अब सरकार भी चाहती है कि किसान धान-गेहूं की खेती बंद कर दें।"  

(विजय विनीत वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest