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क्या न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के फ़ैसलों से अडानी समूह को फ़ायदा पहुंचा है?

अब जबकि सुप्रीम कोर्ट से न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के रिटायरमेंट के महज़ एक महीने से भी कम का समय रह गया है, न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अडानी समूह की एक कंपनी से जुड़े एक मामले की सुनवाई कर रहे तीन न्यायाधीशों की पीठ के फ़ैसले सुनाये जाने की उम्मीद है। यह 2019 के बाद से न्यायमूर्ति मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच द्वारा सुने जाने वाला अडानी समूह की कंपनियों से जुड़ा सातवां मामला होगा, जिसमें पिछले छह फ़ैसले इस ग्रुप के पक्ष में गये हैं। अगर इस सातवें मामले में भी फैसला अडानी समूह के पक्ष में जाता है, तो इससे राजस्थान में सार्वजनिक बिजली वितरण संस्थाओं और उपभोक्ताओं को लगभग 5,000 करोड़ रुपये का नुकसान होगा।
अडानी समूह

पिछले हफ़्ते से अज्ञात मूल का एक दस्तावेज़ राजधानी में घूम रहा है। आठ अदालती मामलों को सूचीबद्ध करने वाले दो-पेज के ये दस्तावेज़ कथित तौर पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और वरिष्ठ वक़ीलों के दफ़्तरों के चक्कर लगा रहे हैं।

इस दस्तावेज़ की एक कॉपी न्यूज़क्लिक के पास भी है और इसमें देश के शीर्ष अदालत की तरफ़ से उठाये गये आठ मामले सूचीबद्ध हैं, जिनमें से प्रत्येक में अडानी समूह शामिल है और जिनमें से प्रत्येक को न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुना है। सुप्रीम कोर्ट इनमें से छह मामलों में अडानी समूह के पक्ष में फ़ैसला सुना चुका है, जिससे भारत के दूसरे सबसे अमीर आदमी की अगुवाई वाले कॉरपोरेट समूह को हजारों करोड़ रुपए से ज़्यादा की बड़ी राशि का फ़ायदा पहुंचा है।

इस मामले की क़रीब से जानकारी रखने वाले दो व्यक्तियों के मुताबिक़, शीर्ष अदालत द्वारा उस मामले की सुनवाई की जा रही है और जल्द ही फ़ैसले आने की उम्मीद की जा रही है, इन दोनों ने न्यूज़क्लिक से इस शर्त पर बात की है कि उनका नाम प्रकाशित नहीं किया जायेगा। जुलाई में न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ के सामने अडानी समूह की एक कंपनी से जुड़े आठवें मामले को भी सूचीबद्ध किया गया है। इस मामले में न्यूज़क्लिक से बात करने वाले दो व्यक्तियों में से एक ने कहा कि सुनवाई चल रही है और यह साफ़ नहीं है कि न्यायमूर्ति मिश्रा के सेवानिवृत्त होने से पहले पीठ द्वारा कोई फ़ैसला सुनाया जा सकेगा या नहीं।

अगस्त 2019 में वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने अडानी समूह की कंपनियों से जुड़े कुछ मामलों में प्रक्रियागत अनियमितता का आरोप लगाते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई को पत्र लिखा था। अदालत के सभी न्यायाधीशों को भेजे गये और अब सार्वजनिक डोमेन में आ चुके अपने उस पत्र में दवे ने विशेष रूप से उन दो मामलों पर ध्यान आकर्षित किया था, जिसके बारे में उनका आरोप था कि उस वर्ष उन मामलों को गर्मी की छुट्टी के दौरान सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री द्वारा "अनुचित रूप से" सूचीबद्ध किया गया था।

जिस लिस्टिंग को लेकर उन्होंने आरोप लगाया था कि वह "स्थापित कार्यप्रणाली और प्रक्रिया (सुप्रीम कोर्ट) के मुताबिक़ बेहद अनुचित है," उसके नतीजे के रूप में अडानी समूह की कंपनियों को "हज़ारों करोड़" रुपये का फ़ायदा पहुंचा है। दवे ने आरोप लगाया कि दोनों मामलों को "जल्दी और अनुचित तरीक़े से" सूचीबद्ध किया गया, उनकी सुनवाई की गयी और फ़ैसले दिये गये, उन्होंने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट की ख़ुद की स्थापित प्रक्रियाओं का उल्लंघन करते हुए इन मामलों का फ़ैसला न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली अदालत की अवकाश पीठ द्वारा किया गया।

दवे ने अपने उस पत्र में दो अन्य मामलों की ओर भी इशारा किया, जिनमें अडानी समूह शामिल था, जहां न्यायाधीश के नेतृत्व में पीठों द्वारा "अनुकूल" फ़ैसले दिये गये थे।

2 सितंबर को सेवानिवृत्त होने वाले न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ के उस अडानी पावर राजस्थान लिमिटेड से जुड़े मामले में जल्द ही अपना फ़ैसला सुनाने की उम्मीद है, जिसके पास राजस्थान में 1,320 मेगावाट क्षमता के थर्मल पावर प्लांट का स्वामित्व है। इस मामले में बहस पूरी हो चुकी थी और फ़ैसले को 29 जुलाई के लिए सुरक्षित रख लिया गया था।

जिस मामले में फ़ैसला दिये जाने की उम्मीद है, वह 5,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की बिजली के लिए "क्षतिपूरक टैरिफ़" पर क़ानूनी विवाद से जुड़ा हुआ मामला है, जिसमें दावा किया गया है था कि अडानी समूह की कंपनी का राजस्थान में जयपुर और जोधपुर शहरों में स्थित राज्य सरकार के स्वामित्व वाली बिजली वितरण संस्थाओं के एक समूह द्वारा बकाया चुकाया जाना है। यह विशेष क़ानूनी लड़ाई का एक लंबा और जटिल इतिहास है,जो सात सालों तक चलता रहा है, निकट भविष्य में इसके अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने की उम्मीद है।

विवाद से नाता कोई नया नहीं

इस समय उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम (उम्र के लिहाज से) न्यायाधीश, न्यायमूर्ति मिश्रा शायद ही कभी विवाद में नहीं रहे हों। उन्होंने अक्टूबर,1999 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के तौर पर अपना करियर शुरू किया था और जुलाई, 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के उच्च पद पर आसीन हुए थे, इसके तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार सत्ता में आयी थी।

कुछ लोगों की तरफ़ से उनके बारे में कहा गया था कि वे सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वैचारिक मूल संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समान विचार रखने हैं,लिहाजा न्यायमूर्ति मिश्रा के बारे में बताया जाता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के शासन के दौरान मई 2014 से पहले तीन बार सुप्रीम कोर्ट में उनके पदोन्नयन को खारिज कर दिया गया था।

उनके बारे में यह धारणा इसलिए बनी थी,क्योंकि सत्तारूढ़ दल के सदस्यों के साथ न्यायमूर्ति मिश्रा की कथित निकटता कम से कम दो बार जगज़ाहिर हुई है। दिसंबर,2016 में उन्होंने ग्वालियर और नई दिल्ली में अपने भतीजे की शादी समारोहों का आयोजन किया था, जिनमें भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने भाग लिया था। इन नेताओं में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री,शिवराज सिंह चौहान भी थे, जो ग्वालियर के शादी समारोह में शामिल हुए थे। नई दिल्ली में आयोजित शादी के स्वागत समारोह में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री,वसुंधरा राजे के अलावा केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और (दिवंगत) अरुण जेटली भी  शामिल हुए थे।

फ़रवरी, 2020 में न्यायमूर्ति मिश्रा ने एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन में की गयी अपनी टिप्पणियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा करते हुए उन्हें "बहुमुखी प्रतिभा" वाले व्यक्ति और "अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित दूरदर्शी" शख़्स के तौर पर तारीफ़ की थी।

अपने लम्बे करियर के दौरान जस्टिस मिश्रा ने 100,000 से ज़्यादा मामलों पर फ़ैसले दिये हैं, जिनमें कई फ़ैसले "राजनीतिक रूप से संवेदनशील" और हाई-प्रोफ़ाइल फ़ैसले भी माने जाते हैं।

2015 में वह भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश,एच.एल.दत्तू के साथ भी उस पीठ में थे, जिसने भारतीय पुलिस सेवा के एक पूर्व अधिकारी,संजीव भट्ट की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें 2002 में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुए गुजरात दंगों की जांच को फिर से खोले जाने के लिए अदालत के निर्देश की मांग की गयी थी।उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी थे।

भट्ट ने उस याचिका में दावा किया था कि वह पुलिस के शीर्ष अधिकारियों की उस बैठक में वे ख़ुद मौजूद थे, जहां मोदी ने उस बैठक में मौजूद अफ़सरों को कथित रूप से दूसरी तरह से निपटने के निर्देश दिये थे, जबकि तीन दिन तक दंगे और आगज़नी होती रही थी। भट्ट की याचिका को खारिज करते हुए पीठ ने कहा था कि याचिकाकर्ता ने "साफ़ इरादों" के साथ अदालत से संपर्क नहीं किया है और उनकी याचिका प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों को फ़ायदा पहुंचाने को लेकर प्रेरित है।

न्यायमूर्ति मिश्रा ने 2017 में उन दो सदस्यीय पीठ का नेतृत्व किया था, जिसने "सहारा-बिड़ला पत्रों" की जांच की याचिका को खारिज कर दिया था। उस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के अधिकारियों द्वारा मारे गये छापे के दौरान आदित्य बिड़ला समूह के कार्यालयों से बरामद दस्तावेज़ सामने आये थे। इन दस्तावेज़ों से पता चला था कि बड़ी मात्रा में विभिन्न लोक सेवकों और राजनेताओं को अलग-अलग समय पर रक़म का भुगतान किया गया था। इनमें प्रधानमंत्री,मोदी भी शामिल थे, जिन्होंने सहारा समूह के एक वरिष्ठ कार्यकारी के कंप्यूटर से ज़ब्त किये गये दस्तावेज़ की एक प्रविष्टि में कथित रूप से 25 करोड़ रुपये का भुगतान तब प्राप्त किया था, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

सुप्रीम कोर्ट ने इन दस्तावेज़ों को पहली ही नज़र में "हल्के दस्तावेज़" के तौर पर दिखाते हुए खारिज कर दिया था और इस मामले की जांच का आदेश देने से इनकार कर दिया था।

मेडिकल कॉलेज 'घोटाला'

जस्टिस मिश्रा उस बेंच में भी थे,जिसने कथित "मेडिकल कॉलेज रिश्वत घोटाले" से जुड़े मामले पर फ़ैसला दिया था। यह मामला उस आरोप से पैदा हुआ था कि मेडिकल कॉलेज चलाने वाली प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट नामक एक संस्था ने चिकित्सा पाठ्यक्रम के सिलसिले में अपने लाइसेंस को लेकर उच्चतम न्यायालय में चल रहे एक मामले में "अनुकूल फ़ैसला" पाने के लिए "वरिष्ठ सम्बद्ध लोक पदाधिकारियों" को रिश्वत दी थी। 

सीबीआई ने ओडिशा उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के घर से 2 करोड़ रुपये नकद बरामद किये थे, जिन्हें मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों और अन्य बिचौलियों के साथ गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई की जांच में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक तत्कालीन जज को भी फांसने की कोशिश की गयी थी, और उनके आवासों पर भी छापे मारे गये थे।

सीबीआई ने इस मामले में एक प्राथमिकी (एफ़आईआर) में आरोप लगाया था कि इन लोगों ने भुवनेश्वर स्थित किसी ऐसे शख़्स को बड़ी मात्रा में नक़दी सौंपने की "साज़िश" की थी, जिसने "वरिष्ठ सम्बद्ध लोक पदाधिकारियों" के साथ "निकट संपर्क" का दावा किया था और जिसने मेडिकल कॉलेज चलाने वाले उस ट्रस्ट के पक्ष में अदालत के फ़ैसले के परिणाम को प्रभावित करने की अपनी क्षमता का कथित रूप से उन्हें भरोसा दिया था।

इस मामले ने कुछ भागीदारों और भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI), जस्टिस दीपक मिश्रा के बीच कथित सम्बन्धों के चलते महत्वपूर्ण रूप से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था, जिन्होंने उस बेंच की अध्यक्षता की थी,जो बेंच उस मेडिकल कॉलेज के लाइसेंस से जुड़े हुए मामले की सुनवाई कर रही थी।

सीबीआई की प्राथमिकी के मद्देनज़र, एक विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा इन आरोपों की अदालत-निगरानी जांच का अनुरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट के सामने दो याचिकायें दायर की गयी थीं। याचिकाकर्ताओं ने इस बात की गंभीर रूप से मांग की थी कि उनके अनुरोध को तत्कालीन सीजेआई को छोड़कर अदालत के पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा सुना जाये, और न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने ख़ुद को उस सुनवाई से हटा लिया था।

इन याचिकाओं को मूल रूप से दो-न्यायाधीशों की बेंच द्वारा प्रवेश की आज्ञा पर सुने जाने के तत्काल आधार पर रखा गया था, हालांकि, इसमें एक अभूतपूर्व मोड़ तब आया, जब सीजेआई,मिश्रा ने पहले वाली पीठ को रद्द कर दिया और इसे अपनी ख़ुद की अध्यक्षता वाली पीठ के सामने भेज दिया। उस पीठ के समक्ष सुनवाई ने एक अजीब स्थिति पैदा कर दी, क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने सीजेआई को ख़ुद को इससे अलग करने का अनुरोध किया था,ऐसा इसलिए था,क्योंकि प्राथमिकी में उनके नेतृत्व वाली पीठ के ख़िलाफ़ आरोप थे।

सीजेआई,दीपक मिश्रा ने याचिकाकर्ताओं को अदालत की अवमानना की धमकी दी और मामले से जुड़े हुए उन सभी प्रस्तुतियों पर विचार किया था, जिसका नतीजा यह हुआ था कि अदालत को उस सुनवाई की अनुमति की  कार्यवाही से असंबंधित सहायक अधिवक्ताओं ने एक जुलूल निकाली थी। हालांकि, आख़िरकार ये याचिकायें उन तीन न्यायाधीशों वाली बेंच के सामने सूचीबद्ध की गयीं थीं, जिनमें जस्टिस अरुण मिश्रा ख़ुद भी शामिल थे। 2017 के नवंबर और दिसंबर में इस पीठ ने उन दोनों याचिकाओं को खारिज कर दिया था, जिसमें से एक पर "न्यायाधिक ख़रीदारी"( Forum Shopping) और दूसरे में "देश की उच्चतम न्यायिक प्रणाली को लांछन लगाने" का आरोप लगाया गया था।

जज लोया केस

न्यायमूर्ति मिश्रा भी दो-न्यायाधीशों की उस पीठ का एक हिस्सा थे, जो कि कथित “न्यायाधीश लोया” मामलों की सुनवाई के लिए शुरू में गठित की गयी थी। न्यायाधीश बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत के आसपास की असामान्य परिस्थितियों पर 2017 में मीडिया में सनसनीखेज खुलासे ने उस समय देश में काफी हंगामा मचा था। अपनी मृत्यु के समय जज लोया एक ऐसे मामले की सुनवाई कर रहे थे, जो गुजरात पुलिस द्वारा सोहराबुद्दीन शेख नामक एक कथित जबरन वसूली करने वाले शख़्स, और उनके एक ज्ञात सहयोगी की हत्या के साथ साथ-साथ उसकी पत्नी,कौसर बी के बलात्कार और हत्या की कथित न्यायेत्तर हत्याओं से जुड़ा हुआ था। 

गुजरात पुलिस के ख़िलाफ़ इस मामले में मौजूदा केंद्रीय गृह मंत्री,अमित शाह के फंसने की संभावना भी थी, जो कथित हत्याओं के समय गुजरात के गृह मंत्री थे। जज लोया की कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने से नागपुर के एक होटल में मौत हो गयी थी, जबकि अपनी मौत के कुछ दिनों बाद ही उन्होंने शाह को उस मामले की चल रही कार्यवाही में उनके सामने उपस्थित होने के लिए समन जारी किया था।

जज लोया की मौत की जांच की मांग करने वाली दो अलग-अलग याचिकायें सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं। इन दोनों याचिकाओं को एक साथ जनवरी 2018 में न्यायमूर्ति मिश्रा और न्यायमूर्ति मोहन शांतनगौदर से गठित खंडपीठ के सामने रखा गया था।

यह सूची उन दूसरी सूचियों में एक थी,जिनके ख़िलाफ़ एक अभूतपूर्व प्रतिक्रिया देखने को मिली थी और वह प्रतिक्रिया थी-सीजेआई न्यायमूर्ति मिश्रा के बाद के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की तरफ़ से एक अभूतपूर्व मीडिया कॉन्फ़्रेंस का आयोजित किया जाना और एक पत्र जारी किया जाना,जो उन्होंने मीडिया को लिखा था। उन चार न्यायाधीशों ने न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा को सुप्रीम कोर्ट के मानदंडों और प्रक्रियाओं का उल्लंघन करते हुए सौंपे गये कई मामलों पर ध्यान आकर्षित किया था और साथ ही उन्होंने जिस तरह से सीजेआई की तरफ़ से मामलों का आवंटन किया गया था और "मास्टर ऑफ़ रोस्टर"( यह तय करने का अधिकारी कि कौन से केस की सुनवाई किस जज की बेंच करेगी) के रूप में बेंचों का गठन किया गया था,उसे लेकर अपनी कई चिंताओं को उठाया था।

उन चार न्यायाधीशों में से एक, जो बाद में ख़ुद भी सीजेआई बने, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने पत्रकारों के सामने स्वीकार किया कि न्यायाधीश लोया मामले की सूची उन कारकों में से एक थी,जिनके चलते उस ग़ैर-मामूली क़दम को उठाने के लिए  उन्हें मजबूर होना पड़ा था। कुछ दिनों बाद, जज लोया के मामलों को फिर से एक अलग बेंच को सौंप दिया गया।

अडानी पॉवर राजस्थान मामला

इस समय न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ के सामने जो मामला चल रहा है, उसमें जस्टिस विनीत सरन और मुकेश शाह भी शामिल हैं, वह उस विद्युत अपीलीय न्यायाधिकरण (APTEL) के एक नियामक निर्णय को अपील करने वाली उन तीन संयुक्त याचिकाओं पर आधारित है, जिसने अडानी पॉवर लिमिटेड की सहायक कंपनी, अडानी पॉवर राजस्थान लिमिटेड (APRL) को "क्षतिपूरक टैरिफ़" दी, जिसकी क़ीमत तक़रीबन 5,000 करोड़ रुपये थी।

(इसके बाद वाले एक लेख में हम विस्तार से इस मामले की परिस्थितियों और पृष्ठभूमि के बारे में बतायेंगे और यह उसी का एक सरल संक्षिप्त विवरण है।)

अडानी पॉवर राजस्थान लिमिटेड (APRL) ने 2013 के बाद से राजस्थान में वितरण संस्थाओं द्वारा इसे भुगतान किये गये बिजली टैरिफ़ में बढ़ोतरी की मांग की है। इसका तर्क यह है कि जब यह टैरिफ़ शुरू में एक प्रतिस्पर्धी नीलामी के आधार पर तय किये गये थे, जिसमें एपीआरएल सबसे कम क़ीमत पर बिजली बेचने के लिए प्रतिबद्ध थी, तब इसने एक निश्चित मूल्य पर भारत सरकार से कोयले की आपूर्ति के एक आश्वासन के आधार पर अपनी बोली लगायी थी।

लेकिन,सरकार कोयले की आपूर्ति करने में नाकाम रही, जिसके परिणामस्वरूप एपीआरएल को इंडोनेशिया से आयातित कोयले का उपयोग करते हुए अपना संयंत्र चलाना पड़ा। लेकिन, 2010 में उस इंडोनेशिया की सरकार द्वारा पारित एक क़ानून के कारण इंडोनेशियाई कोयला काफ़ी महंगा हो गया। एपीआरएल का तर्क है कि यह बिजली उपभोक्ताओं को इंडोनेशियाई कोयले की अतिरिक्त लागत वाली यह "बाहरी" क़ीमत पहले से सहमत स्तर के टैरिफ़ से कहीं ज़्यादा है और बढ़ी हुई क़ीमत हासिल करने का उसे हक़ है।

एपीआरएल की इस मांग को पहली बार 2013 में राजस्थान विद्युत नियामक आयोग (आरईआरसी) के पास ले जाया गया था, तब से यह क़ानूनी व्यवस्था में हिचकोले खाती रही है। पांच वर्षों में सुनवाई की लंबी खींची प्रक्रिया में आरईआरसी का जो शुरुआत फ़ैसला 2018 में आया था, उसमें अडानी के तर्क को स्वीकार कर लिया गया था। उसमें  तर्क दिया गया था कि कंपनी को भेजा गया एक पत्र यह दर्शाता है कि सरकार ने इसके बिजली संयंत्र की आपूर्ति के लिए एक कोल ब्लॉक आवंटित करने का इरादा जताया था, इसे लेकर एक दृढ़ प्रतिबद्धता जतायी गयी थी, लेकिन उस प्रतिबद्धता से दूर होते हुए उस "क़ानून में बदलाव" कर दिया गया, और इसके लिए एपीआरएल को मुआवज़ा दिया जाना चाहिए।

आरईआरसी के इस आदेश को एपीटीईएल के सामने चुनौती दी गयी थी, जिसने सितंबर 2019 में आरईआरसी के फ़ैसले को बरक़रार रखते हुए अपना फ़ैसला सुनाया और अडानी समूह की कंपनी को "क्षतिपूरक टैरिफ़" के तौर पर 5,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की रक़म बिजली वितरण संस्थाओं को भुगतान करने का आदेश दिया।

एपीटीईएल के इसी फ़ैसले के ख़िलाफ़ दी गयी चुनौती, न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के सामने आने वाला मामला है। इस पीठ के सामने रखी गयी तीन याचिकाओं में से एक याचिका जोधपुर और जयपुर शहरों के लिए वितरण संस्थाओं के साथ-साथ बड़ी राजस्थान राज्य बिजली वितरण संस्थान की तरफ़ से दायर की गयी है, जबकि बाक़ी दो याचिकायें ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फ़ेडरेशन (AIPEF) की और से दायर की गयी हैं।

बिजली क्षेत्र की सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों के कर्मचारियों के प्रतिनिधि संगठन,एआईपीईएफ़ ने 2019 से इस मामले की कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की मांग की, हालांकि एपीटीईएल द्वारा इस पर सुनवाई की जा रही थी। उच्चतम न्यायालय द्वारा एक अलग मामले में उपभोक्ताओं के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दिये जाने के बाद इस महासंघ ने बिजली उपभोक्ताओं और बिजली वितरण संस्थाओं के हितों के प्रतिनिधि के रूप में हस्तक्षेप करने की मांग की थी।

एआईपीईएफ़ के इस हस्तक्षेप की मांग को एपीटीईएल द्वारा अपना अंतिम फ़ैसला जारी करने से पहले ही खारिज कर दिया गया, और इस प्रकार, अपनी मांग को खारिज किये जाने के ख़िलाफ़ उच्चतम न्यायालय के समक्ष महासंघ की अपील को एआईपीईएफ़ की तीन-न्यायाधीशों की बेंच द्वारा मूल हस्तक्षेप याचिका के साथ शामिल कर लिया गया ।

अडानी के पक्ष में छ: फ़ैसले

वास्तव में तीन न्यायाधीशों वाली यह पीठ अगर अडानी पॉवर राजस्थान के पक्ष में फ़ैसला सुनाती है, तो यह सातवां अवसर होगा, जब न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा अडानी समूह के पक्ष में फ़ैसला दिया जायेगा।

29 जनवरी, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार के ख़िलाफ़ एक मामले में अडानी गैस लिमिटेड के पक्ष में फैसला दिया था। प्राकृतिक गैस वितरण नेटवर्क परियोजनाओं से जुड़ा हुआ यह वह मामला था,जिसे कंपनी उदयपुर और जयपुर में चला रही थी। राजस्थान सरकार द्वारा दिया गया अनापत्ति प्रमाणपत्र वापस ले लिया गया था और राज्य सरकार द्वारा अडानी गैस के एक आवेदन को नामंज़ूर कर दिया गया था।

लेकिन, जो पहले से ही अडानी गैस द्वारा अपेक्षित अनुमति के बिना कार्यों के साथ आगे बढ़ने में खर्च किये जा चुके थे, उन लागतों को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इन दोनों फ़ैसलों को पलट दिया था।

वरिष्ठ अधिवक्ता, दुष्यंत दवे ने अपने पत्र में इस बात का उल्लेख किया था कि इस मामले में इस याचिका को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की पीठ के सामने सूचीबद्ध किया गया था, जिन्होंने इस तथ्य के बावजूद आदेश दिया था कि सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीश, जिन्होंने पहले बेंचों के सदस्यों के रूप में काम किया था, जिन्होंने मामले की सुनवाई की थी, वे इस मामले की सुनवाई के लिए उपलब्ध भी थे। इसके अलावा, दवे ने बताया कि मामला उस श्रेणी का था,जिसे सुप्रीम कोर्ट की एक अलग बेंच को सौंपा गया था।

अगला ऐसा मौक़ा 2 मई, 2019 को था, जब न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और अब्दुल नज़ीर की एक पीठ ने टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड के ख़िलाफ़ एक मामले में अडानी इलेक्ट्रिसिटी मुंबई लिमिटेड के पक्ष में फ़ैसला दिया था।

अडानी इलेक्ट्रीसिटी मुंबई, जो उस आदेश के समय अडानी इलेक्ट्रिसिटी मुंबई, रिलायंस एडीएजी (अनिल धीरूभाई अंबानी समूह) से मुंबई में बिजली वितरण कारोबार का अधिग्रहण करने की प्रक्रिया में थी, उस आदेश का लाभार्थी थी, जिसने मांग के आरोपों को लेकर अपने और रिलायंस एडीएडजी के बीच लंबे समय से चल रहे विवाद में टाटा पॉवर के तर्कों को खारिज कर दिया था।

उदाहरण के तौर पर इस मामले का ज़िक़्र भी दवे के अपने उस पत्र में किया है, जहां न्यायमूर्ति मिश्रा की पीठ ने इस मामले को ले लिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा प्रक्रियाओं के तहत ऐसा होना नहीं चाहिए था।

इसी पीठ ने 16 जुलाई, 2019 को टाटा पॉवर द्वारा इसके पहले के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया।

7 मई, 2019 को न्यायमूर्ति मिश्रा और न्यायमूर्ति शाह की पीठ ने राजस्थान सरकार के स्वामित्व वाले बिजली उत्पादन फर्म, जिसे यह कोयले की आपूर्ति करती है, उसके ख़िलाफ़ एक मामले में उत्तरी छत्तीसगढ़ में परसा ईस्ट कांटा बसन कोयला ब्लॉक से खनन कोयले में काम करने वाली एक अडानी समूह की कंपनी, पारसा कांटा कोलियरीज लिमिटेड के पक्ष में फ़ैसला सुनाया।

इस मामले में भी दवे ने कहा कि इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन और इंदु मल्होत्रा की खंडपीठ द्वारा की जा रही थी, लेकिन न्यायमूर्ति मिश्रा की अध्यक्षता वाली ग्रीष्मकालीन अवकाश पीठ के सामने इस मामले को बिना किसी आदेश के सूचीबद्ध कर दिया गया।

इस मामले में एक मध्यस्थ फ़ैसला शामिल था,जो परसा कांटा के पक्ष में था, और जिसे राजस्थान उच्च न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया था। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को पलट दिया था और मध्यस्थ फ़ैसले को आंशिक रूप से बरक़रार रखा था।

इसके बाद, अडानी पॉवर मुंद्रा लिमिटेड और गुजरात इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन के बीच एक मामले में सुनवाई की मांग करते हुए 23 मई, 2019 को न्यायमूर्ति मिश्रा और शाह की उसी अवकाश पीठ के सामने एक प्रारंभिक सुनवाई की अर्जी दी गयी। इस मामले की सुनवाई अगले दिन जस्टिस मिश्रा, भूषण गवई और सूर्यकांत की खंडपीठ ने की और एक ही सुनवाई के बाद फ़ैसले को सुरक्षित रख लिया गया।

2 जुलाई, 2019 को सुनाये गये अपने आदेश में इस पीठ ने अडानी को गुजरात सरकार की वितरण संस्था को बिजली बेचने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक बोली के ज़रिये हासिल किये गये अनुबंध को रद्द करने की अनुमति इस आधार पर दी थी कि सरकारी स्वामित्व वाली कोयला खनन कंपनी अडानी पावर मुंद्रा को कोयला आपूर्ति प्रदान करने में विफल रही थी।

इन दो मामलों को लेकर दवे ने अपने पत्र में लिखा था: “…इन दोनों मामलों को बिना किसी औचित्य और हड़बड़ी और अनुचित तरीक़े से सूचीबद्ध किया गया था, हाथ में लिया गया था और उनकी सुनवाई की गयी थी। नतीजतन, सार्वजनिक हित और सार्वजनिक राजस्व को गंभीर नुकसान पहुंचाने के अलावा, इसने उच्चतम न्यायालय की छवि को भी भारी नुकसान पहुंचाया है…भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बड़े कॉर्पोरेट घराने के नियमित मामलों को गर्मियों की छुट्टी के दौरान जिस शीघ्रता से उठाया है,वह परेशान करने वाला है।”

दवे ने यह भी साफ़ किया कि वह ख़ुद ही पूर्व में अडानी समूह के मामलों में पेश हुए थे।

दवे के उस विस्फोटक पत्र को लेकर अडानी समूह के एक अनाम प्रवक्ता की प्रतिक्रिया यहां शब्दशः प्रस्तुत किया जा रहा है:

“श्री दवे का वह पत्र हमारे संज्ञान में आया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बिना उचित सत्यापन के माननीय शीर्ष अदालत और हमारी कंपनी के ख़िलाफ़ ग़लत और दुर्भावनापूर्ण बयान दिये गये हैं। मध्यस्थता वाला वह मामला अवकाश मामलों की सूची में था और सामान्य कार्यप्रणाली में सुनवाई का हिस्सा था। यह अवकाश के दौरान सूचीबद्ध किये जाने की निर्धारित प्रक्रिया के मुताबिक़ ही था। यह निश्चित किया गया था कि मध्यस्थता के इस मामले को शीघ्रता से स्थगित किये जाने की ज़रूरत है, इस मामले में पक्षकारों की सहमति से सूचीबद्ध किया जा सकता है, जो कि किया गया था। श्री दवे तो ख़ुद इस मामले में माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय के सामने हमारी तरफ़ से उपस्थित हुए थे। विरोधी पक्ष के अधिवक्ताओं को उचित नोटिस दिये जाने के बाद ही तत्काल सुनवाई को लेकर आवेदन करने के लिए उस बिजली मामले को सूचीबद्ध किया गया था। अडानी समूह के चार मामलों को लेकर उठाये गये ये आक्षेप पूरी तरह से ग़ैर-मुनासिब हैं।”

आख़िरकार, 22 जुलाई, 2020 को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली उस पीठ ने इस मामले में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी,पॉवर कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड के ख़िलाफ़ कोरबा वेस्ट पॉवर कंपनी लिमिटेड के पक्ष में फैसला सुनाया,जिसमें न्यायमूर्ति भूषण गवई और कृष्ण मुरारी भी शामिल थे।

कोरबा वेस्ट पॉवर प्लांट छत्तीसगढ़ में स्थित है और जिसे अप्रैल 2019 में अडानी समूह द्वारा अधिग्रहित किया गया था। इस मामले में पॉवर ग्रिड कॉर्पोरेशन द्वारा दावा, जो कि नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के एक आदेश के खिलाफ अपील थी, पावर प्लांट के पिछले मालिक अवंता पॉवर के ख़िलाफ़ एक इनसॉल्वेंसी क्लेम को लेकर इस बेंच ने एक ही सुनवाई में खारिज कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि (न्यायाधिकरण के) फ़ैसले में "हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं" मिला है। ट्रिब्यूनल ने पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन द्वारा किये गये दावे के उस आधार को ही खारिज कर दिया था,जिस कारण से उसने भुगतान का दावा किया था।

आगामी आदेश की अहमियत

जैसा कि हम अगले लेख में विस्तार से बतायेंगे कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस मामले में गुजरात के मुंद्रा में 4,620 मेगावाट क्षमता की बिजली परियोजना के लिए अडानी पॉवर द्वारा अपने एक अन्य संयंत्र के लिए इंडोनेशिया से कोयले के आयात के मुद्दे पर पहले के फ़ैसले की रौशनी में और ज़्यादा अहमियत किस तरह रखता है।

इस मामले में न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन की अगुवाई वाली एक सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में प्रतिस्पर्धी नीलामियों के ज़रिये निर्धारित टैरिफ़ के पीछे एक बुनियादी सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए अडानी के क्षतिपूरक टैरिफ(Compensatory Tariffs) के दावे को खारिज कर दिया।

विद्युत अधिनियम, 2003,जिसके तहत इस तरह की नीलामी होती है, उसके विधायी अभिप्राय की बारीक़ जांच-पड़ताल करते हुए अप्रैल 2017 के फ़ैसले ने यह तय कर दिया था कि एक निश्चित टैरिफ़ स्तर पर जो बोली लगती है, उसमें ईंधन सहित निवेश की लागत में आने वाले उतार-चढ़ाव के जोखिम भी शामिल होते हैं, और इसलिए बाद में निवेश लागत में वृद्धि के लिए मुआवजे की मांग नहीं की जा सकती है। अडानी राजस्थान मामले में एपीटीईएल का यह फ़ैसला इस सिद्धांत के उलट दिखता है।

यदि इस अपील को बरक़रार रखा जाता है और क्षतिपूरक टैरिफ़ को कम किया जाता है,तो न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली पीठ द्वारा दिया गया फ़ैसला 2017 के आदेश के सिद्धांत को मज़बूती देने का काम कर सकता है। अगर यह अपील को ख़ारिज हो जाता है और अडानी समूह के पक्ष में इस क्षतिपूरक टैरिफ़ को मंज़ूर कर लिया जाता है, तो यह न्यायमूर्ति नरीमन के 2017 के आदेश का खंडन करते हुए न्यायशास्त्रीय अस्पष्टता पैदा कर सकता है।

(जारी है...)

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

Have Justice Arun Mishra’s Judgements Helped Adani Group?

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