Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हिमालय दिवस: पहाड़ी महिलाओं ने संभाली हिमालयी हरियाली

रामेश्वरी नेगी का नन्हा बेटा वहीं सीढ़ियों पर बैठा किताब के पन्ने उलट-पुलट रहा है। मैं उससे पूछती हूं- तुम क्या सोचती हो, बड़ा होकर तुम्हारा बेटा क्या बने? जवाब मिलता है- हमारे पास इतने पैसे तो नहीं कि इसे डॉक्टर-इंजीनियर बना सकें। हम चाहते हैं कि ये अच्छा किसान बने। अपने खेतों को बंजर न छोड़े।
Tehri Bharvakatal Village
टिहरी के भरवाकाटल गांव का दृश्य

देहरादून से टिहरी के जौनपुर ब्लॉक की ओर बढ़ते हुए रास्ते में पहाड़ से छिटके पत्थर बताते हैं कि हम दुनिया की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला के बीच से गुज़र रहे हैं। जिसके पहाड़ अभी स्थिर नहीं हुए हैं। मानसून में बारिश के साथ  पहाड़ से गिरते पत्थर जानलेवा हो जाते हैं। हल्की बूंदाबांदी के बीच भरवाकाटल गांव की ओर पहाड़ी से उतरते हुए चारों तरफ सब कुछ हरा-हरा दिखाई देता है। इस गांव में पहाड़ी से उतरते पानी के सोते की गूंज हर समय सुनाई देती है। पानी की ये धुन कुदरत की नेमत की तरह है। इस सोते से लोगों के साथ खेतों की भी प्यास बुझती है।

गांव के नीचे बांदल नदी का शोर गूंजता है। किसान महिलाएं कहती हैं कि नदी हमारे किसी काम नहीं आती। हमारी जरूरत तो पहाड़ की दरारों से निकल कर आते पानी के सोते से पूरी होती है। भरवाकाटल गांव की पहचान जैविक खेती के लिए है। सीढ़ीदार खेतों में बोई गई धान की फसल ज़मीन से हाथ भर ऊपर उठ चुकी है। एक तरफ हल्दी के बड़े-बड़े पत्तों के बीच धूप-छांव जैसे आपस में खेल रहे हों। खीरे की बेलें चढ़ी हैं। तो लौकी की लताएं जैसे आपस में ही लिपट गई हों। तोरी, भिंडी, बैंगन समेत सीजन की सारी सब्जियां यहां मुस्कुरा रही हैं। लेकिन टमाटर की फसल इस बार बिगड़ गई। उनमें कीड़े लग गए। खेतों में मुस्कुराती सब्जियां यहां की महिलाओं की मेहनत का नतीजा हैं।

bharvakatal village 1.png

भरवाकाटल गांव की किसान महिलाएं बन रही मिसाल

यहां महिलाएं ही खेती-बाड़ी से जुड़ा ज्यादातर काम करती हैं। गांव के पुरुष नौकरी या रोजगार के लिए बाहर रहते हैं। स्थानीय संस्था हेस्को ने यहां एक कमरेनुमा कम्यूनिटी सेंटर बनाया है। जहां महिलाएं इकट्ठा होकर खेती-किसानी से जुड़ी समस्याओं पर बात करती हैं। किसान शकुंतला नेगी बताती हैं कि पहले वे सभी गेहूं-मंडुवा समेत पारंपरिक फसलें ही उगाया करते थे। लेकिन जलवायु परिवर्तन का असर उनके खेतों पर भी पड़ने लगा। बेमौसम बारिश से खेती की मुश्किलें बढ़ गई। पारंपरिक फसलों का एक लंबा चक्र होता है। उस पर कभी तेज़ बारिश तो कभी सूखे की मार पड़ जाती है। इससे होने वाली आमदनी से घर की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थी। लंबे समय की फसल को छोड़ महिलाओं ने मौसमी सब्जियां उगानी शुरू की। जिसकी फसल जल्दी तैयार होती है। जल्दी आमदनी होती है। नुकसान अपेक्षाकृत कम।

मेहनत हम करते हैं मुनाफा कोई और लेता है

भरवाकाटल गांव की जैविक सब्जियां बिक्री के लिए देहरादून के बाजार आती हैं। महिलाएं कहती हैं कि बाजार में जिस रेट पर सब्जी मिलती है, हमें वो रकम नहीं मिलती। हम तो पास के आढ़त को सब्जी बेचते हैं। वो देहरादून के बाज़ार में सब्जियां बेचता है। किसान और बाज़ार के बीच की ये दूरी उनकी मेहनताने को कम कर देती है। वे अपने पॉलीहाउस भी दिखाती हैं। जो अभी नया ही बना है। इसमें सब्जियों की नर्सरी तैयार हो रही है।

women farmer of bharvakatal.pngबंदर भगाने में दिन गुज़र जाता है

किसान महिलाओं की दूसरी बड़ी समस्या जंगली सूअर और बंदर हैं। ऊषा कहती हैं कि घर का काम निबटा कर हम खेतों में पहुंचते हैं और खेत से फिर वापस घर के काम में जुट जाते हैं। हमें अपने बच्चों की देखरेख भी करनी होती है। सूअर के झुंड रात के समय खेतों पर हमला करते हैं तो बंदर दिन में हुड़दंग मचाते हैं। अब कितनी बार बंदरों को भगाएं। एक-एक बंदर भगाना आसान नहीं होता। जंगली जानवरों के बढ़ते हमले पहाड़ों में खेती छोड़ने की बड़ी वजहों में से एक हैं। जंगली जानवरों के हमलों से फसल को होने वाले नुकसान के चलते पहाड़ के युवा खेत बंजर छोड़ नौकरियों के लिए महानगरों की ओर जा रहे हैं। हालांकि कोरोना का कहर एक बार फिर उन्हें अपने गांवों की ओर ले आया है।

खेती और अकाउंटिंग भी

हेस्को संस्था की वनस्पति विज्ञानी डॉ. किरन नेगी कहती हैं कि हमने भरवाकाटल गांव को एक मॉडल के तौर पर तैयार किया है। यहां महिलाएं बिना किसी रासायनिक खाद के खेती करती हैं। वे खेतों में हाथों से चलने वाला ट्रैक्टर भी दौड़ाती हैं। हमने खेती से जुड़ी जानकारियां उनके साथ साझा कीं। इसके साथ ही महिलाओं को अचार बनाने और जूस बनाने और उसकी पैकिंग जैसे प्रशिक्षण भी दिए गए। महिलाएं बताती हैं कि ऑर्डर मिलने पर वे इस काम को करती हैं। इससे जो भी कमाई होती है वो उनके सामूहिक बैंक अकाउंट में जमा होता है। अगले ऑर्डर की तैयारी के लिए इस रकम का इस्तेमाल किया जाता है।

बदलती जलवायु के साथ बदलना होगा

दरअसल भरवाकाटल गांव बदलते जलवायु के अनुसार खुद को तैयार करने की कोशिश कर रहा है। जलवायु परिवर्तन का असर मैदानी हिस्सों से ज्यादा हिमालयी क्षेत्र पर पड़ता है। क्योंकि मुश्किल भौगोलिक परिस्थितियों के साथ हिमालयी क्षेत्र प्राकृतिक तौर पर ज्यादा संवेदनशील हैं। पुरुष आबादी रोजगार की तलाश में बाहर निकल रही है। संयुक्त राष्ट्र की ये रिपोर्ट कहती है कि गांवों में रह गई, घरों और खेतों की ज़िम्मेदारी संभाल रही महिलाएं और बच्चे ही जलवायु परिवर्तन का पहला विक्टिम होते हैं। इससे उपजी चुनौतियां उन्हें ज्यादा झेलनी पड़ती है। नदी-गदेरे से पानी लाने या जंगल से लकड़ी लाने जैसे काम महिलाओं के ही हिस्से में आते हैं। इससे जुड़े जोखिम भी महिलाओं के होते हैं। उदाहरण के तौर पर उत्तराखंड में इसी वर्ष लकड़ी लाने के लिए जंगल गई तीन महिलाएं वहां आग की चपेट में आने से मारी गईं।   

जलवायु परिवर्तन का महिलाओं पर असर

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट यानी आईसीआईमॉड ने वर्ष 2019 की अपनी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन का हिमालयी क्षेत्र पर पड़ने वाले असर को लेकर विस्तृत अध्ययन किया। ये रिपोर्ट कहती है कि हिंदुकुश हिमालयी क्षेत्र में भोजन और पौष्टिक तत्वों को लेकर असुरक्षा एक बड़ी चुनौती है। इस क्षेत्र के 30 फीसदी लोग खाद्य असुरक्षा से जूझते हैं और 50 फीसदी से अधिक कुपोषण का सामना कर रहे हैं। इसमें महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक हैं।

महिलाओं को ध्यान में रखकर बनें हिमालयी नीतियां

वैज्ञानिकों-शोधार्थियों ने इन मुद्दों पर बहुत से अध्ययन किए हैं। जो ये कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्रों की चुनौतियों से निपटने के लिए महिलाओं को सक्षम बनाना होगा। इसके लिए राज्यों को अपनी नीतियां महिलाओं को ध्यान में रखकर तय करनी होंगी। उत्तराखंड में आमतौर पर कहा जाता है कि महिलाएं गांवों में नहीं रहना चाहती। वहां उनके सिर पर जिम्मेदारियों का इतना बोझा होता है कि वे शहरों की आराम वाली ज़िंदगी चाहती हैं। यानी हिमालयी महिलाओं के कार्य का बोझ हमें हलका करना होगा। उनकी सहूलियतों के बारे में सोचना होगा। इसमें एक अच्छी बात इस वर्ष ही हुई है। जुलाई महीने में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने राज्य में भूमि बंदोबस्त की घोषणा की। जिसमें महिलाओं को भी अपने पति के साथ ज़मीन पर मालिकाना हक दिया गया। ऐसा इसलिए ताकि किसान महिलाओं को बैंकों से आसानी से लोन मिल सके। ये बात अभी घोषणा के स्तर पर ही है।

पहाड़ में पहाड़ सा है जीवन

भरवाकाटल गांव की किसान महिलाएं अभी अपने छोटे-छोटे खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रही हैं। उपज अच्छी होती है तो उनके चेहरे खिलखिलाते हैं और उपज पर मौसम की मार पड़ती है तो पूरे परिवार की थाली इससे प्रभावित होती है। जाहिर तौर पर बजट भी। कुछ अन्य कामधंधा कर इनके पति परिवार चलाने में इनका हाथ बंटा रहे हैं। शकुंतला का नन्हा बेटा वहीं सीढ़ियों पर बैठा किताब के पन्ने उलट-पुलट रहा है। मैं उससे पूछती हूं- तुम क्या सोचती हो, बड़ा होकर तुम्हारा बेटा क्या बने?

जवाब मिलता है- हमारे पास इतने पैसे तो नहीं कि इसे डॉक्टर-इंजीनियर बना सकें। हम चाहते हैं कि ये अच्छा किसान बने। अपने खेतों को बंजर न छोड़े।

जंगलों के बीच ये खेत हरे-भरे रहेंगे तो हिमालय हरा-भरा रहेगा। धरती बंजर नहीं होगी। मिट्टी का प्रबंधन बेहतर होगा। बारिश का पानी भी ज़मीन की नमी बनाए रखेगा। सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ता है। हिमालय में लोग बचेंगे तभी हिमालय दिवस मनाएंगे।

(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest