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ग्राउंड रिपोर्ट : आदिवासियों के गढ़ नौगढ़ में पानी की तरह बहा पैसा, लेकिन वास्तव में प्यासे रह गए लोग

''चंदौली ज़िले के दुर्गम इलाक़े नौगढ़ में विकास के नाम पर सालों-साल करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए, जिनमें से सबसे अधिक पैसा पानी के संकट को दूर करने में खपाया गया। यहां पैसा तो पानी की तरह बहा, लेकिन लोगों की प्यास नहीं बुझ पाई। बूंद-बूंद पानी के लिए अब भी लोग जूझ रहे हैं। आदिवासी बहुल इस इलाक़े में पीने का पानी जुटाना लोगों के लिए रोज़ का संघर्ष है। नौगढ़ के लोग इस आस में हैं कि आख़िर कब दूर होगा यह संकट और कब ख़त्म होगी पीने के पानी के लिए उनकी जंग?''
ग्राउंड रिपोर्ट : आदिवासियों के गढ़ नौगढ़ में पानी की तरह बहा पैसा, लेकिन वास्तव में प्यासे रह गए लोग
चुआड़ पर बर्तन धोती आदिवासी महिलाएं

''पानी की बहुत परेशानी है हमें। साफ़ पानी तो मिलता ही नहीं। लाचारी में पहाड़ के दर्रे से निकलने वाले पानी (चुआड़) से प्यास बुझानी पड़ती है। शायद हमारे नसीब में है चुआड़ का पानी। हमारे गांव से चुआड़ का फ़ासला क़रीब एक फर्लांग हैं। वहां पानी के लिए सिर्फ़ इंसानों की नहीं, जानवरों की भी लाइन लगती है। दिन में गाय-भैसें तो रात में भालू, लंगूर, बंदर, बारहसिंघे, हिरन, लोमड़ी से लेकर खरगोश तक अपनी प्यास बुझाने पहुंचते हैं। आसपास कहीं पानी है ही नहीं। पास से गुज़रने वाली कर्मनाशा नदी हमारे लिए बेमतलब है। पानी की परेशानी सिर्फ़ हमें ही नहीं पूरे गांव को है। पानी की सुविधा हो जाए तो क्यों भागे-भागे चुआड़ पर लाइन लगाने जाएं।''

उत्तर प्रदेश के चंदौली ज़िले के नौगढ़ ब्लॉक मुख्यालय से क़रीब 45 किमी दूर जंगलों से घिरे दुर्गम गांव केल्हड़िया की 65 वर्षीया कुंती देवी यह कहते-कहते भावुक हो जाती हैं। वह बताती हैं, ''कुछ साल पहले हैंडपंप लगाने के लिए पत्थर काटने वाली मशीन से बोरिंग कराई गई, लेकिन वो फेल हो गई। बारिश और सर्दी के मौसम में सिर्फ़ चुआड़ ही सहारा है। इंसानों का भी और जंगली जानवरों का भी। हर साल गर्मियों में यह चुआड़ सूख जाता है। तब टैंकर से पानी की सप्लाई होती है। इसी चुआड़ का पानी लोग पीते भी हैं और उसी से नहाते भी हैं। पानी का यह ठिकाना गांव की उत्तर दिशा में है। मई-जून की दोपहरिया जब आग बरसाती है तब केल्हड़िया के ज़्यादातर लोग गांव से पलायन कर जाते हैं। औरतों-बच्चों और मवेशियों को लेकर सभी मूसाखाड़ बांध की तलहटी में चले जाते हैं। वहीं छप्पर डालकर रहते हैं और जब बारिश शुरू होती है तो गांव लौट आते हैं। यह कहानी सिर्फ़ एक बरस की नहीं, हर साल दोहराई जाती है।''

पेयजल की मुश्किल से जूझने वाली कुंती नौगढ़ की इकलौती महिला नहीं हैं। चंदौली ज़िले के दुर्गम इलाक़े नौगढ़ के ज़्यादातर गांवों में पानी का संकट एक गंभीर समस्या है। सूखे के चलते इस इलाक़े की सभी 51 ग्राम सभाओं में इन दिनों त्राहि-त्राहि मची है। नौगढ़ से निकलकर दिल्ली में अलग पहचान बनाने वाले वरिष्ठ पत्रकार अरविंद खरवार कहते हैं, ''चंदौली ज़िले के दुर्गम इलाक़े नौगढ़ में विकास के नाम पर सालों-साल करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए, जिनमें से सबसे अधिक पैसा पानी के संकट को दूर करने में खपाया गया। यहां पैसा तो पानी की तरह बहा, लेकिन लोगों की प्यास नहीं बुझ पाई। बूंद-बूंद पानी के लिए अब भी लोग जूझ रहे हैं। आदिवासी बहुल इस इलाक़े में पीने का पानी जुटाना लोगों के लिए रोज़ का संघर्ष है। नौगढ़ के लोग इस आस में हैं कि आख़िर कब दूर होगा यह संकट और कब ख़त्म होगी पीने के पानी के लिए उनकी जंग?''

पानी जुटाने में बीत जाता है दिन

केल्हड़िया गांव की 55 वर्षीया नौरंगी देवी का ज़्यादा समय चुआड़ का पानी जुटाने में ही निकल जाता है। 65 वर्षीया फुलवंती देवी भी चुआड़ से पीने का पानी निकालने और फिर घर तक लाने में थक जाती हैं। फुलवंती के पति की मौत हो चुकी है। इनके दो बेटे हैं-संतोष और छोटेलाल। दोनों मज़दूरी करने चले जाते हैं तो पानी भरने का काम वही करती हैं। विधवा फुलवंती कहती हैं, ''हमारे गांव में हैंडपंप लगाने के लिए मशीन से चार-पांच बार साढ़े पांच सौ फीट तक बोरिंग कराई गई, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। लगता है कि पानी हमारे नसीब में है ही नहीं। एक हज़ार फीट बोरिंग हो तो शायद पानी निकल आए। अगर सरकार गहरी बोरिंग करा दे तो हमारी मुश्किलें दूर हो सकती हैं। यहां एक कुआं है, मगर वो भी सूख चुका है। हमारे पास तो पेट भरने के लिए ही पैसा नहीं। होता तो पत्थर काटने वाली मशीन लाकर बोरिंग करा देते। कम से कम रोज़-रोज़ पानी ढ़ोने से मुक्ति तो मिल जाती।''

केल्हड़िया की और 56 वर्षीया चंद्रावती देवी और उनका परिवार खेती व पशुपालन पर निर्भर है। इनकी दिनचर्या भी फुलवंती देवी जैसी ही है। वह कहती हैं, '' पानी का संकट ज़्यादा रहता है तो कभी-कभी दो-दो, चार-चार दिन के लिए पानी भर लेते हैं। गर्मी के दिनों में सरकारी टैंकर से आने वाले पानी के लिए टकटकी लगाए रखना पड़ता है। हमारे गांव में सबसे बड़ी समस्या पानी की है। केल्हड़िया में पानी होगा तो हर चीज़ सही होगी।''

नौगढ़ प्रखंड की ग्राम सभा देवरी कला से जुड़ा है केल्हड़िया गांव। क्षेत्रफल के हिसाब से देवरी कला यूपी की दूसरी सबसे बड़ी ग्राम पंचायत है, जहां सर्वाधिक आबादी खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जन-जातियों की है। केल्हड़िया के अलावा पंडी, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड गांव देवरी ग्राम सभा के हिस्से हैं। आदिवासी बहुल इन सभी गांवों में पेयजल का भीषण संकट है। पंडी में चार हैंडपंप है, लेकिन चालू हालत में सिर्फ़ एक है। यही हैंडपंप समूचे गांव की प्यास बुझा रहा है। किसान राजेश खरवार कहते हैं, ''गर्मी के दिनों में यह हैंडपंप भी पानी छोड़ देता है। तब पंडी गांव के सिवान में स्थित कुएं से औरतें पानी ढ़ोने लगती हैं। समूचे देवरी कला ग्राम पंचायत में पानी के लिए हाहाकार जैसी स्थिति है।''

नौगढ़ प्रखंड का सपहर ऐसा गांव है जहां पहले ज़हरीले सापों की कॉलोनी हुआ करती थी। क़रीब 30-35 लोगों की आबादी वाले गांव सपहर से गनपत (40), रामसूरत (75) और छोटेलाल का कुनबा भीषण पेयजल संकट के चलते बिहार के हरसोती गांव में पलायन कर गया। पेयजल के ज़बर्दस्त संकट के चलते कई लोग जब इस गांव को छोड़कर चले गए तो देवरी गांव के लोग वहां लगे एक हैंडपंप को उखाड़ ले गए। दशकों पहले करमठचुआं में लोग सिर्फ़ इसलिए बस गए थें, क्योंकि पंडी गांव में पीने के पानी का संकट खड़ा हो गया था। मुसहर जाति के लोग पंडी से पलायन कर करमठचुआं पहुंच गए और जंगलों के बीच रहने लगे। करमठचुआं का इकलौता हैंडपंप बिगड़ गया और मजूरी नहीं मिली तो लालू, शंकर, विफई, रामलाल, तारा, पन्ना, राम प्यारे, भोला समेत 25 घरों के क़रीब सवा सौ लोग नोनवट गांव से क़रीब दो किमी दक्षिण स्थित जंगल में जीवनयापन करने लगे। कन्हैया कहते हैं, ''वन विभाग के कारिंदों ने हमें कई बार जंगल से खदेड़ा, पर हम कहां जाते। हम सभी के सामने जान देने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है। जब से होश संभाला है, तब से जंगलों में भाग रहे हैं। जहां जाते हैं, वन विभाग के कारिंदे डंडा लेकर पहुंच जाते हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि कहां जाएं? हम सभी तो पीने के पानी तक के लिए बेहाल हैं।''

प्यास से बेहाल है बड़ी आबादी

पीने के पानी का संकट देवरी कला के औरवाटांड गांव में भी है। विशाल नौगढ़ बांध के किनारे बसे औरवाटांड की समस्या थोड़ी अलग है। बांध के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ज़्यादा है, जिसे पीने का मतलब मौत को गले लगाना। इस गांव में शानदार झरना है, जहां लुत्फ़ उठाने बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं, लेकिन यहां पीने के पानी का संकट ऐसा है कि लोग अपनी बेटियों की शादी नहीं करना चाहते। पेशे से मज़दूर रामदीन कहते हैं, ''हमारे सामने सबसे बड़ी दिक्कत पानी की है। हमारा पानी चंदौली के धानापुर और बिहार जा रहा है और 65 घरों की आबादी प्यास से बेहाल है। बूंद-बूंद पानी के लिए हम सभी को जद्दोजहद करना पड़ रहा है। पानी की वजह से कई लोगों की शादियां रुक गईं। जो बगल वाले गांव में रिश्तेदारी करने के लिए आते हैं वो कहते हैं कि औरवाटांड में शादी नहीं करेंगे। पानी तो बहुत है, लेकिन प्यास बुझाने लायक नहीं है। शादी होने पर औरतों को दूर से पानी ढ़ोना पड़ेगा। पेयजल संकट की वजह से कई लोग शहरों में काम-धंधा करने चले गए। देवरी कला ग्राम पंचायत में खोजेंगे तो पाएंगे कि तमाम युवक कुंवारे हैं, जिनकी शादी सिर्फ़ पानी के संकट की वजह से नहीं हो रही। चुनाव के समय हर दल के नेता वोट मांगने आते हैं और वादे करते हैं कि समस्या का समाधान करेंगे लेकिन स्थायी समाधान अब तक नहीं हुआ। नेता-विधायक सब वोट लेकर चले जाते हैं।''

औरवाटांड में सड़क किनारे लगे एक हैंडपंप से पूरे गांव के लोग पानी पीते हैं। यह गांव नौगढ़ क़स्बे से क़रीब 10 किमी दूर है। नौगढ़ बांध के किनारे बसी आबादी के बीच सिर्फ़ एक नल होने से भी कई समस्याएं हैं। रामरती देवी कहती हैं, ''पीने के पानी के लिए लोगों को काफ़ी मेहनत और इंतज़ार करना पड़ता है। पानी के बर्तन ख़ाली होने पर लोग हैंडपंपों पर नंबर लगाते हैं और अपनी बारी आने पर पानी भरते हैं। समस्या इतनी गंभीर है कि कई बार लोग मार पिटाई और झगड़े पर उतर आते हैं। बात थाना-पुलिस तक पहुंच जाती है, लेकिन यहां कोई सुनने को तैयार नहीं है। पहले बारिश के दिनों में नौगढ़ बांध लबालब भर जाता था, लेकिन इस बार अभी तक सूखा हुआ है। जंगली जानवरों तक के भाग्य फूट गए हैं। उन्हें भी मुश्किल से पानी नसीब हो पा रहा है। बारिश के मौसम में पानी का यह हाल है तो गर्मी के दिनों में क्या होगा, समझा जा सकता है। प्रधान भी पेयजल संकट का कोई स्थायी समाधान नहीं ढ़ूंढ़ते। हमारे सामने संकट इसलिए ज़्यादा है कि हमारी काफ़ी ज़मीन बांध के डूब वाले इलाक़े में चली गई है। सड़क के किनारे मड़ई में कब तक कटेगी ज़िंदगी?''

देवरी के ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार बेबाकी के साथ पेयजल संकट को स्वीकार करते हैं। वह कहते हैं, ''हमने हर विधायक और सांसद से गुहार लगाई कि कर्मनाशा नदी पर बने औरवाटांड बांध का पानी सिंचाई के लिए मुहैया कराया जाए। हमारे घर के बगल में पानी है, लेकिन सब बेमतलब है। फिर भी बेपानी है। सिर्फ पशु पानी पी पाते हैं। यदा-कदा लोग नहा लेते हैं। इसके अलावा पानी नहीं मिलता। 'गर्मी के दिनों में शायद ही कोई हैंडपंप होगा जिसमें पानी निकलता होगा। हर साल गर्मी में पाइप बढ़ाना पड़ता है। पंडी में चार-पांच हैंडपंप हैं। जिनमें एक चलता है। नोनवट हमारा गांव है जहां पानी कि दिक्कत है, लेकिन लोगों की प्यास बुझ जाती है। हम पहली बार प्रधान बने हैं। हर घर तक पानी पहुंचाने के लिए अफ़सरों से गुहार लगा रहे हैं।''

नहीं बदली ज़मीनी हक़ीक़त

नौगढ़ इलाक़े में पानी की समस्या को लेकर योजनाएं तो कई बार बनी, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बदली। बारिश के दिनों में सूखे जैसे हालात के चलते नौगढ़ इलाक़े की सभी ग्राम सभाओं में ज़्यादातर हैंडपंप शो-पीस बन गए हैं। नौगढ़ बांध, मूखाखाड़ बांध, भैसौड़ा बांध और राजदरी-देवदरी के पास चंद्रप्रभा बांध सूखने की कगार पर हैं। इस इलाक़े में क़रीब 65 बंधियां हैं, जिनमें अजुरी भर पानी नहीं है। यह स्थिति बारिश के दिनों की है। जिन गांवों के पास से कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियां गुजरती हैं, वो भी किसी काम की नहीं रह गई हैं। गहराई अधिक होने के कारण नदी में उतरना और फिर पानी लेकर ऊपर आना आसान काम नहीं है।

आदिवासी बहुल प्रखंड नौगढ़ में पहले अप्रैल-मई महीने से पीने के पानी का संकट दिखता था, लेकिन अबकी बारिश में भी बुरा हाल है। यूपी की योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल' योजना की शुरुआत की और वादा किया कि चंदौली के नौगढ़ इलाक़े में हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचा दिया जाएगा। यह योजना केंद्र सरकार के जल जीवन मिशन का हिस्सा है। इसके तहत साल 2024 तक हर घर तक पाइपलाइन से पीने का पानी पहुंचाने की योजना है। 'हर घर जल' योजना को पूरा किए जाने की समय सीमा जून 2022 तक रखी गई थी। यह मियाद भी बीत गई, लेकिन यह योजना हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो पाई। फ़िलहाल पीने के पानी का संकट दूर होता नज़र नहीं आ रहा। शंकरलाल को शिकायत है कि हम प्यासे हैं और औरवाटांड़ का पानी धानापुर चंदौली और बिहार जा रहा है? वह कहते हैं, ''अब तो हर साल सूखे के हालात बनते हैं और फिर लोग कई किलोमीटर दूर जाकर पानी लाकर गुज़ारा करते हैं। कुछ जगहों पर टैंकर से भी पानी पहुंचाया जाता है।''

नौगढ़ के उप ज़िलाधिकारी अतुल गुप्ता कहते हैं, ''कोशिश की जा रही है कि जनजीवन मिशन के तहत नौगढ़ में हर घर तक पहुंच जाए। हमने नौगढ़ के कई स्कूलों में डीप बोरिंग कराई, लेकिन वो फेल हो गई। फ़िलहाल यह कह पाना कठिन है कि जनजीवन मिशन के तहत पेयजल कब तक पहुंचेगा। नौगढ़ इलाक़े में हालात पहले और ख़राब थे। नौगढ़ का क्षेत्रफल बड़ा है और आबादी कम है, जिसके चलते विकास के लिए धन कम मिल पा रहा है। हम कोशिश कर रहे हैं। धीरे-धीरे बदलाव दिखेगा। दशकों से चली आ रही समस्या को एक दिन में ख़त्म नहीं किया जा सकता। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन सरकार के प्रयास सफल होंगे। पीने का पानी हो या खेती के लिए पानी, सरकार हर संभव कोशिश कर रही है। हम गांवों में तालाब और बंधियां बनवा रहे हैं। धीरे-धीरे समस्या ख़त्म होगी।''

पेयजल संकट सिर्फ़ देवरी कला ग्राम पंचायत में ही नहीं है। औरवाटांड के पूरब तरफ़ सेमर साधो ग्राम सभा के सेमर, होरिला, धोबही, पथरौर, जमसोत से लगायत शाहपुर तक सूखे की मार के साथ पेयजल की समस्या है। देवरी के दक्षिण में मंगरई ग्राम सभा के गहिला, सुखदेवपुर, हथिनी, मगरही की स्थिति भी ऐसी ही है। उत्तर में पहाड़ और जंगल है। 40 से 45 किमी तक कहीं हैंडपंप अथवा कुआं नहीं है। पश्चिम में लौआरी ग्राम सभा का गांव है जमसोती, गोड़टुटवा, लेड़हा, लौआरी, लौआरी कला। इन गांवों में औरतों और बच्चों को पीने के पानी के लिए जद्दोजहद करते कभी भी देखा जा सकता है।

लाचारी की खेती

नौगढ़ इलाक़े में आदिवासियों की सेहत और चंदौली ज़िले की अर्थव्यवस्था के लिए धान की फसल का उत्पादन अच्छा संकेत माना जाता रहा है। लेकिन सूखे की मार ने इस इलाक़े के आदिवासियों को बुरी तरह तोड़कर रख दिया है। देवरी कला के पंडी गांव की आबादी महज सौ-सवा सौ है। खेती के नाम पर सिर्फ़ धान फसल ही उगती है। इस गांव के ज़्यादातर बच्चों ने अभी तक न रेल देखी है और न ही बसें। जंगलों में रहना, धान के खेतों में काम करना, रोज़ाना पहाड़ चढ़ना और फिर उतरना, गाय-भैसों के साथ दोस्ती...! बस यही है आदिवासी बच्चों की जिंदगी।

पंडी गांव में पथरीली पहाड़ की चोटियों तक ले जाने वाले नुकीले कंकड़ भरे रास्ते में 13 वर्षीय पूजा का अपने भाई-अनिल (11 साल) और अजित (7 साल) के साथ नंगे पांव चढ़ना और फिर उस पार उतरना उसकी रोज़ की कहानी है। इस दौरान वो न बच्चों की तरह ज़िद करती है, न खेलती है, न भागती-दौड़ती है। पूजा के पिता राजेश खरवार किसान हैं। पांच बीघे की पथरीली ज़मीन है। साल में सिर्फ़ धान की फसल होती है, वो भी इस बार सूखे की भेंट चढ़ती जा रही है।

पूजा की मां होशिला देवी कहती हैं, 'ज़मीन के अलावा आठ गाय-भैसें हैं। बस यही है ज़िंदगी की गाड़ी खींचने का ज़रिया। हम अपने बच्चों को घर पर अकेले नहीं छोड़ सकते। तीन तरफ़ से पहाड़ियों से घिरे जंगली इलाक़े में भालुओं का आतंक है। बाघ और चीते भी हमारे मवेशियों को मारकर खा जाते हैं। जंगली जानवरों के ख़ौफ़ के चलते बच्चों को घर पर अकेले नहीं छोड़ते। जब वो धान के खेतों में काम करने जाते हैं तो साथ में बच्चे भी होते हैं।'

दरअसल, दुर्गम पहाड़ी रास्तों को नापना और फिर खेतों में बचपन गुजार देना पंडी गांव के पूजा, अनिल, अजित ही नहीं, उन जैसे दूसरे कई बच्चों की मजबूरी है। जब उनके माता-पिता और परिवार के दूसरे बड़े लोग रोज़ाना सुबह खेतों में जाते हैं तो छोटे बच्चों की देखभाल करने वाला कोई घर में नहीं रहता। फिर भी गांव में ऐसे बच्चे दिख जाते हैं जिनके गले में सुतली के सहारे एक चाबी लटकी रहती है। आंखों पर लगभग हर वक़्त मक्खियां चिपकी रहती हैं, जिन्हें उड़ाते-उड़ाते थक जाते हैं आदिवासियों के ये बच्चे।

रुक-रुककर हो रही बारिश के बीच खेतों में काम कर रहे राजेश खरवार और उनकी पत्नी होशिला देवी धान की खेती की तैयारियों में जुटे हैं। होशिला कहती हैं, 'ये धान की खेती का काम है साहब...! इसके अलावा पंडी की ज़मीन पर कुछ उगता ही नहीं है। कर्मनाशा नदी, समूचे चंदौली को सींचती है, लेकिन हमारे गांव से गुज़रने वाली हमारी अपनी सरपीली नदी हमारे धान को नहीं सींच पाती। अब तो धान की खेती का रास्ता हमें हताशा की ओर ले जा रहा है। इसकी खेती के लिए न क़र्ज़ मिल रहा है, न दूसरी सुविधाएं। साहूकारों की शरण में जाना हमारी मजबूरी है। हमारे हालत तो अनाथों की तरह हैं।'

देवरी कला के प्रधान लाल साहब खरवार बताते हैं, ''क़रीब 900 की आबादी वाले देवरी गांव में पहले पौने दो सौ बीघे में धान की खेती होती थी। बारिश न होने की वजह से इस बार क़रीब 36 बीघे में धान रोपा जा सका है, जिसके बच पाने की उम्मीद कम नज़र आ रही है। यही हाल नोनवट का भी है। 800 आबादी वाले इस गांव में खेती की ज़मीन तो ढाई सौ बीघा है, लेकिन धान की खेती सिर्फ़ 35 से 40 बीघे में हो पाई है। नोनवट में भी सिर्फ़ 35 बीघा धान रोपा जा सका है और 215 बीघे खेत खाली पड़े हैं। क़रीब तीन सौ की आबादी वाले औरवाटांड में धान की खेती का रक़बा सिर्फ़ दस बीघा है। कुछ खेतों में तिल और मक्के की फसलें बोई गई हैं और बाकी खेत पानी के अभाव में सूखे हुए हैं। क़रीब 165 लोगों की आबादी वाले पंडी गांव के निचले हिस्से में 35 बीघा धान रोपा जा सका है। पहले 90 बीघे में धान की खेती हुआ करती थी। केल्हड़िया में सिर्फ़ पांच बीघा धान रोपा जा सका है, जबकी काश्त की ज़मीन 45 बीघा से ज़्यादा है।''

औरवाटांड के रमेश कहते हैं, एक तरफ़ पेयजल संकट और दूसरी ओर सूखे की मार। ज़िंदगी इसलिए भी पहाड़ बन गई है क्योंकि हमारा पैसा सरकार दबाए बैठी है। नौगढ़ के सेक्टर-16 में आदिवासियों ने मिलकर तेंदू पत्ते की 1,02,520 गड्डियां वन निगम को सौंपी। हरहराती लू में जंगलों में काम किया। तेंदू पत्ते की तोड़ाई का 1,53,780 रुपये अभी तक भुगतान नहीं किया गया है। यही स्थिति समूचे चंदौली ज़िले में है। आदिवासियों को समझ में न हीं आ रहा है कि योगी सरकार उनके पैसे के भुगतान को लेकर क्यों हठ किए बैठी है?

नौगढ़ क़स्बा

नौगढ़ को रास नहीं आ रही तरक़्क़ी

नौगढ़ चंदौली ज़िले का वह इलाक़ा है जिसे पूर्वांचल का दूसरा कालाहांडी कहा जाता था। इसी क्षेत्र के कुबराडीह और शाहपुर जमसोत में दो दशक पहले भूख से कई मौतें हुई थीं। यह इलाक़ा तब ज़्यादा चर्चा में आया जब नीरजा गुलेरी के टीवी सीरियल चंद्रकांता ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरी। नौगढ़ इलाक़े में दशकों तक सरकार के समानांतर डकैतों का साम्राज्य रहा। डकैत ख़त्म हुए तो नक्सलियों की आमद-रफ़्त बढ़ती चली गई। इस इलाक़े में कभी मोहन बिंद, घमड़ी खरवार, रामबचन, धर्मदेव, मिश्री आदि डकैतों का सिक्का चला करता था तो कभी यह इलाक़ा ही कामेश्वर बैठा सरीखे कुख्यात नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। फ़िलहाल दोनों समस्याएं काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई हैं, लेकिन आदिवासियों की मुश्किलें कम नहीं हो सकी हैं।

साल 2011 की जनगणना के अनुसार चंदौली ज़िले की आबादी 19, 52,756 थी, जिसमें 10,17,905 पुरुष और 9,34,851 महिलाएं शामिल थीं। 2001 में चंदौली ज़िले की जनसंख्या 16 लाख से अधिक थी। चंदौली में शहरी आबादी सिर्फ़ 12.42 फ़ीसदी है। 2541 वर्ग किलोमीटर है फैले चंदौली ज़िले में अनुसूचित वर्ग की आबादी 22.88 फ़ीसदी और जन-जाति की 2.14 फ़ीसदी है। खेती के अलावा कोई दूसरा रोज़गार नहीं है। चंद्रप्रभा वन्य जीव अभयारण्य का एक बड़ा हिस्सा नौगढ़ में है, जहां यूपी के खूबसूरत झरने राजदरी और देवदरी चंद्रप्रभा के जंगलों में हैं। इन झरनों को देखने के लिए बारिश के दिनों में पर्यटकों की भारी भीड़ जुटती है। कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियां इसी अभयारण्य से होकर बहती हैं।

यूपी की योगी सरकार ने नौगढ़ की तरक़्क़ी और इस इलाक़े के लोगों की प्यास बुझाने के लिए बातें तो बहुत की, लेकिन कोई ठोस योजना नहीं बनाई। यह स्थिति तब भी वैसी ही रही, जब नक्सल समस्या से निपटने के लिए सरकार ने इस इलाक़े के विकास के लिए बड़ी धनराशि स्वीकृत की। सरकारी योजनाओं के नौगढ़ के गांवों में न पहुंच पाने की वजह से अबकी सूखे की सबसे बड़ी मार इसी इलाके पर पड़ी है। हालांकि चंदौली के जिलाधिकारी संजीव सिंह ने पिछले महीने नैगढ़ के आदिवासियों की समस्याओं के त्वरित निस्तारण के लिए पहली बार ‘नौगढ़ जन-चौपाल’ लगाई। इस मौके पर बड़ी तादाद में आदिवासी भी जुटे। ज़िलाधिकारी के आश्वासन के बावजूद स्थितियों में तनिक भी सुधार नहीं हुआ। पेयजल, आवास और आदिवासियों को परेशान करने के लिए उन पर लादे गए तमाम फ़र्ज़ी मुक़दमों का निस्तारण नहीं हो सका है।

नौगढ़ इलाक़े में ग़रीबी और तंगहाली जस की तस है। सरकारी राशन के लिए आदिवासी समुदाय वैसे ही दौड़ लगा रहा है, जैसे दशकों पहले लगाया करता था। देवरी कला ग्राम पंचायत में छह गांवों का राशन कोटेदार जिलाजीत यादव के यहां से बांटा जाता है। यहीं से केल्हड़िया और पंडी के लोगों को भी राशन मिलता है, जिन्हें 20 से 25 किमी जंगली रास्ते पार कर आना-जाना पड़ता है। जंगल और पहाड़ों की वजह से अक्सर नेटवर्क नहीं पकड़ता, तब उन्हें बैरंग लौटना पड़ता है। मशीन पर अंगूठा लगाने और राशन के लिए अगली सुबह फिर दौड़ लगानी पड़ती है। इलाक़े के लोग चाहते हैं कि नोनवट अथवा देवरी कला में मोबाइल टावर लगाया जाए ताकि आदिवासियों की दिक्कत दूर हो सके।

नहीं पढ़ पा रहीं बेटियां

नौगढ़ में आठवीं के बाद लड़कियों की पढ़ाई छूट जाती है, क्योंकि आगे की शिक्षा के लिए बच्चों को नौगढ़, चकिया अथवा राबर्ट्सगंज जाना पड़ता है। नौगढ़ के आदिवासी अपनी बेटियों को शहर भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, क्योंकि पास में न तो पैसा है, न शहर में किसी से जान-पहचान। नौगढ़ में ऐसे कई गांव हैं जहां दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं है। केल्हड़िया के भोला, राममूरत, शिवमूरत, छोटेलाल, अशोक बताते हैं, ''हमारे गांव में हर कोई अंगूठाटेक है, क्योंकि आसपास कोई स्कूल नहीं है। पिछले महीने पंडी गांव के युवक वीरेंद्र कुमार पहली मर्तबा शिक्षक के रूप में हमारे बच्चों को एक सितंबर 2022 से पढ़ाने आ रहे हैं। इस शिक्षक की तैनाती भी तब हुई जब ग्राम्या संस्था की बिंदू सिंह और सुरेंद्र हमारे गांव आए। फिलहाल यहां खुले आसमान के नीचे 24 बच्चे बढ़ रहे हैं। बारिश के समय ओपन विद्यालय में छुट्टी कर दी जाती है।''

बग़ैर दरवाज़े का शौचालय

नौगढ़ के क़रीब-क़रीब हर गांव में आधे-अधूरे सरकारी आवास और बिना दरवाज़े वाले शौचालय सरकारी नुमाइंदों के भ्रष्टाचार को तस्दीक करते नज़र आते हैं। सूखा और पेयजल संकट के चलते औरवाटांड व आसपास के गांवों के लोग अपने मवेशियों को औने-पाने दाम में बेच रहे हैं। पहले इस इलाक़े में एक हज़ार से ज़्यादा मवेशी हुआ करते थे और अब पशुपालकों की गोशालाएं खाली पड़ी हैं। औरवाटांड के शैलेंद्र और धनंजय कहते हैं, ''हमारी गोशाला के लिए शासन से 1.60 लाख रुपये मंजूर हुआ था, लेकिन राशि मिली सिर्फ़ 90 हज़ार। बाक़ी पैसा सरकारी नुमाइंदे डकार गए। फ़िलहाल तो पानी के बग़ैर मवेशी मर रहे हैं। नौगढ़ बांध का ज़्यादातर पानी गर्मी के दिनों में ही अकारण बहा दिया गया। सिर्फ़ जंगल का सहारा बचा है। देखिए कब तक हम अपनी गाय-भैसों को चारा खिला पाते हैं। शायद जब तक पानी है, हरियाली है, तभी तक हम ज़िंदा रहेंगे। वैसे भी सूखा हमें जीने नहीं दे रहा है। नौगढ़ बांध पूरी तरह सूख जाएगा तो हैंडपाइप भी शो-पीस बन जाएंगे।''

मज़दूर किसान मंच के ज़िला प्रभारी अजय राय ‘न्यूज़क्लिक’ से कहते हैं, ''तंगहाली में जीवन गुज़ारने वाले आदिवासियों पर वन और सिंचाई विभाग के अधिकारियों ने तमाम फ़र्ज़ी व झूठे मुक़दमें लाद दिए हैं। वनाधिकार क़ानून की आड़ लेकर उन्हें पारंपरिक धंधे से दूर किया जा रहा है और उनकी ज़मीन हथियाई जा रही हैं। वनवासी महासभा की ओर से दाख़िल जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने 24 नवंबर, 2017 आदिवासियों के उत्पीडन पर रोक लगा रखी है। इसके बावजूद पुश्तैनी ज़मीन से उन्हें बेदख़ल किया जा रहा है। मौजूदा समय में ये आदिवासी नमक-रोटी खाकर बस किसी तरह से ज़िंदा है। इनके पास कोई काम-धंधा नहीं है। वो अपनी ग़रीबी में जी रहे हैं। घर भी नहीं, झोपड़ी लगाकर रहते हैं। जो जहां है समस्या में है। वो अपनी ज़मीन भी नहीं छोड़ पाते हैं। शहर में जाने से डरते हैं। इन्हें अपने घर की औरतों और बच्चों के ह्यूमन ट्रैफिकिंग में फंसने का ख़ौफ़ ज़्यादा सताता है। समूचे पूर्वांचल में सूखे जैसी स्थिति है, लेकिन नौगढ़ में ज़मीनी हालात कुछ ज़्यादा ही भयावह है।''

सभी फोटो पत्रकार विजय विनीत द्वारा लिए गए।

(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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