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किसानों को नुक़सान पहुंचाए बिना बाजरे की फ़सल को कैसे दिया जा सकता है बढ़ावा

भारत में बाजरे की खेती में गिरावट आ रही है। यह गिरावट तभी रुकेगी जब कृषि में कॉर्पोरेट का दख़ल बंद होगा।
millet crops
फ़ोटो साभार: Krishi Jagran

संयुक्त राष्ट्र ने भारत सरकार के एक प्रस्ताव को मंजूरी देते हुए वर्ष 2023 को बाजरे की खपत बढ़ाने का अंतर्राष्ट्रीय साल घोषित किया है। हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने पारिस्थितिक और आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा देने में बाजरे की खेती की अपार क्षमता पर विचार किया। एफएओ के महानिदेशक क्यू डोंग्यू के अनुसार, "बाजरा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है और छोटे किसानों को सशक्त बनाने, सतत विकास लक्ष्य हासिल करने, भूख को खत्म करने, जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने, जैव विविधता को बढ़ावा देने और कृषि-खाद्य व्यवस्था को बदलने के हमारे सामूहिक प्रयासों में योगदान दे सकता है।

भारत सरकार, मोटे तौर पर बाजरे के उत्पादन और उसकी खपत को बढ़ाने के लिए अभियान चला रही है। केंद्रीय बजट 2023-24 में बाजरे के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हैदराबाद स्थित भारतीय बाजरा अनुसंधान संस्थान को उत्कृष्टता का केंद्र बनाने की घोषणा की है। हालाँकि, क्या ये वांछित उद्देश्य भारत में बाजरे की खेती की जमीनी हक़ीक़त के अनुरूप हैं? आइए एक नजर डालते हैं।

1950-51 और 1967-68 के बीच पहली तीन पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान भारत में बाजरा या बाजरा की खेती का क्षेत्रफल 9.02 से बढ़कर 12.81 मिलियन हेक्टेयर हो गया था। फिर हरित क्रांति के बाद अपनाई गई प्रचलित नई कृषि रणनीति के बाद से इसमें लगातार गिरावट आई है। इस तथाकथित हरित क्रान्ति के चरण के दौरान, बाजरा 1967-68 में 12.81 मिलियन हेक्टेयर से गिरकर 2020-21 में 7.57 मिलियन हेक्टेयर रह गया।

1950-51 में कुल खाद्यान्न क्षेत्र में बाजरे का हिस्सा 9.3 प्रतिशत होता था। 1967-68 में यह बढ़कर 10.6 प्रतिशत हुआ और फिर 2020-21 में घटकर 5.6 प्रतिशत राग गया। कुल खाद्यान्न उत्पादन में बाजरे का हिस्सा 1950-51 में 5.1 प्रतिशत, 1967-68 में 5.5 प्रतिशत  और 2020-21 में 3.5 प्रतिशत था।

बाजरा का घटता महत्व, अटूट रूप से पारंपरिक खेती के प्रसार से जुड़ा हुआ है, जो सिंथेटिक रासायनिक इनपुट आधारित है। इस तरह की खेती की नई कृषि रणनीति, ग्रामीण अभिजात वर्ग के नेतृत्व के तहत शुरु हुई थी। इसी समय और इसी चरण में, प्रतिकूल पारिस्थितिक परिणामों के कारण चावल और गेहूं आधारित फसल प्रणाली कृषि पर हावी हो गई। चावल और गेहूं का प्रभुत्व मुख्य रूप से हुकूमत की दखल का परिणाम है - हालांकि विशेष रूप से नहीं – बल्कि जमींदार वर्गों, ग्रामीण अभिजात वर्ग, मुख्य रूप से जमींदारों और अमीर किसानों संचित सुविधा के कारण भी ऐसा हुआ। भारतीय कृषि में हुकूमत-सहायता संचय भी आगे बढ़ा है, उदाहरण के लिए, सामग्री इनपुट, सब्सिडी वाले वित्त और फसलों की कम-से-कम सार्वभौमिक सार्वजनिक खरीद पर मूल्य समर्थन जैसे उपायों के माध्यम से भी ऐसा हुआ है। इसका मतलब, यह निर्विवाद है कि कृषि फसल की सार्वजनिक खरीद प्रभावी होने पर किसान अपेक्षाकृत अधिक आय अर्जित करते हैं।

इसलिए, हमें कृषि व्यापार/वाणिज्य में नव-उदारवादी हुकूमत द्वारा अपनाए जाने वाले हथकंडों के प्रकार और पैमाने की सीमाओं को याद रखना चाहिए। ये सीमाएँ मुख्य रूप से कृषि में कॉर्पोरेट दखल को सुलभ बनाने में हुकूमत की प्रतिबद्धता से उत्पन्न होती हैं। नव-उदारवादी हुकूमत इसे "राजकोषीय विवेक" के प्रति प्रतिबद्धता और कॉर्पोरेट संगठन की कथित अधिक दक्षता के रूप में पेश कर सकता है, लेकिन ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधिकारिक अनुमानों में खेती की पूरी लागत शामिल नहीं होती है। कृष में खर्चों की यह उपेक्षा किसानों पर प्रतिकूल रूप से प्रभावित डालती है।

इसके अलावा, यदपि कृषि फसल की सार्वजनिक खरीद स्थानिक रूप से असमान है, लेकिन मुख्य रूप से चुनिंदा फसलों - चावल और गेहूं पर ही केंद्रित है - जो खेती करने वालों को निश्चित फसल प्रणाली में उलझने पर मजबूर करती है। नतीजतन, कृषि पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल परिणाम अपद्ते हैं और अत्यधिक पानी के इस्तेमाल से लेकर सिंथेटिक रसायनों पर निर्भरता बढ़ जाती है और यह सब पारंपरिक खेती के हर आयाम में फैल गया है। 

याद रखें कि बाजरे की तुलना में, चावल की खेती प्रतिकूल जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील है और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में अधिक योगदान देती है। दूसरे शब्दों में, पूंजी के प्रभाव में नीति निर्माण ने कृषि अर्थव्यवस्था और कृषि पारिस्थितिकी के बीच विरोधाभास पैदा कर दिया है। यह डिस्कनेक्ट डायरिगिस्ट (एक ऐसी प्रणाली जिसमें किसी देश की अर्थव्यवस्था पर सरकार का बहुत अधिक नियंत्रण होता है) अवधि में मौजूद था और नव-उदार काल में भी जारी है। 

दूसरे शब्दों में, कॉर्पोरेट कृषि व्यवसाय के साथ बाजरे की खेती को बढ़ाने का प्रयास किसानों और श्रमिकों को और अधिक प्रभावित करेगा। आइए हम इस संबंध में एक उदाहरणात्मक परिदृश्य की जाँच करें। मान लीजिए बाजरे का उत्पादन कॉरपोरेट के निर्देशन में होता है। सार्वजनिक चावल और गेहूं की खरीद में कटौती को "सक्षम" करने की मदद से, कॉर्पोरेट कृषि व्यवसाय निजी तौर पर खरीदे गए बाजरे की कीमतों को कम कर सकते हैं। यह प्रक्रिया किसानों को गरीब बना देगी। 

और यदि कॉर्पोरेट कृषि व्यवसाय अभिजात वर्ग के विशेष इस्तेमाल के लिए बाजरे का पुनर्पैकेज करते हैं, तो चावल और गेहूं की खेती (और उत्पादन) का कृषि का क्षेत्र कम हो जाएगा। निजी बाजार में चावल और गेहूं के दाम बढ़ेंगे। चूंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली मेहनतकश लोगों/गरीबों की भोजन की जरूरत को पूरा नहीं करती है, इसलिए चावल और गेहूं के बाजार मूल्यों में कोई भी वृद्धि श्रमिकों को ही प्रभावित करेगी।

कृषि पारिस्थितिकी और कृषि अर्थशास्त्र के बीच के इस विरोधाभास को दूर करने के लिए चावल और गेहूं के साथ-साथ बाजरा की कृषि-पारिस्थितिक खेती को उचित अनुपात में सार्वजनिक-नेतृत्व वाली प्रक्रिया बनाया जा सकता है। जैसे कि बाजरा अधिक जलवायु अनुकूल होता है और विशेष रूप से चावल और गेहूं के साथ मिश्रित होने पर इसके महत्वपूर्ण स्वास्थ्य लाभ होते हैं।

हालांकि, बाजरे की खेती से, फसल उत्पादन की पारिस्थितिक स्थिरता को बढ़ाने के लिए कई कृषि क्षेत्रों में सार्वजनिक दखल की जरूरत पड़ेगी। इनमें कृषि विस्तार की रूपरेखा तैयार करना, सभी किसानों को सार्वजनिक ऋण देना, कृषि उपज की सार्वजनिक खरीद करना, और इस तरह के अन्य कदम शामिल हैं। किसानों, विस्तार सेवाओं और कृषि ऋण के बीच संबंधों को बढ़ाने की क्षमता मौजूद है। लेकिन उन्हें नव-उदारवादी निज़ाम के तहत कृषि में कॉर्पोरेट अतिक्रमण के सूत्रधार के रूप में अपनी वर्तमान भूमिका से अलग होना होगा। 

कृषि फसल की सार्वजनिक खरीद के संबंध में, बाजरा सहित सभी फसलों (24 आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार) की खरीद के लिए विपणन बुनियादी ढांचे का निर्माण करके इस प्रणाली को बढ़ाने की जरूरत है। इस प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए, सरकार को बाजरे का प्रभावी न्यूनतम समर्थन मूल्य (उदाहरण के लिए) एक स्तर पर निर्धारित करना होगा जो किसान को चावल और गेहूं की तुलना में प्रति एकड़ प्रतिफल प्रदान करेगा। हुकूमत तब ही सार्वजनिक रूप से खरीदे गए बाजरे को, सार्वभौमिक पीडीएस के माध्यम से लोगों को मुहैया करा सकता है।

बाजरा और अन्य फसलों की कृषि-पारिस्थितिक खेती, सार्वजनिक खरीद और वितरण प्रणाली के जरिए मजबूत समर्थन के साथ जलवायु-संगत होगी और भारत में नव-उदारवादी परियोजना को निर्णायक रूप से उलट देगी।

शांतनु डे रॉय डिपार्टमेंट ऑफ़ पॉलिसी, टेरी स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं। सी॰ शरतचंद अर्थशास्त्र विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। व्यक्त किए गए विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

How to Sustainably Boost Millet Crops Without Hurting Peasants

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