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दीपदान: ...उस तट पर भी जा कर दिया जला आना

“एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं/ एक दिया उस लौकी के नीचे…”
Happy Diwali
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

दीपावली का त्योहार है। आज हम और आप सब मिलकर इस कामना के साथ दिये जला रहे हैं, कि हम सबके घर-बार रौशन हो जाए। दिलों से ज़ेहनों से अंधेरा दूर हो जाए। इसी सिलसिले में केदारनाथ सिंह ने दीपदान शीर्षक से एक बहुत प्यारी कविता लिखी है। आइए इसे पढ़ते हैं।  

दीपदान

 

जाना, फिर जाना,

उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,

पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,

उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल

बार-बार उलझ जाती हैं,

एक दिया वहाँ भी जलाना;

जाना, फिर जाना,

 

एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,

एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हे गेंदे ने

अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,

 

एक दिया उस लौकी के नीचे

जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है

एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है,

एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से

गड्ढा-सा दिखता है,

एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले

नये चावल का गंधभरा पानी फैला है,

 

एक दिया उस घर में -

जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं,

एक दिया उस जंगले पर जिससे

दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं

एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,

एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,

एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा

दिन-दिन भर सोता है,

 

एक दिया उस पगडंडी पर

जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,

एक दिया उस चौराहे पर

जो मन की सारी राहें

विवश छीन लेता है,

एक दिया इस चौखट,

एक दिया उस ताखे,

एक दिया उस बरगद के तले जलाना,

जाना, फिर जाना,

उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,

पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,

जाना, फिर जाना!

 

-    केदारनाथ सिंह

(साभार कविता कोश)

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