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मज़दूर वर्ग को सनस्ट्रोक से बचाएं
सरकारों और श्रम विभागों को नियम बनाना चाहिए कि जहां बाहर काम किया जाता है, वहां एक अस्पताल, नर्सिंग होम या क्लिनिक की व्यवस्था अवश्य हो जहां सनस्ट्रोक वाले कुछ रोगियों को आपातकालीन उपचार प्रदान किया जा सके । सरकारों को भी चाहिए सुबह 11.00 बजे से दोपहर 3.00 बजे के बीच 40 डिग्री से ऊपर भीषण गर्मी में काम पर प्रतिबंध लगा दें।
बी. सिवरामन
19 May 2022
heat wave

50 वर्षीय राजिंदर यादव प्रयागराज में कचरा बीनने वाले हैं। 1 मई 2022 को उन पर एक त्रासदी आई। उनका 18 वर्षीय बेटा सड़क पर काम करने वाला मजदूर था। उसे काम के दौरान मतली और सिर में चक्कर आने का एहसास हुआ। दोपहर तक उसने अपना काम बंद कर दिया। घर आया और बेचैनी महसूस करते हुए लेट गया। शाम को जब उसकी मां ने उसे चाय के लिए जगाने की कोशिश की तो वह नहीं उठा। उसकी मृत्यु हो गई थी। सनस्ट्रोक की वजह से एक नौजवान की जान चुकी थी।

अब राजिंदर को डर है कि वह भी जल्द ही अपने बेटे की तरह  चले जाएंगे। उन्हें प्रयागराज के रसूलाबाद इलाके में लगभग 450 घरों से कचरा इकट्ठा करना होता है। यद्यपि वह सुबह 7.00 बजे काम शुरू करते हैं और दोपहर 1.00 बजे तक काम करना पड़ता है। मेरी तरह कई मजदूरों की यही मुश्किल है कि उन्हें 40 डिग्री से ज्यादा गर्मी में काम करना पड़ता है।

यह कहते हुए कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है, उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि अगर वह कुछ घंटों के लिए आराम करेंगे तो वह सौ या अधिक घरों से कचरा इकट्ठा नहीं कर पायेंगे। उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा। उन्होंने एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी की:  बेरोजगारी से मरना धूप से मरने से बेहतर तो नहीं हैं!

तमिलनाडु के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के तीन निदेशालयों में से एक से जुड़े एक औद्योगिक और व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. मणिवेलन राजमनिक्कम ने न्यूज़क्लिक को बताया, “सनस्ट्रोक आमतौर पर तब होता है जब तापमान का स्तर 44-45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। लेकिन यह हमेशा मौत की ओर नहीं ले जाता है। यदि सनस्ट्रोक के लक्षण  वाले रोगी को उचित प्राथमिक उपचार दिया जाए और उसे तुरंत नजदीकी चिकित्सा केंद्र में ले जाया जाए, तो वह उचित उपचार पाकर जीवित रह सकता है। सरकारों और श्रम विभागों को नियम बनाना चाहिए कि जहां बाहर काम किया जाता है, वहां एक अस्पताल, नर्सिंग होम या क्लिनिक की व्यवस्था अवश्य हो जहां सनस्ट्रोक वाले कुछ रोगियों को आपातकालीन उपचार प्रदान किया जा सके । सरकारों को भी चाहिए सुबह 11.00 बजे से दोपहर 3.00 बजे के बीच 40 डिग्री से ऊपर भीषण गर्मी में काम पर प्रतिबंध लगा दें।'

इस वर्ष उत्तर भारतीय शहरों में तापमान पिछले 122 वर्षों में रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया है, नई दिल्ली 49 डिग्री सेल्सियस को छू रहा है। एनसीआर क्षेत्र के अन्य शहरी केंद्रों में अधिकतम तापमान 46-47 डिग्री सेंटीग्रेड के आसपास मँडरा रहा था ( चित्र 1)। दिल्ली के अस्पताल सनस्ट्रोक के मरीजों की बड़ी संख्सा से निपटने के लिए काफी मशक्कत कर रहे थे।  

16 मई 2022 को नई दिल्ली के आसपास अधिकतम तापमान

हीटवेव जितनी तीव्र होती है, हीट स्ट्रोक के कारण उतने अधिक लोगों की मृत्यु होती है।
2010 से 2019 तक पूरे भारत में हीट स्ट्रोक के कारण होने वाली मौतों की संख्या

किस स्तर की लंबी गर्मी का दौर जीवन के लिए खतरा हो सकता है?

डॉ. प्रभात पात्रा जापान एजेंसी फॉर मरीन-अर्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (JAMSTEC) के ग्लोबल चेंज रिसर्च इंस्टीट्यूट अर्थ सरफेस सिसटेम रिसर्च सेंटर (Global Change Research Institute, Earth Surface System research Centre) के प्रधान वैज्ञानिक हैं। वह जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी (IPCC) की रिपोर्ट के योगदानकर्ताओं में से एक हैं।उन्होंने न्यूज़क्लिक को सूचित किया कि लंबे समय तक 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर की गर्मी में सौ दिनों तक रहने से हाइपरथर्मिया से मृत्यु हो सकती है (नीचे ग्राफिक देखें)। मध्य मार्च से मध्य जून तक के दिन उत्तर भारत के साथ-साथ मध्य भारत और दक्कन में सबसे गर्म दिन होते हैं।

मानव शरीर कितना गर्म तापमान सहन कर सकता है?

प्रो. प्रबीर पात्रा ने न्यूज़क्लिक को भारत के शहरी कंक्रीट के जंगलों में ‘हीट आइलैंड्स’ के प्रभाव के बारे में भी बताया। एक हीट आइलैंड एक शहर के भीतर एक एन्क्लेव है जहां तापमान पड़ोस से काफी ऊपर उठता है। यह ऊंची-ऊंची कंक्रीट संरचनाओं द्वारा हरित आवरण के संवेदनहीन विनाश के कारण होता है। उन्होंने बताया, “उचित ताप नियंत्रण शहरी नियोजन को हमारी दीर्घकालिक योजना का हिस्सा बनाना अत्यावश्यक है। मुझे याद है कि बचपन में हम बरगद या आम के पेड़ों के नीचे ठण्डक का अनुभव करते थे। शहरों में लोगों के लिए कंक्रीट जंगलों से बाहर निकलने और कुछ राहत पाने के लिए जगह होनी चाहिए।“

ऊष्मा द्वीपों की परिघटना

ऊष्मा द्वीप -नासा चित्र

जलवायु परिवर्तन और गर्मी की लहरें

न्यूज़क्लिक ने इस ज्वलंत मुद्दे पर सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंसेज (Centre for Informatic Sciences) IIT दिल्ली के डॉ.सग्निक डे से भी सलाह ली। यह पूछे जाने पर कि हरित आवरण को बढ़ाने जैसे उपायों से किस हद तक मदद मिलेगी, डॉ. डे ने कहा, "साहित्य बताता है कि हरित आवरण में वृद्धि निश्चित रूप से हीटवेव को कम कर सकती है, लेकिन यह अनुमान लगाने के लिए व्यवस्थित अध्ययन की कितनी आवश्यकता है और इस तरह के संबंध अन्य कारकों पर भी निर्भर करते है। भारत में हमारे पास छह जलवायु क्षेत्र हैं। मेरा मानना है कि जलवायु क्षेत्रों में भारतीय शहरों के लिए इनकी मात्रा निर्धारित करने के लिए हमें अध्ययन की आवश्यकता है।"

यह पूछे जाने पर कि क्या तापमान में वृद्धि केवल जलवायु परिवर्तन के कारण है और क्या केवल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (GHG emission) में कटौती करने से मुख्य रूप से समस्या का समाधान हो सकता है, डॉ. डे की प्रतिक्रिया थी: "गर्मी का तनाव (stress) जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष प्रभावों में से एक है। हालांकि, गर्मी का तनाव न केवल तापमान पर निर्भर करता है, बल्कि RH (सापेक्षिक आर्द्रता), हवा और विकिरण के सीधे संपर्क जैसे पर्यावरणीय कारकों पर भी निर्भर करता है। इसके अलावा पहनावे के पैटर्न और  गतिविधियां (metabolic stress से संबंधित) समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।"

उन्होंने आगे कहा कि, "GHG उत्सर्जन को कम करना एक दीर्घकालिक स्थायी समाधान है। हालांकि, भले ही आप किसी भी GHG का उत्सर्जन बंद कर दें, तापमान कई दशकों तक बढ़ने वाला है। इसलिए, हमें गर्मी प्रबंधन योजना की आवश्यकता है ताकि जनता स्थिति के अनुकूल अपने को ढाल सकती है। इसमें  शामिल है काम के घंटे बदलना, व्यक्तिगत/संस्थागत स्तर पर हस्तक्षेप, ढांचागत हस्तक्षेप (आश्रय), प्राकृतिक हस्तक्षेप (उदाहरण के लिए, हरित आवरण को बढ़ाना), सांस्कृतिक/व्यवहार संबंधी हस्तक्षेप (उदा. पहनावे में परिवर्तन) आदि।"

"हमें इन विभिन्न हस्तक्षेपों को एकीकृत करने के लिए एक व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता है" स्वास्थ्य पर गर्मी का प्रभाव दिखाने के लिए एक ढांचा तैयार करना और फिर इन विभिन्न हस्तक्षेपों के लाभ का प्रदर्शन करना।''

इसलिए सरकारें जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी नहीं ले सकतीं और श्रमिकों को अत्यधिक गर्मी से बचाने जैसे कुछ तत्काल उपायों के लिए अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकतीं।

मजदूरों की गर्मी का सामना करें सरकारें

हिंदुस्तान टाइम्स के डेटा पत्रकार अभिषेक झा और रोशन किशोर ने उन श्रमिकों की उन श्रेणियों की पहचान की, जो बाहर काम करते हैं जैसे कि खेतिहर मजदूर, निर्माण श्रमिक, खदान श्रमिक, सड़क पर काम करने वाले, फेरी लगाने वाले, डिलीवरी कर्मचारी, और इसी तरह। श्रम ब्यूरो के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) डेटा का उपयोग करके उन्होंने बाहर काम करने वाले श्रमिकों की हिस्सेदारी की गणना की। वे चिलचिलाती गर्मी में बाहर काम करने वाली भारतीय श्रम शक्ति के 49% के आंकड़े पर पहुंचे। एक विचित्र संयोग से, नई दिल्ली में तापमान भी 49 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जो मानव सहनशक्ति और अस्तित्व की सीमा से परे था।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत हीटवेव को आपदा के रूप में शामिल नहीं किया गया है। इसलिए लू लगने से मरने वाले श्रमिकों को सरकार की ओर से अनुग्रह राशि नहीं मिल रही है। चेन्नई में निर्माण मजदूरों की एक अनुभवी नेता आर.गीता कहती हैं कि निर्माण मजदूर जैसे अनौपचारिक श्रमिक ईएसआई अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते हैं और इसलिए उन्हें ईएसआई अस्पतालों में हीटस्ट्रोक का इलाज नहीं मिल सकता है। आयुष्मान भारत गर्मी-तनाव से संबंधित बीमारियों को कवर नहीं करता है और इसलिए सूचीबद्ध निजी अस्पताल उन श्रमिकों को भर्ती नहीं करते हैं जिन्हें हीटस्ट्रोक का सामना करना पड़ा है। कामगार मुआवजा अधिनियम के तहत, श्रमिकों को केवल काम के दौरान लगी चोटों के लिए प्रतिपूर्ति की जाती है, न कि सनस्ट्रोक के लिए। श्रमिकों को स्वास्थ्य बीमा के तहत कवरेज तभी मिलेगा जब वे उच्च-प्रीमियम मेडिक्लेम पॉलिसी लेंगे और कम-प्रीमियम समूह स्वास्थ्य बीमा योजनाएं गर्मी से संबंधित बीमारियों को कवर नहीं करती हैं।

केंद्र जुलाई 2021 में स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों पर एक राष्ट्रीय कार्य योजना के साथ आया और 23 राज्य सरकारों ने मई 2022 के पहले सप्ताह तक हीटवेव के लिए स्वास्थ्य कार्य योजना तैयार की है। लेकिन ये मुख्य रूप से स्कूलों को कवर करते हैं और बाहर काम करने वाले श्रमिकों के लिए विशेष उपाय शामिल नहीं करते हैं। फ्लेक्सी काम के घंटे की तरह। इसलिए सत्ता में बैठे लोग मजदूरों, विशेषकर अनौपचारिक श्रमिकों को अधर में छोड़ देते हैं।

नई दिल्ली सर्दियों में असहनीय वायु प्रदूषण और गर्मियों में लू से एक शापित शहर बनता जा रहा है। इसका खामियाजा मजदूर वर्ग-खासकर बाहरी मजदूरों को भुगतना पड़ता है। अफसोस की बात है कि उनमें से ज्यादातर भाजपा शासित यूपी और एनडीए शासित बिहार के गरीब प्रवासी हैं। इससे पहले कि दिल्ली के कामगारों में लू से होने वाली मौतों की तुलना मुंबई में महामारी की तबाही और चेन्नई में बाढ़ के कहर से की जाए। ट्रेड यूनियनों को इस मुद्दे को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर लाना चाहिए और सरकारों को कार्रवाई करने के लिए मजबूर करना चाहिए। केवल इस तरह वे हजारों श्रमिकों की जान बचा सकते हैं।

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