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इतिहास को कहानी की तरह सुनाना!

गृह मंत्री अमित शाह ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दो दिवसीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय इतिहासकारों को अब इतिहास को "भारतीय दृष्टिकोण” से लिखना चाहिए।
home minister amit shah

केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने वाली वर्तमान राजनीतिक ताक़त के बारे में एक बात अनोखी है। जिसके सब गवाह हैं कि कैबिनेट मंत्री, जो सामूहिक ज़िम्मेदारी के सिद्धांत से चलते हैं और उसकी उक्ति को उसकी सच्ची भावना के साथ लागू करते हैं। उसी प्रकार, यह बात भी असामान्य नहीं मानी जाती है जब फ़लाँ मंत्रालय वाला एक मंत्री फ़लाँ मंत्रालय से एक तत्काल मुद्दे के बारे में अपनी राय साझा करता है। इस तरह की प्रक्रिया इतनी सामान्य हो गई है कि जब हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह, जो उनके अनुयायियों के अनुसार भारत के नए 'आयरन मैन' हैं – को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए धन्यवाद देते हैं, वे 'इतिहास पुनर्लेखन' की आवश्यकता पर अपने विचार रखते हैं तो उस पर किसी की भी भौंहें नहीं उठती है।

किसी एक भी टिप्पणीकार ने यह नहीं पूछा कि गृह मंत्री जो जैव रसायन में स्नातक हैंजो स्टॉकब्रोकर रहे और सहकारी बैंकों में काम किया है  [Sheela Bhatt, "What Amit Shah's fall really means", July 28, 2010] उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास के एक विषय पर दो दिवसीय संगोष्ठी का उद्घाटन करने के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के रूप में पाया गया और वहाँ उन्होंने अपने ज्ञान के सागर से मोती बांटे। उनका इस बात पर सबसे अधिक ज़ोर था कि भारतीय इतिहासकारों को "भारतीय परिप्रेक्ष्य में इतिहास को फिर से लिखना चाहिए"। संगोष्ठी विषय पाँचवीं शताब्दी के सम्राट स्कंदगुप्त विक्रमादित्य पर केन्द्रित था।

दिलचस्प बात यह है कि यह उस समय थोड़ा अजीब सा लगा, जब 'इतिहास के पुनर्लेखन' के बारे में या 'वामपंथी' इतिहास के पूर्ण तिरस्कार की बात करते हुए विद्वानों के समक्ष हिंदू राष्ट्र के प्रस्तावक विनायक दामोदर सावरकर को एक अनुकरणीय और बलिदानी के रूप में प्रस्तुत करते हुए, अमित शाह इसके लिए किए गए पहले के प्रयासों को पूरी तरह भूल गए।

क्या चुप्पी इतनी अनजान थी?

सनद रहे, जब भारतीय जनता पार्टी ने पहली बार केंद्र में सत्ता की बागडोर संभाली थी तब से दो दशक से अधिक का समय बीत गया है जब प्रो मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री होते थे। उन्होंने इतिहास का 'भारतीयकरण' करने का बीड़ा उठाया था। तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो केएस सुदर्शन से आदेश के साथ पाठयक्रम से "हिंदू विरोधी और यूरो-भारतीयों" को बाहर निकालने के बारे में कयास लगाए गए थे, उसके साथ ही हिंदुत्व की बहिष्कृत छवि में सुधार करने के लिए शैक्षिक पाठ्यक्रम को दोबारा से तैयार करने की कोशिश की गई थी। 

1999 में इंडियन काउंसिल ऑफ़ हिस्टोरिकल रिसर्च के उस प्रखयात प्रोजेक्ट 'टुवार्ड्स फ़्रीडम' को भाजपा सरकार ने रोक दिया था, जिसे सुमित सरकार और केएन पणिक्कर जैसे प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा संपादित किया जा रहा था - क्योंकि इसमें आरएसएस और हिंदू महासभा के उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ और आज़ादी के लिए संघर्ष के दौरान उनकी भूमिका के बारे में पर्याप्त दस्तावेज़ी सबूत शामिल थे- जो इतिहास के 'भारतीयकरण' का एक महत्वपूर्ण क्षण था।

वर्ष 2001 में, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने इस आधार पर निर्धारित पाठ्य पुस्तकों से उस सामग्री को हटाने का फ़ैसला किया जो कथित रूप से किसी ख़ास धार्मिक संप्रदाय या समुदाय की भावनाओं को आहत करती थीं। इस बारे में एक प्रतिनिधिमंडल जोशी से मिला और मांग की कि इन पाठ्यपुस्तकों के संपादकों-यानी उन विषयों के प्रसिद्ध विद्वान-अर्थात् प्रोफ़ेसर रोमिला थापर, आरएस शर्मा और अन्य को सलाखों के पीछे डाल दिया जाए, और जोशी को यह स्वीकार करने में कोई हिचक हुई कि 'अकादमिक आतंकवादी' सशस्त्र आतंकियों की तुलना में अधिक ख़तरनाक हैं।

इस 'पुनर्लेखनका मक़सद मूल रूप से यह साबित करना है कि हिंदू संस्कृति भारत के गर्भ से निकली है और चूंकि इसकी उत्पत्ति आर्यों से जुड़ी हुई थीइसलिए वे उपमहाद्वीप के मूल निवासी हेंवेदों की रचना लगभग 9,000 बीसीई के आसपास हुई थी और महाभारत की लड़ाई 2,000 ईसा पूर्व में लड़ी गई थी आदि आदि। (The Making of India : Political History, Routledge, p. 334) । वैदिक गणित और वैदिक ज्योतिष जैसे नए पाठ्यक्रमों को भी हिंदू धर्म की अत्याधिक महिमा के रूप में पेश किया गया था।

शिक्षा के 'भारतीयकरण' की इस परियोजना का शुद्ध प्रभाव निश्चित रूप से बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। राज्य सत्ता की ताक़त की बल पर ये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्तपोषित कुछ प्रकाशनों को रोक सकते है या यहाँ और वहाँ से कुछ शैक्षणिक सामग्री हटाने में 'सफल' हो सकते हें, विभिन्न पदों पर अपने 'विद्वानों' को नियुक्त कर सकते हैं, आदि- आदि।

हालांकि, भगवाधारियों को इस बात की कटाई उम्मीद नहीं थी कि उनके नापाक प्रयास को उनके अपने ही सदस्यों से आलोचना का सामना करना पड़ेगा।

प्रोफ़ेसर एमएल सोंधी, जो भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के पूर्व सदस्य थे और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के प्रमुख थे, ने तब शिक्षा के प्रति अपनी सरकार के दृष्टिकोण की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि देश के प्रमुख अनुसंधान निकायों को "उनके पाठ्यक्रम को मौलिक रूप से बदलने" या "बौद्धिक अंधकारवाद में धकेलने के लिए मजबूर" किया जा रहा था।

जैसा कि अपेक्षित था, भाजपा के इस नापाक कदम ने न केवल इतिहासकारों को बल्कि अन्य सामाजिक विज्ञान के विद्वानों को भी इसके ख़िलाफ़ बोलने के लिए प्रेरित किया। शायद, यह विद्वानों और शिक्षकों के बीच व्यापक एकता का एक प्रतिबिंब था, जो 2004 में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता से बाहर होने और यूपीए की बागडोर संभालने के साथ, इसके प्रमुख एजेंडे में से एक था कि शिक्षा को 'डिटॉक्सिफाइंग' करना है।

वर्ष 2014 में भाजपा की सत्ता में वापसी के साथ, देश को इस 'पुनर्लेखन' इतिहास के दूसरे संस्करण का सामना करना पड़ रहा है।

कोई भी यह कह सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं इस प्रवृत्ति की शुरुआत अनोखे तरीक़े के भाषण से की थी जो कुल मिलाकर पौराणिक कथाओं और इतिहास का कॉकटेल था। मौक़ा था अंबानी फाउंडेशन द्वारा शुरू किए गए एक अस्पताल के उद्घाटन का। उन्होंने वहां एकत्रित डॉक्टरों को ज्ञान देते हुए बताया कि "आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी की कई खोज प्राचीन भारत के लोगों को हासिल थी।" मोदी ने कहा कि पौराणिक हस्ती कर्ण और हिंदू भगवान गणेश, क्रमश: प्रजनन जीनोमिक्स और कॉस्मेटिक सर्जरी की देन हैं जिस तकनीक का इस्तेमाल “हज़ारों साल पहले किया गया था"।

प्रतिष्ठित भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) के अध्यक्ष के रूप में काकतीय विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर वाई सुदर्शन राव की नियुक्ति को इतिहास की उनकी परियोजना के लिए केंद्र में पहली मोदी सरकार द्वारा उठाए गए एक बड़े क़दम के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। अधिकांश इतिहासकारों से अपरिचित, शोध के मामले में जिनका कोई ख़ासा नाम नहीं ही था, उन प्रो राव की नियुक्ति ने शिक्षाविदों में काफ़ी रोष पैदा कर दिया था।

उन्हें इतने ऊंचे पद पर इसलिए बैठाया गया क्योंकि भारतीय महाकाव्यों की ऐतिहासिकता पर उनके कुछ लोकप्रिय लेख प्रकाशित हुए थे जिन्हे किसी भी सहकर्मी-समीक्षित पत्रिका में स्थान नहीं मिला जिनका कि पीएन ओक द्वारा स्थापित भारतीय इतिहसा संकल्प समिति (बीआईएसएस) के साथ उनका लंबा जुड़ाव था। ओक, एक सैनिक और एक लेखक (1917-2007) थे जिन्हें एक फ्रिंज हिंदू-केंद्रित ऐतिहासिक नकारवादी के रूप में वर्णित किया जा सकता है। ओक ने कहा, "आधुनिक धर्मनिरपेक्ष और मार्क्सवादी इतिहासकारों ने भारत के अतीत के "आदर्शित संस्करणों" को गढ़ा है और इसे "वैदिक संदर्भ और सामग्री" से निकाल बाहर कर दिया है। और उन्होंने अपने विचारों पर लेख लिखने, पुस्तकों को प्रकाशित करने और BISS का गठन करके 'स्थानीय इतिहास को इकट्ठा करने' के कार्य की शुरुआत की थी, जो 1980 के दशक में एक पत्रिका भी निकालते थे।

जबकि ओक के अजीब से सिद्धांत थे, जैसे वे कहते हें कि 'ईसाई धर्म और इस्लाम दोनों हिंदू धर्म से पैदा हुए हैं' या 'ताजमहल की तरह, कैथोलिक वेटिकन, काबा, वेस्टमिंस्टर एब्बे कभी शिव भगवान के हिंदू मंदिर थे' या 'वैटिकन मूल रूप से वैदिक रचना है जिसे वाटिका कहा जाता था और कि पोप का पद भी मूल रूप से एक वैदिक पुरोहिताई है, वे भारत में इस्लामी वास्तुकला को पूरी तरह से नकारते हें जिसे मुख्य धारा में कोई समर्थन नहीं मिला और वास्तव में शिक्षाविदों ने भी इसे ख़ारिज कर दिया, लेकिन उन्हे हिंदू दक्षिणपंथी में एक लोकप्रिय अनुसरण मिला जो आज अभी भी एक भव्य सिद्धांत की तलाश में है जो उनके एजेंडा को आगे बढ़ा सके।

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि केंद्र में एनडीए के पहले कार्यकाल के दौरान यह दावा किया गया था कि ताजमहल को एक हिंदू राजा ने बनाया था जिसके इतिहास को फिर से लिखने के लिए ओक ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की थी। शायद, तत्कालीन अनुकूल राजनीतिक माहौल ने उन्हें और अधिक वैधता देने के लिए उकसाया होगा, लेकिन दुख की बात है कि वे ग़लत निकले। सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंड पीठ ने 'ग़लत' भावना के साथ दायर उनकी याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया, कि 'किसी के बोनट में मधुमक्खी है, इसलिए यह याचिका ख़ारिज़ की जाती है'।

कोई भी व्यक्ति ओक के सिद्धांतों की विचित्रता को समझ सकता है, लेकिन मोदी के पहले शासन पर एक सरसरी नज़र यह स्पष्ट करती है कि भगवा पार्टी के विभिन्न नेताओं के बीच ओक के 'सिद्धांतों' को अलग-अलग अवसरों पर प्रतिध्वनित किया गया है, जो उनके विचार को अभी भी मानते हैं।

जैसा कि कोई भी देख सकता है, उनके बड़े नेताओं की तरह जो पौराणिक कथाओं और इतिहास को आसानी से आपस में मिला देते हैं, इस आधार पर भगवा कार्यकर्ता से संवाद करना बड़ा मुश्किल है कि इतिहास लेखन कहानी सुनाने से अलग बात है। राजसत्ता के उपयोग से, वे किसी स्कूल बोर्ड के ज़रीये अपने अहंकार या समुदाय के अनुरूप इतिहास में बदलाव करने के लिए कह सकते हैं, लेकिन उपलब्ध संसाधनों के आधार पर सच्चाई उन्हें परेशान करना जारी रखेगी। उदाहरण के लिए, दो साल पहले, राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर पर महाराणा प्रताप की निर्णायक जीत के बारे में दसवीं कक्षा के सामाजिक विज्ञान की किताबों के इतिहास खंड में बदलाव को मंज़ूरी दी थी। यह अलग बात है कि सभी उपलब्ध स्रोत हमें बताते हैं कि इसके विजेता मुग़ल थे।

अमित शाह यह बात समझने में विफल हैं कि पहले तो किसी को इतिहास लिखने के लिए इतिहासलेखन की समझ होनी चाहिए जो मूल रूप से अतीत को समझने के लिए एक विधि विकसित कर सकता है। इस तरह के किसी भी सिद्धांत के अभाव में, होगा यह कि कोई भी इस तरह के भव्य सिद्धांतों को बॉक्स में बंद कर सकता है।

जेम्स मिल ने लगभग 200 साल पहले ब्रिटिश भारत का इतिहास लिखा थाजिसमें उन्होंने भारतीय इतिहास को तीन कालखंडों हिंदू सभ्यतामुस्लिम सभ्यता और ब्रिटिश काल में बांटा था। इन्हें बड़े पैमाने पर बिना किसी सवाल के स्वीकार कर लिया गया और हम इस दौरान पूरे समय इसी बात के साथ आगे बढ़ते रहे।

जैसा कि लेखक ने पहले ही उल्लेख किया है, "हिंदुत्व संस्करण में यह अवधी बनी हुई हैकेवल रंग बदल गए हैंहिंदू काल स्वर्ण युग हैमुस्लिम काल अंधकारअत्याचार और उत्पीड़न का काला युग हैऔर औपनिवेशिक काल एक धूसर काल है जो पहले दो की तुलना में ग़ैर-महत्व का है।"

क्या हिंदुत्व इस संबंध से इत्तेफ़ाक़ रखता है?

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

History as Storytelling

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