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भारत
राजनीति
लेफ्ट ही हो सकता है एक मात्र विकल्प : सौमित्र चटर्जी
मैं यह देख कर चकित हूं कि 2002 के भयानक दंगों के दौरान गुजरात की गद्दी पर बैठा शख्स अब देश की गद्दी पर बैठा है। ऐसा लग रहा है कि लोगों को अपने सामने मजबूत विकल्प नहीं दिख रहा है या फिर वे इस तरह की जहरीली राजनीति को समझ नहीं पा रहे हैं।
सौमित्र चटर्जी
20 Nov 2020
Soumitra Chatterjee
Soumitra Chatterjee. | Image Courtesy: Pinterest

आजकल अक्सर मुझे अपने बचपन के दोस्त वेणु की याद आ जाती है। संकट के इस दौर में उसका चेहरा बार-बार मेरी आंखों का सामने नाचने लगता है। कृष्णानगर में हम आसपास ही रहते थे। वेणु मतलब वेणु रहमान। वह मेरे फजलू काका का लड़का जो ठहरा। वेणु हिंदुओं से भी ज्यादा हिंदू था। हिंदुओं के तमाम रीति-रिवाजों और कर्मकांडों को मानने वाला। हिंदुओं के आचार-विचारों में वह इतना डूबा रहता था कि मैं खीज जाता था। इसके बाद भी वह कहता कि '' पुलु कुछ नियम-धर्म तू भी कर ले''। लेकिन मैं उसे हमेशा डांट कर चुप करा देता था।

आजकल मैं अक्सर रूपचंद जेठू (रूपचंद तापदार) के बारे में भी सोचता हूं। एक बार पूजा की छुट्टियों में जब घर गया था तो उनसे मिल नहीं पाया था। लेकिन जब उन्होंने मुझे देखा तो ऐसी झाड़ पिलाई कि पूछिये मत। रूपचंद जेठू ईसाई थे।

तो, भाइयों ऐसी दुनिया थी, जिसमें हम रहते थे।

जब बड़े-बुजुर्ग हमारे घर आते तो मैं उनके पांव छूता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वे हिंदू हैं, मुस्लिम हैं या ईसाई। हां, मैंने बचपन में 'सांप्रदायिकता' शब्द सुना था। लेकिन मेरे दिमाग में इसकी कोई तस्वीर नहीं थी। आखिर क्यों? क्योंकि, जो माहौल था, उसमें इस शब्द की जगह नहीं थी। 1946 में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों का नदिया जिले पर कोई  असर नहीं पड़ा था। और न ही कृष्णानगर में इसकी कोई छाप थी। लेकिन आज हम जहां पहुंचे हैं, उसे देख कर मायूसी होती है। जिस देश को मैं जानता हूं वहां यह कैसा अंधेरा छाया है? क्या मैं इस अंधेरे से कभी निकल भी पाऊंगा? पता नहीं, मैं उस देश को फिर कभी देख भी पाऊं या नहीं, जिसे मैं इतने वर्षों से जानता आया हूं।

सन् 1946 में मैं काफी छोटा था। मेरी उम्र इतनी तो नहीं ही थी कि अपने आसपास हो रही चीजों के बारे में समझ सकूं। यहां तक कि जब कॉलेज पहुंचा तो भी हम लोगों के बीच हिंदू-मुस्लिम का कोई भेद नहीं था। एक सवाल मुझे हमेशा परेशान करता आया था कि आखिरकार ज्यादातर मुस्लिम जिन्ना के पाकिस्तान के आह्वान की ओर क्यों आकर्षित हुए। एक वजह हो सकती है, उस वक्त ज्यादातर जमींदार हिंदू और रैयत मु्स्लिम थी। वे शोषण के शिकार थे।  शायद उन्होंने सोचा होगा कि पाकिस्तान बन जाएगा तो इस शोषण से मुक्ति मिलेगी। पाकिस्तान में हिंदू शासन या हिंदुओं के हाथ शोषण की कोई जगह नहीं होगी। बाद में साबित हुआ कि यह सोच कितनी गलत थी। उन्हें आजादी की एक और लड़ाई लड़नी पड़ी। 1971 में बांग्लादेश का जन्म  हुआ।

ये देखकर मुझे आश्चर्य होता है कि पूर्वी बंगाल से आए हजारों शरणार्थियों के मन में मुस्लिमों के खिलाफ गुस्सा है। लेकिन इधर के बंगाल के लोगों के मन में मुसलमानों के प्रति वहां से आए लोगों से ज्यादा गुस्सा है। पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थियों के मन में जो गुस्सा है उससे ऐसा लगता कि उनके दिल को चोट पहुंची है। लेकिन इस दिल में उधर के लोगों के प्रति प्रेम भी दिखता है। आखिर वे साथ-साथ जो रहते थे। साथ रहने से जो नजदीकी आती है, वो भाव दिख जाता है। जिस तरह मुस्लिमों की ओर से उन पर हमले के उदाहरण हैं वैसे ही वाकये उनकी ओर से उन्हें बचाए जाने के भी हैं। तो, उधर से जो लोग इधर आए उनके मन में यह मिलाजुला भाव रहा है। लेकिन मौजूदा पीढ़ी, जिसके सामने ऐसा कोई अनुभव नहीं है और जिसने सिर्फ इस हिंसा के बारे में सुना है, वह अपने पुरखों की तुलना में ज्यादा आक्रामक लगती है। या फिर हो सकता है कि यह आक्रामकता गढ़ी जा रही हो। 

हमारे घर की दुर्गा पूजा में कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। हमारे घर वालों के मन में तो एक तरह से धर्म विरोधी भावनाएं ही रही थीं। हमारे सारे पड़ोसी, चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हों हमारे घर आते थे और उत्सव का हिस्सा बनते थे। लेकिन ज्यादातर मुस्लिम ही हिंदुओं को घरों में जाते थे। इसकी तुलना में मुस्लिमों के घर जाने वाले हिंदुओं की संख्या कम थी। इस तरह देखें, तो हिंदू ज्यादा सांप्रदायिक थे। अब हमें इस सांप्रदायिक भावना की अति देखने को मिल रही है।

मैं यह देख कर चकित हूं कि 2002 के भयानक दंगों के दौरान गुजरात की गद्दी पर बैठा शख्स अब देश की गद्दी पर बैठा है। लोग उसे और उसकी पार्टी को बर्दाश्त कर रहे हैं। वे दोबारा चुने जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि लोगों  को अपने सामने मजबूत विकल्प नहीं दिख रहा है या फिर वे इस तरह की जहरीली राजनीति को समझ नहीं पा रहे हैं।

कोविड-19 के इस दौर में कई लोग संक्रमण के शिकार हो रहे हैं। कई लोगों की मौत हो रही है। एक शब्द में कहूं तो इसका सामना मुश्किल हो रहा है। लेकिन इन सबके बीच भी राम के नाम पर राजनीति हो रही है।

सबसे मजेदार बात यह है जिस राम के नाम पर वे मंदिर बनाने की बात कर रहे हैं, उन्हें हम बचपन से जानते आए हैं। सैकड़ों-हजारों साल से लोग राम को प्रेम और प्रेरणा से देखते आए हैं। आप यह बताइए कि जो राम अपने पिता को दिए वचन का पालन करने के लिए जंगल चले गए क्या वह मंदिर में रहना पसंद करेंगे? इसमें कोई शक नहीं अपने पिता का वचन का पालन करना,  जंगल में रहना, ये सब कहानियां हैं। लेकिन इन कहानियों के जरिये हमारे मूल्यों ने शक्ल ली है। ये हमारे मूल्यों का प्रतीक बन गई हैं। लेकिन अब हम अपनी संस्कृति को विदाई देने में लगे हैं।

आज के दौर में अगर कोई विकल्प बन सकता है तो वह है लेफ्ट? लेकिन उनकी दृढ़ता कहां चली गई है? क्या वे लोगों की दिल में भरोसा पैदा कर पा रहे हैं? जब मेरे सामने ये सवाल आते हैं तो मायूस हो जाता हूं। पता नहीं यह देश कहां जाकर रुकेगा। पूरी दुनिया में दक्षिणपंथ की ताकत मजबूत हो रही है। अपने आसपास मैं कई तरह के अन्याय होते देख रहा हूं। बगैर अधिकारियों की अनदेखी के यह सब नहीं हो सकता। मेरा सवाल यह है कि यह सब कैसे ठीक होगा?

दुनिया के हर देश में लोगों पर धर्म का कुछ न कुछ प्रभाव है। लेकिन भारत, पाकिस्तान और सऊदी अरब में धार्मिक कट्टरता चरम पर है। सऊदी अरब में किसी को यह समझाना मुश्किल है कि मुस्लिम होना ही जीवन में सबकुछ नहीं है। इसी तरह भारत में कुछ ही लोगों को समझाया जा सकता है कि सेक्यूलरिज्म क्या है? ज्यादातर लोग इसे समझना नहीं चाहते। चूंकि राम यहां लोगों की भावनाओं से जुड़े हैं, उनके साथ उनके प्रेम का नाता है इसलिए हिंदुत्ववादी ताकतें उनका इस्तेमाल कर अपना सांप्रदायिक एजेंडा पूरा करना चाहती हैं। वे सोचते हैं कि अगर राम का इस्तेमाल राजनीतिक मकसद से किया जाए तो कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा। क्योंकि बहुसंख्यक लोग यह सोचते हैं कि राम उनके हैं। 1992 में जब बाबरी मस्जिद संगठित तरीके से तोड़ दी गई, उस समय वे राजनीतिक पार्टियां कहां थीं जो इसके विध्वंसकों को रोक सकती थीं? मैं यह सवाल लगातार पूछता रहूंगा। केवल मस्जिद विध्वंस के खिलाफ बोलना काफी नहीं है। क्या वे लोग मस्जिद विध्वंस करने के खिलाफ खड़े लोगों को अपने झंडे के नीचे ला पाए हैं?

भारत की सही तस्वीर हमें अपने स्कूल कि किताबों में दिखाई गई है। कई लोग आज के भारत और हिटलर के जर्मनी में समानता देख रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि ऐसी तुलना हो ही नहीं सकती। कम से कम उस समय जर्मनी एक औद्योगिक देश था जबकि हम पर कारोबारियों का शासन है। आखिर दोनों देशों में तुलना हो भी कैसे  सकती है? वे पूरी दुनिया को जीतना चाहते थे ताकि अपने सामान बेच सकें। लेकिन उनके काम इतने घृणित थे कि दुनिया के लोगों ने उन्हें नकार दिया। अपने देश में भी आज गो सेवक और गो रक्षक हैं। सुन रहा हूं कि गो मूत्र से कोविड का इलाज हो सकता है। अगर थाली पीटें और मोमबत्ती जलाएं तो वायरस गायब हो सकता है। यह दावा भी सुन रहा हूं कि भारत अब महान और शक्तिशाली देश है!

देश में फिलहाल चीन विरोधी माहौल दिख रहा है। तो क्या वे चीन के खिलाफ युद्ध लड़ेंगे? क्या अमेरिका या किसी दूसरी देश की मदद के बगैर उनमें चीन से युद्ध करने की ताकत है।

चीनी सामान के बहिष्कार हमारी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर डाल रहा है। अगर हम चीनी सामान का बहिष्कार करते हैं तो हमें अमेरिकी सामान का भी बहिष्कार करना चाहिए। मेरा मानना है कि चीन इस पूरे मामले को ज्यादा संयमित तरीके से देख रहा है।

कांग्रेस ने इस देश पर 60 साल तक शासन किया। कांग्रेस के कई नेता दक्षिणपंथी हैं। खुले तौर पर तो वे अपना दक्षिणपंथी रुख जाहिर नहीं करते लेकिन छिपे तौर पर वे दक्षिणपंथी ही हैं। समय आ गया है कि अब हम अपने इतिहास को नजदीक से देखें। मेरे ख्याल से वामपंथियों ने भी इतिहास का जो मू्ल्यांकन किया है, उनमें दरारें हैं। हमारे गांधीजी से कुछ मतभेद रहे हैं और अभी भी हैं। लेकिन हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि उनकी राजनीति में ईमानदारी थी। आजकल के राजनीतिक नेताओं में कितनों के पास ऐसी ईमानदारी है? हमें नए सिरे से सोचने की जरूरत है। वामपंथी तब कह सकते थे कि गांधी जी स्वतंत्रता संग्राम के नेता हैं। लेकिन हमारे अपने मतभेद हैं। कम से कम इतनी जगह तो होनी चाहिए कि हम यह बात कह सकें? गांधी जी ने धर्म निरपेक्षता के सवाल पर कोई समझौता नहीं किया? एक पक्का हिंदू होने के बावजूद यह कोई नहीं कह सकता कि वह कभी भी मुस्लिम विरोधी गतिविधियों में शामिल रहे। भारत को हम इसी तरह जानते हैं। इस संदर्भ में हमें जवाहरलाल नेहरू का भी जिक्र करना होगा। उनके वक्त में कई चीजों पर हताशा दिखती है लेकिन इस बात को स्वीकार करना होगा उन्होंने भी कभी धर्म निरपेक्षता के सवाल पर समझौता नहीं किया। मेरा मानना है कि सुभाष बोस से ज्यादा सेक्यूलर और कोई नहीं था। आईएनए के गठन और इसके काम से यह बात साफ हो जाती है। और फिर सुभाष बोस के लिए सबसे महान भारतीय गांधी के सिवा और कोई नहीं थे।

मेरा मानना है कि भारत में जिस तरह से शास्त्रीय संगीत को तवज्जो मिलना कम हो रहा है वह एक बड़ा नुकसान बनता जा रहा है। शास्त्रीय संगीत को गाने वाले या इस परंपरा का पालन करने वाले हिंदू भी हैं और मुसलमान भी। अपनी निजी जिंदगी में वो हिंदू और मुसलमान हो सकते हैं लेकिन वे सभी कलाकार हैं। मुझे एक वाकया याद आ रहा है- भास्कर बुआ नाम के एक मराठी ब्राह्मण हुआ करते थे। शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए वह आगरा गए। उनके दिग्गज उस्ताद आगरा में ही रहते थे। बुआ उनके शिष्य बन गए। एक साल तक उस्ताद ने उनसे सिर्फ घड़े में पानी भरवाया। उस्ताद ने देखा कि आखिर संगीत में उनका कितना दिल है। उनके धैर्य और सहनशीलता की परीक्षा ली गई। आखिर गुरु ने उन्हें दीक्षा दी। गुरुओं के यहां पहले दीक्षा दी जाती है। फिर शिक्षा शुरू होती है और आखिर में परीक्षा ली जाती है।

बहरहाल, बुआ वहां एक साल तक घड़े में पानी भरते रहे। इस दौरान उस्ताद ने एक बार भी नहीं कहा कि चलो अब सीखाना शुरू करते हैं, या फलां दिन से सिखाना शुरू करूंगा। एक दिन बुआ जमीन बुहार रहे थे। तभी उस्ताद ने कहा कि आज गोश्त खाने का मन कर रहा है। बाजार जाकर खरीद लाओ। बुआ रोने लगे- आखिर एक मराठी ब्राह्मण लड़का कैसे गोश्त खरीदेगा। अगर किसी ने देख लिया तो बड़ा बुरा होगा। यह देख कर उस्ताद ने कहा, " तुम एक छोटा सा काम नहीं कर सकते? घर जाओ। तुम्हें संगीत सीखने की कोई जरूरत नहीं है। कोई चारा न देख कर बुआ गोश्त खरीदने चल पड़े। जब गोश्त लाकर गुरु के चरणों के पास रखा तो उन्होंने कहा- तु्म्हें इसे पकाना भी पड़ेगा। बुआ रोते-रोते इसे पकाते रहे। उनकी स्थिति इतनी खराब हो गई कि वे अंगीठी में भी गिर सकते थे। उसी दिन उस्ताद न कहा- कल से मैं तुम्हें सिखाना शुरू कर दूंगा।

मैं बता नहीं सकता कि जब बीफ के सवाल पर ड्रामा देखता हूं तो कितना गुस्सा आता है। आपको इतने सस्ते में इतना हाई प्रोटीन कहां से मिलेगा। दुनिया भर में लोग बीफ खाते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि कोई भी यह फैसला करने वाला कौन होता है कि हम क्या खाएं, क्या न खाएं? एक हिंदू बीफ खाने का विरोध कर सकता है? लेकिन दूसरों को बीफ खाने से रोकने का क्या मतलब बनता है? हमारे गिरने का स्तर यहां तक पहुंच गया है कि हम लोगों की खान-पान की आदतों को लेकर फतवे जारी कर रहे हैं। बीफ खाने को लेकर मुस्लिमों की हत्या हो रही है। इससे पहले भारत में ऐसा होते कभी नहीं देखा था। ऐसे वक्त में हमें यह सब देखना पड़ रहा है कि जब हमारी किताबें बता रही हैं यह देश किस जमीन पर खड़ा हुआ है।

जब से मोदी ने अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया है तब से टैगोर की एक कविता 'दीनोदान' की चर्चा है। मैं सोशल मीडिया पर ज्यादा सहज नहीं हूं लेकिन मैंने इसे दूसरों से सुना है। उनकी कविता का जो भाव है, मौजूदा परिस्थिति में ऐसा ही दिख रहा है। रवींद्रनाथ हमेशा सामयिक रहे हैं। मेरा मानना है कि अगर रवींद्रनाथ जमींदार परिवार में नहीं जन्मे होते और अपनी जमींदारी के काम के सिलसिले में उन्होंने गांवों का दौरा नहीं किया होता तो वे रवींद्रनाथ नहीं बन पाते। उनकी प्रासंगिकता समय को नहीं लांघ पाती। ऐसा नहीं होता तो बंगाल के लोगों से जिस तरह उन्होंने प्रेम किया वैसा नहीं कर पाते। जब वे सिलायदाहा पहुंचे तो उनकी आंखें खुल गईं। अगर वे शहर में ही रह जाते तो शायद ही अपने देश को समझ पाते। इस देश की जमीन और जल को महसूस करना उनके लिए मुश्किल होता। ब्रह्ममो होने की वजह से धर्म के बारे में उनकी विचाराधारा रुढ़िवादी नहीं रही। हिंदुओं से उनके कई मतभेद रहे। निश्चित तौर पर उन पर अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव रहा। यह भी सही है कि उन्होंने इटली जाकर मुसोलिनी से मुलाकात की लेकिन जब रोम्यां रोला ने इस ओर उनका ध्यान दिलाया तो उन्होंने गलती भी मानी।

मैं यहां विद्यासागर का भी जिक्र करूंगा। संस्कृत के प्रकांड पंडित होकर भी उन्होंने अंग्रेजी पढ़ाने पर बहुत जोर दिया। उनका मानना था वेद और वेदांत के बजाय बेकन का दर्शन पढ़ाना ज्यादा अहम है।

कुल मिलाकर, मैं यही कहना चाहता हूं कि कट्टरता और रुढ़िवाद को बढ़ावा देने के लिए बड़ी चालाकी से धर्म और राजनीति का घालमेल किया जा रहा है। मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि कौन राम को मानता और कौन रहीम को। इसिलिए एक बार मैं यह फिर कहता हूं कि इस पूरे माहौल में लेफ्ट ही एक मात्र विकल्प है।

लेखक सौमित्र चटर्जी बांग्ला फिल्मों के महान अभिनेता और कवि-निबंधकार रहे हैं। इसी 15 नवंबर, 2020 को कोलकाता में उनका निधन हो गया।  

यह लेख मूल रूप से 'गणशक्ति' में प्रकाशित हुआ। यहां इसके संपादित अंश दिए गए हैं। इसे अंग्रेजी में पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें.

‘I Still Believe the Left Can be the Alternative’: Soumitra Chatterjee

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