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संघ-भाजपा की चुनौती का मुकाबला करने के लिए कितना तैयार है विपक्ष?

यह देखना सचमुच बेहद निराशाजनक है कि विपक्षी दलों का बड़ा हिस्सा 2024 को अन्य चुनावों की तरह, एक सामान्य चुनाव समझ रहा है।
Opposition
फोटो साभार : पीटीआई

आम चुनाव को अभी एक साल से ऊपर बचा है, पर खबरों के अनुसार भाजपा ने 2024 के लिए अपनी रणनीति को अंतिम रूप दे दिया है। हर राज्य/अंचल और समुदाय के लिए अलग और specific रणनीति बनी है, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर विशेष ध्यान भी इसके दायरे में है। इस रणनीति के तहत प्रधानमंत्री की 100 रैलियां होने जा रही हैं, जिनके साथ तमाम योजनाओं का उद्घाटन/लोकार्पण/शिलान्यास आदि होगा। इनका फोकस दक्षिण भारत, उड़ीसा और बंगाल जैसे राज्य होंगे।

ये तो रणनीति के वे चंद पहलू हैं जिनका सार्वजनिक तौर पर खुलासा किया गया है, पर्दे के पीछे की योजनाओं का तो अभी किसी को कोई सुराग ही नहीं है।

इसके बरख़िलाफ़ विपक्ष का क्या हाल है ?

क्या विपक्ष संघ-भाजपा की चुनौती का मुकाबला करने के लिये तैयार है ? क्या वह एकजुट होगा?

अडानी प्रकरण पर लोकसभा में बहस के दौरान मोदी ने भले ही तंज कर दिया कि विपक्ष को ED का आभारी होना चाहिए जिसने उन्हें एक मंच पर ला दिया, पर एक-एक कर सबकी गर्दन तक पहुंचती एजेंसियों के खुले खेल के बावजूद ऐसा लगता है कि विपक्ष के तमाम दल

बेफिक्र हैं और उनके लिए भाजपा की विराट चुनौती से निपटने की बजाय आपस में score settle करने और जागीर बचाने की -मेंड़-डांड़ की लड़ाई प्रमुख बनी हुई है। वे एक साथ बयान तक देने को तैयार नहीं है।

यह देखना सचमुच बेहद निराशाजनक है कि विपक्षी दलों का बड़ा हिस्सा 2024 को अन्य चुनावों की तरह, एक सामान्य चुनाव समझ रहा है।

संघ-भाजपा के 2024 में फिर सत्तारूढ़ होने के हमारे समाज, राष्ट्र और लोकतन्त्र के लिए, हाशिये के तबकों-अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों के लिए निहितार्थ की चिंता उन्हें न भी हो, पर स्वयं अपने अस्तित्व और भविष्य के लिए इसके गम्भीर नतीजों का आंकलन कर पाने में भी वे नाकाम हैं, और एक तरह की death wish या suicidal instinct की गिरफ्त में हैं। इस समझ का ही नतीजा है कि मोदी सरकार को 2024 में हर हाल में सत्ता से बेदखल करने की urgency उनकी प्राथमिकता नहीं है।

बहरहाल, विपक्ष के सामने इतिहास ने आज जो कार्यभार पेश किया है, उसकी भावना को सबसे सटीक शब्दों में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने हाल ही में व्यक्त किया जब उन्होंने अपने जन्मदिन पर आयोजित समारोह में उपस्थित कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे और अखिलेश यादव सहित तमाम विपक्षी नेताओं को सम्बोधित करते हुए कहा," आज मुद्दा यह नहीं है कि 2024 में सरकार कौन बनाएगा, महत्वपूर्ण यह है कि किसको सरकार नहीं बनाने देना है। "

यह तो स्वाभाविक है कि विपक्षी एकता के लिए कोई भी राजनीतिक दल आत्महत्या नहीं करेगा और अपनी सियासी जमीन किसी और दल के लिए नहीं छोड़ेगा। सच तो यह है कि उसकी जरूरत भी नहीं है।

दरअसल विपक्षी एकता को प्रस्थान बिंदु बनाकर सोचने का यह अर्थ है ही नहीं कि कोई दल दूसरे के लिए बलिदान करे और अपना आधार दूसरे को सौंप दे, पर यह जरूर है कि अपनी disproportionate महत्वाकांक्षा के लिए अपनी वास्तविक/ठोस ताकत से इतर सीटों पर अनावश्यक लड़कर भाजपा विरोधी वोटों का विभाजन न करे जिसका फायदा भाजपा को मिल जाय। इस तरह अगर भाजपा विरोधी वोट एकमुश्त किसी एक विपक्षी दल को मिलें और सीटों का politically correct और justiciable बंटवारा हो तो इसमें सभी विपक्षी दलों का फायदा है, सबके लिए win-win situation है और किसी का घाटा नहीं है, सिवाय भाजपा के।

यह साफ है कि भाजपा का मुकाबला आज कोई दल अकेले नहीं कर सकता और आपस में लड़ते हुए सबका पराभव और विनाश तय है, विपक्ष के बिखराव का फायदा केवल और केवल भाजपा को होगा।

जिसके पास भी history का sense है और विश्व स्तर पर फासीवाद के चरित्र की सामान्य समझ भी है, उसे मालूम है कि पूरे समाज और तंत्र पर अपना समग्र ( comprehensive ) वर्चस्व कायम करने की ओर बढ़ते फासीवादी निज़ाम की आक्रामकता का शिकार हर दल/नेता को होना है, कोई बचने वाला नहीं है, बात केवल समय की है। भारत में भी भाजपा के शीर्ष नेता अपने इरादों को समय-समय पर साफ कर चुके हैं। मोदी जी के कांग्रेस मुक्त भारत के संकल्प से लेकर नड्डा द्वारा सारे दलों के खात्मे के ऐलान और अमित शाह के 50 साल तक राज करने के दम्भ तक इसी सच की अभिव्यक्ति हैं।

जाहिर है विपक्ष के पास हमारे गणतंत्र को, और स्वयं अपने को बचाने का 2024 आखिरी मौका है और समय तेजी से निकल रहा है।

कुछ विश्लेषक आज यह बहस चला रहे हैं कि विपक्षी एकता से कुछ नहीं होने वाला है। सन्दर्भ/प्रसंग से काटकर कुछ पुराने अनुभवों का हवाला देते हुए यह धूर्ततापूर्ण विमर्श एजेंडा के तहत चलाया जा रहा है।

यह सच है कि अकेले विपक्षी एकता पर्याप्त नहीं है, लेकिन वह आवश्यक तो है ही।

2019 के चुनाव में UP में सपा बसपा के गठबंधन के बारे में कहा जा रहा है कि वह विफल रहा। पर यह सच नहीं है। सच्चाई यह है कि 2019 के पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक के बाद के असमान्य चुनाव में जहां पूरे देश में भाजपा की सीटें बढ़ गईं, वहीं UP में इस गठबंधन के कारण भाजपा की 9 सीटें कम हो गईं, वह 71 से 62 पर आ गयी, जबकि वह 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए चुनाव जैसा एक असाधारण चुनाव था। यह तर्क भी झूठ है कि सपा बसपा का वोट परस्पर ट्रांसफर नहीं हुआ था। सच्चाई यह है कि गठबंधन का कुल वोट 37% पहुंच गया था, जो करीब करीब उनको उसके पूर्व मिलने वाले वोटों का arithmetic sum था। एक अध्ययन के अनुसार उनके 80% core voter का मत ट्रांसफर हुआ था।

राजनीति वैज्ञानिक Adam Ziegfeld के हवाले से कहा जा रहा है कि 2014 से 2019 में विपक्षी एकता का सूचकांक ( IOU ) 64% से बढ़कर 85% हो गया था, फिर भी भाजपा की सीटें 282 से बढ़कर 302 हो गईं।

पर इसका मतलब यह नहीं है कि विपक्षी एकता का कोई असर नहीं हुआ। दरअसल भाजपा की बढ़त, विपक्षी एकता के सकारात्मक प्रभाव के बावजूद, post-पुलवामा असाधारण परिस्थिति तथा Modi-cult और 2014 से 2019 के बीच भाजपा के सामाजिक आधार के विस्तार जैसे अन्य factors के कारण हुई और अगर विपक्षी एकता न होती तो यह और ज्यादा होती।

ताजा उदाहरण त्रिपुरा का दिया जा रहा है कि वामपंथ-कांग्रेस की एकता हुई, फिर भी भाजपा जीत गयी। दरअसल, वहाँ भी यह बात सामने आ चुकी है कि टिपरा मोथा ( TMP ) के कारण जो भाजपा विरोधी मतों का विभाजन हुआ, उससे भाजपा गठबंधन 10 सीटें घटने के बावजूद न्यूनतम बहुमत पाने में सफल हो गया। इस अनुभव से भी विपक्षी एकता की जरूरत की ही पुष्टि हो रही है।

यह साफ है कि मोदी की पुनर्वापसी को रोकने के लिए विपक्ष की वृहत्तम सम्भव एकता का कोई विकल्प नहीं है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है।

एकताबद्ध विपक्ष को वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रम के माध्यम से मोदी-राज के महाविनाश के खिलाफ राष्ट्र के नवनिर्माण का लोकप्रिय convincing नैरेटिव पेश करना होगा।

सर्वोपरि, अपने वैकल्पिक मॉडल को जनता तक पहुंचाने और उसे मोदी-भाजपा के मोहपाश से अलग कर अपने पक्ष में लामबंद करने के लिए विभिन्न स्तरों पर एकताबद्ध विपक्ष को संयुक्त राष्ट्रव्यापी अभियान/आंदोलन छेड़ना होगा। इसके बिना एकजुट होते दलों की arithmetic को आम जनता की, उनके जनाधार की केमिस्ट्री में बदलना सम्भव नहीं होगा।

जनान्दोलन की ताकतों, सचेत नागरिक समाज, जागृत ( enlightened ) जनसमुदाय तथा विभिन्न दलों के जिम्मेदार कार्यकर्ताओं को 1977 की तरह तमाम विपक्षी दलों पर एकजुटता के लिए भारी दबाव बनाना होगा। 1977 में ऐसे ही माहौल में विपक्ष की अभूतपूर्व एकता बनी थी, जिसने देश में लोकतन्त्र की पुनर्स्थापना की थी। आज एक बार फिर देश में उसके नए संस्करण की जरूरत है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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