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हम भारत के लोगों की असली चुनौती आज़ादी के आंदोलन के सपने को बचाने की है

हम उस ओर बढ़ गए हैं जिधर नहीं जाने की कसम हमने ली थी। हमने तय किया था कि हम एक ऐसा मुल्क बनाएंगे जिसमें मजहब, जाति, लिंग, क्षेत्र, भाषा या विचारधारा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। हमने सोचा था कि हम एक ऐसी जिंदगी जिएंगे जो बराबरी और सादगी पर आधारित होगी...।
Hum bharat ke log

इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि भारत तेजी से बदल रहा है। सवाल उठता है कि यह बदलाव किस ओर है? क्या यह बदलाव उसी दिशा में है जिस ओर आज़ादी के लिए लड़ने वाले हमारे पुरखे और उनके बनाए संविधान हमें ले जाना चाहते थे? इसका जवाब ढूंढना कठिन नहीं है।

हम उस ओर बढ़ गए हैं जिधर नहीं जाने की कसम हमने ली थी। हमने तय किया था कि हम एक ऐसा मुल्क बनाएंगे जिसमें मजहब, जाति, लिंग, क्षेत्र, भाषा या विचारधारा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। हमने सोचा था कि हम एक ऐसी जिंदगी जिएंगे जो बराबरी और सादगी पर आधारित होगी।

हम चाहते थे कि हम एक ऐसा देश बनाएं जहां बोलने की आज़ादी होगी। हमारा संकल्प था कि हम मजबूत बनेंगे लेकिन दुनिया में शांति के लिए काम करेंगे और युद्ध तथा हिंसा के खिलाफ आवाज उठाएंगे। क्या आज की हमारी राजनीति या सत्ता हमारे इन लक्ष्यों के लिए काम कर रही है? सच्चाई यह है कि हमारा देश न केवल इन मूल्यों के खिलाफ काम कर रहा है बल्कि इन मूल्यों की जगह गैर-बराबरी, बोलने पर पाबंदी, हिंसा तथा नफरत के मूल्यों को स्थापित करने में लगा है।

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हम देख चुके हैं कि कथित धर्म-संसदों में अल्पसंख्यकों के नरसंहार की किस तरह खुलेआम अपील की गई और गांधी जी का अपमान करने वाले बयान दिए गए। हरिद्वार की धर्म-ससंद के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाने वाली अन्नपूर्णा भारती तो पहले भी गांधी जी की प्रतिमा को गोली मारने का नाटक करने और गोडसे की महिमा गाने के लिए चर्चा में रही हैं। गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडन की ऐसी कोशिशें लगातार तेज होती जा रही हैं। जाहिर है कि यह सांप्रदायिक कट्टरपंथ को मान्यता दिलाने के लिए हो रहा है। लेकिन बात इतनी सी नहीं है। गांधी जी को हिंदू-हितों का विरोधी बताने का प्रयास सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता को स्थापित करने  के लिए नहीं है।

गांधी जी सिर्फ सेकुलरिज्म के प्रतीक नहीं हैं। वह उन सपनों के प्रतीक हैं जिन्हें आाजदी के आंदोलन में भाग लेने वाले भारतीयों ने सामूहिक रूप से देखा था और जिसे डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान के रूप में एक मुकम्मल शक्ल दी। इसे जवाहर लाल नेहरू ने अमली जामा पहनाने का प्रयास किया-एक स्वालंबी, सभी की बराबर मानने वाला लोकतांत्रिक देश। इसे आकार देने में सरहदी गांधी, जेपी, लोहिया, नंबूदरीपाद, अरूणा आसफ अली जैसे अनगिनत लोगों का त्याग और समर्पण है। इस सपने को गढ़ने के लिए शहीदे-आजम भगत सिंह और नेताजी सुभाष समेत अनेक लोगों ने अपनी जान दी। इसी सपने की रक्षा करते हुए गांधी जी ने भी गोली खाई।

साफ है कि गोडसे को जिंदा करने की कोशिश सिर्फ सांप्रदायिकता का उभार नहीं है। यह आज़ादी के आंदोलन के सपने को नष्ट करने की कोशिश है। असल में, हिंदुत्व एक मुखौटा है जिसकी आड़ में सामाजिक और आर्थिक रूप से दबंग जातिवादी, सांप्रदायिक और कारपोरेट ताकतें देश पर स्थाई कब्जा जमाना चाहती हैं।

पिछले सात सालों में मॉब लिंचिंग, संशोधित नागरिकता कानून या लव जिहाद कानून के जरिए मुसलमानों को दूसरे दर्जे के नागरिक में बदल दिया गया है। यह सिर्फ मुसलमानों के साथ नहीं हो रहा है। दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढी हैं। किसानों ने साल भर की लड़ाई के बाद भले ही खेती को कारपोरेट के हाथों में सौंपने वाले तीन कानूनों को वापस करा लिया है, उनकी बदहाली को रोकने वाला कोई ठोस कदम सरकार ने नहीं उठाया है और आज किसान वहीं खड़े हैं जहां तीन कानूनों के आने के पहले खड़े थे। एक तरह से सरकार ने उन्हें अपना हक पाने के रास्ते में  बीच में कहीं रोक रखा है।

असल में, देश के हर तबके- अल्पसंख्यकों, दलितों, किसानों, मजदूरों-को उनके अधिकारों से दूर रखने की तकनीक मोदी सरकार ने विकसित कर ली है। हाल में महिलाओं की नीलामी की खबर चर्चा में थी। यह औरतों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश का ही हिस्सा है।

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गोडसे को जिंदा करने की कोशिशों के पीछे के असली उद्देश्यों को ठीक से समझने की जरूरत है। यह केवल सांप्रदायिकता बनाम सेकुलरिज्म की लड़ाई नहीं है। देश पर हिंदुत्व के बढते साये में कई ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं जिन पर हमारी नजर नहीं जा रही है या हम उसे देख कर भी नजरअंदाज कर रहे हैं। देश को एक सामजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विघटन की ओर धकेला जा रहा है। इसकी झलक हमें बिहार जैसे पिछड़े इलाके में बड़ पैमाने पर हो रहे विस्थापन में मिलती है। इस विस्थापन की एक तस्वीर हमने कोरोना की पहली लहर में देखी थी जब प्रवासी मजदूर अपने उसी गांव की ओर लौट रहे थे जो उन्हें बेराजगारी और भुखमरी के अलावा कुछ भी नहीं दे सकता है। वे लौट तो आए, लेकिन कोरोना-लहर में ही उन्हे फिर से गांव छोड़ना पड़ा क्योंकि यहां उनके लिए कुछ नहीं था। भले ही मीडिया ने सडक पर पैदल चल रहे लोगंों के दृश्य को सिनेमाई इवेंट में बदल दिया,  इसने आर्थिक-सुरक्षा के नाम पर किए जा रहे सरकारी दावों की कलई खोल दी। मीडिया या समाजशास्त्रियों ने शहर से गांव या गांव से शहर के इस चक्कर की गहराई में जाने का कोई प्रयास नहीं किया।

बिहार के विस्थापन के चक्र को समझे बगैर हम यह नहीं जान सकते कि देश क्यों और किस तरह रसातल में जा रहा है। बिहार में विस्थापन नीचे  लेकर ऊपर तक के वर्ग में फैला है। लोगों का पलायन इसी व्यापक विस्थापन का नतीजा है। इस विस्थापन को हम दशहरा, छठ या होली जैसे त्योहारों के समय देख सकते हैं जब हम बिहार के चार लेन वाले महामार्गां से उतर कर शहर तथा गांवों की ओर जाने वाली सड़कों पर आते हैं। इसमें अलग-अलग राज्यों की नंबरप्लेट वाली गाड़ियां दौड़ती दिखाई देती हैं। राज्य में लोकप्रिय भोजपुरी गानों में अधिकतर विस्थापन के इसी दर्द को अभिव्यक्त करते हैं। इनमें आपको महानगर में मिल रही यातनाओें की कहानी मिलती है। बिहार सरकार भी विकास के नाम पर एक ही काम कर रही है। वह वर्ल्ड बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक के कर्ज से चल रही सड़क-परियोजनाओं को तेजी से लागू कर रही है। राज्य का हर आदमी जानता है कि इसमें नेताओं और अधिकारियों को मोटा कमीशन मिलता है। बिहार की राजनीति असल में ठेकेदार चलाते हैं। लेकिन इस बदहाली को ढंकने के लिए सांप्रदायिकता चादर का काम कर रही है।

दशहरे के विसर्जन में पहले किसी ने भगवा झंडों का लहराना नहीं देखा था। लेकिन यह धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है। ये भगवा झंडे बेरोजगारी, गरीबी तथा भुखमरी को आसानी से ढंक लेते हैं।

बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी तथा कुपोषण से बचने के लिए बिहारी देश के हर हिस्से की ओर भागता मिलता है। महाराष्ट्र तथा गुजरात में उसकी पिटाई होती हैं, उत्तर पूर्वी राज्यों और कश्मीर में उस पर गोलियां बरसाई जाती है। लेकिन पलायन से बीमार इस राज्य में  मॉल तथा बाजार की नई संस्कृति को फैलते देखना दिलचस्प है। कस्बों के छोटे-छोटे बाजारों में पार्क एवेन्यू तथा लेविस के शोरूम हैं। यही नहीं,  राज्य के प्रमुख कस्बों में जावेद हबीब के सैलून खुल गए हैं। यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ब्रांड आधारित बाजार व्यवस्था इस राज्य के बचे-खुचे रोजगार को किस तरह निगल जाएगी। इस ब्रांड आधारित बाजार को भ्रष्ट अफसर, नेता और ठेकेदार विकसित कर रहे हैं। इसी बाजार के जरिए राज्य की अतिरिक्त कमाई देशी-विदेशी पूंजीपतियों की जेब में जा रही है।  

बिहार आजाद भारत की पतनशील अर्थव्यवस्था राजनीति और संस्कृति का असानी से नजर आने वाला नमूना है। देश के बाकी हिस्से भी कमोबेश इसी तरह की स्थितियों की ओर बढ रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में हम देख रहे हैं कि किस तरह अयोध्या तथा काशी विश्वनाथ की गलियों में जनता को उलझा कर रखा जा रहा है। कोरोना काल में गंगा में तैरती लाशों तथ रेत में  दफन मृत शरीरों ने वहां की स्वास्थ्य-व्यवस्था से लेकर गरीबी से पस्त गांव-देहातों की हालत उघाड़ कर रख दी।

हाल में सामने आए अमीरी-गरीबी के आंकड़ों ने जाहिर किया है कि किस तरह अमीरों की संपत्ति लगातार बढती जा रही है और देश में खरबपतियों की संख्या 142 हो चुकी है। वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट (विश्व असमानता रिपोर्ट 2022) के आंकडे बताते हैं कि राष्ट्रीय आमदनी का 22 प्रतिशत हिस्सा ऊपर के एक प्रतिशत लोगों की जेब में चला जाता है। इसी तरह ऊपर के दस प्रतिशत राष्ट्र की आमदनी का 57 प्रतिशत हिस्सा अपनी जेब में डाल लेते हैं। देश के आधी आबादी को इस आमदनी के सिर्फ 13 प्रतिशत से संतोष करना पड़ता है। महामारी में भी अमीरों की आमदनी और संपत्ति बेइंतहा बढी। लेकिन गरीबों की आमदनी और संपत्ति एकदम घट गई। इसका मतलब साफ है कि अर्थव्यवस्था अमीरों की सुरक्षा का पूरा ख्याल रखती है, गरीबों को मरने के लिए छोड़ देती है।  

अमीरों की संपत्ति और आमदनी बढने का खेल आप तभी समझ सकते हैं जब आप ब्रांड आधारित बाजार को समझेंगे। आज मसाला और हल्दी बेचेने का काम टाटा जैसी बड़ी कंपनियां कर रही हैं। उनकी हल्दी बिकेगी तो स्थानीय स्तर पर मसाला कूटने वालों के  रोजगार का क्या होगा? किसी ने यह जहमत उठाई कि मसाला कूटने के व्यापार से होने वाली आमदनी का कितना हिस्सा बड़ी कंपनियों की जेब में जा रहा है?

ब्रांड आधारित कपड़े और खाने सिर्फ अमीरों को अमीर नहीं करते बल्कि एक संस्कृति भी बनाते हैं जो जड़ों से कटी है। जड़ों से कटे लोग वह सूचनाओं के लिए भी व्हाट्सऐप तथा फेसबुक जैसे सोशल मीडिया ब्रांडों पर निर्भर करते हैं। वहीं से उन्हें नफरत का जहर मिलता है। इसके लिए कारपोरेट समर्थक राजनीतिक संगठन हैं। भारत में इन संगठनों का अगुआ भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस हैं। कारपोरेट चंदे का बड़ा हिस्सा उनके ही पास जा रहा है। वह इसे आईटी सेल तथा अपने दूसरे नेटवर्क के जरिए लोगों में नफरत फैलाने के लिए कर रहा है। यह आज़ादी के इतिहास तथा भक्ति आंदोलन से लेकर सूफी मत के असर में गढी गई सोच को मिटाने में लगा है।

इस तरह असमानता और बदहाली से लोगों का ध्यान अलग रखने के लिए एक पूरा नेटवर्क विकसित हो चुका है। क्या बाजार का यह नेटवर्क स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के उस सपने को मार देगा जिसे हमने सदियों की कुर्बानी से सींचा है? हम भारत के लोगों के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है कि इस सपने को किस तरह बचाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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