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उत्तराखंड में भी नफरती एजेंडा: जौनसार बाबर के वन गुर्जरों के खिलाफ रुद्र सेना ने उगला जहर

वनाधिकार कानून 2006 लागू होने के 16 साल बाद भी उत्तराखंड में वन गुर्जरों को अधिनियम के अधिकार नहीं मिल सके हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों से जारी नफरत की आग के लपेटे में यह भोली भाली जनजाति जरूर आती दिख रही है।
Uttarakhand
वन गुर्जर/प्रतीकात्मक तस्वीर

"वनाधिकार कानून 2006 लागू होने के 16 साल बाद भी उत्तराखंड में वन गुर्जरों को अधिनियम के अधिकार नहीं मिल सके हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों से जारी नफरत की आग के लपेटे में यह भोली भाली जनजाति जरूर आती दिख रही है। ताजा मामला राकेश उत्तराखंडी के नेतृत्व वाली रुद्र सेना द्वारा वन गुर्जरों के खिलाफ जहर उगलने और उन्हें बाहरी बताकर नफरती एजेंडा चलाने का है। रुद्र सेना ने जौनसार बाबर क्षेत्र में वन गुर्जरों पर ग्राम समाज और वन भूमि पर अवैध कब्जे के आरोप लगाए हैं। वहीं, वन गुर्जर ट्राइबल युवा संगठन ने गजवा ए हिंद जैसे बेतुके बयानों को माहौल खराब करने वाला बताया है।"

तहसीलदार त्यूणी को राज्यपाल के नाम दिए ज्ञापन में रुद्र सेना ने आरोप लगाया है कि त्यूणी तहसील सहित जौनसार बाबर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर धर्म विशेष के लोग ग्राम समाज और वन विभाग की जमीनों पर अवैध कब्जे कर रहे हैं। रुद्र सेना ने कहा कि प्रशासन और वन विभाग इसको लेकर बेपरवाह बने हैं। जिससे क्षेत्र के अमन चैन के लिए खतरा पैदा हो सकता है। कहा, त्यूणी क्षेत्र के अटाल, हेडसू, रडु, चांदनी, व्यूलोग, मझोग, खुनीगाड, गुरुयााना, चातरीगाड, मैंद्रथ, पुरटाड, कोटी बावर, सुनीर, देउडू, कांडा बास्तील, नेवल, मुंडाली चांटी आदि क्षेत्रों में वन गुर्जरों के सैकडों परिवार ग्राम समाज व वन विभाग की सरकारी जमीनों को कब्जाकर वहीं बस गये हैं। यही नहीं, कुछ जनप्रतिनिधियों के संरक्षण के चलते इन लोगों ने अपने आधार कार्ड, पहचान पत्र, बीपीएल कार्ड, राशन कार्ड, स्थाई निवास प्रमाण पत्र जैसे तमाम सरकारी दस्तावेज बनवा लिए हैं। ऐसे बाहरी तत्व क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम करना चाहते हैं। जिन्हें जांच कर, क्षेत्र से बाहर किया जाए।

गजवा ए हिंद के उद्देश्यों को पूरा करने का लगाया आरोप

रुद्र सेना अध्यक्ष राकेश उत्तराखंडी यहीं नहीं रुकता। वह जहर उगलना जारी रखते हुए कहता है कि वन विभाग व शासन प्रशासन की लापरवाही तथा राजनीतिक संरक्षण में वन गुर्जरों की आड़ में मुस्लिम संगठन, गजवा ए हिंद के उद्देश्य को पूरा करने में लगे हैं।

गरीब चरवाहा वन गुर्जर समुदाय पर जमात आदि धार्मिक क्रियाकलापों की आड़ में मुस्लिम कट्टरवाद फैलाने के आरोप लगाने वाली हिंदुत्ववादी (रुद्र सेना) संगठन पिछले कुछ दिनों से अपने नफरती और भड़काऊ एजेंडे के चलते चर्चा में है। रुद्र सेना संस्थापक व अध्यक्ष राकेश उत्तराखंडी खुद को सनातन का अनुयाई बताता है लेकिन एक समुदाय को जेहादी बता, उनके खिलाफ लगातार नफरत उगलने में लगा है। यही नहीं, सोशल मीडिया में राकेश तोमर को, वन गुर्जरों पर उनके हिंदू धर्म को अपवित्र करने जैसे गंभीर आरोप लगाते हुए, वन गुर्जरों को जौनसार बाबर क्षेत्र से ही नहीं, उत्तराखंड से बाहर करने का नफरती जहर फैलाते (तकरीर करते) साफ देखा जा सकता है। 

क्या है रूद्र सेना

दरअसल, रूद्र सेना एक हिंदुवादी संगठन है जिसका एक पोर्टल rudrasena.org है। इस वेबसाइट पर क्लिक करने पर संगठन में पदाधिकारियों को नियुक्ति की जानकारी मिलती है। इसमें रणवीर सिंह को इसका राष्ट्रअध्यक्ष बताया गया है। यह संगठन उत्तराखंड, यूपी और राजस्थान में अपने पदाधिकारी नियुक्त कर चुका है। फेसबुक पेज पर इसके 1.4K फॉलअर्स हैं। यह खुद को 'राष्ट्रवादी हिन्दू संगठन' बताता है। 

गजवा ए हिंद जैसे बेतुका बयानों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग करेंगे: अमीर हमजा

उधर, वन गुर्जर ट्राइबल युवा संगठन इसे उलूल जुलूल विवाद पैदा करने की कोशिश बता रहा है। संगठन उपाध्यक्ष अमन कहते हैं कि पिछले कुछ दिनों से रूद्र सेना जैसे संगठन माहौल खराब करने की कोशिश कर रहे हैं। कहा कि जौनसार बाबर अनुसूचित जनजाति क्षेत्र है जिसमें कुछ वन गुर्जर भी हैं। पिछले दिनों एक वन गुर्जर की जनजाति कोटे में नौकरी लगने के बाद से इस तरह के विवाद पैदा किए जा रहे हैं। वहीं, संगठन के संस्थापक/अध्यक्ष अमीर हमजा, रुद्र सेना के गजवा ए हिंद जैसे बेतुके बयान को सांप्रदायिक सद्भाव खराब करने की साजिश बता रहे हैं। उन्होंने कहा कि वन गुर्जर समुदाय अरसे से यहां रहता आ रहा है। कुछ की अपनी जमीन भी हैं। बिना किसी पुष्टि के गजवा ए हिंद जैसे बयान देना सुप्रीम कोर्ट की भी अवमानना है। जल्द ही संगठन की ओर से शासन प्रशासन को ज्ञापन देकर, माहौल खराब करने वाले ऐसे असामाजिक तत्वों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग की जाएगी।

घुमंतु चरवाहा समुदाय है वन गुर्जर

वन गुर्जर एक घुमंतु चरवाहा समुदाय है जिन्हें वन्यजीव के संरक्षण आदि के नाम पर विस्थापित करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। एक तरफ इंसानों को जंगल से विस्थापित किया जा रहा है तो दूसरी तरफ सड़क का जाल बिछाने का काम भी हो रहा है। धार्मिक पर्यटन के लिए भी जंगलों के बीच निर्माण किया जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, स्वीडन के लुंद विश्वविद्यालय से सेवानिवृत वरिष्ठ प्रोफेसर पर्निल गूच, हिमालय क्षेत्र में चरवाहों के अपने अध्ययन में कहते हैं कि जंगल में वन गुर्जर और प्रकृति के बीच जो पारंपरिक सौहार्दपूर्ण संबंध था वही उनका दुश्मन बन गया है। अब उन्हें मौसम के बदलने पर जानवरों के साथ ऊंचाई पर या जंगल के दूसरे छोर पर जाने की इजाजत नहीं होती। गूच कहते हैं कि ये लोग जीवन तो जी रहे हैं पर वन गुर्जर की तरह नहीं।

पर्यावरण शोध संस्था हिमधारा की मानसी अशर कहती हैं “औद्योगिकरण और शहरीकरण की वजह से वन गुर्जर एक सीमित वन के हिस्से में सिमटकर रहे गए हैं, जिससे उन्हें चारे के लिए सीमित स्थान मिलता है। और उन पर चारागाह के अत्यधिक दोहन का आरोप लगता है,” वह कहती हैं। उन्होंने कहा कि वन गुर्जर समुदाय पर ‘विकास’ और संरक्षण, दोनों की ही मार पड़ी है।

पूरे देश में परंपरागत जंगलों में रहने वालों का विस्थापन एक बड़ा मुद्दा रहा है। दरअसल, वनवासी समुदाय को संरक्षण के लिए विस्थापित होना पड़ता है, लेकिन विकास की परियोजनाओं के मामले में संरक्षण को नजरअंदाज भी किया जाता है। हाल ही में जॉली ग्रांट एयरपोर्ट के विस्तार के लिए उत्तराखंड में शिवालिक एलिफेंट रिजर्व के 5400 वर्गमीटर इलाके को मिले संरक्षण के दर्जे को हटाने पर विचार किया जा रहा है। ऐसे मामलों की वजह से सवाल उठता है कि क्या संरक्षण की कीमत सिर्फ हाशिए पर खड़े समुदायों को ही चुकानी पड़ती है। 

खो दिया चरागाह पर अधिकार

पारंपरिक रूप से चरवाही कर अपना जीवन गुजारने वाले इन वन गुर्जरों से न केवल इनके रहने का स्थान छीन लिया गया बल्कि चरवाही करने की सार्वजनिक जमीन भी इनके हाथ से जाती रही। उन्हें अपना जीवन दोबारा शुरू करने के लिए जमीन का टुकड़ा दिया गया, जिस पर भी उनका कोई मालिकाना हक नहीं था। गूच कहते हैं “अगर आप किसी गुर्जर से उनकी जरूरत पूछेंगे तो वह जमीन मांगेगे। क्योंकि वह काफी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उनके मवेशियों के लिए मौजूदा संसाधन काफी नहीं है। भैंसों को चराने के उनका पुराना तरीका भी अब चलन में नहीं है। वे मौसम के साथ जंगल में स्थान बदलकर मवेशी चराते थे, जो कि अब संभव नहीं है।” 

भूमि के कानूनी अधिकार के बावजूद उत्पीड़न एक कड़वा सत्य है। अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 या वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत, वन गुर्जर को अधिकार है कि वन क्षेत्र, संरक्षित क्षेत्र में अपने मवेशियों को चरा सकें। वनाधिकार कानून में यह स्पष्ट किया गया है कि उन समुदायों को जो पारंपरिक तौर पर घूम-घूमकर चरवाही करते रहे हैं, उन्हें चरवाही के मौसम में यह अधिकार मिलता रहेगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन्हें इसकी इजाजत नहीं दी जाती। वनाधिकार कानून इस उद्देश्य से लाया गया था कि देश में करीब दस करोड़ वनवासियों के साथ हो रहे भेदभाव को खत्म किया जा सके। इसके विपरीत पूरी कोशिश हो रही है कि उन्हें और कमजोर किया जाए, कहते हैं तृषान्त शिमलाई जो कैंब्रिज विश्वविद्यालय से जुड़े हैं और राजनीतिक ईकालॉजिस्ट हैं। उन्होंने उत्तराखंड के कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में कमजोर समुदायों के सामाजिक तौर पर अलग-थलग पड़ने का अध्ययन किया है। इनके अनुसार चरवाही के मौसम में वन विभाग निगरानी तेज कर देता है। खासकर उन क्षेत्र में जहां वन गुर्जर और अन्य अनुसूचित जनजाति के लोग मवेशियों को चराने ले जाते हैं।

साभार : सबरंग 

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