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हरिवंश जैसा अपने को दिखाते हैं, वैसे हैं नहीं!

हरिवंश को अपने साथ हुए व्यवहार का तो दुख है लेकिन उन्होंने उप सभापति की हैसियत से सदन के नियम-कायदों को सिरे से नज़रअंदाज कर जिस तरह से किसानों से संबंधित विधेयकों को बिना बहस और बिना मतदान कराए ही पारित करा दिया, उसका उन्हें ज़रा भी अफ़सोस नहीं है।
हरिवंश

राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह ने राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति को पत्र लिखकर कहा है कि 20 सितंबर को राज्यसभा में जो कुछ हुआ उससे उन्हें आत्मतनाव और मानसिक पीड़ा पहुंची है और वे दो दिनों से रात में सो नहीं पाए हैं। उन्होंने सदन में अपने साथ विपक्षी के कतिपय सदस्यों द्वारा किए गए कथित अपमानजनक व्यवहार का हवाला देते हुए कहा कि वे उन सदस्यों के भीतर आत्मशुद्धि का भाव जागृत करने के उद्देश्य से एक दिन का उपवास करेंगे। नाटकीय अंदाज में लिखे गए तीन पेज के इस पत्र में हरिवंश नारायण सिंह ने और भी कई बातें कही हैं।

इस पत्र से जाहिर है कि हरिवंश को अपने साथ हुए व्यवहार का तो दुख है लेकिन उन्होंने उप सभापति की हैसियत से सदन के नियम-कायदों को सिरे से नजरअंदाज कर जिस तरह से किसानों से संबंधित विधेयकों को बिना बहस और बिना मतदान कराए ही पारित करा दिया, उसका जरा सा भी अफसोस नहीं है। गांव के गरीब और किसान परिवार में अपने जन्म लेने का हवाला देने वाले हरिवंश नारायण सिंह को इस बात से जरा भी आत्मतनाव या मानसिक पीड़ा नहीं हुई है कि जिन विधेयकों को उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों और लोकतांत्रिक तकाजों के खिलाफ जाकर पारित कराया है, उनसे देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार मानी जाने वाली कृषि व्यवस्था किस तरह तबाह हो जाएगी और देश का किसान वर्ग किस तरह देश के बड़े उद्योग घरानों का गुलाम बनकर खून के आंसू बहाने को मजबूर हो जाएगा।

हरिवंश नारायण सिंह के बारे में यह आम धारणा है और राज्यसभा में दो दिन पहले के उनके व्यवहार को लेकर उनकी आलोचना कर रहे कई लोगों ने भी उनके बारे में लिखा है कि वे समाजवादी आंदोलन और 1974 के जेपी आंदोलन से जुड़े रहे हैं। राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति को लिखे पत्र में खुद हरिवंश नारायण ने भी अपने को गांधी, लोहिया, जयप्रकाश और कर्पूरी ठाकुर की वैचारिक विरासत का वाहक बताया है। उनका यह दावा और उनके बारे में यह धारणा वैसी ही है, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने स्वयं के बारे में दावा करते हैं कि वे 1974 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में सक्रिय थे और आपातकाल के दौरान भूमिगत रह कर आंदोलनात्मक गतिविधियों में सक्रिय थे।

हकीकत यह है कि न तो मोदी को नवनिर्माण आंदोलन और आपातकाल विरोधी संघर्ष से कोई नाता रहा है और न ही हरिवंश कभी सोशलिस्ट पार्टी और जेपी आंदोलन से जुडे रहे हैं। हां, इतना जरूर है कि पत्रकारिता के अपने शुरुआती दौर में हरिवंश जिन अखबार और पत्रिकाओं में रहे उनका संपादकीय नेतृत्व समाजवादी विचारों की पृष्ठभूमि वाले संपादकों के पास था और उनकी संपादकीय टीम में भी ज्यादातर पत्रकार ऐसे थे जिनकी वैचारिक पृष्ठभूमि समाजवादी थी या जो जेपी आंदोलन से जुडे रहे थे। हरिवंश इन पत्रकारों के काफिले में जरूर शामिल रहे लेकिन किन्हीं आदर्शों या मूल्यों की वजह से नहीं, बल्कि महज अपना कॅरिअर बनाने के लिए। उसी काफिले में रहते हुए उन्होंने जो थोडी-बहुत जनपक्षीय पत्रकारिता की थी, वही बाद में उनकी कामयाबी यानी न्यस्त स्वार्थों की पूर्ति के लिए सीढ़ी बनी।

एक पत्रकार और संपादक के तौर पर हरिवंश के बारे में लंबे समय तक कई लोगों को यह जानकारी नहीं थी कि वे किस जाति-बिरादरी हैं। उन्होंने भी एक पत्रकार के तौर पर अपने नाम के साथ कोई जाति सूचक उपनाम नहीं लगाया। लेकिन उन्हें नजदीक से जानने वाले जानते और बताते हैं कि उनके भीतर शुरू से ही जातिवाद के महीन तत्व गहरे तक छुपे बैठे थे, जिसका वे समय-समय पर बहुत नफासत और चतुराई के साथ इस्तेमाल करते हुए अपना मनोरथ पूरा करते रहे। उन्हें 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का मीडिया सलाहकार बनाने में भी इसी जातीय समीकरण की भूमिका थी।

छह वर्ष पहले जनता दल (यू) से राज्यसभा का सदस्य बनकर राजनीति में सक्रिय होने से पहले तक हरिवंश नारायण एक पूर्णकालिक पत्रकार संपादक थे। उनकी पत्रकारिता मूलत: व्यावसायिक और अवसरवाद पर आधारित थी। अपनी व्यावसायिक पत्रकारिता के बूते ही वे प्रभात खबर अखबार के प्रधान संपादक बने और कहा जाता है कि उसी पत्रकारिता के दम पर बाद में उस अखबार के आंशिक तौर पर मालिक भी बन गए। उसी अखबार का संपादक रहते हुए उन्होंने अखबार के मुख्य मालिक (उषा मार्टिन उद्योग समूह) के व्यावसायिक हितों को साधने के लिए झारखंड की लगभग हर सरकार का भयादोहन किया। अपने अखबार में खूब पेड न्यूज भी छापी और नैतिकता का चोला ओढकर प्रभाष जोशी के साथ पेड न्यूज के खिलाफ चलाए गए अभियान में भी शामिल होने का अभिनय भी किया। ठीक वैसा ही अभिनय जैसा वे इस समय कर रहे हैं- धरने पर बैठे विपक्षी सांसदों के लिए चाय ले जाकर, राष्ट्रपति को पत्र लिखकर सदन की घटना पर दुख जता कर और उपवास रख कर।

अपने अखबारी संस्थान के दीगर कारोबारी हितों और अपनी दमित राजनीतिक वासनाओं की पूर्ति के लिए ही उन्होंने अपने अखबार का पटना संस्करण शुरू किया। उस संस्करण में नियमित रूप से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का प्रशस्ति गान होने लगा। हरिवंश ने खुद लेख लिखकर नीतीश कुमार को आधुनिक चंद्रगुप्त मौर्य बताया। बदले में नीतीश कुमार ने बख्शीश के तौर पर हरिवंश को राज्यसभा में भेज दिया। उन्हें राज्यसभा में भेजने के पीछे नीतीश कुमार के दो मकसद थे। एक तो उनके अखबार को पूरी तरह से अपनी सरकार का मुखपत्र बना लेना और दूसरा सोशल इंजीनियरिंग के तहत बिहार की राजपूत बिरादरी को रिझाना।

गौरतलब है कि दलित और पिछडी जातियों के बाहुल्य वाले बिहार के 17 फीसद सवर्ण मतदाताओं में 5.2 फीसद हिस्सा राजपूत समुदाय का है। माना जाता है कि बिहार की जाति आधारित राजनीति में दो प्रमुख सवर्ण जातियां भूमिहार और राजपूत कभी भी साथ नहीं रहतीं। चूंकि भूमिहार लंबे समय से भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं और नीतीश कुमार की पार्टी का भी भाजपा के साथ गठबंधन है, लिहाजा राजपूत समुदाय का समर्थन आमतौर पर लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल को मिलता है। अलबत्ता जहां भाजपा या जनता दल (यू) के राजपूत उम्मीदवार होते हैं वहां जरूर राजपूतों के वोट उन्हें मिल जाते हैं।

बहरहाल चूंकि नीतीश कुमार ने हरिवंश को जातीय समीकरण साधने की गरज से राज्यसभा में भेजा था, इसलिए वे राज्यसभा के जरिए सक्रिय राजनीति में आते ही हरिवंश से हरिवंश नारायण सिंह हो गए। वे राज्यसभा में पहुंच कर इतने गदगद हो गए कि उन्होंने नीतीश कुमार की तुलना जेपी और लोहिया से करना शुरू कर दी। लेकिन इसी के साथ दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी अपनी नजदीकी बढ़ाते रहे और जल्दी ही उनके प्रिय पात्र बन गए। इतने प्रिय कि मोदी ने नीतीश कुमार पर दबाव डाल कर उन्हें उप सभापति बनाने के लिए राजी किया था और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा का दूसरा कार्यकाल भी मोदी की सिफारिश पर ही दिया। जाहिर है कि हरिवंश को दूसरी बार उप सभापति बनाने के लिए नीतीश को मोदी ने ही राजी किया।

उन्हें दोनों ही बार उप सभापति बनाने में बिहार की राजनीति का जातीय समीकरण ही अहम कारक रहा है। गौरतलब है कि इस समय केंद्रीय मंत्रिपरिषद में बिहार के जितने भी मंत्री हैं, उनमें व्यापक राजनीतिक पहचान रखने वाला कोई राजपूत नेता मंत्री नहीं है। पिछली मोदी सरकार में दो राजपूत मंत्री थे- एक राधामोहन सिंह और दूसरे राजीव प्रताप रूडी। इस बार आरके सिंह राज्यमंत्री हैं, लेकिन वे रिटायर्ड नौकरशाह हैं, इसलिए उनकी अपने जिले के बाहर कोई राजनीतिक पहचान नहीं हैं।

बहरहाल, राज्यसभा में किसान संबंधी विधेयकों को पारित कराने में उप सभापति की हैसियत से हरिवंश नारायण सिंह ने जो कुछ किया, उससे उनकी प्रचलित छवि ही कलंकित नहीं हुई, बल्कि भारत के संसदीय इतिहास में भी एक काला अध्याय जुड़ गया। नियम-कायदों को नजरअंदाज कर मनमानी व्यवस्था देने में उन्होंने सभापति एम. वैंकेया नायडू और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को भी पीछे छोड दिया।

संसदीय नियम और परंपरा यह है कि अगर कोई एक सांसद भी किसी विधेयक पर मतदान कराने की मांग करता है तो मतदान होना चाहिए, लेकिन हरिवंश नारायण सिंह ने समूचे विपक्ष की मतदान की मांग को ही नकार दिया। वे नजरें झुकाकर विधेयक से संबंधित दस्तावेज पढ़ने का नाटक करते रहे और नजरें उठाए बगैर ही विधेयक के ध्वनिमत से पारित होने की घोषणा कर दी। यही नहीं, ध्वनिमत से विधेयक पारित कराते वक्त उनके आदेश पर ही राज्यसभा टीवी ने ऑडियो टेलीकास्ट भी बंद कर दिया। ऐसे में अगर विपक्ष के कुछ सांसदों ने नियम पुस्तिका फाड दी और माइक तोड दिया तो क्या गलत किया? आखिर किस काम की नियम पुस्तिका, जब सरकार की इच्छा या मनमानी ही नियम बन जाए? वह माइक भी किस काम का, जिसके जरिए सांसदों की आवाज ही जनता तक नहीं पहुंच रही हो।

वैसे सभापति के तौर हरिवंश नारायण सिंह का यह रवैया 20 सितंबर को पहली बार ही नहीं दिखा। इससे पहले भी वे आमतौर पर विपक्षी सांसदों के भाषण के दौरान अनावश्यक टोका-टाकी करते हुए सरकार और सत्तारूढ दल के संरक्षक के तौर पर पेश आते दिखते रहे हैं। कुल मिलाकर वे अपने कामकाज और विपक्षी सदस्यों के साथ व्यवहार से उन लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने में कोई कसर नहीं छोड़ते, जिन्होंने इस संवैधानिक और गरिमामय पद के लिए उनका चयन किया है।

मौजूदा वक्त में जब देश के तमाम संवैधानिक संस्थान और उनमें शीर्ष पदों पर बैठे लोग अपने पतन की नित-नई इबारतें लिखते हुए खुद को सत्ता के दास के रूप में पेश कर अपने को धन्य मान रहे हों, तब ऐसे माहौल में राज्यसभा के उप सभापति की हैसियत से हरिवंश नारायण सिंह ने जो कुछ भी किया वह अभूतपूर्व है, सदन के नियमों के विपरीत भी है और असंवैधानिक भी है, लेकिन चौंकाने वाला कतई नहीं। इससे उनकी आगे सफलता की राह आसान ही हुई है। कोई आश्चर्य नहीं कि दो साल बाद उप राष्ट्रपति के पद पर उनका प्रमोशन हो जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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